मंगलवार, 31 जुलाई 2012

हिन्दुओं का बलात्कार, हत्या और धर्मांतरण उनके लिए नेकी का काम

हि न्दुओं का बलात धर्मांतरण पाकिस्तान में नेकी का काम है, इस्लाम की सेवा है। हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए हर वो काम जायज है जिसे हम घोर अपराध मानते हैं। नाबालिग हिन्दू लड़कियों का अपहरण, उनसे सामूहिक बलात्कार, विरोध करने वाले हिन्दू स्त्री-पुरुषों की हत्या और टेरर टैक्स, इन सबसे पाकिस्तान में हिन्दू रोज ही दो-चार होते हैं। इस्लाम के नाम पर गुंडई करने वालों को सरकार की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष स्वीकृति है। नतीजा पाकिस्तान में हिन्दुओं की जनसंख्या लगातार घट रही है। विभाजन के समय पाकिस्तान में अच्छी-खासी हिन्दू आबादी थी। आज वहां हिन्दू गिनती के रह गए। बढऩे की जगह कम क्यों हुए? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं। कई हिन्दू अपनी बेटी, पत्नी, बहू और मां की आबरू बचाने और अपना धर्म बचाने के लिए पाकिस्तान से निकल आए। बहुतों का इस्लाम के नाम पर सबकुछ लूट लिया गया। उनकी मां-बहनों की आबरू, जमीन-जायदात सबकुछ। अब वे वहां मृतप्राय रह गए हैं। शेष जो विरोध में हैं रोज मुश्किल में जी रहे हैं। सरकार सुनती नहीं। हिन्दुओं के पक्ष में आवाज उठा रहे उदारवादियों की कोई बकत नहीं। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को हिन्दुओं पर अत्याचार दिखता नहीं। इतना ही नहीं भारत की भ्रष्ट सरकार के हुक्मरानों को उनकी फिक्र ही नहीं, क्योंकि वे वोट बैंक नहीं है। भारत सरकार तो पाकिस्तान से जान बचाकर आए हिन्दुओं को भी यहां से भगाने पर तुली नजर आती है। बड़ी विरोधाभासी स्थिति है, एक ओर तो बांग्लादेश से आ रहे लाखों घुसपैठियों के स्वागत में केन्द्र और केन्द्र समर्थित राज्य सरकारें पलक-पांवड़े बिछाकर बैठी हैं वहीं पाकिस्तान से आए गिनती के हिन्दुओं को भारत में जरा-सा ठिया देने में इन्हें कष्ट होता है। बांग्लादेशी और पाकिस्तानी घुसपैठियों के राशनकार्ड और वोटरकार्ड बनवाए जा रहे हैं वहीं हिन्दू शरणार्थियों को लीगल नोटिस थमाए जाते हैं। भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खराब करने में पाकिस्तान कभी नहीं चूकता। बिलावजह या झूठे प्रकरणों में गाहे-बगाहे वह अंतरराष्ट्रीय मंचों से भारत के खिलाफ हमला बोलता रहता है। जबकि भारत वाजिब कारणों पर भी खामोश रहता है। हिन्दुओं की समस्या को लेकर न तो उसने कभी पाकिस्तान सरकार से शिकायत की और न ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस मसले को उठाया।
    हाल ही में पाकिस्तान के 'आरी डिजिटल चैनल' पर लाइव धर्मांतरण दिखाया गया। इसमें एक हिन्दू लड़के सुनील से मौलाना मुफ्ती मोहम्मद अकमल ने इस्लाम कबूल करवाया। इससे पहले भी पत्रकारिता को कलंकित करने वाली टीवी एंकर माया खान ने सुनील और वहां उपस्थित अन्य लोगों को बधाई देते हुए कहा कि अब सुनील मोहम्मद अब्दुल्ला के नाम से जाना जाएगा। लाइव धर्म परिवर्तन दिखाने की यह घटना पत्रकारिता को मैला करने की पराकाष्ठा है। चैनल, टीवी एंकर और इस शो की पत्रकारिता जगत में जमकर निंदा की गई। पाकिस्तानी मीडिया ने ही उक्त चैनल, एंकर और सरकार की जमकर खबर ली। पाकिस्तान के अखबार 'डॉन' के संपादकीय में लिखा गया कि सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि चैनल ने एक बार भी नहीं सोचा कि इससे अल्पसंख्यकों (हिन्दुओं) पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जिस उत्साह से धर्म परिवर्तन का स्वागत किया गया, बधाइयां दी गईं, उससे साफ होता है कि पाकिस्तान में इस्लाम को जो स्थान प्राप्त है वह अन्य किसी धर्म को नहीं। एक ऐसे देश में जहां अल्पसंख्यकों को पहले से ही दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है, इस घटना ने उन्हें और किनारे पर धकेलने का काम किया है। वैसे यह तो सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में हिन्दू दोयम दर्जे का ही नहीं चौथे-पांचवे दर्जे का नागरिक समझा जाता है। संभवत: उसे वहां का नागरिक समझा ही नहीं जाता हो।
    इस पूरे प्रकरण में एक बात तबीयत से समझने की है। धर्म परिवर्तन के लाइव शो में मौलाना मुफ्ती मोहम्मद अकमल सुनील से सवाल करता है कि वह इस्लाम क्यों कबूल कर रहा है? इस पर सुनील ऊलझ-ऊलझ कर कहता है कि उसने मानवाधिकार कार्यकर्ता अंसार बर्नी के गैर सरकारी संगठन में काम करने के दौरान इस्लाम कबूल करने का फैसला किया था। सुनील ने कहा - 'दो वर्ष पहले मैंने रमजान में रोजा रखा था। इस्लाम कबूल करने के लिए मुझ पर कोई दबाव नहीं है। मैं अपनी इच्छा से इस्लाम कबूल कर रहा हूं।' सुनील को बकरा बनाकर यह संदेश जानबूझकर दिलवाया गया ताकि जब भी यह बात उठे कि पाकिस्तान में हिन्दुओं का जबरन धर्मांतरण किया जा रहा है तो कहा जा सके यह झूठा आरोप है। हिन्दू अपने धर्म से उकता गए हैं, उन्हें अब जाकर इल्म हुआ है कि इस्लाम ही सबसे बढिय़ा धर्म है। पाकिस्तान के हिन्दू अपनी मर्जी से, पूरे होशोहवास में इस्लाम कबूल रहे हैं। उन पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं है। वैसे इस बात से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि सुनील को डांट-डपट कर मुसलमान बनाया गया हो। वह कैमरे के सामने भले ही कह रहा था कि वह अपनी मर्जी से इस्लाम कबूल कर रहा है लेकिन क्या पता कैमरे के पीछे उसके माथे पर बंदूक की नली रखी हो या फिर उसका परिवार तलवार की धार पर बैठा हो। अपनी जान की परवाह आदमी फिर भी नहीं करता लेकिन परिवार के लोगों की आबरू और जिन्दगी पर आन पड़े तब क्या किया जाए? ऐसी स्थिति में वह मजबूर होता है, अपनी अंतरआत्मा के विरुद्ध जाने के लिए। खैर, पाकिस्तान में क्या, कुछ नहीं हो सकता हिन्दुओं के साथ, यह किसी से छिपा नहीं है। शो के प्रसारित होने के बाद पाकिस्तान के हिन्दू धर्मांतरण की घटनाओं में तेजी आने की आशंका जाहिर कर रहे हैं। लाहौर स्थित 'हिन्दू सुधार सभा' के अमरनाथ रंधावा ने चिंता व्यक्त की है कि इस घटना ने हिन्दू समाज में मायूसी फैला दी है। लोग डर रहे हैं कि इस्लामिक गुंडों के हौसले अब और बुलंद हो जाएंगे। मीडिया ने घटिया शो दिखाकर बेहद खराब उदाहरण पेश किया है। इस शो से पाकिस्तान के अल्पसंख्यक (हिन्दू) समुदाय पर दबाव बढ़ा है। रंधावा की चिंता जायज है। पाकिस्तान में हिन्दू पहले से ही दबे-कुचले हैं। किसी भी देश में उपेक्षित समुदाय को दो संस्थाओं से हमेशा न्याय और आसरे की उम्मीद रहती है -न्यायपालिका और मीडिया। जब मीडिया का ही चरित्र ठीक नहीं हो तो पीडि़तों की आवाज कौन बुलंद करेगा। जैसा कि इस लेख की शुरुआत में कहा गया कि हिन्दुओं का बलात धर्मांतरण, हत्या और अपहरण वहां के कट्टरपंथी धड़े के लिए नेकी का काम है। पाकिस्तान की मीडिया का इस तरह का चरित्र देखकर तो डर लगने लगा है कि कहीं मीडिया भी इस 'नेक' काम में शरीक न होने लगा।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

मेरे गांव की शाम

मेरे गाँव की शाम | Mere Gaanv Ki Shaam | Lokendra Singh


शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में
सूरज अपनी किरणें समेटे
पहाड़ के पीछे जाता होगा
शीतलता फैलाते-फैलाते
चन्दा मामा आता होगा।
नदी किनारे सांझ ढले
मोहन बंसी मधुर बजाता होगा
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।

पीपल वाले कुंए पर पानी भरने
मेरी दीवानी आती होगी
चूल्हा जलाने अम्मा
जंगल से लकड़ी बहुत-सी लाती होगी
मंदिर से घंटे की आवाज सुनकर
मां घर में संझावाती करती होगी।
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।

दूर हवा में धूला उड़ती देखो
चरवाहे गायों को लेकर आते होंगे
अपनी मां की बाट चाह रहे
गौत में बछड़े रम्भाते होंगे
आज के प्रदूषित वातवरण में भी
सच्चे सुख मेरे गांव में मिलते होंगे।
शाम सुहानी आती होगी मेरे गांव में।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

धरती-धरती चलो चिदंबरम, आसमान की छाती न फाड़ो

 कां ग्रेसनीत यूपीए सरकार की स्थिति दलदल में फंसे उस आदमी की तरह हो गई है, जो दलदल से बाहर निकलने के लिए जितना हाथ-पैर मारता है उतना ही दलदल में भीतर धंसता जाता है। सच को स्वीकार करने की जगह उस पर पर्दा डालने के लिए झूठ, कुतर्क और हास्यास्पद बयान जारी होंगे तो आमजन के अंतर्मन में उबाल आना स्वाभाविक है। अंडरअचीवर प्राइम मिनिस्टर की वकालत करने आए पी. चिदंबरम ने देश के आम आदमी की बेइज्जती करके कांग्रेस को और बुरा फंसा दिया। अब चिदंबरम और पूरी कांग्रेस देश को बरगलाने में लगी है। सलमान खुर्शीद, पी. चिदंबरम सहित तमाम नेता सफाई देते घूम रहे हैं। अपना घर साफ नहीं रख पा रहे गृहमंत्री पी. चिदंबरम क्या खाक मिस्टर क्लीन (?) की रक्षा कर पाते। होम करते ही हाथ जला बैठे। जिस देश की ६० फीसदी जनता दो जून का भोजन (?) जुटाने के लिए दिनभर हाड़ रगड़ती हो, उससे कहा जा रहा है कि वह आइसक्रीम खाकर मौज उड़ा रही है। यह देश की ६० फीसदी से भी अधिक आबादी का मजाक बनाना नहीं तो क्या है? जीवन के लिए हर क्षण संघर्ष कर रहे इस वर्ग को याद भी नहीं होगा कि उन्होंने और उनके बच्चों ने पिछली दफा आइसक्रीम कब खाई थी? संभवत: उन्हें तो यह भी नहीं पता होगा कि कोन वाली आइसक्रीम कौन-सी होती है? शाम की दो रोटी के इंतजाम के लिए जो आदमी सुबह निकलता हो उसके लिए एक किलो चावल पर एक रुपया बढ़ाना बहुत मायने रखता है। इसलिए निवेदन है कि चिदंबरम महाशय धरती-धरती चलो, आसमान की छाती न फाड़ो।
     फ्रांसीसी क्रांति के समय भूख से पीडि़त जनता वर्साय के महल के सामने जुट आई। इस उम्मीद के साथ कि महारानी उनका दर्द समझेंगी और कुछ राहत जनता को देंगी। जनता के प्रतिनिधियों ने महारानी से कहा कि जनता भूखी है। उसके पास खाने को ब्रेड (रोटी) नहीं है। उसकी मदद कीजिए। इस पर महारानी ने कहा कि ब्रेड नहीं है तो क्या हुआ? जनता से कहो कि वह केक खाए। ऐश-ओ-आराम में रह रही महारानी को क्या पता कि महल के बाहर उसके कुप्रबंधन से जनता कैसी मुसीबतें झेल रही है? केक खाने वाली महारानी को क्या पता कि केक जनता की पहुंच के बाहर है। जिस जनता के पास रोटी खरीदने के लिए पैसा न हो वह केक का दाम कहां से चुकाएगी? चिदंबरम का बयान इससे कहीं निचले स्तर का है। फ्रांस की साम्राज्ञी ने तो महल के बाहर की दुनिया देखी ही नहीं थी इसलिए उसे अपनी जनता की यथास्थिति पता नहीं थी। लेकिन, चिदंबरम साहब तो देश की दशा और दिशा से बखूबी वाकिफ हैं। भ्रष्टचार और महंगाई से आजिज आ चुकी जनता दिल्ली में कई बार डेरा डालकर अपने दर्द से भारत सरकार को बावस्ता करा चुकी है। इसके बाद भी गृहमंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि लोग पानी की बॉटल पर १५ रुपए और आइसक्रीम के कोन पर २० रुपए तो खर्च कर सकते हैं लेकिन गेहूं-चावल की कीमत में एक रुपए की बढ़त बर्दाश्त नहीं कर पाते। शायद चिदंबरम भूल गए कि उनकी ही सरकार के निर्देशन में योजना आयोग ने गरीबी का मजाक बनाते हुए आंकड़े पेश किए थे। आयोग के मुताबिक ३२ रुपए रोज पर शहर में और २६ रुपए रोज पर गांव में आदमी आराम से गुजारा कर सकता है। अब चिदंबरम साहब बताएं कि ३२ और २६ रुपए वाला आदमी २० रुपए आइसक्रीम पर कैसे खर्च कर सकता है। हवाई जहाज के बिजिनस क्लास में यात्रा करने वाला नहीं सोच सकता कि ट्रेन के जनरल डिब्बे में भेड़-बकरियों की तरह भरकर यात्रा करने के पीछे क्या मजबूरी हो सकती है। फाइव स्टार होटल में दाल की एक कटोरी के लिए तीन हजार रुपए खर्च करने वाला नहीं सोच सकता कि गेहूं-चावल पर एक रुपए बढऩे पर क्यों गरीब का कलेजा बैठ जाता है। भारत में करीब ४.६२ लाख राशन की उचित मूल्य की दुकानों से लगभग २० करोड़ परिवार को राशन बांटा जाता है। इन २० करोड़ परिवारों को पता है कि गेहूं-चावल का दाम प्रतिकिलो एक रुपए बढ़ाने पर घर के बजट पर क्या असर पड़ता है। उसकी भरपाई के लिए कितने घंटे ओवरटाइम कर हाड़तोड़ मजदूरी कर जीवन खपना पड़ता है। भारत में ४८ फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। इस मामले में भारत दुनिया में १५८वें स्थान पर खड़ा है। हमारे यहां शिशु मृत्यु दर एक हजार पर ५२ है, इससे दुनिया में हमारा १२२वां स्थान है। ये हाल इसलिए हैं कि लोगों के पास अच्छा खाने-पहनने-रहने के लिए पर्याप्त पैसा-साधन नहीं है। अगर सारा देश आइसक्रीम खा रहा होता तो स्थिति इतनी विकराल न होती। कांग्रेस सरकार को चाहिए कि वोट बैंक को साधने की नीतियां बनाना छोड़े और सही मायने में आम आदमी की चिंता करे। उसके विकास की दृष्टि रखकर योजनाएं बनाए। कांग्रेस के वर्तमान हाल को देखकर नहीं लगता कि उसका हाथ आम आदमी के साथ है। सच तो यह है कि इस वक्त कांग्रेस का हाथ आम आदमी के गिरेबां पर है।
       कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की आंखें तो भारत की गरीबी के संबंध में वर्ल्ड बैंक के आकंडे देखकर भी नहीं खुलीं। जिसे गरीबों से कोई लेना-देना नहीं हो या अंतिम छोर पर खड़े आदमी के उत्थान की चिंता ही न हो, उस सरकार को इन सबसे क्या फर्क पड़ता है। वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट कहती है कि गरीबी रेखा के नीचे जीने वाली आबादी के प्रतिशत के लिहाज से भारत की स्थिति केवल अफ्रीका के सब-सहारा देशों से ही बेहतर है। बैंक ने अनुमान जताया है कि २०१५ तक भारत की एक तिहाई आबादी करीब ६० रुपए प्रतिदिन से कम आय में गुजारा कर रही होगी। यूपीए सरकार की नीतियां देखकर तो वर्ल्ड बैंक के इस दावे से शायद ही कोई इनकार कर सके। वर्ल्ड बैंक की यह रिपोर्ट ग्लोबल इकनॉमिक प्रॉस्पेक्टस फॉर - २००९ शीर्षक से प्रकाशित हुई है। यह रिपोर्ट कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की नाकामी को साफ पानी की तरह हमारे सामने रखती है। इधर, टाइम मैगजीन ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडरअचीवर बताते हुए सरकार की वोट बैंक बढ़ाने वाली नीतियों की जमकर आलोचना की है। टाइम मैगजीन की रिपोर्ट कहती है कि भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी सरकार सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रही है। यूपीए के मंत्री-नेता सब वोट बढ़ाने के उपायों में फंसे दिखते हैं। गिरती आर्थिक वृद्धि, बढ़ता घाटा और रुपए की गिरती साख को संभालने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लाचार रहे हैं। कोयला आवंटन में मनमोहन के हाथ भी काले दिख रहे हैं। मंत्रियों पर प्रधानमंत्री का कोई नियंत्रण नहीं है। यूपीए-१ और यूपीए-२ के आठ साल के कार्यकाल में २जी सहित १५ लाख करोड़ रुपए से अधिक के घोटाले सामने आ चुके हैं। सरकार की नीतियां इतनी लचर हैं कि तीन साल में महंगाई दर १० फीसदी से ऊपर निकल गई है। पेट्रोल और रसोई गैस के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। विकास दर औंधे मुंह पड़ी है। फिलहाल विकास दर ६.५ फीसदी पर स्थिर है, जो पिछले नौ सालों में सबसे कम है। मैगजीन के एशिया अंक के कवर पेज पर प्रकाशित ७९ वर्षीय मनमोहन की तस्वीर के ऊपर शीर्षक दिया गया है - उम्मीद से कम सफल... भारत को चाहिए नई शुरुआत।

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

आनंद

टिक... टिक... टिक.... घड़ी की सुइयां भी इतने धीमे चल रही हैं लगता है इन्हें जंग लग गई है। कितनी देर से बैठा हूं, आधा घंटा नहीं हुआ अब तक। पिछले दस दिन, मेरी शादी के दस दिन तो कैसे फुर्र से बीत गए थे। पता ही नहीं चला था। तब तो बड़ा सरपट भाग रहा था वक्त। अब क्या हुआ? क्या किसी ने वक्त के पैर बांध दिए? नहीं, भला ऐसा हो सकता है क्या? समय पर किसका जोर है? वो तो मनमौजी है। अपनी ही धुन में चलता है। तभी तो अपने बुरे वक्त में आदमी लाख चाहे लेकिन अच्छे वक्त को उसकी मर्जी के खिलाफ खींचकर नहीं ला सकता। वह तो अपनी मर्जी से ही आता है। सार्थक बैंक में पैसा जमा करने आया था। बैंक का लंच टाइम खत्म ही नहीं हो रहा था। सार्थक के दिमाग को खाली देखकर ऊटपटांग विचारों ने आक्रमण कर दिया था। उसके अंतर्मन में खुद से ही यह संवाद चल रहा था। बैंक में कट्ट काले रंग से पुती लोहे की कुर्सियां पड़ी थी। इन्हीं में से एक कुर्सी पर आगे की ओर झुककर सार्थक बैठा था।
      हाल ही में उसकी शादी हुई थी। एक दिन पहले ही नवविवाहिता की विदाई हुई थी। उसकी छुट्टियां भी खत्म होने को थीं। शादी के बाद का थोड़ा-बहुत काम बाकी था, घर के सभी लोग उसी काम को खत्म करने में लगे थे। मां यहां-वहां से आए बर्तन व अन्य सामान वापिस पहुंचाने में व्यस्त थी। पिताजी हिसाब-किताब निबटा रहे थे। आज सुबह ही पिताजी ने सार्थक को कहा था- आज बैंक चले जाना। पैसा निकाल लाना ताकि हलवाई, सुनार और किराने वाले का हिसाब कर देंगे।
          फरवरी की दस तारीख थी। इन दिनों बैंक में पेंशन लेने वालों की खासी भीड़ रहती है। दोपहर बाद यह भीड़ छट जाती है। यही सोचकर सार्थक दोपहर बाद बैंक में पहुंचा था। लेकिन, आज तो उस वक्त भी भीड़ मौजूद थी। चार-छह बूढ़ी औरतें थीं, जो वहीं मंडल बनाकर बैठी थीं। सभी अपनी-अपनी बहुओं के गुण-दोष की विवेचना कर रहीं थीं। बीच-बीच में उनमें से एक-दो महिलाएं बैंक कर्मियों को महिलाओं वाली गालियां दे देतीं। नाशमिटे अभी तक लंच ही कर रहे हैं। कितना भकोसते हैं। अरे, भकोसते तो उतना ही हैं, हरामखोरी ज्यादा करते हैं। हजारों रुपए मिलते हैं, बैठकर रुपए गिनने के, तब भी मुंओं से काम नहीं किया जाता। हम बूढ़े लोग इतनी दूर से आए हैं हमारा काम करने की बजाय इन्हें गपियाने से फुरसत नहीं है। चल री छोड़ भी, इन्हीं नालायकों की वजह से हमें बतराने का मौका तो मिल जाता है, वरना तो हम कहां एक दूसरे का सुख-दु:ख बांट पाते हैं। हां, हां सही कह रही हो भौजी। बैंककर्मियों के लंच टाइम को सुख-दु:ख की पूछपरख का मौका बताने वाली बूढ़ी औरत ने आगे को सरकते हुए कहा- हां, तो मैं कह रही थी कि मेरी बहू हैं ना... उसे जरा-सा काम करने में भी कष्ट होता है। तुम्हें तो याद होगा हम लोग अपने जमाने में घंटों तक तो चक्की से आटा ही पीसा करते थे। इन्हें तो सब हाथ में मिलता है तब भी चार रोटी सेंकने में भी सिर दुखता है.......
      वहीं पास में ही कुछेक कुर्सियां छोड़कर सात-आठ वृद्ध पुरुष भी बैठे थे। वे अपने बीते दिनों को याद कर रहे थे। अपने दिनों के बहाने वे अपने दिनों की राजनीति की चर्चा कर रहे थे। सार्थक नहीं सोच पा रहा था कि महिलाओं को 'घर-घर की कहानी' से फुरसत क्यों नहीं मिलती। उनकी बातचीत का केन्द्र बिन्दु अकसर यही क्यों होता है। वहीं पुरुषों के पास राजनीति की चर्चा के अलावा और कोई मुद्दा नहीं है क्या? सार्थक ने वृद्ध पुरुषों की बातों पर कान दिया तो पता चला कि राष्ट्रीय-क्षेत्रीय नेताओं के चरित्र पतन की बातों में उलझे थे। राजनीति में यह इस समय हॉट टॉपिक था। हाल ही में दो-तीन नेताओं के सेक्स वीडियो सामने आए थे। वृद्धों के चर्चा मंडल में कोई अपने जमाने के चरित्रवान नेताओं के किस्से सुना रहा था तो कोई आज के भ्रष्ट नेताओं के कारनामों का बखान कर रहा था। सार्थक ने मन ही मन सोचा कि दोनों ही जगह जो बहस चल रही है उसका अंत नहीं है। कहानी घर-घर की जितनी खिंचेगी उतनी कम होगी। राजनीति पर चल रही बहस का तो कोई ओर-छोर ही नहीं है।
      इसी बीच सार्थक की नजर एक धवल वस्त्र पहने शांत भाव से बैठे एक वृद्ध पर पड़ी। वे किसी की तीन-तेरह में नहीं थे। एक कुर्सी पर बैठे थे, चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। शायद यह मुस्कान इस चेहरे पर हमेशा रहती होगी, ऐसा लग रहा था। बाल पूरे पके हुए थे। सिर के भी और दाड़ी के भी। हल्की घनी दूध-सी सफेद दाड़ी से झांकते मुस्काते होंठ इंद्रधनुष की तरह लग रहे थे। उस शस को देखकर अजीब-सा सुकून मिल रहा था। सार्थक एकटक उन सज्जन के माथे से प्रस्फुटित हो रहे तेज का आनंद ले ही रहा था तभी एक वृद्धा पैसा निकालने वाले काउंटर पर पहुंची। उसने कैशियर को डपटते हुए कहा - हम बुजुर्ग यहां परेशान हो रहे हैं और तुहारा लंच टाइम अभी तक खत्म ही नहीं हुआ। घड़ी में देखो जरा पूरे ढाई बजकर पांच मिनट ऊपर हो चुके हैं। कैशियर पर वृद्ध की बात का कोई असर नहीं हुआ। हालांकि उसने सिर नीचे की ओर रखकर ही जवाब दिया - माते अभी पूरे दस मिनट बाकी हैं। इस पर वृद्धा ने दीवार पर टंगी गोल घड़ी की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा- वो देखो घड़ी। बैंक ही ही घड़ी है न? क्या टाइम हो रहा है उसमें दिख रहा है या नहीं? पूरे पांच मिनट अधिक हो चुके हैं और तुमसे बात करने में समय जाया हो रहा है वो अलग। लेकिन, कैशियर का वही रूखा व्यवहार। उसने जवाब दिया - दादी वो दस मिनट आगे है। दस मिनट बाद ही खिड़की खुलेगी। दस मिनट मतलब दस मिनट। बूढ़े तो वैसे ही बच्चे होते हैं। कई बच्चे अपनी बात नहीं मनते देख बिगड़ जाते हैं। उन बूढ़ी औरत का स्वभाव भी कुछ इसी तरह के बच्चे के जैसा था। कैशियर का जवाब सुनकर बूढ़ी औरत उखड़ गई। वह और हल्ला करने लगी। विवाद बढ़ता देख सार्थक ने कैशियर से कहा- महोदय आपने लंच बे्रक तो इसी घड़ी से किया होगा तो काम भी इसी घड़ी के मुताबिक शुरू कर दीजिए। वह कुछ कह पाता इससे पहले ही एक दूसरे कैशियर ने अपनी खिड़की खोलकर उस बूढ़ी औरत को अपने पास बुला लिया। उसने साथी के बर्ताव के लिए उस वृद्धा से माफी भी मांग ली थी। 
    खिड़की खुलते ही सब लोग कतार में आ गए। वो सफेद दाड़ी वाले वृद्ध सार्थक के पीछे ही थे। जैसे ही सार्थक की बारी आई तो कैशियर ने सार्थक से कहा - आप युवा हैं। आपसे निवेदन है कि आपके पीछे जो सज्जन हैं उन्हें पहले पैसा निकालने का मौका दें। इस पर वृद्ध ने कैशियर को ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने सहज भाव से कहा - पहले इनकी ही बारी है इन्हें ही पैसा दें। सार्थक पैसा लेकर पास में ही असली-नकली नोट की जांच करने लगा। उसने देखा कि कैशियर ने उस वृद्ध को जैसे ही वृद्ध को उनका पैसा दिया, वृद्ध ने धन्यवाद कहा और झट से अपनी जेब से चार चॉकलेट निकालकर कैशियर को दे दीं। चॉकलेट देखकर कैशियर प्रफुल्लित हो गया, उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए कि जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो। सफेद दाड़ी वाले वृद्ध ने काउंटर छोड़ते हुए कैशियर को कहा - हमेशा ऐसे की ईमानदारी से काम करना और लोगों की मदद करना। कैशियर ने अपनी सीट से खड़े होकर उनका अभिवादन किया। सार्थक कुछ अचंभे में था। वृद्ध ने कैशियर को चॉकलेट क्यों दी? उसने कैशियर से पूछा - सर, ये सज्जन कौन थे? कैशियर ने मुस्काते हुए जवाब दिया - ये आनंद भाई थे। शहर इन्हें टॉफी वाले बाबा के नाम से भी जानता है। अनुशासन, ईमानदारी और लोगों की मदद करने वालों को ये इनाम स्वरूप टॉफी देते हैं। सार्थक बैंक से बाहर निकलते हुए सोच रहा था - वे देवदूत की तरह बाबा अपने नाम को किस तरह सार्थक कर रहे हैं। चहुंओर आनंद बिखेर रहे हैं।