स माचार-पत्र और न्यूज चैनल्स धीरे-धीरे अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। लोगों को अब समाचार-पत्र में प्रकाशित होने वाली सामग्री पर पूरा-पूरा भरोसा नहीं रहा। अलग-अलग न्यूज चैनल्स पर आने वाले समाचारों को लेकर भी दर्शकों का मानना है कि सब सच नहीं है। एक ही खबर का लगभग पूरा सच जानने के लिए चार-छह अखबार पढऩे पड़ते हैं। तब भी कुछ न कुछ सवाल बाकी रह जाते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से चुनावी परिप्रेक्ष्य में लोक विमर्श का अध्ययन करने के लिए जब छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जाना हुआ और लोगों से बातचीत हुई तो मीडिया को लेकर एक कड़वा सच सामने आया। हालांकि मीडिया से लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है, इस सच से मैं पहले भी वाकिफ था। लेकिन बरसों-बरस पत्रकारों ने खुद को खपा-खपा कर विश्वसनीय पत्रकारिता की जो इमारत बुलंद की थी, वह कितनी तेजी से दरक रही है, यह जानकर अच्छा नहीं लगा। समाचार-पत्र और टेलीविजन से राजनीतिक मुद्दों पर आपको जो जानकारी मिलती है, उस पर आपका कितना विश्वास हैं? लगभग पूरा विश्वास करते हैं, उक्त सवाल का ऐसा जवाब देने वाला एक भी जागरूक पाठक और दर्शक नहीं मिला। हां, दस-पांच लोगों ने जरूर कहा कि अस्सी फीसदी तक विश्वास करते हैं। लेकिन, तीन सौ लोगों में दस-पांच ऐसे नामों की कोई गिनती नहीं की जा सकती। पत्रकारिता के भविष्य के लिए यह एक चुनौती है। मीडिया संस्थानों को अब चेत जाने की जरूरत है। अभी भी लोग अखबार और टेलीविजन पर आधा-आधा विश्वास कर रहे हैं लेकिन ऐसा ही चलता रहा तो यह आधा-आधा विश्वास भी जाता रहेगा। लोगों का मानना है कि पेड न्यूज की बीमारी की वजह से पत्रकारिता की विश्वसनीयता को सर्वाधिक क्षति हुई है। पेड न्यूज यानी नोट के बदले खबर छापना। वर्ष २००९ में लोकसभा के चुनाव के दौरान पेड न्यूज के कई मामले सामने आए थे। पहली बार पेड न्यूज एक बड़ी बीमारी के रूप में सामने आई थी। अखबारों और न्यूज चैनल्स ने बकायदा राजनीतिक पार्टी और नेताओं की खबरें प्रकाशित/प्रसारित करने के लिए पैकेज लांच किए थे। यानी राजनीति से जुड़ी खबरें वास्तविक नहीं थीं। जिसने ज्यादा पैसे खर्च किए उस पार्टी/नेता के समर्थन में उतना बढिय़ा कवरेज। जिसने पैसा खर्च नहीं किया उसके लिए कोई जगह नहीं थी। इस दौरान कई राजनेताओं ने सबूत के साथ मीडिया पर आरोप लगाए कि उनके समर्थन में खबरें छापने के लिए पैसा वसूला गया है या वसूला जा रहा है। पेड न्यूज की खबरों से बड़े मीडिया घरानों की साख पर भी बट्टा लगा। नतीजा यह हुआ कि इन विधानसभा चुनाव में स्वयं को विश्वसनीय दिखाने के लिए कई बड़े समाचार-पत्रों और चैनल्स ने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। सही मायने में कह सकते हैं कि खुद को पेड न्यूज के खिलाफ खड़ा दिखाया। समाचार-पत्रों ने तो 'नो पेड न्यूज' के लोगो तक प्रतिदिन प्रकाशित करना शुरू कर दिया। यानी हम विश्वसनीय अखबार हैं। हम नोट लेकर खबर नहीं छापते। लेकिन, पूर्व के कारनामे इतने बड़े हैं कि लोगों को 'नो पेड न्यूज' के मुखौटे पर आसानी के साथ विश्वास नहीं हो रहा है। वह तो खबरों से समाचार-पत्र और न्यूज चैनल की विश्वसनीयता को आंकता है।
मध्यप्रदेश के जिले दतिया में चाय-नाश्ते की दुकान पर मैंने देखा कि एक व्यक्ति अखबार पढऩे में काफी रुचि ले रहा है। वह दो-तीन समाचार-पत्र पढ़ चुका था। अमूमन भागदौड़ भरे इस समय में आदमी एक अखबार भी ढंग से नहीं पढ़ता है। ऐसे में समाचार-पत्रों को इतनी रुचि लेकर पढऩे वाले सुधी पाठक से बात करना मैंने उचित समझा।
'यहां, दतिया में कौन-से अखबारों की स्थिति अच्छी है।' मैं अपनी चाय का गिलास लेकर उसके नजदीक पहुंचा और उससे यह सवाल पूछा। उसने कहा- सब एक जैसे हैं। 'राजनीति के विषय में आपको समाचार-पत्रों से कितनी जानकारी प्राप्त होती है और आप उस पर कितना विश्वास करते हैं?' अखबार को मोड़ते हुए उसने मेरे इस सवाल का जवाब दिया- सब पैसा लेकर खबर छाप रहे हैं। ऐसे में सही जानकारी कहां मिल पा रही है। जो प्रत्याशी पैसा अखबार के दफ्तर पैसा पहुंचा देता है, अखबार के पन्नों पर उसकी वाहवाही और जीत दिखने लगती है। किसी एक अखबार की यह स्थिति नहीं है, सब के सब यही कर रहे हैं। अब अखबार और पत्रकार पहले जैसे नहीं रहे। यही कारण है कि अब अखबार में बड़ी-बड़ी खबरें प्रकाशित होने पर भी उनका कोई असर नहीं होता। 'आपको कैसे पता कि किस अखबार ने, कौन-सी खबर पैसा लेकर छापी है?' मेरे इस सवाल पर वह मुस्कुराया और बोला- स्थानीय आदमी को सब समझ में आता है साहब। अब अखबार वाले पैसा लेकर किसी बहुत ही कमजोर प्रत्याशी को जिताऊ प्रत्याशी बताएंगे तो स्थानीय लोगों को समझ नहीं आएगा क्या? यही कारण है कि लोग अब समाचार-पत्र की सभी खबरों पर पूरा भरोसा नहीं करते। मैं रोज तीन-चार अखबार पढ़ता हूं, क्योंकि तभी किसी खबर की पूरी जानकारी मिल पाती है।
उसने नाम लेकर कई प्रतिष्ठित अखबारों की नीति-रीति पर भी अंगुली उठाई। पैसा कमाने की भूख में सभी अखबार एक ही रंग में रंग गए हैं। उसने आगे कहा कि लोकतंत्र में मीडिया खुद को चौथा स्तम्भ मानता है। यह काफी हद तक सही भी है। लोकतंत्र को मजबूत करने में समाचार-पत्र और न्यूज चैनल्स की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। समाचार-पत्र और टेलीविजन की खबरें पढ़/सुनकर आज भी कई लोग अपनी चुनावी राय बनाते हैं। मीडिया के माध्यम से ही अलग-अलग नेताओं और पार्टियों के बारे में लोगों की धारणा बनती-बिगड़ी है। ऐसे में मीडिया यदि गलत और पक्षपातपूर्ण खबरें प्रकाशित करेगा तो लोकतंत्र को भारी नुकसान होने वाला है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए मीडिया को भ्रष्टाचार से मुक्त रखना जरूरी है। उसकी भूमिका ठीक रहना जरूरी है। फिलहाल तो मीडिया जिस दिशा में बढ़ रहा है, वह काफी खतरनाक है, मीडिया के लिए भी और लोकतंत्र के लिए भी। मीडिया पर लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है। यह चिंता का विषय है। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ में भी लगभग सभी लोगों का यही कहना था कि मीडिया में आ रही खबरें पूरी तरह सच नहीं है। सच के प्रहरी अब ताकत और धन लोलुपता के नशे में हैं। मार्केटिंग से जुड़े श्रीमान जाड़ावत ने बताया कि आम जनता के सरोकारों से अब मीडिया को उतना लेना-देना नहीं रहा है। सच यह है कि अब व्यावसायिक हित प्राथमिक हो गए हैं। चुनाव के समय में अखबार राजनीतिक विज्ञापनों की दर व्यावसायिक विज्ञापन से भी कहीं अधिक कर देते हैं। मीडिया की विश्वसनीयता की स्थिति क्या है, इसे समझने के लिए, ये महज उदाहरण नहीं हैं। बल्कि चेतावनी है कि मीडिया को लेकर बन रहे लोगों के इस मानस को गंभीरता से लेने की जरूरत है।