ए क बरस और बीत गया। मैं 28 साल का हो गया। मेरे जीवन का 28वां साल उडऩ खटोले पर सवार होकर आया था। पता ही नहीं चला कब गुजर गया। मैं बस देखता रहा और वो तरसाकर चलता बना। इस साल बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ नहीं। कुछ पाकर भी नहीं पा सका। इस बहुत कुछ खोया भी तो बहुत कुछ खोकर भी नहीं खोया। कुल जमाकर कुछ नए पाठ सीखने को मिले। 28वें वसंत की शुरुआत में ही प्रणय सूत्र में बंध गया था। 21 जनवरी को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। तीन माह प्रेम से गुजरे ही थे कि विरह ने आकर घेर लिया। और अधिक ऊंचा पढऩे की ख्वाहिस से राजधानी भोपाल चला आया। राजधानी में पत्रकारिता करने की अदम्य लालसा भी थी। भोपाल ट्रांसफर करने के लिए कंपनी में अर्जी दे रखी थी। मई में फरमान आ गया-भोपाल जाना है। अद्र्धांगिनी को यह स्वीकार न था कि मैं उसे छोड़कर जाऊं और वह भरेपूरे परिवार को छोड़कर जाए। उस रात वह देर तक रोयी थी। मुझसे बात भी नहीं की थी। एक क्षण तो उसके आंसुओं ने मेरे पैरों में बेढिय़ां ही डाल दी थीं। अंततोगत्वा मेरा जाना तय हुआ। इधर, इन दिनों मेरी मां का भी बुरा हाल था। वो कई बार मुझसे पूछ चुकी थीं - तेरा जाना जरूरी है क्या? यहीं रहकर पढ़ाई नहीं हो सकती क्या? जैसे-तैसे करके मैं उन्हें समझा सका। विदा करते वक्त दरवाजे पर मां-पिता, दादा-दादी, भाई-बहिन सब थे। शहर से दूर जाने का मेरा यह पहला मौका नहीं था। हर साल मैं 10 से 20 दिन के प्रवास पर घर से बाहर जाता ही था। लेकिन, इस बार मैं लम्बे समय तक वापस घर नहीं आने के लिए शहर छोड़ रहा था। दरवाजे से सटकर मेरी मां खड़ी थी। भाई स्कूटर लेकर तैयार था। मेरी और मां की आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। दोनों एक-दूसरे के सामने रोना नहीं चाहते थे। सब मुझे देख रहे थे, मैं बारी-बारी से सबको। आंसुओं की झीनी परत के कारण मुझे सबके चेहरे धुंधले नजर आ रहे थे। ठीक वैसे ही धुंध छाए कांच की दूसरी ओर देखने पर दिखता है। ठीक वैसे ही जैसे सर्द मौसम में हल्की धुंध में चीजें लिपटी हुई होती हैं। भाई स्टेशन तक छोडऩे आया था। मैं स्कूटर पर पीछे बैठा था। अब मां सामने नहीं थी। आंसुओं को और बांध न सका। बह गए सब।
भोपाल के हर चौराहे से सफलता की सौ राहें फूटती हैं। लेकिन, शुरुआती दिनों में मुझे सिर्फ घर जाती राह ही नजर आती थी। मेरा व्यथित मन देख साथ देने के लिए श्रीमती जी भी भोपाल आ गईं। इधर, यहां भी आवोहबा मुझे भाने लगी। धीरे-धीरे ही सही लेकिन कब मैं भोपाली हो गया पता ही नहीं चल सका। भोपाल के ताल ने मेरा बड़ा साथ दिया। जब भी उदास हुआ या आनंद की अनुभूति हुई अपने अभिन्न मित्र दीपक सोनी के साथ पहुंच जाता था ताल के किनारे। घंटो उसे देखता रहता। सूरज की रोशनी में भी तो कभी चंद्रमा की चांदनी में ताल से बातें कीं। उसके पास सभी बातों का जवाब था। एक दिन उसने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा- मुझे देखो गर्मी में कितना रीत जाता हूं। लेकिन, मुझे उम्मीद रहती है कि वक्त बदलता है। मन सकारात्मक रखो तो बुरे दिन भी मौज से कट जाते हैं। फिर बारिश के बाद में लबालब हो जाता हूं। और भी तमाम बातें वो मुझसे करता था। इस बीच भोपाल में मुझे कई अच्छे दोस्त भी मिल गए। कुछ पहले से ही थे तो माहौल बन गया।
मेरे प्रेरणास्त्रोत युवा संत स्वामी विवेकानंद का जन्मदिवस मेरी जन्मतिथि (14 जनवरी) से दो दिन पहले (12 जनवरी) को पड़ता है। 'विवेक' से 'आनंद' लेता रहा इसलिए कभी भी निराशा को मन में घर नहीं करने दिया। हालांकि इस साल हमला तो नैराश्य ने कई बार किया था। कई बार उसने मेरे आत्मविश्वास और उत्साह पर हावी होना चाहा। लेकिन, धूल ही चाट सका बेचारा। मेरे पास स्वामी विवेकानंद के प्रेरणादायी विचारों की एक छोटी-सी पुस्तिका थी - 'शक्तिदायी विचार'। इस पढ़कर साहस बटोर लेता और भिड़ जाता अंधेरे से। उम्मीद की दो किरण तो फोड़ ही लाता था। बस फिर क्या चल रही है जिंदगी....
भोपाल के हर चौराहे से सफलता की सौ राहें फूटती हैं। लेकिन, शुरुआती दिनों में मुझे सिर्फ घर जाती राह ही नजर आती थी। मेरा व्यथित मन देख साथ देने के लिए श्रीमती जी भी भोपाल आ गईं। इधर, यहां भी आवोहबा मुझे भाने लगी। धीरे-धीरे ही सही लेकिन कब मैं भोपाली हो गया पता ही नहीं चल सका। भोपाल के ताल ने मेरा बड़ा साथ दिया। जब भी उदास हुआ या आनंद की अनुभूति हुई अपने अभिन्न मित्र दीपक सोनी के साथ पहुंच जाता था ताल के किनारे। घंटो उसे देखता रहता। सूरज की रोशनी में भी तो कभी चंद्रमा की चांदनी में ताल से बातें कीं। उसके पास सभी बातों का जवाब था। एक दिन उसने बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा- मुझे देखो गर्मी में कितना रीत जाता हूं। लेकिन, मुझे उम्मीद रहती है कि वक्त बदलता है। मन सकारात्मक रखो तो बुरे दिन भी मौज से कट जाते हैं। फिर बारिश के बाद में लबालब हो जाता हूं। और भी तमाम बातें वो मुझसे करता था। इस बीच भोपाल में मुझे कई अच्छे दोस्त भी मिल गए। कुछ पहले से ही थे तो माहौल बन गया।
मेरे प्रेरणास्त्रोत युवा संत स्वामी विवेकानंद का जन्मदिवस मेरी जन्मतिथि (14 जनवरी) से दो दिन पहले (12 जनवरी) को पड़ता है। 'विवेक' से 'आनंद' लेता रहा इसलिए कभी भी निराशा को मन में घर नहीं करने दिया। हालांकि इस साल हमला तो नैराश्य ने कई बार किया था। कई बार उसने मेरे आत्मविश्वास और उत्साह पर हावी होना चाहा। लेकिन, धूल ही चाट सका बेचारा। मेरे पास स्वामी विवेकानंद के प्रेरणादायी विचारों की एक छोटी-सी पुस्तिका थी - 'शक्तिदायी विचार'। इस पढ़कर साहस बटोर लेता और भिड़ जाता अंधेरे से। उम्मीद की दो किरण तो फोड़ ही लाता था। बस फिर क्या चल रही है जिंदगी....