अ कसर यह बहस खड़ी की जाती है कि विधायक-सांसद बनने के लिए भी न्यूनतम योग्यता तय होनी चाहिए। इंजीनियर बनने के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई जरूरी है, डॉक्टर बनने के लिए एमबीबीएस, एमडी सहित अन्य डिप्लोमा अनिवार्य हैं, शिक्षक बनने के लिए भी मापदण्ड तय हैं लेकिन ऐसा क्यों है कि विधायक-सांसद बनने के लिए किसी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य नहीं है। ऐरा-गैरा नत्थूखेरा, कोई भी, अंगूठाछाप भी, विधानसभा से लेकर देश के सर्वोच्च सदन संसद में प्रवेश पा जाता है। न्यूनतम योग्यता क्यों तय नहीं की जाती? जवाब में अमूमन यही कहा जाता है कि शैक्षणिक योग्यता अलग है और मुद्दों की समझ अलग बात है। राजनेता के पास कागज की डिग्रियों से अधिक मानवीय संवेदनाओं का होना जरूरी है। राजनीति में आने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि नेता अपने क्षेत्र, परिवेश और देश-प्रदेश की नब्ज को पहचानता हो। नेता बनने के लिए जरूरी है कि वह लोगों की समस्याओं को समझता हो। कुछ हद तक यह सही बात भी है कि शैक्षणिक योग्यता से ही समझदारी और संवेदनाएं नहीं आती हैं। जिन्दगी असल पाठ खुद ही पढ़ा देती है। राजनीति में अधिक कारगर वह आदमी है जो संवेदनशील है, न कि उच्च शिक्षित मशीनी आदमी। यूपीए सरकार की कैबिनेट में दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्चतम शिक्षा प्राप्त मंत्री शामिल थे, लेकिन क्या उनकी शैक्षणिक योग्यता का देश को लाभ मिला? बीती सरकार का कार्यकाल देखें तो पढ़े-लिखे लोगों ने देश का अधिक बेड़ागर्ग किया। लेकिन, इस सबके बावजूद अनेक मौकों पर नेताओं की टिप्पणी, उनके क्रियाकलाप और उनके विचार-चिंतन को देखकर लगता है कि माननियों की शिक्षा का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब राजनीतिक पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का पूरा ध्यान रखती थीं। चिंतन शिविर, राष्ट्रीय अधिवेशन, प्रादेशिक कार्यकर्ता प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन पार्टियां अपने स्तर पर किया करती थीं, ताकि उनके कार्यकर्ता अधिक संवेदनशील और जागरूक बन सकें। लोक जीवन में आने के लिए किस प्रकार का व्यवहार जरूरी है, इन प्रशिक्षण शिविरों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सिखाया जाता था। हाल के कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति और राजनेताओं का जैसा चरित्र सामने आया है, उसे देखकर समाज का प्रबुद्ध वर्ग चिंतित है। अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय राजपुरुष और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह राजनीतिक बदलाव की शुरुआत की है, उससे आशा की उम्मीद बंधी है। लगता है कुछ सार्थक परिवर्तन की बात की जा सकती है। इसलिए यह बहस और अधिक ताकत से खड़ी होने की कोशिश में है कि माननियों के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था तय होनी चाहिए।
माननीय अपने परिवेश, अपने प्रदेश और अपने देश के प्रति कितने जागरूक हैं? समसामयिक घटनाओं को लेकर उनका कैसा चिंतन है? सामाजिक क्षेत्र में हो रहे सद्प्रयासों पर उनकी कितनी पैनी नजर है? यह बताने के लिए मध्यप्रदेश के माननियों का उदाहरण संभवत: सबसे सही होगा। बचपन बचाओ आंदोलन के पुरोधा और सर्वेसर्वा कैलाश सत्यार्थी को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। कैलाश सत्यार्थी चूंकि मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के निवासी हैं, इसलिए पत्रकारों ने मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्यों से इस पर प्रतिक्रिया लेनी चाही। युवा पत्रकार सुधीर दण्डौतिया ने भाजपा के एक मंत्री से सवाल पूछा कि मध्यप्रदेश के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? उन माननीय के लिए तो एकमात्र कैलाश ही इस दुनिया में हैं, वह हैं भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय। मंत्री ने चट से जवाब दिया- 'हमें खुशी है। हमारे नेता हैं। उनको तो नोबेल पुरस्कार मिलना ही था। उन्होंने इंदौर में बहुत काम कराया है। हरियाणा विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जीत पार्टी को दिलाई है। नोबेल पुरस्कार मिलने पर उन्हें बहुत बधाई।' टीवी पत्रकार श्री दण्डौतिया ने उन्हें समझाने का प्रयास भी किया लेकिन वे कहां किसी की सुनते। खैर, पत्रकारों को एक बढिय़ा खबर हाथ लग गई। फिर क्या था, अलग-अलग चैनल और अखबारों के पत्रकारों ने विधानसभा भवन से बाहर निकल रहे मंत्री-विधायकों को पकड़-पकड़ कर पूछना शुरू किया- 'कैलाश जी को नोबेल पुरस्कार मिला है, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे? ' धड़ाधड़ कैलाश विजयवर्गीय की प्रशंसा में जवाब आने शुरू हो गए। यह स्थिति ऐसी पार्टी (भाजपा) के नेताओं की थी, जो खुद को 'औरों से अलग' मानकर चलती है। जिसके नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पढ़ते-लिखते भी हैं। उनकी अपनी एक विचारधारा है। हालांकि कांग्रेस सहित दूसरे दल के नेता भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने कहा कि अब तो केन्द्र और राज्य दोनों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। झूठे पुरस्कार लेकर आना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। कैलाश जी अच्छे नेता हैं लेकिन फिर भी वे नोबेल पुरस्कार के लायक नहीं हैं। अब सोचिए क्या यह सवाल वाजिब नहीं हो जाता कि माननियों को शिक्षा की जरूरत है। दुनियाभर के इलेक्ट्रोनिक चैनल्स और अखबार पाकिस्तान की मलाला और भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के समाचारों, विश्लेषणों और शुभकामनाओं से भरे पढ़े थे, तब भी हमारे माननीय बेखबर थे। ऐसे में इनसे कैसे अपेक्षा की जाए कि आमजन के सरोकारों को लेकर जागरूक रहते होंगे।
सदन में किस तरह का व्यवहार अपेक्षित है, इसकी भी जानकारी शायद इन्हें न हो। तभी तो सदन में जूता-चप्पल, कुर्सी, मिर्च पाउडर फेंकने की घटनाएं हमारे सामने आती हैं। संभवत: हमारे माननीय यह मानकर चलते हैं कि सदन होता ही इसलिए है। कर्नाटक विधानसभा के सदस्य तो दो-चार कदम और आगे तक निकल गए हैं। उन्होंने तो विधानसभा भवन को अश्लील फिल्म देखने का अड्डा बना दिया। सदन में चल रही गंभीर बहस के बीच कोई पोर्न फिल्म देख रहा है तो कोई प्रियंका गांधी के ग्लैमर को नजदीक से देखने के लिए उसका चित्र बार-बार जूम करके देख रहा है। जिन माननियों को इन सब काम में रुचि नहीं हैं, वे बेफिक्र होकर खर्राटे ले रहे होते हैं। खुले आम सदन में सो रहे माननियों से कैसे अपेक्षा की जाए कि ये जागरूक हैं, देश की समस्याओं के हल के लिए इन्होंने व्रत लिया है। क्यों नहीं माना जाए कि सदन में बैठकर आपत्तिजनक गतिविधियों से संलिप्त माननियों के दिमाग में गंदगी भरी होगी? फिर गंदे दिमाग कैसे समाज को स्वच्छ करेंगे? एक बार निर्वाचित होने के बाद जब माननियों को कुछ समझ नहीं आता तो लोकप्रिय होने के लिए, खबरों में बने रहने के लिए, न्यूज चैनल पर छाए रहने के लिए ऊल-जुलूल बयान देना ही इनका प्रिय काम हो जाता है। हकीकत यह है कि यदि कोई जिम्मेदार राजनेता हो तो उसके लिए देश में इतना काम है कि उसे सांस लेने की फुरसत न मिले। लेकिन, हमारे कई माननियों का कार्य-व्यवहार देखकर तो लगता है कि देश में करने के लिए अब कुछ काम ही शेष नहीं है।
लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन व्यवस्था है। लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त हैं। सबकी हैसियत एक वोट की है। प्रत्येक नागरिक चुनाव में खड़ा हो सकता है, चुनाव जीतकर विधानसभा-संसद जा सकता है। इसे लोकतंत्र की खामी न माना जाए। यह तो लोकतंत्र की खूबसूरती है। लेकिन, जिस तरह से समाज ने समय की मांग को देखते हुए पुरानी शासन व्यवस्थाओं में फेरबदल किए, उसी तरह अब भी कुछ बदलाव तो लाए ही जा सकते हैं। चुनाव लडऩे की आजादी सबको हो लेकिन उसके लिए निर्धारित योग्यता होना अनिवार्य कर दी जाए। इससे लोकतंत्र का कुछ बिगड़ेगा नहीं बल्कि कुछ तो सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे ही। इससे भी आगे बढ़ा जा सकता है। चूंकि सरकार में अलग-अलग मंत्रालय हैं। जिन माननियों को ये मंत्रालय सौंपे जाएं, जरूरी नहीं कि उन्हें उसकी समझ हो। ऐसे में क्यों न नई सरकार के गठन पर मंत्री-सांसदों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। वर्तमान में भी यह व्यवस्था है लेकिन प्रभावी नहीं है। उसे प्रभावी बनाया जाना चाहिए। प्रशिक्षण कार्यशाला में जनप्रतिनिधि अनिवार्य रूप से शामिल हों, इसे सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। ताकि वे संसदीय कार्यवाही की प्रणाली को, अपने विभाग की कार्यप्रणाली को, संबंधित मंत्रालय की चुनौतियों को समझ सकें। ताकि उन्हें यह पता चल सके कि उन्हें क्या काम करने हैं। ताकि उन्हें समझ आए कि उन्हें कहां अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी है? यह जिम्मेदारी अकेले सरकार की नहीं है। पार्टियों को भी अपने स्तर पर यह चुनौती स्वीकार करनी होगी कि जिन कार्यकर्ताओं को वे आगे बढ़ा रहीं हैं, उनकी योग्यता को भी बढ़ाएं। चुनाव जरूरी लोकप्रियता के बूते जीते जा सकते हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिए जनता को जो सपने दिखाए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए तो काबिलियत ही काम आने वाली है। पार्टी संगठनों को सोचना होगा कि विधायक-सांसद-मंत्री जब अर्मादित, हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो बदनामी सिर्फ माननियों की नहीं होती बल्कि पार्टी का चरित्र भी गिरता है। पार्टी की भूमिका माता-पिता की तरह है। उनका बेटा (कार्यकर्ता) जैसा व्यवहार करेगा, उसका प्रतिसाद माता-पिता (पार्टी-संगठन) को ही मिलेगा। अच्छा व्यवहार करेगा का यश मिलेगा और बुरा व्यवहार करेगा तो ताने मिलेंगे कि जरूरी माता-पिता (पार्टी-संगठन) ने अच्छे संस्कार नहीं दिए होंगे। जरूर उनके घर में भी ऐसा ही माहौल होगा। नरेन्द्र मोदी के आने से भारतीय राजनीति में आई बदलाव की इस बयार के बीच हर कोई यह अपेक्षा कर रहा है कि शायद अब माननीय 'शिक्षित' हो जाएंगे।