सोमवार, 6 जनवरी 2025

आक्रांता और लुटेरा ही था गजनवी

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने महमूद गजनवी को बताया लुटेरा

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने महमूद गजनवी को आक्रमणकारी और डाकू-लुटेरा बताकर खलबली मचा दी है। आसिफ ने समाचार चैनल को दिए साक्षात्कार में कहा है कि “महमूद गजनवी आता था और लूटमार करके वापस चला जाता था। हालांकि, हमारे यहाँ उसे हीरो के तौर पर चित्रित किया जाता है, लेकिन मैं उसे हीरो नहीं मानता”। उनके बयान को पाकिस्तान में ‘एंटी पाकिस्तान’ कहा जा रहा है। पाकिस्तान के दूसरे बड़े नेता रक्षा मंत्री के बयान को ‘भारतीय सोच’ बता रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान महमूद गजनवी को अपना आदर्श मानता है। यहाँ तक कि पाकिस्तान ने अपनी मिसाइलों को गजनवी का नाम दिया है। हालांकि, रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ का कहना बिल्कुल ठीक है क्योंकि जिस समय महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण किया और यहाँ लूट-मार की थी, तब पाकिस्तान नाम का अस्तित्व ही नहीं था। भले ही पाकिस्तान इतिहास को झुठलाए लेकिन यह सत्य है कि भारत और पाकिस्तान का साझा इतिहास है। वह इतिहास बताता है कि पाकिस्तान के लिए भी महमूद गजनवी एक लुटेरा ही था। 

दुर्भाग्य की बात यह है कि जिस सच को पाकिस्तान के रक्षा मंत्री आसिफ ने स्वीकार कर लिया है, उसे भारत में बैठे कई लोग स्वीकार नहीं करते हैं। भारत पर हमला करनेवाले महमूद गजनवी और चंगेज खान से लेकर बाबर तक को यदि आक्रांता कहा जाता है तब यहाँ भी अनेक सेकुलर नेता एवं बुद्धिजीवी उनके वकील बनकर खड़े हो जाते हैं। ऐसे लोग लुटेरों को लुटेरा कहे जाने से इतने अधिक आहत हो जाते हैं कि वैचारिक हिंसा पर उतर आते हैं। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में अनेक स्थान ऐसे ही बर्बर लुटेरे एवं आक्रांताओं के नाम से पहचाने जाते हैं। जब वर्तमान मोदी सरकार आक्रांताओं के निशानों को मिटाने का प्रयत्न करती है, तब यही सेकुलर ब्रिगेड हो-हल्ला मचाती है। सोचिए, जिस बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को नष्ट करने का भयंकर अपराध किया, उसके नाम पर हमारे यहाँ रेलवे स्टेशन है। जिस बाबर ने भारत में कत्लोगारत की, उसके नाम से एक समय तक तथाकथित बाबरी ढांचा था, जिसे मस्जिद बताकर एक बड़ा वर्ग उसके साथ खड़ा होता था।

आक्रांताओं के संबंध में पाकिस्तान के रक्षा मंत्री की सोच स्पष्ट है लेकिन भारत में कई लोग भ्रम का शिकार हैं। जिस बाबर के नाम पर भारत में छाती पीटी जाती है, उसे तो अफगानिस्तान ने भी अपना नहीं माना। जनसंघ के बड़े नेता रहे बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक ‘जिन्दगी का सफर-2, स्वतंत्र भारत की राजनीति का संक्रमण काल’  में उल्लेख किया है कि वह अगस्त 1964 में काबुल यात्रा पर गए। वहाँ उन्होंने काबुल स्थित बाबर का मकबरा देखा। इतने बड़े बादशाह के मकबरे की हालत खस्ता थी। इसके ईदगिर्द न सुन्दर मैदान था और न फूलों की क्यारियां। यह देख बलराज मधोक ने मकबरा की देखभाल करनेवाले एक अफगान कर्मचारी से पूछा कि इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? उसका उत्तर सुनकर वे अवाक रह गए और शायद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएं। उसने मधोक को उत्तर दिया था – “कुत्सित विदेशी के मकबरे का रखरखाव हम क्यों करें?” वास्तव में बाबर काबुल के लोगों के लिए विदेशी ही था। उसने फरगना से आकर काबुल पर अधिकार कर लिया था। परन्तु कैसी विडम्बना है कि जिसे काबुल वाले विदेशी मानते हैं उसे हिन्दुस्तान के पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी हीरो मानते हैं। इसका मूल कारण उनमें इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव होना है। 

जिस दिन लोग निरपेक्ष भाव से इतिहास को देखना शुरू करेंगे, उन्हें भी पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ की भाँति महमूद गजनवी से लेकर बाबर तक में आक्रांता और लुटेरा नजर आने लगेगा। जो लोग केवल संप्रदाय के नाम पर इन लुटेरों को अपना हीरो मानते हैं, उन्हें एक बार अपने बारे में विचार करना चाहिए। साथ ही, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री के बयान पर गहराई और गंभीरता से चिंतन करना चाहिए। विचार करना चाहिए कि हमें अपना हीरो किन्हें बनाना चाहिए?

रविवार, 5 जनवरी 2025

अखिल विश्व के प्रेरणास्रोत राम

देखें यह वीडियो- इंडोनेशिया से लेकर कंबोडिया तक और थाईलैंड से तुर्किस्तान तक ‘सिय राम मय सब जग जानी’


मानव देह में भगवान श्रीराम ने जिन शाश्वत जीवन मूल्यों की स्थापना की, वे सार्वभौमिक, सर्वकालिक एवं सार्वदेशिक हैं। इसलिए राम केवल भारत में ही नहीं अपितु दुनियाभर में आराध्य हैं। जीवन की अलग-अलग भूमिकाओं में मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए, इसका आदर्श राम ने प्रस्तुत किया है। प्रो. फादर कामिल बुल्के ने लिखा है- “मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गाँव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था कि आप रामायण क्यों पढ़ते है? उत्तर मिला कि मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूँ”। इस प्रसंग से ही स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया में राम के नाम की महिमा क्यों है? क्यों दुनियाभर में उन्हें पढ़ा और पूजा जाता है। राम का जीवन मर्यादा सिखाता है। सहिष्णुता एवं सह-अस्तित्व का भाव जगाता है। राम का संदेश मनुष्य को देवत्व की ओर लेकर जाता है। संपूर्ण विश्व में रामराज्य की अवधारणा साकार हो, मूल्य आधारित समाज व्यवस्था निर्मित हो, इसलिए सब अपने यहाँ राम का चरित्र लेकर गए हैं। भारत के स्वाभिमान श्रीराम के स्वरूप एवं संदेश का प्रसार नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार से लेकर लाओस तक की संस्कृति में स्पष्ट दिखायी पड़ता है। गैर-हिन्दू समुदाय भी उन्हें उतनी ही श्रद्धाभाव से पूजते हैं, जितना कि हिन्दू। इंडोनेशिया दुनिया का सबसे अधिक मुस्लिम आबादी का देश है। लेकिन भारत की भाँति यहाँ भी कण-कण में राम व्याप्त हैं। दुनिया की सबसे बड़ी रामायण का मंचन इंडोनेशिया में किया जाता है। इंडोनेशिया के मुस्लिम भगवान राम को अपना नायक, आदर्श और प्रेरणास्रोत मानते हैं।

इंडोनेशिया के शहर ‘योग्या’ को राम की नगरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप का नामकरण सुमित्रा के नाम पर हुआ। इंडोनेशिया के द्वीप जावा की एक नदी का नाम सेरयू है। यहां की रामकथा ‘ककनिन’ या ‘काकावीन रामायण’ के नाम से सुप्रसिद्ध है, जिसके रचयिता कवि योगेश्वर हैं। हम कह सकते हैं कि इंडोनेशिया के लिए महर्षि वाल्मीकि कवि ‘योगेश्वर’ हैं। इंडोनेशिया की रामायण 26 अध्यायों का महाकाव्य है। इस्लामिक देश इंडोनेशिया की संस्कृति पर रामायण की गहरी छाप देखकर हर कोई आश्चर्यचकित रह जाता है। सबके मन में यही विचार आता है कि आखिर क्या कारण रहे होंगे कि इंडोनेशिया पर हिन्दू संस्कृति का इतना अधिक प्रभाव दिखायी देता है।

इंडोनेशिया की रामलीला का दृश्य

थाईलैंड की संस्कृति के तार भी रामायण से जुड़े हुए दिखायी देते हैं। यहाँ के तो राजा भी ‘राम’ हैं। थाईलैंड के राजा को राम ही कहा जाता है। उनके नाम के साथ अनिवार्य रूप से राम लिखा जाता है। वर्तमान में थाईलैंड के राजा ‘राम दशम’ हैं। यहाँ के ऐतिहासिक शहर अयुत्थया को राम की राजधानी अयोध्या के तौर पर देखा जाता है। राज परिवार आज भी अयोध्या (अयुत्थया) में ही रहता है। वैसे तो थाईलैंड बौद्ध देश है। परंतु यहाँ के नागरिक जीवन में राम के प्रति गहरी आस्था है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की वेबसाइट पर उपलब्ध सामग्री के अनुसार, एक स्वतंत्र राज्य के रूप में थाईलैंड (उस समय थाईलैंड का नाम स्याम या सियाम था) के अस्तित्व में आने के पहले ही क्षेत्र में रामायणीय संस्कृति विकसित हो गई थी। अधिकतर थाईवासी परंपरागत रूप से राम कथा से सुपरिचित थे। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि तेरहवीं शताब्दी में राम वहाँ की जनता के नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। किंतु राम कथा पर आधारित सुविकसित साहित्य अठारहवीं शताब्दी में ही उपलब्ध होता है। थाईलैंड के राजाओं ने रामकथा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। जब तासकिन, थोनबुरी के सम्राट बने तब उन्होंने थाई भाषा में रामायण को छंदोबद्ध किया, जिसके चार खंडों में 2012 पद हैं। उनके बाद, सम्राट राम प्रथम (1782-09) ने अनेक कवियों के सहयोग से रामायण की रचना करवाई, जिसमें 50188 पद हैं। यह थाई भाषा की पूर्ण रामायण है। परंतु इतनी विशाल रामायण का मंचन नहीं किया जा सकता था, इसलिए राम द्वितीय (1809-24) ने एक संक्षिप्त रामायण की रचना की, जिसमें 14300 पद हैं। इसी प्रकार, राम चतुर्थ ने भी स्वयं पद्य में रामायण की रचना की, जिसमें 1664 पद हैं। एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि थाईलैंड के राजभवन परिसर स्थित वाटफ्रकायों (सरकत बुद्ध मंदिर) की भित्तियों पर संपूर्ण थाई रामायण ‘रामकियेन’ को चित्रित किया गया है। थाईलैंड में रामायण को ‘रामकियेन’ कहते हैं, जिसका अर्थ है- राम कीर्ति। यह वाल्मीकि रामायण पर आधारित है। एक और आनंददायक तथ्य यह है कि बैंकॉक के सबसे बड़े और भव्य सभागार का नाम ‘रामायण हॉल’ है, जहाँ प्रतिदिन रामकियेन पर आधारित नृत्य नाटक एवं कठपुतलियों का प्रदर्शन किया जाता है।

थाईलैंड की रामलीला का दृश्य

किसी भी भारतवासी को यह जानकर सुखद अनुभूति होगी कि थाईलैंड का राष्ट्रीय ग्रंथ ‘रामायण’ है, जबकि वहाँ थेरावाद बौद्ध बहुमत में हैं। नि:संदेह, राम के कारण थाईलैंड बौद्ध और हिन्दू संस्कृति के समन्वय का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। दक्षिणी थाईलैंड और मलयेशिया में राम के प्रति आस्था रखनेवाले नागरिक बंधु तो यहाँ तक मानते हैं कि रामायण में वर्णित पात्र मूलत: दक्षिण-पूर्व एशिया के निवासी थे और रामायण की सारी घटनाएँ इसी क्षेत्र में घटी थी। वे लोग मलाया के उत्तर-पश्चिम स्थित एक छोटे द्वीप को रावण की लंका मानते हैं। ‘हिकायत सेरी राम’ को रामायण का मलय संस्करण माना जाता है। ‘हिकायत सेरी राम’ की कहानी बहुत हद तक वाल्मीकि रामायण से ही मिलती-जुलती है।

वियतनाम के नागरिक भी अपने देश को राम की लीलाभूमि मानते हैं। इस मान्यता की पुष्टि सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख से होती है, जिसमें आदिकवि वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख हुआ है। वहीं, लाओस के नागरिक तो स्वयं को भारतवंशी ही मानते हैं। उनका मानना है कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। लाओस की संस्कृति पर भी हिन्दू संस्कृति की गहरी छाप है। यहाँ रामकथा पर आधारित चार रचनाएँ उपलब्ध हैं- फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई। लाओस की रामकथा का अध्ययन कई विद्वानों ने किया है। लाओस के लुआ प्रवा तथा विएनतियान के राजप्रसाद में थाई रामायण ‘रामकियेन’ और लाओ रामायण ‘फ्रलक-फ्रलाम’ अर्थात् ‘प्रिय लक्ष्मण प्रियराम’ की कथाएँ अंकित हैं। लाओस के कई बौद्ध विहारों में भी रामकथा के चित्र उकेरे गये हैं। लाओस का उपमुंग बौद्ध विहार तो विशेष रूप से राम कथा से जुड़े चित्रों के लिए विख्यात है। विश्व मानचित्र पर वियतनाम, मलयेशिया, इंडोनेशिया और लाओस की समीप ही फिलीपिंस भी दिखायी पड़ता है। स्वाभाविक ही फिलीपिंस में भी इन देशों की तरह रामायण का प्रभाव दिखायी देता है। फिलीपिंस में रामायण का अपना संस्करण है, जिसे ‘महराडिया लवाना’ कहा जाता है। फिलीपिंस का प्रसिद्ध नृत्य ‘सिंगकिल’ भी यहाँ की स्थानीय रामायण से प्रेरित बताया जाता है।

लाओस में रामलीला मंचन का दृश्य

भारत के पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा) में भी राम नाम की महिमा व्याप्त है। यहां का पोपा पर्वत औषधियों के लिए विख्यात है। यहाँ ऐसी मान्यता प्रचलित है कि जब लक्ष्मण को शक्ति लग गई थी तब उनके उपचार के लिए पोपा पर्वत के ही एक भाग को महावीर हनुमान उखाड़कर ले गये थे। म्यांमार के नागरिक उस पर्वत के मध्यवर्ती खाली स्थान को दिखाकर पर्यटकों को यह बताते हैं कि पर्वत के इस भाग को हनुमान उखाड़कर लंका ले गये थे। म्यांमार में रामायण को ‘यामयाना’, ‘यामा’ या ‘जटाव’ के नाम से जाना जाता है। इसका अनुवाद ‘राम की कहानी’ भी किया जाता है। यह म्यांमार का अनौपचारिक राष्ट्रीय महाकाव्य है। यहाँ माता सीता को ‘थिदा’ कहा जाता है और रावण को ‘यावाना’।

रामकथा के प्रभाव क्षेत्र से यूरोप भी अछूता नहीं रहा है। इटली में पुरातात्विक उत्खनन में प्राचीन इतावली घरों की दीवारों पर मिली चित्रकारी स्पष्ट रूप से रामायण के प्रसंगों का वर्णन करती है। कुछ चित्रों में पूंछ वाले व्यक्ति को दिखाया गया है, जिसके साथ दो पुरुष और एक महिला का चित्रण किया गया है। पुरुषों के कंधों पर धनुष एवं बाण सुशोभित हो रहे हैं। इन चित्रों को देखकर कौन नहीं कहेगा कि ये भगवान राम-लक्ष्मण, माता सीता और महावीर हनुमान के चित्र हैं, जो वनवास के दौरान के किन्ही प्रसंगों को व्यक्त करते हैं। एक चित्र में रावण को सीता का अपहरण करते हुए भी चित्रित किया गया है। इसमें मारीच को मरा हुआ जमीन पर पड़ा दिखाया गया है। रावण जब माता सीता का अपहरण कर रहा है, तब उसे अपना मुखौटा उतारते हुए चित्रित किया गया है। यानी अपहरण से पूर्व रावण अपने वास्तिवक रूप को प्रकट करता है। अपहरण के लिए पंख वाले घोड़े को दिखाया गया है।

इटली की रामायण में सीताहरण का चित्रांकन

कंबोडिया (कंपूचिया) के प्रसिद्ध मंदिरों की दीवारों पर भगवान राम की चरित्रगाथा का वर्णन करते भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। यहाँ के विश्व विख्यात हिन्दू मंदिर ‘अंकोरवाट’ के गलियारे में तत्कालीन सम्राट के बल-वैमन का साथ स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत, हरिवंश तथा रामायण से संबद्ध अनेक शैलचित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है। इन शिलाचित्रों की शृंखला रावण वध हेतु देवताओं द्वारा की गयी आराधना से आरंभ होती है। उसके बाद सीता स्वयंवर का दृश्य है। विराध एवं कबंध के वध का चित्रण है। स्वर्ण मृग के पीछे धनुष-बाण लेकर दौड़ते राम भी दिखाई पड़ते हैं। सुग्रीव से राम की मैत्री का दृश्य मंदिर की दीवारों पर चित्रित किया गया है। 

जापान की संस्कृति पर भी विविध रूप में रामायण का प्रभाव देखा जा सकता है। जापान की प्रदर्शन कलाओं, विशेषकर थियेटर पर भी रामायण की कहानियों की छाप दिखायी देती है। जापान के बौद्ध साहित्य ‘होबुत्सुशु’ और ‘सम्बो-एकोटोबा’ में भी राम अंश की अनुभूति की जा सकती है। एक अन्य ग्रंथ ‘बोंटेनकोकु’ को भी जापानी रामायण के रूप में देखा जाता है। इसमें तमावाका (भगवान राम) को एक बांसुरी वादक के रूप में चित्रित किया गया है, जो अपनी पत्नी हिमेगिनी (सीता) को बचाता है, जिसे राजा बारामोन (रावण) द्वारा बंदी बनाकर रखा गया था। उल्लेखनीय है कि जापान के कलाकारों ने रामायण को बहुत ही खूबसूरती से बच्चों के लिए कार्टून फिल्म के रूप में भी तैयार किया है। कार्टून फिल्म ‘रामायण: द लीजेंड ऑफ प्रिंस राम’ का निर्देशन युगो साको, कोइची सासाकी और भारत के राम मोहन ने किया था। यूगो साको भारत में किसी और परियोजना पर फिल्म बनाने के लिए आए थे लेकिन भगवान राम की कहानी ने उन्हें सम्मोहित कर लिया।

चीन की रामायण में राम दरबार का दृश्य

चीन में भी राम के दर्शन हो जाते हैं। यहाँ बौद्ध जातकों के माध्यम से मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की कथा पहुँची थी। वहाँ अनामक जातक और दशरथ कथानम का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। वहीं, तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ भी तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री विरचित दो अन्य रचनाएँ भी हैं। चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं जिनमें रामचरित का विवरण मिलता है। रूस भी भगवान राम के साथ अपना संबंध जोड़ने में कहाँ पीछे रहता। रूस में कई विद्वान अपने शोध के आधार पर दावा करते हैं कि कैकयी रूस से थी।

एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान भी राम के प्रभाव से दूर नहीं रह सका। तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। यहाँ की स्थानीय भाषा ‘खोतानी’ में भी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बती रामायण का प्रभाव दिखायी देता है। वहीं, इराक में पुरातात्विक खुदाई के दौरान एक गुफा में 6000 साल पुरानी वानरों और मनुष्यों की नक्काशी मिली है। एक शैलचित्र को देखकर कोई भी यह कह सकता है कि ये भगवान राम और उनके भक्त हनुमान की आकृति हैं। भगवान राम तीन-कमान लिए हुए हैं और हनुमान उनके सामने बैठे हुए हैं। ये ठीक वैसा ही दृश्य है, जैसा हमें भारत में अनेक स्थानों पर दिखायी देता है। ये नक्काशी लारसा के वारद सिन और राम सिन से मिलती-जुलती हैं, जिन्होंने 60 वर्षों तक मेसोपोटामिया पर शासन किया था। जातक कथाएँ भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि यहाँ भगवान राम 60 वर्षों तक राज्य किया था।

श्रीलंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जानकी हरण की रचना हुई थी। वहाँ सिंहली भाषा में भी एक रचना है, मलयराजकथाव। श्रीलंका का पर्यटन मंत्रालय उन स्थानों की देखरेख विशेषतौर से करता है, जिन्हें रामायण से जुड़ा हुआ माना जाता है। श्रीलंका के नुवराएलिया में आज भी अशोक वाटिका है। रावण जब माता सीता का अपहरण करके लाया था, तो उसने उन्हें यहीं रखा था। इस स्थान को ‘सीता-एल्या’ कहा जाता है। यहाँ सीता माता का बहुत प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ श्रीलंका के नागरिक भी श्रद्धा से अपना शीश झुकाते हैं। 

नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ जिनमें भानुभक्तकृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है। नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में वाल्मीकि रामायण की दो प्राचीन पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। इनमें से एक पांडुलिपि के किष्किंधा कांड की पुष्पिका पर तत्कालीन नेपाल नरेश गांगेय देव और लिपिकार तीरमुक्ति निवासी कायस्थ पंडित गोपति का नाम अंकित है। इसकी तिथि सं. 1076 तदनुसार 1019 ई. है। दूसरी पांडुलिपि की तिथि नेपाली संवत् 795 तदनुसार 1674-76 ई. है। नेपाल के नागरिक तो भगवान श्रीराम को अपना दामाद मानते हैं। जनकपुर, राजा जनक की राजधानी थी। 

कोरिया के साथ भी राम का रिश्ता जोड़ा जाता है। अयोध्या और कोरिया के रिश्ते लगभग 2000 वर्ष पुराने बताए जाते हैं। कोरिया में भी एक अयोध्या है जिसे अयुता कहा जाता है। यहाँ की रामायण को ‘सम्गुक युसा’ कहा जाता है, जिसमें अनेक ऐतिहासिक कहानियां शामिल हैं। इसी ग्रंथ के अनुसार, दक्षिण कोरिया के लोगों का मानना है कि अयोध्या से दो हजार साल पहले वहाँ की राजकुमारी सुरीरत्ना, जिन्हें कोरिया में ‘हु-ह्वांग-ओक’ भी कहा जाता है, दक्षिण कोरिया के ग्योंगसांग प्रांत के किमहये शहर आई थीं। यहां उनका विवाह कोरिया के कारक वंशी राजा किम सोरो से हो गया, जिसके बाद वह कोरिया की महारानी बन गईं। हालांकि, इस बात के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि क्या वाकई में राजकुमारी सुरीरत्ना का कोई अस्तित्व था। यह भी सप्रमाण नहीं कहा जा सकता कि राजकुमारी सुरीरत्ना भगवान राम के पिता राजा दशरथ की वंशज थीं। परंतु, इस सबके बावजूद लोक मानस में तो यही मान्यता है कि सुरीरत्ना अयोध्या की राजकुमारी थीं, जिनका संबंध राम की परंपरा से आता है। आज कोरिया में कारक गोत्र के लगभग साठ लाख लोग खुद को राजा सुरो और अयोध्या की राजकुमारी का वंशज बताते हैं। इस पर विश्वास रखनेवाले लोगों की संख्या दक्षिण कोरिया की जनसंख्या के दसवें हिस्से से भी अधिक है। 

विश्व के विभिन्न देशों में प्रचलित रामकथाओं का अध्ययन करते है तो ध्यान में आता है कि समय की लंबी यात्रा में राम की चरित्र गाथा भारत से निकलकर न केवल विश्व के विभिन्न हिस्सों में पहुँची अपितु यह देशकाल के अनुरूप ढल भी गई। थाईलैंड, म्यांमार, कंबोडिया, लाओस, मलयेशिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका, नेपाल, इरान, चीन, वियतनाम, फिलिपींस, तिब्बत, जापान, मंगोलिया, तुर्किस्तान की प्राचीन भाषाओं में रामकथा पर आधारित बहुत सारी साहित्यिक कृतियां हैं। अनेक देशों में तो शिलाचित्रों पर रामकथा के अवशेष दिखायी देते हैं। प्रो. फादर कामिल बुल्के ने राम के जीवन पर गंभीरता से अध्ययन किया है। विश्वभर में प्रचलित रामायणों का अध्ययन भी उन्होंने किया है। बाबा तुलसीदास की रामचरितमानस से प्रभावित होकर जब उन्होंने शोध किया, तब उन्होंने पाया कि विश्वभर में लगभग 400 रामकथाएं प्रचलित हैं और 3000 से अधिक ग्रंथों में राम के नाम का उल्लेख है। प्रो. बुल्के का शोधकार्य (थीसिस) ‘रामकथा’ के नाम से प्रकाशित है।

इराक में मिले रामायण के प्रमाण

हम कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ राम पहुँचे, वहाँ-वहाँ रामभक्ति की नयी कहानियों ने जन्म ले लिया। हमारी श्रद्धा है कि राम जिसका हाथ एक बार थाम लेते हैं, उसको कभी छोड़ते नहीं। विश्वभर में रामकथा की व्याप्ति को देखकर इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि जो एक बार राम के समीप आता है, वह सदैव के लिए राममय हो जाता है। उपलब्ध शोध एवं साहित्य के आधार पर तो यह कहा ही सकता है कि राम केवल भारत के ही नहीं अपितु समूचे विश्व के नायक हैं। अखिल विश्व के प्रेरणास्रोत हैं हम सबके राम। इसलिए लगभग 500 वर्षों के लंबे संघर्ष एवं प्रतीक्षा के बाद जब 22 जनवरी, 2024 को अयोध्याधाम में श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो रही थी, तो विश्वभर से उनकी सेवा में भेंट स्वरूप विभिन्न प्रकार की सामग्रियां आईं। प्रभु श्रीराम का नाम ऐसा है, जो न केवल भारत को जोड़ता है अपितु समूचे विश्व को भी एकात्म करता है। इसलिए तो कहा गया है- राम से बड़ा राम का नाम। दो अक्षर के इस नाम में समूची सृष्टि समायी हुई है।


भारत के बाहर रामकथाएं :

नेपाल : भानुभक्तकृत रामायण, सुन्दरानन्द रामायण, आदर्श राघव

कंबोडिया : रामकर

तिब्बत : तिब्बती रामायण

पूर्वी तुर्किस्तान : खोतानी रामायण

इंडोनेशिया : ककबिनरामायण

जावा : सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानी रामकथा

इण्डोचायना : रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैर रामायण

बर्मा (म्यांम्मार) : यूतोकी रामयागन

थाईलैंड : रामकियेन

यह आलेख 'मीडिया विमर्श' के जनवरी-जून अंक में प्रकाशित हुआ। मीडिया विमर्श का यह विशेषांक 'लोक संचारक श्रीराम' पर केंद्रित था

शनिवार, 4 जनवरी 2025

धर्म की सीख

धार्मिक कहानियां सिखाती हैं जीने की कला


AI द्वारा निर्मित प्रतीकात्मक चित्र

सार्थक और देवकी का परिवार बहुत धार्मिक है। उनके माता-पिता अकसर श्री रामचरितमानस और श्रीमद्भगवत गीता का पाठ करते हैं। एक दिन सार्थक और देवकी अपनी माँ के पास बैठे थे। उनके मन में जिज्ञासा उठी कि मम्मी और पापा धार्मिक किताबें क्यों पढ़ते रहते हैं। एक ही प्रकार की पुस्तक को बार-बार पढ़ने से क्या होता है? दरअसल, सार्थक और देवकी को धर्म-अध्यात्म और भारतीय संस्कृति की उतनी अधिक जानकारी नहीं थी क्योंकि वे जिस स्कूल में पढ़ते हैं, वहाँ के पाठ्यक्रम में भी भारत की कहानियां नहीं पढ़ाई जाती हैं।

सार्थक और देवकी ने अपने मन में आए प्रश्न माँ से पूछ लिए। बच्चों के इन प्रश्नों से पूजा घर में दीपक लगा रही माँ के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभर आए। उन्हें अच्छा लगा कि अपनी संस्कृति को जानने की इच्छा बच्चों में है। सार्थक-देवकी के माता-पिता भी अप्रत्यक्ष रूप से अपने बच्चों को धार्मिक संस्कार देने का प्रयास करते थे। उन्होंने दोनों बच्चों को अपने पास बिठाया और कहा- बच्चो, रामायण और महाभारत की ये कहानियां हमें जीवन जीने की कला सिखाती हैं। हमारे भगवानों ने मानव रूप में जन्म लेकर हमारे सामने उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कैसी परिस्थिति में किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। 

उन्होंने कहा कि हम रामायण बार-बार इसलिए पढ़ते हैं ताकि राम की कहानी को हम आत्मसात कर सकें। एक आदर्श बेटा, आदर्श पिता, आदर्श पति, आदर्श राजा कैसा होता है, यह राम के जीवन से सीखना चाहिए। जब तुम लोग रामायण पढ़ोगे तो भगवान राम तुम्हें बताएंगे कि जीवन में धैर्य और त्याग कितना महत्वपूर्ण हैं। राम का जीवन हमें सिखाएगा कि हमें मुश्किल समय में भी हार नहीं माननी चाहिए। इसी तरह, जब हम कृष्ण की कहानी को पढ़ते हैं तो सीखते हैं कि हमें हमेशा सत्य बोलना चाहिए और दूसरों की मदद करनी चाहिए। राम और कृष्ण के बारे में बताते समय माँ ने सार्थक और देवकी को दोनों के जीवन के कुछ प्रसंग भी सुनाए।

माँ ने दोनों बच्चों को ध्रुव की कहानी भी सुनायी और बताया कि जिस प्रकार ध्रुव ने ईश्वर को प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। उसी प्रकार हमें अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समर्पित होकर अध्ययन करना चाहिए। आज के समय में अध्ययन ही तपस्या है। 

माँ दोनों से कहती है कि भारत के इतिहास में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जिनकी कहानियां बार-बार पढ़ने और सुनने से हमारे मन में भी वैसा बनने का भाव जागता है। जब हम श्रवण कुमार की कहानी सुनते हैं, तो माता-पिता की सेवा का भाव पैदा होता है। जब हम भक्त प्रह्लाद की कहानी सुनते हैं तो बुराई के बीच में भी अच्छे और सच्चे कैसे रहना चाहिए, यह सीखते हैं। “तो बच्चो, इसलिए मैं और आपके पापा, बार-बार रामायण, महाभारत और दूसरी पुस्तकों का पाठ करते हैं ताकि हम अपने धर्म और संस्कृति से अच्छा मनुष्य बनना सीखते रहें। अपने धर्म की सीख को भूलें नहीं।”

माँ की बातें सुनकर दोनों बच्चों के चेहरे पर संतुष्टी का भाव था। मन ही मन उन्होंने भी तय किया कि अब हम भी इन कहानियों को पढ़ेंगे। 

पंचिंग बैग नहीं है हिन्दू धर्म

केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने दिए सनातन विरोध बयान

तथाकथित सेकुलर राजनीतिक दल और नेताओं ने हिन्दू धर्म को पंचिंग बैग समझ लिया है। अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने और एक खास वोटबैंक को खुश करने के लिए अकसर तथाकथित सेकुलर नेता हिन्दू धर्म को लक्षित करके विवादित बयानबाजी करते रहते हैं। कोई सनातन धर्म की तुलना डेंगू से करता है तो कभी सनातन के समूल नाश पर सेमिनार कराए जाते हैं। कभी संसद में जोश में आकर कह दिया जाता है कि “जो लोग अपने आपको हिन्दू कहते हैं, वो चौबीस घंटे हिंसा, हिंसा, हिंसा; नफरत, नफरत, नफरत; असत्य, असत्य, असत्य कहते हैं”। अब केरल के मुख्यमंत्री एवं कम्युनिस्ट नेता पिनराई विजयन ने सनातन धर्म को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करके हिन्दू विरोध की मानसिकता को प्रकट किया है। उनकी टिप्पणी बताती हैं कि सनातन धर्म के संबंध में उनकी समझ बहुत उथली है और उन्होंने जानबूझकर हिन्दू धर्म को निशाना बनाने का प्रयास किया है। यही कारण है कि कि मुख्यमंत्री विजयन की टिप्पणियों का विरोध न केवल भारतीय जनता पार्टी कर रही है अपितु कांग्रेस ने भी विरोध किया है। हालांकि, विश्व हिन्दू परिषद ने विपक्षी दल में शामिल सभी राजनीतिक दलों की सोच पर सवाल उठाए हैं। क्योंकि कांग्रेस के नेताओं की ओर से जो विरोध दर्ज कराया जा रहा है, वह गोल-मोल है।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

एकात्मता का दर्शन है- महाकुंभ

महाकुंभ का संदेश : एक हो पूरा देश


भारत की संस्कृति का आधार एकात्मता का स्वर है। भारतीय समाज में जो ऊंच-नीच की बीमारी आई, वह विशेष कालखंड की देन है। सत्य तो यह है कि भारत की संस्कृति में ऊंच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं। यह दुनिया की इकलौती संस्कृति है जो कहती है कि हम सबमें ईश्वर का अंश है। यानी जो पिंड तुम्हारा है, वही पिंड मेरा है। भारत का दर्शन न तो जाति के आधार पर और न ही रंग-रूप एवं वेष-भूषा के आधार पर लोगों में विभेद करता है। भारत का दर्शन तो सबको अपना मार्ग चुनने की स्वतंत्रता देता है। यह बात हिन्दुत्व की आलोचना करनेवालों को समझनी चाहिए। हिन्दुत्व और भारतीयता के मूल विचार को समझना है तो उसका एक अवसर महाकुंभ के रूप में आ रहा है। कुंभ ऐसा मेला है, जहाँ भारत के कोने-कोने से लोग आते हैं। सभी जाति-बिरादरी, प्रांत, भाषा और संप्रदाय के लोग कुंभ में शामिल होते हैं, बिना किसी भेदभाव के। सब मिलकर संगम में डुबकी लगाते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में कहा है कि “महाकुंभ की विशेषता केवल इसकी विशालता में ही नहीं है। कुंभ की विशेषता इसकी विविधता में भी है। इस आयोजन में करोड़ों लोग एक साथ एकत्रित होते हैं। लाखों संत, हजारों परम्पराएँ, सैकड़ों संप्रदाय, अनेक अखाड़े, हर कोई इस आयोजन का हिस्सा बनता है। कहीं कोई भेदभाव नहीं दिखता है, कोई बड़ा नहीं होता है, कोई छोटा नहीं होता है। अनेकता में एकता का ऐसा दृश्य विश्व में कहीं और देखने को नहीं मिलेगा”।