Lokendra Singh लोकेन्द्र सिंह | Raisen Fort, Madhya Pradesh |
राम तेरी दुनिया में आकर
रंग देख रहा हूं, जीने का ढंग देख रहा हूं।
पल-पल में बदल रहे हैं लोग
रंगे सियारों का रंग देख रहा हूं।।
महंगाई सुरसा-सा मुंह फाड़ रही है
आम आदमी दाने-दाने को मोहताज देख रहा हूं।
मेहनतकश, मजदूर, गरीबों के पसीने से
अमीरों की तिजोरी में जमा धन देख रहा हूं।।
परंपराएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं
राक्षसी संस्कृति जन्मते देख रहा हूं।
बाजारवाद का चमत्कार है
नए-नए फर्जी त्योहार मनते देख रहा हूं।।
गजब है! दोस्त-दोस्त कहते-कहते
दुश्मनों-सा अंदाज देख रहा हूं।
पहले तो आस्तीनों में ही सांप थे
अब, खीसे में भी अजगर पलते देख रहा हूं।।
मोहब्बत का भी रंग उड़ गया है
इश्क शौकिया, बाजारू बनते देख रहा हूं।
साथ जीने-मरने की कसमें नहीं, वादे नहीं
दो पल मौज में बिताने, रिश्ते बनते देख रहा हूं।।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)