रविवार, 7 दिसंबर 2025

डॉक्टर साहब के विचारों से पोषित है संघ की यात्रा

जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दू समाज को आत्मदैन्य की स्थिति से बाहर निकाल कर आत्मगौरव की भावना से जागृत किया, उसी प्रकार डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी हिन्दू समाज का आत्मविश्वास जगाकर बिखरे हुए हिन्दुओं को एकजुट करने का अभिनव कार्य आरंभ किया। दोनों ही युगपुरुषों ने लगभग एक जैसी परिस्थितियों में संगठन का कार्य प्रारंभ किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिन उद्देश्यों के साथ हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के मूल में भी उसी ‘स्व बोध’ का संकल्प है। भारत का स्वदेशी समाज जागरूक और संगठित रहे, उसमें ही सबका हित है। स्वराज्य प्राप्ति के बाद भारत किस प्रकार अपने खाये हुए वैभव और गौरव को प्राप्त करे, यह चिंतन-धारा युगद्रष्टा डॉक्टर हेडगेवार के मन में चलने लगी थी। उसी चिंतन-धारा में से संघ धारा का एक सोता फूटा था। डॉक्टर साहब ने जिस प्रकार का संकल्प व्यक्त किया था, उसी के अनुरूप नागपुर के मोहिते बाड़ा रूप गोमुख से निकली संघधारा आज सहस्त्र धारा के रूप में समाज को सिंचित कर रही है। 

अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जब हम डॉक्टर साहब के दृष्टिकोण से देखते हैं, तब हमें संघ का विराट स्वरूप एवं लक्ष्य ध्यान में आता है। डॉक्टर साहब ने अपने अंतिम उद्बोधन में संघ क्या है और किसके लिए है, इस संबंध में स्पष्ट मार्गदर्शन किया है। संघ की विराट संकल्पना को स्वयंसेवकों के सम्मुख रखते हुए उन्होंने कहा- “तन-मन-धन पूर्वक संघकार्य करने के लिए दृढ-निश्चय और अखंड सावधानी के साथ जाग्रत रहने की आवश्यकता है। रोज रात में सोने से पूर्व यह विचार करते रहें कि आज मैंने अपने देश के लिये क्या किया? यह ध्यान रहे कि संघस्थान पर नियमित रूप से प्रतिदिन उपस्थित रहने से ही हमने संघकार्य कर लिया, ऐसा नहीं है। हमें आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दू समाज को संगठित करना है। संघ के बाहर का हिंदू समाज ही हमारा वास्तविक महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र है। संघ की स्थापना सिर्फ संघ में आनेवाले स्वयंसेवकों के लिये नहीं की गई है। जो लोग संघ से बाहर हैं, संघ उनके लिये भी है। लोगों को राष्ट्रोन्नति का मार्ग समझाना हमारा कर्तव्य है और मेरे मतानुसार वह मार्ग केवल संगठन ही है। हिन्दू जाति का अंतिम कल्याण केवल संगठन के मार्ग से ही हो सकता है यह ध्यान रहे”।  डॉक्टर साहब के बौद्धिक के इस अंश में कई महत्वपूर्ण संकेत हैं।  

संघकार्य केवल एक घंटे की शाखा तक ही सीमित नहीं है। शाखा तो संघकार्य का केंद्र बिन्दु है। संघकार्य तो वास्तव में शाखा से बाहर समाज जीवन में है। शाखा से प्राप्त संस्कार, समर्पण एवं दिशाबोध लेकर समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्रीय भाव का प्रस्फुटन करना संघ के स्वयंसेवकों का दायित्व है। स्वयंसेवक संघ की शाखा से निकल कर जब समाज जीवन में जाएं, तो वे उस ध्येय को याद रखें जिसको साकार करने का संकल्प उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा में किया है। संघ के विचार नवनीत को शाखा में आनेवाले स्वयंसेवकों तक ही सीमित कर देंगे, तब समाज परिवर्तन का स्वप्न कैसे साकार होगा। संगठन के विस्तार और विकास का कार्य तो संघ शाखा के बाहर ही अधिक मात्रा में होना चाहिए। डॉक्टर साहब कहते थे कि स्वयंसेवक की यह सोच नहीं होनी चाहिए- ‘एक घंटा संघ के लिए, बाकी तेईस घंटे संघेतर व्यवहार के लिए’। बाबासाहेब आपटे कहते थे कि हम एक घंटा संघस्थान पर आते हैं। बाकी तेईस घंटों में संघ का काम हमने कितना किया उसका यह एक घंटा मापदण्ड है। हमारा संघचिंतन चौबीस घंटों का होना चाहिए। अपनी नौकरी-व्यवसाय, अध्ययन-अध्यापन और अन्य प्रकार की सामाजिक सक्रियता के दौरान स्वयंसेवक को अपने आचरण से संघ को अभिव्यक्त करने के साथ ही योग्य लोगों का चयन करके संघ के राष्ट्रीय कार्य में सहभागी बनाना चाहिए। सबको साथ लेकर चलना संघ दृष्टि है।

संघ केवल शाखा तक केंद्रित न रह जाए, इस बात की चिंता डॉक्टर साहब को प्रारंभ से थी। आज किसी भी आपदा के समय संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में रहकर सेवाकार्य एवं व्यवस्था संभाल करते दिखायी देते हैं, इसकी पृष्ठभूमि में भी डॉक्टर साहब का चिंतन है। अप्रैल, 1926 में रामनवमी के मेले के अवसर पर वे स्वयंसेवकों को रामटेक लेकर पहुँचे। रामटेक में यात्रा के समय भारी भीड़ रहती थी तथा अनेक यात्रियों को अव्यवस्था के कारण धक्का-मुक्की का कष्ट तो सहना ही पड़ता था उन्हें दर्शन भी ठीक तरह से नहीं मिल पाते थे। डॉक्टरजी की प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने यात्रा की संपूर्ण व्यवस्था को संभाल लिया, जिससे उस सबने आनंददायक वातावरण में यात्रा पूरी की। इसी प्रकार, डॉक्टर साहब ने सबको स्वप्रेरणा से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। संघ के प्रारम्भ से ही डॉक्टरजी ने प्रत्येक राजकीय आन्दोलन के सम्बन्ध में यही सुसंगत नीति बरती थी कि संघ के स्वयंसेवक जैसे संघ के घटक हैं वैसे ही वे हिन्दू समाज के भी एक जागरूक एवं कर्तव्यशील नागरिक हैं। अतः उन्हें इस नाते ही राजनीतिक आन्दोलनों में व्यक्तिशः भाग लेना चाहिए। 1930-31 के जंगल सत्याग्रह में सम्मिलित होने के पूर्व इसी नीति के अनुसार डॉक्टरजी ने सरसंघचालक पद का भार डॉ. परांजपे के सुपुर्द किया था। अपने सहयोगियों से भी उसी नीति का पालन करवाया था। सामाजिक आंदोलनों में संघ के स्वयंसेवकों की सहभागिता बढ़े और संघकार्य भी पल्वित होता रहे, इसका संतुलन बनाने का सूत्र भी डॉक्टर साहब देकर गए हैं। डॉक्टर साहब ने सिखाया कि अपने किसी निर्णय एवं आचरण से संघकार्य को क्षति न पहुँचे, इसकी सावधानी हमें प्रत्येक क्षण रखनी चाहिए। संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी लिखते हैं- “डॉक्टरजी की मान्यता थी कि जैसे अन्तिम लक्ष्य की ओर ध्यान रखने के कारण तात्कालिक आवश्यकताओं की ओर दुर्लक्ष करना अव्यवस्थित चित्त का लक्षण है, वैसे ही तात्कालिकता के सामयिक आवेश में बह जाने के कारण अंतिम लक्ष्य को क्षति पहुँचाने वाला कोई कार्य करना भी अव्यवस्थित चित्त का ही लक्षण है। अंतिम तथा तात्कालिक आवश्यकताओं में नित्यानित्य का संघानुकूल संतुलन रखना परम आवश्यक है। यह संतुलन डॉक्टरजी ने सतत कायम रखा”।

संघकार्य करने के लिए डॉक्टर साहब ने कुछ सूत्र दिए हैं- दृढ निश्चय, अखण्ड  सावधानी, जागरूकता और तन-मन-धन पूर्वक अर्थात अपना सर्वस्व लगा कर निरंतर सक्रियता। संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भी अकसर कहते हैं कि संघ ऐसे ही लोग चलाते हैं, जो होते तो सब जगह हैं लेकिन दिखते नहीं हैं। असल में संघ के स्वयंसेवक अपने आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के सूत्रों को अंगीकार कर, प्रसिद्धिपरांगमुख होकर, निष्ठा के साथ, नेपथ्य में रहकर संघ कार्य करते हैं। डॉक्टर साहब ने यह दृष्टि भी दी कि संघ व्यक्तिनिष्ठ और व्यक्तिकेंद्रित संगठन न बने। इसलिए संघ की कार्यपद्धति में सामूहिकता को प्राथमिकता है। संघ की जो कार्यपद्धति हमें दिखायी देती है, उसके सभी सिरे डॉक्टर साहब के जीवन से जुड़ते हैं। वे जैसा संघ चाहते थे, वैसा उन्होंने जीकर दिखाया। उन्होंने संघ के माध्यम से लोगों के मन में यह भाव जगाया कि ‘‘मैं राष्ट्र का घटक हूँ तथा उसके लिए मेरा जीवन लगना चाहिए’’। यह भाव जितना मजबूत होगा, यह राष्ट्र उतना ही सशक्त और उन्नत होगा। 

संघ की स्थापना से पूर्व और बाद में भी भारत में अनेक सामाजिक आंदोलन, संस्थाएं एवं उपक्रम प्रारंभ हुए। हिन्दू समाज के संरक्षण, संवर्धन तथा सुधार के लिए प्रारंभ हुए कई महापुरुषों के श्रेष्ठ प्रयास उनके साथ ही काल-कलवित हो गए या फिर संप्रदाय, जाति और स्थानीयता के दायरे में बंधकर रह गए। डॉक्टर हेडगेवार ने सावधानीपूर्वक संघकार्य को समाज के कार्य का स्वरूप प्रदान किया, इसलिए संघ ने कालजयी स्वरूप धारण कर लिया है। संघ को विशिष्ट पहचान का संगठन बनने से बचाने के लिए डॉक्टरजी बहुत सतर्क रहते थे। डॉक्टर साहब के श्रद्धेय बीएस मुंजे ने जब संघ को हिन्दू महासभा का ‘सेवादल’ बनाने का प्रयास किया, तब डॉक्टरजी ने उनके विचार से किनारा करके संघ को सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन के रूप में प्रतिष्ठित किया। प्रारंभ के समय में संघ की उपस्थिति लोगों को दिखायी दे, इसके लिए कई लोग सुझाव देते थे कि हमें चौबीस घंटे अपने गणवेश में ही रहना चाहिए। किसी का सुझाव था कि हमें संघ के बिल्ले लगाकर रखने चाहिए। उस पर डॉक्टरजी ने बहुत महत्व की बात कही- “हम संपूर्ण समाज से एकरूप एकात्म है। कार्य करते समय हम कोई अलग से लोग हैं यह भावना समाज के किसी के भी मन में पैदा नहीं होनी चाहिए”। हम देख पाते हैं कि डॉक्टर साहब बिल्कुल छोटी-छोटी बातों में भी यह ध्यान रखते थे कि संघ की वास्तविक प्रतिमा पर कोई छाया न आए। एक छोटी-सी बैठक में विजयादशमी उत्सव के निमंत्रण पत्रिका का विषय चल रहा था। पत्रिका का प्रारंभ, ‘हमारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी महोत्सव’, ऐसा किया गया था। डॉक्टरजी ने पूछा, ‘हमारे’ यह शब्द ठीक है क्या? ‘हमारे’ कहते ही ‘तुम्हारे’ का भाव भी पढ़ने वालों के मन में पैदा होता है। इसलिए ‘अपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी महोत्सव,’ ये शब्द उचित रहेंगे।

स्मरण रखें कि 1925 के विजयादशमी के पावन प्रसंग पर अपने घर में पन्द्रह-बीस लोगों को इकट्ठा करके डाक्टर साहब ने सबसे कहा कि ‘‘हम लोग आज से संघ शुरू कर रहे है”। प्रारम्भ की इस बैठक में श्री भाऊजी कावरे, श्री अण्णा सोहोनी, श्री विश्वनाथराव केळकर, श्री बाळाजी हुद्दार, श्री बापूराव भेदी आदि सज्जन उपस्थित थे। उनके इस वाक्य का सावधानीपूर्वक और गहरायी से चिंतन करना चाहिए। उन्होंने यह नहीं कहा कि “मैं आज से संघ शुरू कर रहा हूँ”। उन्होंने स्वयं को संघ का प्रमुख भी घोषित नहीं किया। वास्तव में उन्होंने प्रारंभ से संघ को समाज के साथ एकाकार कर दिया। संघ समाज में संगठन न होकर समाज का संगठन है, यह भाव जगा दिया। इसलिए आज जो हिन्दू संघ से प्रत्यक्ष नहीं जुड़े, उनके मन में भी यही अनुभूति होती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनका भी है।

संघ शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर 'स्वदेश ज्योति' में 7 दिसंबर, 2025, रविवार को प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह का साप्ताहिक स्तम्भ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share