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मंगलवार, 4 जुलाई 2023

स्कूल की छुट्टियां

 School ki Chhuttiyan | बचपन की याद दिलाती यह कविता


स्कूल के दिनों, बच्चे

करते थे प्रतीक्षा

अपनी छुट्टियों की, ताकि

समुद्र के किनारे वाले शहर में

या खूबसूरत वादियों के देश

जा सकेंगे घूमने

आई-बाबा के साथ।


परन्तु, मेरे लिए तो

मेरे गाँव का तालाब ही

किसी गोवा का समुद्र था

और सूखा-नंगा पहाड़

हिमालय का उत्तुंग शिखर।

खलियान तो जैसे

कुछ दिन के लिए

लॉर्ड्स का क्रिकेट मैदान

बन जाया करता था।


अपने सपने में

आया नहीं कभी

मनाली का फैमिली टूर भी

फिर लॉस एंजिल्स,

वेल्स के जंगल, हवाई

और इटली का लेक गार्डा तो

बहुत दूर की बात थी।


अपन राम के लिए तो

बजरंग मंदिर और

उसके औघड़ बगीचे में

स्वर्ग के सुख से बढ़कर थी

दाल-टिक्कर की पार्टी।

चढ़ना ऊंचे पेड़ों पर

लांघना खेतों की मेड़

खंडहर किले में खोजना रहस्य

अपने लिए तो यही थी

माचू-पिचू की साहसिक यात्रा। 


कवि लोकेन्द्र सिंह की और कविताएं देखने-सुनने के लिए क्लिक करें- मेरी कविताएं

कवि लाेकेन्द्र सिंह

मंगलवार, 28 जून 2022

पिपरौआ गाँव के सरपंच शैलेन्द्र सिंह यादव

जो बाबा पुष्पहार पहने हैं, चुनाव वे नहीं जीते हैं। जो शांत चित्त से पास में खड़े हैं, चेकवाली आधी बांह की शर्ट में, वे चुने गए हैं सरपंच। नेताजी शैलेंद्र सिंह यादव। सही तो है, वे कहां जीते हैं। जीत तो समूचे गांव की हुई है। हर कोई जीता है। इसलिए तो समाज से प्राप्त आशीर्वाद के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का भाव ही उनके लिए सर्वोपरि है। तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा...

ये इतने ही सहज और सरल हैं। जीत का कोई अभिमान नहीं। विनम्र। हंसमुख। संवेदनशील। उनका मिलनसार व्यक्तित्व उन्हें बाकी सबसे अलग पहचान देता है। श्रेय की भूख नहीं। कर्तव्य समझकर काम किया और भूल गए। कभी बड़प्पन नहीं दिखाते। सदा छोटे बनकर रहते हैं। इसलिए समूचे गांव ने खूब सारा प्रेम दिया। ग्राम पिपरौआ ने मास्टर साहब के लड़के शैलेंद्र सिंह यादव को सरपंच चुना है, जो अपने पिता की तरह ही सुलझे हुए और गांव के विकास के लिए समर्पित हैं। 

जिस दिन पंचायत चुनाव के मैदान में नेताजी ने अपना परचम उठाया था, उसी वक्त से जीत सुनिश्चित थी, बस प्रक्रिया और परिणाम आने की औपचारिकता बाकी थी। 

लोग चुनाव जीतने के लिए विकास और सहयोग के वायदे करते हैं। यह ऐसे चुनिंदा लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने सरपंच बने बिना ही गांव की तस्वीर बदलने में अग्रणी भूमिका निभाई है। 

रिष्ठ पत्रकार अनंत विजय और शिवानन्द द्विवेदी की पुस्तक 'परिवर्तन की ओर' में जिला पंचायत भितरवार के गाँव पिपरौआ का उल्लेख

नेताजी शैलेंद्र सिंह यादव तो पहले से ही सच्चे जनप्रतिनिधि थे। अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने हुए सरपंच भी बन गए। 

उन्होंने अपने सामर्थ्य का उपयोग सदा ही लोगों की भलाई के लिए किया है। वे लोगों की सहायता के लिए हर समय एक फोन कॉल की दूरी पर उपलब्ध रहते हैं। समाज से ऐसा गहरा नाता है कि अनेक जरूरतमंदों की मदद स्वयं आगे बढ़कर उस समय में की, जब उन्हें कहीं से सहायता की उम्मीद नहीं थी। शासकीय योजनाओं का लाभ ग्रामीण बंधुओं को मिले, ऐसे प्रयास भी लगातार उनकी ओर से रहते हैं। 

इस विजय के साथ यह विश्वास सबको है कि गांव की तरक्की को अब और पंख लग जायेंगे। शासकीय योजनाओं का लाभ गांव के अधिकतम लोगों को मिल सकेगा। नेताजी के नेतृत्व में गांव खुशहाली की ओर बढ़ेगा और बाकी अन्य पंचायतों के सामने उदाहरण बनेगा।

ईश्वर से प्रार्थना है कि सार्वजनिक जीवन में उनकी यात्रा और आगे बढ़े। मध्यप्रदेश की राजधानी उनकी प्रतीक्षा में है...

पंचायत चुनाव में जीत के बाद पिपरौआ के ग्रामवासियों का धन्यवाद ज्ञापन एवं सम्मान करते नवनिर्वाचित सरपंच शैलेन्द्र सिंह यादव


पिपरौआ गाँव के सरपंच शैलेन्द्र सिंह यादव / Shelendra Singh Yadav

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

कोरोना संक्रमण से बचाने वनवासी कल्याण परिषद की कार्यकर्ताओं ने सिलाई केंद्र पर मास्क बनाकर गाँव में बांटे

यह है संघ का विचार... साधारण कार्यकर्ता भी लोगों की सेवा-सुरक्षा में जुटे हैं


वनवासी कल्याण परिषद की ओर से महिलाओं/युवतियों को स्वावलंबी बनाने के लिए सिलाई सेंटर चलाये जाते हैं। अब ये सिलाई केंद्र और यहां प्रशिक्षण लेने वाली महिलाएं/युवतियां सब कोरोना महामारी से लड़ने वाली योद्धा के रूप में काम कर रहे हैं। प्रशिक्षु एवं प्रशिक्षक युवतियां यहां गांववासियों और गरीब लोगों के लिए निःशुल्क मास्क सिल रहीं हैं।

यह चित्र मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के गांव ठीकरी में संचालित सिलाई केंद्र का है। इसकी संचालिका कुमारी वर्षा धनवा रे है। उन्होंने सिलाई केंद्र पर प्राप्त कौशल का उपयोग कोरोना महामारी के इस विकट संकट में समाज के लिए करने का निर्णय लिया। दरअसल, वनवासी कल्याण परिषद की ओर से चलाए जाने वाले इस सिलाई केंद्र पर सिलाई सीखने के साथ-साथ समाजसेवा और देशसेवा का संस्कार भी सिखाया जाता है।

इसी शिक्षा का परिणाम है कि एक गांव की साधारण लड़की ने अपने कौशल और सिलाई केंद्र को लोगों की सेवा-सुरक्षा में समर्पित कर दिया। अभी तक कुमारी वर्षा ने 100 मास्क बना कर गांव में निशुल्क वितरित किये हैं। गांव वाले अपनी इस बेटी के सेवाभाव/सेवाकार्य को देखकर न केवल प्रसन्न हैं, बल्कि आश्वस्त भी हैं कि हम कोरोना को हरा देंगे और अपने लोगों को बचा लेंगे।

उल्लेखनीय है कि वनवासी कल्याण परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की प्रेरणा से काम करने वाला संगठन है, जो वनवासी क्षेत्रों में विशेष रूप से सक्रिय है।



रविवार, 1 अक्तूबर 2017

विकास की मुख्यधारा में आए गाँव

स्वतंत्रता के बाद सत्तर वर्षों तक गाँव और गरीब की सिर्फ बात ही होती रही, उनकी बेहतरी के लिए कोई कार्ययोजना कभी नहीं बन सकी। ब्रिटिश शासन से सत्ता सीधे कांग्रेस के हाथों में आई थी। कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने महात्मा गाँधी के आग्रह के बाद भी गाँवों की सुध नहीं ली और तब से गाँवों की अनदेखी करने की परंपरा-सी बन गई थी। कांग्रेस ने अपनी राजनीति चलाने के लिए गाँधीजी की विरासत पर स्वामित्व का सदैव दावा किया है, लेकिन उनके सपनों के भारत को साकार करने के प्रयास कभी नहीं किए। यह तथ्य है कि भारत की आत्मा गाँव में बसती है और गाँव का विचार महात्मा गाँधी के चिंतन के केंद्र में रहा। इसलिए जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'स्मार्ट सिटी' की तर्ज पर 'स्मार्ट गाँव' विकसित करने का निर्णय लिया, तब लगा कि गाँधीजी के विचारों की वास्तविक उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी है। इस बात को प्रमाणित करने के लिए सरकार की अन्य योजनाओं को भी देख लेना उचित होगा, जिनमें भारत की बुनियादी समस्याओं को दूर करने का उद्देश्य निहित है। भारत सरकार ने जब यह निर्णय किया कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ग्रामीण मिशन के तहत गाँवों का उत्थान किया जाएगा, आदर्श गाँव विकसित किए जाएंगे, तब लगा कि 70 साल में ही सही आखिर गाँवों के अच्छे दिन आ गए हैं। 

आदर्श गाँव के संबंध में विचार और चर्चा करते समय इतना स्पष्ट होना चाहिए कि इस योजना का अभिप्राय गाँवों को शहरों में तब्दील करना कतई नहीं है। जब भी आदर्श गाँव की चर्चा चलती है, तब आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न, संचार के सभी साधनों की उपलब्धता वाले गाँव का विचार मन में आता है। हम कल्पना करते हैं कि गाँव की सड़कें भी शहरों की तरह बेहतरीन हों। चौबीस घंटें बिजली आपूर्ति हो। इंटरनेट उपब्लध हो। ऐसा नहीं है कि गाँव में यह नहीं होना चाहिए। निश्चित ही यह बुनियादी जरूरते हैं, प्रत्येक गाँव में यह सुविधाएँ उपलब्ध होनी ही चाहिए। लेकिन, हमें समझना चाहिए कि गाँव का शहरीकरण ही गाँव का विकास नहीं है। यह अभारतीय विचार है। गाँव की अपनी मौलिकता है, उसे बचाए रखना भी उतना ही जरूरी है। आदर्श गाँव का विचार करते समय हमें समग्रता से विचार करना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी की सरकार से उम्मीद है कि वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ग्रामोदय के एकात्मिक प्रारूप के आधार पर ही आदर्श गाँव विकसित करेगी। आदर्श गाँव हमारे समृद्ध संस्कृति और जीवन मूल्यों के केन्द्र बनने चाहिए। यह गाँव भारतीय अवधारणा के मुताबिक हमें परिवार से गाँव, गाँव से जिला, जिला से प्रदेश, प्रदेश से देश और देश से विश्व को एकसूत्र में बाँधने वाली इकाई के रूप में विकसित हों। 11 अक्टूबर, 2014 को प्रारंभ की गई सांसद आदर्श ग्राम योजना का उद्देश्य यही है कि गाँव और वहाँ के लोगों में उन मूल्यों को स्थापित करना है, जिससे वे स्वयं के जीवन में सुधार कर दूसरों के लिए एक आदर्श गांव बनें। इस योजना में लोकसभा और राज्यसभा के सभी सांसद शामिल हैं। प्रधानमंत्री ने दूसरे दलों के सांसदों से भी एक-एक गाँव गोद लेने का आग्रह किया है। योजना के मुताबिक प्रत्येक सांसद एक गाँव की जिम्मेदारी लेकर 2016 तक उसका विकास करेगा। बाद में, दूसरे गाँवों की जिम्मेदारी लेकर उन्हें भी विकास की राह पर लेकर आएंगे। 

यह आलेख 'गाँवों की तरक्की की आदर्श योजना' शीर्षक से वर्ष 2017 में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय एवं शिवानंद द्विवेदी की पुस्तक 'परिवर्तन की ओर' में शामिल है।

इस बार गाँव आदर्श रूप में विकसित होंगे, इसका भरोसा गाँव के विकास के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संजीदगी है। यही कारण है कि वे बार-बार सांसदों से उनके गाँव के विकास की रिपोर्ट लेते रहते हैं। भाजपा के जिन सांसदों ने गाँव के विकास में रुचि नहीं दिखाई थी, प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए प्रोत्साहित किया था। गैर-भाजपाई सांसदों से भी प्रधानमंत्री ने आग्रह किया है कि वह भी एक गाँव गोद लेकर उसके उत्थान की चिंता करें। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रशिक्षण चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रचना में हुआ है, इसलिए वे अपनी वाणी की अपेक्षा कर्म से शिक्षा देते हैं। बनारस से 25 किलोमीटर दूर स्थित है गाँव जयापुर इसका उदाहरण है। प्रधानमंत्री ने जयापुर को गोद लिया है। भले ही प्रधानमंत्री स्वयं जयापुर नहीं जा पाते, लेकिन अपने गोद लिए गाँव की चिंता सदैव करते हैं। आज जयापुर सबके सामने आदर्श गाँव के रूप में प्रस्तुत है। प्रधानमंत्री द्वारा गोद लेने से पूर्व गाँव में मूलभूत सुविधाएं नहीं थीं, लेकिन अब यहाँ न केवल सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था है, बल्कि लोगों के बीच आपसी सहयोग की भावना भी गहरी हो गई है। गाँव के संबंध में जैसी कल्पना रहती है कि वहाँ के लोग आपस में मिलकर ही अपनी समस्याओं और चुनौतियों से निपट लेते हैं, वैसी कल्पना जयापुर में साकार दिखती है। जयापुर के गाँव वासियों से जब यह पूछा जाता है कि अच्छे दिन आ गए क्या? तब वे उत्तर देते हैं कि जयापुर के अच्छे दिन आ गए हैं। अब यहाँ सब सुख है। मोदीजी ने जब से गाँव को गोद लिया है, तब से गाँव की सूरत ही बदल गई है। इस लेख के लेखक का ननिहाल पिपरौआ, मध्यप्रदेश में ग्वालियर से तकरीब 35 किलोमीटर दूर स्थित है। तीन-चार साल पहले बारिश के समय गाँव में जाना मुश्किल हो जाता था। अब कभी भी गाँव जाइए, कोई दिक्कत नहीं। शहर से गाँव तक बेहतर सड़क मार्ग है। पानी की सुविधा है। लगभग प्रत्येक घर में शौचालय है। बिजली चौबीस घंटा तो नहीं, लेकिन पहले से अधिक समय के लिए रहती है। 

गाँव पिपरौआ के विकास का उल्लेख पत्रकार-लेखक लोकेन्द्र सिंह को कोट करते हुए रेनू सैनी ने अपनी पुस्तक 'मोदी सक्सेस गाथा' में किया है।

रेनू सैनी की पुस्तक 'मोदी सक्सेस गाथा- प्रधानमंत्री मोदी के जीवन की 101 प्रेरक कहानियां' से साभार।

यह सिर्फ एक या दो गाँव की कहानियाँ नहीं हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का गाँव अजनास भी तेजी से सुविधा सम्पन्न बन रहा है। देवास जिले के खातेगाँव विधानसभा के अंतर्गत आने वाले अजनास गाँव को नशामुक्त बनाने के प्रयास तेजी से हो रहे हैं। लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन ने इंदौर से लगभग 55 किलोमीटर दूर स्थित पोटलोद गाँव को गोद लिया है। इस गाँव बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा था। लेकिन, अब यह तेजी से विकास की राह पर चल पड़ा है। इसी तरह गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा चिह्नित गाँव बेंती सोलर एनर्जी से रोशन हो रहा है। गृहमंत्री के गोद लेने के बाद बेंती देशभर में चर्चित हो गया है। पंजाब नेशनल बैंक ने यहाँ सोलर स्ट्रीट लाइट लगवाई हैं। सांसद हेमामालिनी का गोद लिया गाँव रावल (मथुरा), उमा भारती का गाँव पवा (ललितपुर), किरण खेर का गाँव सारंगपुर (चंडीगढ़) और धर्मेन्द्र प्रधान का गाँव लक्ष्मी बिगहा (पटना) सांसद आदर्श गाँव योजना के अनुरूप विकसित होकर नये आयाम प्रस्तुत करेंगे। लगभग सभी भाजपा सांसद पूरी शिद्दत से अपने गोद लिए गाँव की चिंता कर रहे हैं। भले ही वह गाँव में नियमित नहीं पहुँच रहे, लेकिन उनके प्रतिनिधि ग्राम विकास के कार्यों पर पूरी नजर रखे हुए हैं। गुजरात के नवसारी के भाजपा सांसद सीआर पाटिल ने तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आदर्श सांसद गाँव योजना को सबसे पहले जमीन पर उतार दिया है। कावेरी नदी के किनारे बसा चिखली गाँव पहला आदर्श गाँव बन गया है। पाटिल ने महज चार माह में गाँव की तस्वीर बदल दी। चिखली में वाई-फाई है। यहाँ हेलीपेड भी है। सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं, जिन्हें थानों से जोड़ा गया है। ऐसी अनेक आधुनिक सुविधाएँ चिखली में उपलब्ध हैं। 

भाजपा के लिए जिस गाँव के प्रति अधिक लगाव होना चाहिए, वह गाँव है- धानक्या। राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित धानक्या गाँव पंडित दीनदयाल उपाध्याय के बचपन का साक्षी रहा है। चूँकि यह वर्ष दीनदयाल उपाध्याय का जन्म शताब्दी वर्ष है। इसलिए इस साल धानक्या को भी पूर्ण आदर्श गाँव में विकसित करके सबके लिए रोल मॉडल बना देना चाहिए। धानक्या की जिम्मेदारी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने ली है। उन्होंने एक समग्र योजना इसके लिए बनाई है, जिसमें बुनियादी जरूरतें और आधुनिक सुविधाओं को शामिल किया गया है। गाँव में भू-जल स्तर काफी गिर गया है। पानी की समस्या से निपटने के लिए तकरीबन सात किमी दूर बांडी नदी से पाइप लाइन द्वारा गाँव में पानी लाने की योजना है। स्वच्छता के लिए पूरी पंचायत में विशेष प्रयास हुए हैं। यहाँ लगभग प्रत्येक गाँव में शौचालय बन गया है। कहा जा सकता है कि पंचायत खुले में शौच मुक्त हो गई है। सबसे बड़ा प्रस्ताव यहाँ मिनी सचिवालय का है। इसके शुरू होने से चिकित्सक, पटवारी, ग्राम सेवक, महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, लोकमित्र और ग्राम सचिव एक ही छत के नीचे गाँव के लोगों की मदद के लिए उपलब्ध होंगे। गाँव वासियों को अपने छोटे-बड़े काम के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। अच्छी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा के लिए भी ठोस प्रयास जारी हैं। चूँकि सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह स्वयं खिलाड़ी हैं, इसलिए युवाओं के लिए गाँव में उत्तम खेल सुविधाएँ उपलब्ध हों, इसके लिए खेल मैदान विकसित किया जा रहा है। गाँव में प्रवेश करते ही प्रत्येक व्यक्ति को अहसास हो जाए कि धानक्या में एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय का बचपन बीता है, इसके लिए दीनदयाल जी की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक की आधारशिला यहाँ रखी गई है। 

विकास के पथ पर आगे बढ़ते इन गाँवों कहानियाँ हमें बताती हैं कि ग्रामवासिनी भारत माता के अच्छे दिन आ गए हैं। विकास की अवधारणा में पहली बार ईमानदारी से गाँव शामिल हुए हैं। 70 साल के इंतजार के बाद अब गाँव तक विकास की किरणें पहुँचनी शुरू हुईं हैं। उम्मीद की जा सकती है कि वह दिन दूर नहीं, जब गाँव से न शिक्षा के लिए पलायन होगा, न स्वास्थ्य के लिए। रोजगार की तलाश में किसी को भी गाँव छोड़कर शहर आने की आवश्यकता नहीं होगी।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

समग्रता में हो ग्राम विकास का चिंतन

 म ध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में सांसद आदर्श ग्राम योजना की राष्ट्रीय कार्यशाला में ग्राम विकास पर मंथन चल रहा है। विमर्श हो रहा है कि गाँव के विकास का रास्ता कौन-सा हो? क्या गाँवों में सिर्फ आर्थिक विकास की दरकार है? ग्राम विकास की चिंता में आर्थिक पहलू तक ही सीमित रहना उचित होगा क्या? केन्द्र और राज्य सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं को कैसे धरातल पर उतारा जाए? प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कार्यशाला में कहा कि शहरीकरण प्रत्येक समस्या का समाधान नहीं है। गाँवों को सम्पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करना होगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का विचार आदर्श ग्राम की संकल्पना के अनुरूप है। चूंकि चौहान गाँव से निकले हैं। वे गाँव की बुनियादी जरूरतों के अलावा समय के साथ आ रहीं नई चुनौतियों से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। श्री चौहान जानते हैं कि गाँव की जरूरत अच्छी सड़क है, पेयजल और सिंचाई के पानी की समस्या का समाधान आवश्यक है, रोटी-कपड़ा-मकान भी चाहिए। गाँव से युवाओं के पलायन को रोकना है तो बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं भी गाँव तक पहुंचानी ही होंगी। रोजगार के अवसर खड़े करने होंगे। लेकिन, सिर्फ इतना कर देने से गाँव आदर्श नहीं हो जाएंगे।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

विकास की अवधारणा में प्राथमिक हो ग्राम विकास

 भा रत सरकार ने देर से ही सही लेकिन गाँव की सुध ली है। स्मार्ट सिटी की तर्ज पर स्मार्ट गाँव विकसित करने का केंद्र सरकार का निर्णय सराहनीय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में स्मार्ट गाँव विकसित करने के लिए योजना मंजूर की गयी है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ग्रामीण मिशन के तहत गाँवों के उत्थान के लिए 5142 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे। सरकार के इस महत्वपूर्ण निर्णय के पीछे की प्रेरणा को जान लेना भी देशवासियों के लिए जरूरी है। स्मार्ट सिटी के दिवास्वप्न में खोयी सरकार को अचानक गाँव की याद कैसे आ गयी? हो सकता है देर सबेरे सरकार गाँवों की चिन्ता करती ही। भाजपा के नेतृत्व में पहले भी एनडीए सरकार (पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय में) गाँव-गाँव तक सड़क बिछाकर ग्राम विकास की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुकी है। लेकिन, इस समय अचानक से स्मार्ट विलेज के लिए बजट तय करने और सुनिश्चित योजना लाने के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरणास्रोत है। हाल में संघ और उसके विविध संघठनों के बीच समन्वय बैठक हुई थी। उसी समन्वय बैठक के दौरान आरएसएस की ओर से प्रधानमंत्री के समक्ष ग्राम विकास की दिशा में आगे बढऩे का विचार प्रस्तुत किया गया।

रविवार, 17 नवंबर 2013

मन बस गया बस्तर में

 छ त्तीसगढ़ की राजनीतिक राजधानी जरूर रायपुर है लेकिन छत्तीसगढ़ का असली रंग तो बस्तर में ही है। संभवत: यही कारण है कि बस्तर को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। अहो बस्तर, तुम भाग्यशाली हो, अभी भी प्रकृति की गोद में हो। इंद्रावति नदी तुमको सिंचित करती है। वरना तो विकास के नाम पर कितने शहर कांक्रीट के जंगल बन गए। सघन वन, ऊंचे-नीचे पहाड़ और आदिवासी लोकरंग से समृद्ध है बस्तर। बस्तर का जिला मुख्यालय जगदलपुर शहर है। जगदलपुर राजधानी रायपुर से करीब 305 किलोमीटर दूर स्थित है। सड़क मार्ग से जगदलपुर पहुंचने में 5 से 6 घंटे का सफर तय करना पड़ता है। सड़क मार्ग के दोनों और हरे-भरे, ऊंचे और घने पेड़ हैं, जो खूबसूरत बस्तर की तस्वीर दिखाते हैं। ये नजारे कहते हैं कि अगर आप घुमक्कड़ हो तो सही जगह आए हो, स्वागत है तुम्हारा। 
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से एक शोध कार्य के संदर्भ में बस्तर जाने का मौका मिला। पांच दिन बस्तर की वादियों और बस्तर के सरल स्वभाव के लोगों के बीच रहना हुआ। बस्तर की ज्यादातर आबादी वनवासी (आदिवासी) है। कुछ आबादी देश के अन्य प्रान्तों से आकर बस गई है या बसाई गई है। ग्वालियर-चंबल संभाग के भिण्ड जिले के प्रेम भदौरिया बताते हैं कि काफी पहले उनका परिवार भिण्ड से कारोबार के लिए जगदलपुर आया था। यहां की आबोहवा इतनी रास आई कि वे यहीं बस गए। वे बताते हैं कि बस्तर के एक राजा ने ग्वालियर-चंबल संभाग के कई ठाकुरों को यहां लाकर बसाया था। वनवासी समाज के बीच यहां एक गांव ठाकुरों का भी है। व्यापार करने के लिए मारवाडिय़ों ने भी यहां दुकानें जमा रखी हैं। उड़ीसा से बस्तर बेहद नजदीक है। यही कारण है कि उड़ीसा के लोग भी यहां आकर बस गए हैं। बस्तर के लोग भी कामकाज और बेहतर इलाज के लिए विशाखापट्नम जाते हैं। वरिष्ठ पत्रकार सुरेश रावल बताते हैं कि मूलत: वे भी उड़ीसा के हैं। काफी पहले यहां आकर बस गए हैं। बस्तर को समझने और देखने में श्री सुरेश रावल का बहुत सहयोग मिला। एक ढाबा पर, एक ही टेबल पर हम चार लोग खाना खा रहे थे। इनमें से एक पंजाब, दूसरा उड़ीसा, तीसरा उत्तरप्रदेश और चौथा यानी मैं मध्यप्रदेश का मूल निवासी था। मुझे छोड़कर बाकी के तीन सज्जन बस्तर में ही रच-बस गए थे। यानी कह सकते हैं बस्तर छत्तीसगढ़ी संस्कृति का गढ़ तो है ही देशभर की साझा संस्कृति की झलक भी यहां देखने मिलती है।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

मेरे गांव की शाम

मेरे गाँव की शाम | Mere Gaanv Ki Shaam | Lokendra Singh


शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में
सूरज अपनी किरणें समेटे
पहाड़ के पीछे जाता होगा
शीतलता फैलाते-फैलाते
चन्दा मामा आता होगा।
नदी किनारे सांझ ढले
मोहन बंसी मधुर बजाता होगा
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।

पीपल वाले कुंए पर पानी भरने
मेरी दीवानी आती होगी
चूल्हा जलाने अम्मा
जंगल से लकड़ी बहुत-सी लाती होगी
मंदिर से घंटे की आवाज सुनकर
मां घर में संझावाती करती होगी।
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।

दूर हवा में धूला उड़ती देखो
चरवाहे गायों को लेकर आते होंगे
अपनी मां की बाट चाह रहे
गौत में बछड़े रम्भाते होंगे
आज के प्रदूषित वातवरण में भी
सच्चे सुख मेरे गांव में मिलते होंगे।
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

मेरे मणिक मुल्ला 'दाऊ बाबा'

 सू रज का सातवां घोड़ा अर्थात् वह जो सपने भेजता है। धर्मवीर भारती का बहुचर्चित और अनूठे तरीके से लिखा गया उपन्यास है सूरज का सातवां घोड़ा। यह भी कह सकते हैं कि यह उपन्यास नहीं वरन् कहानियों का गुच्छ है। इस उपन्यास का सूत्रधार है मणिक मुल्ला। मणिक मुल्ला जिस मोहल्ले में रहता था उसी मोहल्ले और आसपास के कुछ युवा गर्मी की दोपहर में उसके पास समय काटने के लिए आ जाते थे। मणिक मुल्ला उनको कहानियां सुनाया करता था। मणिक की कहानियां निष्कर्षवादी हैं। सूरज का सातवां घोड़ा में मणिक मुल्ला लेखक और उसके मित्रों को लगातार सात दोपहर में सात कहानियां सुनता है। दोपहर होते ही लेखक और उसके मित्र मणिक के घर पहुंच जाया करते थे। 
  पहली दोपहर जब लेखक अपने दोस्तों के साथ मणिक मुल्ला के घर पहुंचा तो अहसास हुआ कि मैं भी उस मित्र समूह में शामिल हूं। हां, मुझे अपना बीता वक्त याद आ गया था। मेरा गांव। गांव के दोस्त। पहाड़। खेत-खलियान। सोना गाय और झुर्रियों वाला एक खास चेहरा। दाऊ बाबा का चेहरा। असली और पूरा नाम हरभजन सिंह किरार। वे गांव में ही रहते हैं। अब तो काफी वृद्ध हो गए होंगे। बहुत दिन से तो उन्हें देखा ही नहीं। ख्याल आया कि मेरे मणिक मुल्ला तो दाऊ बाबा हैं। हां, उन्होंने मुझे और मेरे दोस्तों को खूब कहानियां सुनाई हैं। अंतर इतना ही तो है कि मणिक मुल्ला दोपहर में कहानी सुनाता था जबकि दाऊ बाबा रात में। स्कूली शिक्षा के दौरान परीक्षा के बाद गर्मियों में तीन माह की छुट्टी मिलती थी। मेरे ये तीन महीने गांव में बीतते थे। समय के साथ यह सब छूट गया। अब तो कभी-कभार ही गांव जाना हो पाता है। वह भी दिनभर या एक-दो दिन के लिए। गांव में पहाड़ है उसी की तलहटी में बाबा (दादा), चाचा, दाऊ बाबा, दोस्त लोग रात को खटिया बिछाकर सोते थे। दरअसल, वहीं हमारे गौत (जानवर बांधने की जगह) भी थे। पशुधन की देखभाल के लिए सभी वहां सोते थे। लेकिन, मैं तो दाऊ बाबा से कहानियां सुनने के लिए वहां सोने जाता था। कहानियों का खजाना था उनके पास। मेरी फरमाइश पर ही कोई कहानी दोबारा सुनाई जाती थी वरना तो हर रोज एक नई कहानी। उनकी कहानियों में राजाओं का शौर्य, देशभक्त योद्धाओं की वीरता, भारत का वैभव, नारियों की महानता और पवित्रता, धर्म की विजय, अधर्म का नाश, मां की ममता, पिता का आश्रय, मेहनत कर सफल होने वालों की दास्तां, व्यापारियों के किस्से, परियों की खूबसूरती सब कुछ मिलता था। मैं बड़े चाव से उनसे कहानियां सुनता था। कहानी के अंत में वे भी मणिक मुल्ला की तरह निष्कर्ष निकाला करते थे। एक तरह से वे हमें कहानी से शिक्षित करने का प्रयास करते थे। निश्चित तौर पर उनसे सुनी कहानियों का असर मेरे जीवन पर पड़ा है और अभी भी है। 
धर्मवीर भारती के उपन्यास में या कहें मणिक मुल्ला की कहानियों में राजा-रानी, परी-देवताओं के किस्से तो नहीं थे। लेकिन, मध्यमवर्गी समाज का सटीक चित्रण है। आर्थिक संघर्ष है, निराशा के घनघोर बादलों के बीच आशा की रोशनी है। भरोसा तोड़ते लोगों के बीच भी विश्वास श्वांस लेता दिखता है। निश्छल प्रेम है। कपट है। क्रोध है। दोस्ती और दुश्मनी भी है। दु:ख है तो सुख भी है। सूरज के सातवां घोड़ा उपन्यास में मणिक मुल्ला ने कहानियों को इस ढंग से सुनाया है कि जो लोग सुखान्त उपन्यास के प्रेमी हैं वे जमुना के सुखद वैधव्य से प्रसन्न हों, लिली के विवाह से प्रसन्न हों और सत्ती के चाकू से मणिक मुल्ला की जान बच जाने पर प्रसन्न हों। जो लोग दु:खान्त के प्रेमी हैं वे सत्ती के भिखारी जीवन पर दु:खी हों, लिली और मणिक मुल्ला के अनन्त विरह पर दुखी हों। लेकिन, दाऊ बाबा अपनी कहानियों से किसी को दु:खान्त का  प्रेमी होने का मौका नहीं देते थे। वे सुखान्त के उपासक थे। कहानी सुनने वाले के मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो, मन में आत्मविश्वास हिलोरे ले, यही उनका प्रयास रहता था। हालांकि उनकी कहानियां मौलिक नहीं थी। वे कहानियां गढ़ते नहीं थे बल्कि उन्होंने कहानियों का संग्रह किया था अपने पूर्वजों से, धार्मिक ग्रंथों से। कभी-कभी वे स्वयं के अनुभव भी सुनाया करते थे ठीक कहानी की तरह। लम्बा अरसा बीत गया उन्हें सुने हुए। उन्हें सुनने की कामनापूर्ति का स्वांग रचा मैंने।
     सूरज का सातवां घोड़ा में मणिक मुल्ला को दाऊ बाबा माना और लेखक की जगह स्वयं को रखा। उपन्यास खत्म होने पर एक अलहदा अहसास था। लगा फिर से वही पहाड़ की तलहटी में खटिया बिछाकर दाऊ बाबा की कहानियों का आनंद ले रहा हूं। मणिक मुल्ला की कहानियों से मिले आनंद की खुमारी टूटी भी न थी एक सुबह मां का फोन आया। मां कह रही थीं - दाऊ बाबा नहीं रहे। कल गांव जाऊंगी तेरे पिताजी के साथ। तुझे तो छुट्टी नहीं मिलेगी। फोन उठाया था तब मैं नींद में था लेकिन यह सब सुनकर मैं सन्न रह गया। बाद में मां से और कितनी देर तक, क्या बात हुई कुछ ठीक से याद नहीं रहा। याद रहा बस इतना कि मेरा मणिक मुल्ला चला गया। 

मंगलवार, 8 मार्च 2011

नरसिंहगढ़ का फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता'

हर्ष गुप्ता
 खू बसूरत और व्यवस्थित खेती का उदाहरण है नरसिंहगढ़ के हर्ष गुप्ता का फार्म। वह खेती के लिए अत्याधुनिक, लेकिन कम लागत की तकनीक का उपयोग करता है। जैविक खाद इस्तेमाल करता है। इसे तैयार करने की व्यवस्था उसने अपने फार्म पर ही कर रखी है। किस पौधे को किस मौसम में लगाना है। पौधों के बीच कितना अंतर होना चाहिए। किस पेड़ से कम समय में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। किस पौधे को कितना और किस पद्धति से पानी देना है। इस तरह की हर छोटी-बड़ी, लेकिन महत्वपूर्ण जानकारी उसके दिमाग में है। जब वह पौधों के पास खड़ा होकर सारी जानकारी देता है तो लगता है कि उसने जरूर एग्रीकल्चर में पढ़ाई की होगी, लेकिन नहीं। हर्ष गुप्ता इंदौर के एक प्राइवेट कॉलेज से फस्र्ट क्लास टैक्सटाइल इंजीनियर है। उसने इंजीनियरिंग जरूर की थी, लेकिन रुझान बिल्कुल भी न था।
        सन् २००४ में वह पढ़ाई खत्म करके घर वापस आया। उसने फावड़ा-तसल्ल उठाए और पहुंच गया अपने खेतों पर। यह देख स्थानीय लोग उसका उपहास उड़ाने लगे। लो भैया अब इंजीनियर भी खेती करेंगे। नौकरी नहीं मिल रही इसलिए बैल हाकेंगे। वहीं इससे बेफिक्र हर्ष ने अपने खेतों को व्यवस्थित करना शुरू कर दिया। इसमें उसके पिता का भरपूर सहयोग मिला। पिता के सहयोग ने हर्ष के उत्साह को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। बेटे की लगन देख पिता का जोश भी जागा। खेतीबाड़ी से संबंधित जरूरी ज्ञान इंटरनेट, पुराने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से जुटाया। नतीजा थोड़ी-बहुत मुश्किलों के बाद सफलता के रूप में सामने आया। उसके फार्म पर आंवला, आम, करौंदा, शहतूत, गुलाब सहित शीशम, सागौन, बांस और भी विभिन्न किस्म के पेड़-पौधे २१ बीघा जमीन पर लगे हैं। हर्ष की कड़ी मेहनत ने उन सबके सुर बदल दिए जो कभी उसका उपहास उड़ाते थे। उसके फार्म को जिले में जैव विविधता संवर्धन के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है। इतना ही नहीं कृषि पर शोध और अध्ययन कर रहे विद्यार्थियों को फार्म से सीखने के लिए संबंधित संस्थान भेजते हैं।
        हर्ष का कहना है कि मेहनत तो सभी किसान करते हैं, लेकिन कई छोटी-छोटी बातों का ध्यान न रखने से उनकी मेहनत बेकार चली जाती है। मेहनत व्यवस्थित और सही दिशा में हो तो सफलता सौ फीसदी तय है। मैं इंजीनियर की अपेक्षा किसान कहलाने में अधिक गर्व महसूस करता हूं। हर्ष कहते हैं कि खेती के जिस मॉडल को मैं समाज के सामने रखना चाहता हूं उस तक पहुंचने में कुछ वक्त लगेगा.......
    हर्ष गुप्ता और उसके फार्म के बारे में बात करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना सा ही है कि कामयाबी के लिए जरूरी नहीं कि अच्छी पढ़ाई कर बड़ी कंपनी में मोटी तनख्वा पर काम करना है। लगन हो तो कामयाबी तो साला झक मारके आपके पीछे आएगी। यह कर दिखाया छोटे-से कस्बे नरसिंहगढ़ के फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता' ने।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

लक्ष्मी-गणेश या विक्टोरिया-पंचम

सोने-चांदी के सिक्के और दीपावली पूजन

 भा रत का सबसे बड़ा त्योहार है दीपावली। हर कोई देवी लक्ष्मी को प्रसन्न कर उनका स्नेह चाहता है। इसी जद्दोजहद में व्यक्ति अनेकों जतन करता है धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी को। पूजन के दौरान कोई गुलाब के तो कोई कमल के फूलों से उनका आसन सजाता है। घी-तेल के दिए जलाए जाते हैं। इस तरह के अनेक प्रयत्न बड़े ही उल्लास के साथ होते हैं। एक खास बात देखी है मैंने। दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोग चांदी या सोने का सिक्का खरीदते हैं। जिसे बाद में देवी के पूजन में रखा जाता है। इन सिक्कों पर कुछेक बरस पहले तक ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम के चित्र मुद्रित हुआ करते थे। दीपावली पर सर्राफ विशेष रूप से विक्टोरिया और पंचम के सिक्के बनवाते थे। जिनकी कीमत वजन के हिसाब से अलग-अलग रहती थी। मेरे गांव में अधिकतर सभी लोग ये सिक्के शहर से खरीद कर लाते और देवी पूजन में रखते। विक्टोरिया का चित्र मुद्रित होने के कारण इस सिक्के का नाम भी विक्टोरिया पड़ गया। गांव में कई लोग ऐसे हैं जिनके पास बहुत अधिक संख्या में विक्टोरिया जमा हो गए। संकट के वक्त कई लोगों के काम आई यह जमा पूंजी। इसी बात को ध्यान में रखकर इसे खरीदने पर जोर रहता था कि इस बहाने घर में सोना-चांदी के रूप में बचत जमा हो जाएगी।
    अंग्रेजो की गुलामी से आजाद होने के बाद भी कई वर्षों तक हमारे देश के टकसाल में सोने-चांदी के ही नहीं अन्य सिक्कों पर भी रानी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम के चित्र मुद्रित होते रहे। उपरोक्त विवरण के आधार पर मैं इस ओर सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि किस तरह से हमारा स्वाभिमान सोया पड़ा है। हम आज भी मानसिक रूप से गुलामी को भोग रहे हैं। हम देवी लक्ष्मी के पूजन के साथ उस सिक्के को रखते हैं जिस पर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया या जॉर्ज पंचम का चित्र मुद्रित रहता है। वैसे अब परिवर्तन आया है। वर्तमान में दीपावली पूजन के लिए जो सिक्के गढ़े जा रहे हैं उन पर देवी लक्ष्मी और प्रथम पूज्य श्री गणेश जी की छवि मुद्रित की जा रही है, लेकिन आज भी विक्टोरिया और जॉर्ज पंचम की छवि वाले सिक्के भी प्रचलन में हैं क्योंकि कई लोग उन्हें ही शुद्ध सिक्का मानते हैं।
सिक्कों का लम्बा इतिहास
देवी लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्कों का प्रचलन अभी का नहीं है। सैंकड़ों वर्षों पहले से राजा-महाराजा ने भी अपने सिक्कों पर लक्ष्मी की विभिन्न मुद्राओं के अंकन की परम्परा विकसित की थी। इतिहासवेत्ताओं ने यह तो स्पष्ट नहीं किया है कि किस राजा ने इस परंपरा का श्रीगणेश किया, लेकिन अब तक लक्ष्मी के अंकनयुक्त जो सबसे पुराने सिक्के प्राप्त हुए हैं, वे तीसरी सदी ईसा पूर्व के हैं। प्राप्त सिक्के कौशाम्बी के शासक विशाखदेव और शिवदत्त के हैं। सोने के इन सिक्कों पर देवी लक्ष्मी खड़ी मुद्रा में अंकित हैं और दोनों ओर से दो हाथी उन्हें स्नान करा रहे हैं। ईसा पूर्व पहली सदी के अयोध्या नरेश वासुदेव के सिक्के पर भी देवी लक्ष्मी का चित्र मुद्रित है। पांचाल नरेश भद्रघोष, मथुरा के राजा राजुबुल, शोडास और विष्णुगुप्त के सिक्कों पर भी कमल पर बैठी एक देवी प्रदर्शित हैं। जिन्हें कई इतिहासविद हालांकि लक्ष्मी नहीं अपितु गौरी या दुर्गा मानते हैं। उपरोक्त प्रसंग में गुप्तकाल (319 ईस्वी से 550 ईस्वी) का योगदान उल्लेखनीय है। लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्के इस काल में बहुत मिलते हैं। गुप्तवंश के शासक वैष्णव पंथ के उपासक थे। चूंकि लक्ष्मी विष्णुप्रिया हैं। संभवत: यही कारण रहा कि इस काल के देवी लक्ष्मी के अंकनयुक्त सिक्के बहुतायत में थे। चंद्रगुप्त प्रथम ने सन् 319 ईस्वी में एक सोने का सिक्का ढलवाया था। सिक्के के एक पट पर चंद्रगुप्त अपनी रानी कुमार देवी (जो बेहद खूबसूरत थीं) के साथ अंकित हैं वहीं दूसरे पट पर सिंह पर सवार लक्ष्मी अंकित हैं। इसके बाद समुद्रगुप्त ने अपने शासन में सोने के छह प्रकार के सिक्के चलाए। इसमें ध्वजधारी मुद्रा पर एक ओर गुप्त राजाओं का राजचिह्न 'गरुड़ध्वज' और दूसरी ओर सिंहासन पर विराजमान लक्ष्मी अंकित हैं। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (375 ई. से सन् 415 ई.) ने सोने-चांदी के अलावा तांबे के सिक्के भी ढलवाए। जिन पर सिंहासन पर सुशोभित लक्ष्मी चित्रित हैं और नीचे श्री विक्रम: लिखा है। कुमार गुप्त (415 ई. से 455 ई.) ने अपने सिक्कों पर लक्ष्मी का चित्रण करवाया। स्कंदगुप्त (455 ई. से 467 ई.) के भी दो सिक्के प्राप्त होते हैं। एक सिक्के पर एक ओर धुनषवाण लिए राजा और दूसरी ओर पद्मासन पर लक्ष्मी को अंकित किया गया है। सिक्के पर श्री विक्रम: की तरह ही श्री स्कंदगुप्त: लिखा गया है। वहीं दूसरे सिक्के पर राजा को कुछ प्रदान करते हुए लक्ष्मी का चित्रण हैं।
    गुप्त काल के बाद महाराष्ट्र और आंद्र प्रदेश के सातवाहन वंश के ब्राह्मण, राजाओं, दक्षिण भारत के चालुक्य नरेश विनयादित्य और कश्मीर के हूण शासक तोरमाण, यशोवर्मन और क्षेमेंद्रगुप्त के सिक्कों पर भी लक्ष्मी का अंकन है। इसके अलावा राजपूत काल में यह परंपरा प्रचलन में रही। इस दौरान मध्यभारत के चेदिवंश के शासक गांगेयदेव ने अपने राज्य के सिक्कों पर सुखासन मुद्रा में बैठी चार हाथों वाली देवी लक्ष्मी  का अंकन कराया। बुंदेलखण्ड के चंदेल शासक कीर्तिवर्धन के चांदी के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की सुंदर व कलात्मक मूर्ति का अंकन है।