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बुधवार, 24 जनवरी 2024

श्रीरामलला का चित्र ही बन गया संपादकीय

 “रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियां”

22 जनवरी, 2024 को दैनिक समाचारपत्र स्वदेश, भोपाल समूह ने अपने संपादकीय में शब्दों के स्थान श्रीरामलला का चित्र प्रकाशित किया है

‘स्वदेश’ ने श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अपनी संपादकीय में प्रयोग करके इतिहास रच दिया। ‘स्वदेश’ ने 23 जनवरी, 2024 के संस्करण में संपादकीय के स्थान पर ‘रामलला’ का चित्र प्रकाशित किया है। यह अनूठा प्रयोग है। भारतीय पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ। यह पहली बार है, जब संपादकीय में शब्दों का स्थान एक चित्र ने ले लिया। वैसे भी कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है। परंतु, स्वदेश ने संपादकीय पर जो चित्र प्रकाशित किया, उसकी महिमा हजार शब्दों से कहीं अधिक है। यह कोई साधारण चित्र नहीं है। इस चित्र में तो समूची सृष्टि समाई हुई है। यह तो संसार का सार है।

शनिवार, 5 अगस्त 2023

कविता : आत्मा की अभिव्यक्ति

रवींद्र भवन, भोपाल में आयोजित अंतरराष्ट्रीय साहित्य और सांस्कृतिक उत्सव ‘उत्कर्ष–उन्मेष’ में दैनिक भास्कर के लिए कवरेज किया। लगभग 13 वर्ष पुरानी स्मृतियां ताजा हो उठीं, जब मैं दैनिक भास्कर, ग्वालियर में उपसंपादक हुआ करता था। 

कल एक और विशेष अवसर बना– ‘कविता : आत्मा की अभिव्यक्ति’ पर हो रहे विमर्श का कवरेज करते हुए अंग्रेजी में कविताएं सुनीं। पहले भी सुनीं हैं। मेरे कई विद्यार्थी अंग्रेजी में ही लिखते हैं। वे लिखते हैं तो मुझे पढ़ाते–सुनाते भी हैं। कभी–कभी एकाध गीत म्यूजिक एप पर भी सुनने की कोशिश की है। परंतु इस तरह आयोजन में सभी कवियों का अंग्रेजी में कविता पाठ सुनने का यह पहला अवसर था।

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता में राष्ट्रीयता और संस्कृति

कर्मवीर संपादक माखनलाल चतुर्वेदी | Makhanlal Chaturvedi | कलम के योद्धा

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राट्रीयता के जागरण एवं स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में जन-जागरण का माध्यम बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए स्वयं नागपुर से खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं- “इन दोनों महापुरुषों के मिलन ने न केवल महाकोशल, मध्यभारत, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड एवं विदर्भ को बल्कि सम्पूर्ण देश की हिंदी पत्रकारिता और हिंदी पाठकों को राष्ट्रीयता के रंग में रंग दिया।”  दादा ने तीन समाचार पत्रों; प्रभा, कर्मवीर और प्रताप, का संपादन किया।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

प्रिंट मीडिया पर कोरोना महामारी का प्रभाव

पाठकों के हाथों से दूर हुआ समाचारपत्र, क्या वापस आएगा?

कोविड-19 के कारण पूरी दुनिया में फैली महामारी की चपेट में आने से मीडिया भी नहीं बच सका है। विशेषकर प्रिंट मीडिया पर कोरोना महामारी का गहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। प्रिंट मीडिया पर कोरोना के प्रभाव को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। समाचारपत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रभावित हुआ है, उनकी प्रसार संख्या में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है, समाचारपत्रों के आकार घट गए हैं, पत्रकारों की नौकरी पर संकट आया है, संस्थानों के कार्यालयों में कार्य-संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। प्रिंट मीडिया के भविष्य को लेकर भी चर्चा बहुत तेजी से चल पड़ी है। ऐसा नहीं है कि कोरोना संक्रमण के कारण लागू हुए लॉकडाउन एवं आर्थिक मंदी का प्रभाव सिर्फ प्रिंट मीडिया पर ही हुआ है, इलेक्ट्रॉनिक एवं वेब मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है। इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के सामने सिर्फ आर्थिक चुनौतियां हैं, जबकि प्रिंट मीडिया के सामने तो पाठकों का भी संकट खड़ा हो गया। लोगों ने डर कर समाचारपत्र-पत्रिकाएं मंगाना बंद कर दीं। लोगों ने समाचार और अन्य पठनीय सामग्री प्राप्त करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया का रुख किया है। इसलिए यह प्रश्न अधिक गंभीर हो जाता है कि क्या भविष्य में प्रिंट मीडिया का यह पाठक वर्ग उसके पास वापस लौटेगा? 

कोरोना संक्रमण के कारण जब मार्च-2020 में पहला देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया, तब संक्रमण से डर कर बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घर में समाचारपत्र-पत्रिकाओं के प्रवेश को भी प्रतिबंधित कर दिया। लोगों के बीच यह भय था कि समाचारपत्र के माध्यम से भी कोरोना संक्रमण फैल सकता है। ऐसा सोचने वाले लोग बड़ी संख्या में थे। स्थिति यहाँ तक बन गई कि कोरोना महामारी से भयग्रस्त एक याचिकाकर्ता ने चेन्नई के उच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी कि समाचारपत्रों से कोरोना वायरस फैल सकता है, इसलिए इनका प्रकाशन रोका जाए। न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए समाचारपत्रों के प्रकाशन पर रोक से मना कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि “भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जीवंत मीडिया का बहुत महत्व है। जीवंत मीडिया भारत जैसे किसी भी लोकतांत्रिक देश की थाती है। अतीत में आजादी की लड़ाई के दौरान इसी मीडिया ने अंग्रेजों के शासन के खिलाफ जन-जागरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद आपातकाल के समय भी समाचारपत्रों की उल्लेखनीय भूमिका रही। समाचारपत्रों के प्रकाशन पर यदि रोक लगाई जाती है तो यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत न केवल प्रकाशक और संपादक, बल्कि पाठक के भी मौलिक अधिकारों के हनन के समान होगा”। लोगों के इस भय को दूर करने के लिए लगभग सभी समाचारपत्रों ने कई बार यह सूचना प्रकाशित की कि ‘समाचारपत्र से कोरोना नहीं फैलता है। दुनिया में एक भी प्रकरण ऐसा नहीं आया है, जो समाचारपत्र के माध्यम से संक्रमित हुआ हो। यहाँ तक कि कई शोध में यह बात सामने आई है कि समाचारपत्रों की छपाई तकनीक बिल्कुल स्वच्छ एवं सुरक्षित है। वितरक सैनिटाइजेशन के मानकों का पालन कर रहे हैं। समाचारपत्र छूना सुरक्षित है। इससे कोरोना के फैलने का कोई खतरा नहीं होता। बल्कि समाचारपत्र से कोरोना के संबंध में सही जानकारी पाठकों को मिलती है’। इस अपील/स्पष्टीकरण के प्रकाशन और इलेक्ट्रॉनिक एवं वेब मीडिया में प्रसारण के बाद भी लोगों ने समाचारपत्र से दूरी बना ली। इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के होने के बाद भी जो लोग समाचारों के लिए प्रिंट मीडिया पर निर्भर थे, उन्होंने भी समाचारपत्रों को छूना बंद कर दिया। वर्षों से सुबह उठकर चाय के साथ समाचारपत्र पढऩे की आदत को कोरोना संक्रमण के भय ने एक झटके में बदल दिया। इसकी पुष्टि एक मार्केट रिसर्च कंपनी की रिपोर्ट भी करती है। ‘ग्लोबल वेब इंडेक्स’ की रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में ऑनलाइन न्यूज की खपत में तेजी से वृद्धि हुई है। लोग ताजा जानकारियाँ जुटाने के लिए डिजिटल माध्यमों का सबसे अधिक उपयोग कर रहे हैं। कई भारतीय मीडिया संस्थानों ने भी मार्च के तीसरे सप्ताह से ऑनलाइन ट्रैफिक (उपभोक्ताओं) में उछाल दर्ज किया था। 

भारत में मार्च-2020 के पाँच-छह माह बाद यह स्थिति बनी है कि पाठकों के हाथों में अब समाचारपत्र की हार्डकॉपी की जगह ई-पेपर आ गया। पाठक समाचारपत्र पढ़ने की अपनी आदत की संतुष्टि के लिए अब ई-पेपर पर चले गए। तकनीक में दक्ष लोग समाचारपत्र को डाउनलोड कर उसकी पीडीएफ फाइल व्हाट्सएप समूहों पर प्रसारित करने लगे। यानी पहले हॉकर आपके यहाँ समाचारपत्र की प्रति दरवाजे पर छोड़ कर जाता था, तब उसकी डिजिटल कॉपी आपको व्हाट्सएप पर मिलने लगी। मीडिया संस्थानों ने समाचारपत्रों की पीडीएफ फाइल के प्रसार को गंभीरता से लिया और यह तय हुआ कि किसी भी समाचारपत्र की पीडीएफ फाइल प्रसारित करने पर दण्डात्मक कार्यवाही हो सकती है। वेब मीडिया पर बढ़ते ट्रैफिक और ई-पेपर पर क्लिक की बढ़ती संख्या ने मीडिया संस्थानों के कान खड़े कर दिए। उन्हें यह लगने लगा कि यदि पाठकों में ई-पेपर पढ़ने की आदत विकसित हो गई तब भविष्य में स्थितियां सामान्य होने के बाद भी उनकी प्रसार संख्या पूर्व स्थिति में नहीं आ पाएगी। समाचारपत्र की हार्डकॉपी ही लोग पढ़ें इसके लिए ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने अपने समाचारपत्रों के ई-वर्जन पढ़ने के लिए सदस्यता शुल्क लेना शुरू कर दिया। जबकि कोरोना काल से पूर्व गिनती के ही समाचारपत्र थे, जो ई-पेपर पढ़ने के लिए पाठकों से शुल्क लेते थे। इसके साथ ही सुबह थोड़ी देर से ई-पेपर अपडेट/उपलब्ध कराए जाने लगे। ई-पेपर का स्क्रीनशॉट या क्लिप लेना प्रतिबंधित कर दिया गया। कुल मिलाकर यह प्रयास किए गए कि पाठक समाचारपत्र की हार्डकॉपी पर ही वापस लौटे। हालाँकि, उनके प्रयास बहुत सफल नहीं हुए। पाठक अब भी समाचारपत्रों की हार्डकॉपी लेने/छूने से बच रहा है और धीरे-धीरे ई-पेपर या वेबसाइट पर ही समाचार पढ़ने की उसकी आदत बन रही है। व्यक्तिगत बातचीत में कई लोगों ने यह स्वीकार किया है कि ई-पेपर एवं वेब पोर्टल्स पर ताजा खबरें मिलने से अब उन्हें अपनी दिनचर्या में समाचारपत्र की अनुपस्थिति खलती नहीं है। ज्यादातर लोगों ने यह भी कहा कि संभव है कि अब वे भविष्य में समाचारपत्र की हार्डकॉपी न मंगाएं। इसलिए यह माना जाने लगा है कि आगे चलकर प्रिंट संकुचित होगा जबकि इंटरनेट आधारित मीडिया का विस्तार होगा और उसके पास अधिक पाठक होंगे। 

भारत की सामाजिक परिस्थिति को देखते हुए इस बात से सहमत होना कठिन है कि प्रिंट मीडिया के विस्तार पर वर्तमान नकारात्मक प्रभाव भविष्य में भी बना रहेगा। हमें याद रखना चाहिए कि भारत में जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगमन हुआ, तब भी यही कहा जा रहा था कि समाचारपत्र-पत्रिकाओं के दिन अब लदने को हैं। लेकिन, हमने देखा कि प्रिंट मीडिया के कदम ठहरे नहीं, उसका विस्तार ही हुआ। उसके बाद जब इंटरनेट आधारित मीडिया ने जोर पकड़ना शुरू किया तब फिर से उक्त प्रश्र को उठाया जाने लगा। परंतु, ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन (एबीसी) और इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़े बताते हैं कि प्रिंट मीडिया के प्रसार और पठनीयता, दोनों में तेजी से वृद्धि हो रही है। भारत में प्रिंट मीडिया की यह स्थिति तब है, जब दुनिया के अनेक देशों में प्रतिष्ठित समाचारपत्रों का प्रकाशन बंद हो रहा है। कोरोना से पहले भारत में प्रिंट मीडिया का न केवल विस्तार हो रहा था, बल्कि उसकी विश्वसनीयता भी बाकी मीडिया के अपेक्षा अधिक मजबूत हो रही थी। पूर्ण विश्वास के साथ तो नहीं, लेकिन पूर्व स्थितियों के आकलन और भारत की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर यह उम्मीद अवश्य है कि समाचारपत्र पुन: अपनी स्थिति को प्राप्त होंगे और उनका प्रसार भी तेजी से बढ़ेगा। क्योंकि वेब मीडिया अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय समाचारों की भूख को तो शांत कर देते हैं लेकिन अपने आस-पास (स्थानीय) के समाचारों से पाठक अछूता रह जाता है। पाठकों को उस मात्रा में उनके शहर, गाँव, बस्ती, मोहल्ले के समाचार वेब मीडिया पर नहीं मिल रहे, जो उन्हें स्थानीय समाचारपत्र उपलब्ध कराते हैं।  

वर्तमान परिस्थिति में प्रिंट मीडिया को सहायता करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। प्रत्येक परिस्थिति में समाज को जागरूक करने में समाचारपत्र-पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण एवं प्रभावी भूमिका रहती है। हमने कोरोना काल में भी यह अनुभव किया है कि पत्रकारों ने अपना जीवन दांव पर लगाकर सही सूचनाएं नागरिकों तक पहुँचाने में सराहनीय भूमिका का निर्वाह किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से प्रिंट मीडिया के प्रमुखों से बात कर समाचारपत्रों की इस भूमिका की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि “प्रिंट मीडिया का नेटवर्क पूरे भारत में है। यह शहरों एवं गांवों में फैला हुआ है। यह मीडिया को इस चुनौती (कोरोना संक्रमण) से लडऩे और सूक्ष्म स्तर पर इसके बारे में सही जानकारी फैलाने के लिए अधिक महत्वपूर्ण बनाता है”। प्रधानमंत्री मोदी ने जब प्रिंट मीडिया के प्रमुखों से बात की, तब निश्चित ही उन्होंने उनकी समस्याएं भी जानी होंगी। उन्हें सहायता का आश्वास भी दिया होगा। सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भी मीडिया की वर्तमान स्थिति का अध्ययन कर रहा होगा। बहरहाल, प्रिंट मीडिया को सहयोग करने के संबंध में विचार करते समय सरकार को यह बात आवश्यक रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि उसकी प्राथमिकता में छोटे और मझले, भारतीय भाषाई, क्षेत्रीय समाचारपत्र-पत्रिकाएं भी शामिल हों। बड़े मीडिया संस्थान फिर भी अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, लेकिन मझले संस्थानों के सामने अस्तित्व का बड़ा प्रश्न खड़ा है। प्रिंट मीडिया को बचाने के लिए मझले संस्थानों की चिंता सर्वोपरि होनी चाहिए।

(यह आलेख अभिधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2021 में प्रकाशित डॉ. शैलेन्द्र राकेश की पुस्तक 'कोरोना वाली दुनिया' में शामिल है।) 

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

राष्ट्रीय विचारों का पुण्य प्रवाह ‘स्वदेश’

चित्र स्वदेश समूह के स्वर्ण जयंती समारोह और स्वदेश भोपाल समूह के 35 वर्ष पूर्ण होने के अवसर का

राष्ट्रीय विचारों का ध्वज वाहक दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ हिन्दी पत्रकारिता का प्रमुख स्तम्भ है। विजयादशमी के अवसर पर शुभ संकल्प के साथ प्रारंभ हुए ‘स्वदेश’ ने सदैव ही, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों और आपातकाल जैसे संवैधानिक संकट के समय में भी राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता की विजय पताका को नील गगन में फहराया है। स्वदेश ने बाजारवाद और कड़ी प्रतिस्पद्र्धा के दौर में भी यह स्थापित करके दिखाया है कि मूल्य और सिद्धाँतों की पत्रकारिता संभव है। समूचे पत्रकारिता जगत में स्वदेश का अपना वैशिष्ट्य है। स्वदेश की पहचान राष्ट्रीय प्रहरी के तौर पर भी है।  

लखनऊ में जिस स्वदेश की नींव एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने रखी थी, मध्यप्रदेश में वही स्वदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जी की प्रेरणा से शुरू हुआ। इंदौर और ग्वालियर में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने के बाद स्वदेश ने भोपाल की राह चुनी। 1966 में जब इंदौर से स्वदेश की शुरुआत हुई, तब राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं थी। राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत संगठनों के समाचार या फिर राष्ट्रीय विचारधारा को पुष्ट करने वाली जनसामान्य की विराट अभिव्यक्ति को भी समाचारपत्रों में स्थान मिलना मुश्किल रहता था। लेकिन, स्वदेश ने राष्ट्रीय विचारधारा से जुड़े समाचारों और विचारों को प्रमुखता से स्थान दिया। यशस्वी संपादक मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी ने अपने संपादकीय कौशल और ओजस्वी शैली से मध्यप्रदेश की पत्रकारिता को विवश कर दिया कि वह अपनी दशा-दिशा में बदलाव लाए और अपनी दृष्टि को व्यापक करे। 

स्वदेश के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले ‘मामाजी’ ने अपने एक आलेख में लिखा था कि जो पत्रकारिता तुष्टीकरण तथा छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों की चेरी बन गई थी, जो पत्रकारिता गांधी, तिलक, अरविंद, दीनदयाल उपाध्याय और दादा माखनलाल चतुर्वेदी के मार्ग से हट गई थी, जो पत्रकारिता भारतीय राष्ट्रीयता के पर्यायवाची हिन्दुत्व के विचार से बिचकती थी, अब वह पत्रकारिता पूर्व की भाँति भ्रांत धर्मनिरपेक्षतावादियों की चेरी या चारण नहीं है। वह अब राष्ट्रवादी विचार को अस्पृश्य नहीं मानती है। उसे गंभीरता से लेती है। उसे डांटती है तो पीठ भी थपथपाती है। कोई अब उसकी उपेक्षा नहीं करता-नहीं कर सकता। कोई उसे अनदेखा नहीं कर सकता। यकीनन, मध्यप्रदेश के पत्रकारिता जगत में यह परिवर्तन स्वदेश की प्रखर राष्ट्रीय विचारधारा के कारण ही आया। स्वदेश ने राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े प्रश्नों को जिस तरह उठाया, उस अंदाज ने समाज के सामान्य पाठक से लेकर प्रबुद्धजनों को सोचने पर विवश कर दिया। स्वदेशी, गो-संरक्षण, श्रीराम मंदिर आंदोलन, सांप्रदायिकता, तुष्टीकरण, आंतरिक सुरक्षा और लोकतंत्र इत्यादि विषयों पर स्वदेश ने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। समाज का प्रबोधन किया। देशविरोधी ताकतों द्वारा चलाए जाने वाले भ्रामक विमर्श के प्रति लोगों को जागरूक किया। हालाँकि, मध्यप्रदेश में स्वदेश की नींव को मजबूत करने वाले मामाजी बड़प्पन दिखाते हुए कहते थे कि “आज जो सुखद परिवर्तन समाज के चिंतन में आया है, उसका श्रेय स्वदेश को नहीं है, उन असंख्य नींव के पत्थरों को है, जिन्होंने राष्ट्र जागरण के पावन कार्य में अपने जीवन खपा दिए हैं। उनके विचारों व कार्यों के प्रामाणिक प्रचार-प्रसार व उनके पक्ष में जनमत निर्माण में स्वदेश की भूमिका सेतुबंध के समय सक्रिय तुच्छ गिलहरी के बराबर भी रही हो, तो स्वदेश अपने को धन्य मानेगा”।

स्वदेश ने अपनी बेबाकी और राष्ट्रीय विचार के प्रति निष्ठा की कीमत भी चुकायी है। स्वदेश, भोपाल समूह ने केवल वैचारिक हमलों ही सामना नहीं किया बल्कि उस पर कट्टरवादी मानसिकता के समूहों ने प्रत्यक्ष हमले भी किए हैं। इस संदर्भ में एक घटना उल्लेखनीय है, जब स्वदेश, भोपाल का कार्यालय मारवाड़ी रोड पर था। उस समय एक समाचार के चिढ़ कर स्वार्थी और हिंसक गिरोह ने स्वदेश के कार्यालय पर हमला कर दिया था और तोड़-फोड़ मचा कर बहुत नुकसान पहुँचाया। लेकिन, उसके बाद भी स्वदेश के तेवर ढीले नहीं हुए। उसने उसी मुखरता से देश-समाज विरोधी ताकतों के विरुद्ध समाचार एवं विचार प्रकाशित करना जारी रखा। अपनी स्पष्टवादिता के कारण स्वदेश को आर्थिक संकटों का भी सामना करना पड़ा है। आज भी स्थिति कमोबेश वैसी ही है। राष्ट्रीय विचारधारा के विरोधियों की आँखों में आज भी स्वदेश खटकता है। उनको जब भी अवसर मिलता है, वे स्वदेश को क्षति पहुँचाने का प्रयत्न ही करते हैं। स्वदेश के विचार से जुड़े लोगों को प्रारंभ से पता था कि उसका मार्ग बाकी समाचारपत्रों की तरह आसान नहीं रहने वाला है। जिनके भी हाथ में स्वदेश की बागडोर रही, उन्हें पता था कि हमें सिद्धाँतों पर अडिग़ रहना है। इसलिए ही महान संकट से समय में भी स्वदेश ने पत्रकारिता के सिद्धांतों, मानदण्डों और वैचारिक अधिष्ठान को नहीं बदला। पूरी निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ स्वदेश पत्रकारिता के भारतीय मूल्यों को समृद्ध करता रहा है। 

स्वदेश, भोपाल समूह का नेतृत्व ऐसे यशस्वी संपादक श्रीमान राजेन्द्र शर्मा जी के हाथों में है, जिनके पत्रकारीय जीवन को ही पाँच दशक से अधिक समय हो गया है। राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर आज भी उनकी लेखनी हम सबका मार्गदर्शन करती है। वे और स्वदेश पत्रकारिता की पाठशाला हैं। उनके प्रयासों से 1981 में भोपाल से स्वदेश प्रारंभ हुआ। उनके कुशल संपादन में स्वदेश ने मध्यप्रदेश के उस शहर (राजधानी) की पत्रकारिता में अपनी स्थिति मजबूत कर ली, जहाँ से शेष प्रदेश में विमर्श बनता है। ठीक 10 वर्ष की यात्रा के बाद स्वदेश भोपाल की यात्रा में एक और महत्वपूर्ण पड़ाव आया, जब इस समूह ने 1991 में अपने सांध्यकालीन संस्करण ‘सायंकालीन स्वदेश’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। आज स्वदेश भोपाल समूह के जबलपुर, सागर, रायपुर और बिलासपुर से भी विभिन्न संस्करण निकल रहे हैं। सागर से यह ‘स्वदेश ज्योति’ के नाम से प्रकाशित होता है। स्वदेश की एक ओर परंपरा है, जो इसे विशिष्ट बतानी है, वह है इसके संग्रहणीय विशेषांकों की समृद्ध शृंखला। प्रधान संपादक श्रीमान राजेन्द्र शर्मा के संपादन एवं मार्गदर्शन में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के अमृत महोत्सव पर ‘अटल विशेषांक’, राजमाता सिंधिया की स्मृति में ‘पुण्य स्मरण’, श्रीगुरुजी जन्म शताब्दी वर्ष पर ‘राष्ट्रऋषि श्री गुरुजी’, मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी की स्मृति में ‘पुष्पांजलि’, सुदर्शन स्मृति और वंदनीय विवेकानंद जैसे संग्रहणीय विशेषांक प्रकाशित हुए हैं।  

यह सुखद अवसर है जब अपने उद्देश्य और ध्येय की ध्वजा को लेकर 39 वर्ष सफलता से पूर्ण कर अब स्वदेश 40वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। आज तकनीक के कारण पत्रकारिता का परिदृश्य बदला हुआ है। हमें भरोसा है कि स्वदेश इस बदले हुए परिदृश्य में भी राष्ट्रीय विचारों का संवाहक बनेगा और डिजिटल पत्रकारिता में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराएगा। 40वें स्थापना दिवस के शुभ अवसर पर यही आकांक्षा और शुभकामनाएं हैं कि स्वदेश की यह गौरवपूर्ण यात्रा अनवरत जारी रहे... 

गुरुवार, 30 मई 2019

पत्रकारिता की प्राथमिकता को टटोलने का समय

'हिंदुस्थानियों के हित के हेत' इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जाती है। पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र 'उदंत मार्तंड' का प्रकाशन होता है। सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं। आज की तरह लाभ कमाना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के माध्यम बने। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस बीज की आयु 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष रही। इस बीज की जीवटता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत' का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि जब तक अंश मात्र भी 'देशहित' पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है। आवश्यकता है कि प्राथमिकता में यह भाव पुष्ट हो, उसकी मात्रा बढ़े। समय आ गया है कि एक बार हम अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को जरा टटोलें। समय के थपेडों के साथ आई विषंगतियों को दूर करें। समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता को अपना अस्तित्व बचाना है, तब उदंत मार्तंड के उद्देश्य को आज फिर से अपनाना होगा। अन्यथा सूचना के डिजिटल माध्यम बढऩे से समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहा है।    
          असल में आज की पत्रकारिता के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंहबांए खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। पूर्वजों ने जो सिद्धांत और मूल्य स्थापित किए थे, उनको साथ लेकर पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की ओर जाती, तब संभवत: कम समस्याएं आतीं। क्योंकि मूल्यों और सिद्धांतों की उपस्थिति में प्रत्येक व्यवसाय में मर्यादा और नैतिकता का ख्याल रखा जाता है। किंतु, जैसे ही हम तय सिद्धांतों से हटते हैं, मर्यादा को लांघते हैं, तब स्वाभाविक तौर पर चुनौतियां सामने आने लगती हैं। नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ हो रहा है। मीडिया के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। स्वामित्व का प्रश्न। भ्रष्टाचार का प्रश्न। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के शोषण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न हैं। वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं। 'भारतीय भाव' को तिरोहित करने का प्रश्न। इन प्रश्नों के कारण उत्पन्न हुआ सबसे बड़ा प्रश्न- विश्वसनीयता का है। 
          यह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं पूँजीवाद के उदर से। सामान्य-सा फलसफा है कि बड़े लाभ के लिए बड़ी पूँजी का निवेश किया जाता है। आज अखबार और न्यूज चैनल का संचालन कितना महंगा है, हम सब जानते हैं। अर्थात् मौजूदा दौर में मीडिया पूँजी का खेल हो गया है। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा 'बाय प्रोडक्ट' था। लेकिन, उदारीकरण के बाद बड़ा बदलाव मीडिया में आया है। 'बाय प्रोडक्ट' को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है। वर्ष 2009 में सामने आया कि समाचार के बदले अब मीडिया संस्थान ही पैसा लेने लगे हैं। स्थिति यह बनी की देश के नामी-गिरामी समाचार-पत्रों को 'नो पेड न्यूज' का ठप्पा लगाकर समाचार-पत्र प्रकाशित करने पड़े। संपादक गर्वित होकर बताते हैं कि पूरे चुनाव अभियान के दौरान उनके समाचार-पत्र के विरुद्ध पेड न्यूज की एक भी शिकायत नहीं आई। मालिकों के आर्थिक स्वार्थ समाज हितैषी पत्रकारिता पर हावी नहीं होते, तब यह स्थिति ही नहीं बनती।  
          केवल मालिकों की धन लालसा के कारण ही मीडिया की विश्वसनीयता और प्राथमिकता पर प्रश्न नहीं उठ रहे हैं, बल्कि पत्रकारों की भी भूमिका इसमें है। देखने में आ रहा है कि कुछ पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं। ऑन स्क्रीन ही नहीं, बल्कि ऑफ स्क्रीन भी न्यूज रूम में वह आपस में राजनीतिक प्रवक्ताओं की भांति संबंधित पार्टी का पक्ष लेते हैं। कांग्रेस बीट कवर करने वाला पत्रकार कांग्रेस को और भाजपा बीट देखने वाला पत्रकार भाजपा को सही ठहराने के लिए भिड़ जाता है। वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता तो और भी अधिक हैं। भले ही देश के प्रत्येक कोने से कम्युनिस्ट पार्टियां खत्म हो रही हैं, लेकिन मीडिया में अभी भी कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक पत्रकारों की संख्या जरा ज्यादा है। हालात यह हैं कि मौजूदा दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां चैनल/अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, तब उसके समाचारों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितना ही सत्य समाचार प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी। 
          हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है। निष्पक्ष रहना संभव नहीं है। हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही। भारत में पत्रकारिता का एक इतिहास पक्षधरता का भी है। इसलिए भारतीय समाज को यह पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। यदि पत्रकारिता में 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जाग गया तब पत्रकारिता के समक्ष आकर खड़ी हो गईं ज्यादातर चुनौतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का जो ध्येय वाक्य था- 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत'। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। यही तो 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव है। समाज के सामान्य व्यक्ति के हित की चिंता करना। उसको न्याय दिलाना। उसकी बुनियादी समस्याओं को हल करने में सहयोगी होना। न्यायपूर्ण बात कहना।  

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

गोहत्या के विरुद्ध पत्रकारिता के माध्यम से खड़ा किया देशव्यापी आंदोलन

रतौना आंदोलन : ब्रिटिश सरकार को देखना पड़ा हार का मुंह


आज की पत्रकारिता के समक्ष जैसे ही गोकशी का प्रश्न आता है, वह हिंदुत्व और सेकुलरिज्म की बहस में उलझ जाता है। इस बहस में मीडिया का बड़ा हिस्सा गाय के विरुद्ध ही खड़ा दिखाई देता है। सेकुलरिज्म की आधी-अधूरी परिभाषाओं ने उसे इतना भ्रमित कर दिया है कि वह गो-संरक्षण को सांप्रदायिक मुद्दा मान बैठा है। हद तो तब हो जाती है जब मीडिया गो-संरक्षण या गो-हत्या को हिंदू-मुस्लिम रंग देने लगता है। गो-संरक्षण शुद्धतौर पर भारतीयता का मूल है। इसलिए ही 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से विख्यात महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी गोकशी के विरोध में अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। गोकशी का प्रकरण जब उनके सामने आया, तब उनके मन में द्वंद्व कतई नहीं था। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी- भारत के लिए गो-संरक्षण आवश्यक है। कर्मवीर के माध्यम से उन्होंने खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध गो-संरक्षण की लड़ाई लड़ी और अंत में विजय सुनिश्चित की। आज की पत्रकारिता इतिहास के पन्ने पलट कर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता से सबक ले सकती है। 

          वर्ष 1920 में मध्यप्रदेश के शहर सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गोवंश काटा जाना था। प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश का कत्ल करने की योजना थी। अंग्रेजों की इस बड़ी परियोजना का संपूर्ण विवरण देता हुआ चार पृष्ठ का विज्ञापन अंग्रेजी समाचार-पत्र हितवाद में प्रकाशित हुआ। परियोजना का आकार कितना बड़ा था, इसको समझने के लिए इतना ही पर्याप्त होगा कि लगभग 100 वर्ष पूर्व कसाईखाने की लागत लगभग 40 लाख रुपये थी। कसाईखाने तक रेल लाइन डाली गई थी। तालाब खुदवाये गए थे। कत्लखाने का प्रबंधन सेंट्रल प्रोविंसेज टेनिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी ने अमेरिकी कंपनी सेंट डेविन पोर्ट को सौंप दिया था, जो डिब्बाबंद बीफ को निर्यात करने के लिए ब्रिटिश सरकार की अनुमति भी ले चुकी थी। गोवंश की हत्या के लिए यह कसाईखाना प्रारंभ हो पाता उससे पहले ही दैवीय योग से महान कवि, स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने यात्रा के दौरान यह विज्ञापन पढ़ लिया। वह तत्काल अपनी यात्रा खत्म करके वापस जबलपुर लौटे। वहाँ उन्होंने अपने समाचार पत्र कर्मवीर में रतौना कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखा और गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। सुखद तथ्य यह है कि इस कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के एक और पत्रकार उर्दृ दैनिक समाचार पत्र 'ताज' के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। उधर, सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी पत्रकारिता एवं सामाजिक आंदोलन के माध्यम से गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध प्रारंभ कर दिया। मिस्टर ताजुद्दीन और अब्दुल गनी की पत्रकारिता में भी गोहत्या पर वह द्वंद्व नहीं था, जो आज की मीडिया में है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिष्ठा संपूर्ण देश में थी। इसलिए कसाईखाने के विरुद्ध माखनलाल चतुर्वेदी की कलम से निकले आंदोलन ने जल्द ही राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया। देशभर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में रतौना कसाईखाने के विरोध में लिखा जाने लगा। लाहौर से प्रकाशित लाला लाजपत राय के समाचार पत्र वंदेमातरम् ने तो एक के बाद एक अनेक आलेख कसाईखाने के विरोध में प्रकाशित किए। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा। 

          
          आज उस स्थान पर पशु प्रजनन का कार्य संचालित है। जहाँ कभी गो-रक्त बहना था, आज वहाँ बड़े पैमाने पर दुग्ध उत्पादन हो रहा है। कर्मवीर के माध्यम से गो-संरक्षण के प्रति ऐसी जाग्रती आई कि पहले से संचालित कसाईखाने भी स्वत: बंद हो गए। हिंदू-मुस्लिम सौहार्द का वातावरण बना सो अलग। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का यह प्रसंग किसी भव्य मंदिर के शिखर कलश के दर्शन के समान है। यह प्रसंग पत्रकारिता के मूल्यों, सिद्धांतों और प्राथमिकता को रेखांकित करता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने एक शोधपूर्ण पुस्तक 'रतौना आंदोलन : हिंदू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध' का प्रकाशन किया है, जिसमें विस्तार से इस ऐतिहासिक आंदोलन और पत्रकारिता की भूमिका की विवेचना है। 

आलेख प्रतियोगिता से पड़ी पत्रकारिता की नींव : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में हथियार बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। 
          अपनी बात सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए समाचार-पत्र को प्रभावी माध्यम के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी ने देखा। किंतु, उस समय उनके लिए समाचार-पत्र प्रकाशित करना कठिन काम था। इसलिए उन्होंने अपने शब्दों को लिखने और रचने की प्रेरणा देने के लिए एक वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका 'भारतीय-विद्यार्थी' निकालना शुरू की। इस पत्रिका लिखने के लिए वह विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। पत्रकारिता के माध्यम से युवाओं में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए यह उनका पहला प्रयास था।  
          इसके बाद खण्डवा से प्रकाशित पत्रिका 'प्रभा' में वह सह-संपादक की भूमिका में आ गए। एक नई पत्रिका को पाठकों के बीच स्थापित करना आसान कार्य नहीं होता। चूँकि माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अद्वितीय प्रतिभा प्रभा के संपादन में शामिल थी, इसलिए पत्रिका ने दो-तीन अंक के बाद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। उस समय की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' के प्रभाव की छाया में 'प्रभा' ने अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। प्रभा के संपादन में दादा माखनलाल का मन इतना अधिक रमने लगा कि उन्होंने शासकीय सेवा (अध्यापन) से त्याग-पत्र दे दिया और पत्रकारिता को पूर्णकालिक दायित्व के तौर पर स्वीकार कर लिया। उस समय वे खण्डवा की बंबई बाजार पाठशाला में 13 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक थे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लगातार लिखने और स्वतंत्रता की चेतना जगाने के प्रयासों के कारण अंग्रेज शासकों ने प्रभा का प्रकाशन बंद करा दिया। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी भी एक ओजस्वी समाचार-पत्र 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेश शंकर विद्यार्थी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़ कर 'प्रताप' के संपादन की जिम्मेदारी संभाली।


कर्मवीर का यशस्वी संपादन : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का शीर्ष 'कर्मवीर' के संपादन में प्रकट होता है। कर्मवीर और माखनलाल एकाकार हो गए। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। स्वतंत्रता के प्रति एक वातावरण बनाने के लिए पंडित विष्णुदत्त शुक्ल और पंडित माधवराव सप्रे की प्रेरणा से जबलपुर से 17 जनवरी, 1920 को साप्ताहिक समाचार-पत्र 'कर्मवीर' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन का दायित्व सौंपने का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का नाम सामने आया। 'प्रभा' के सफलतम संपादन से माखनलाल जी ने सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच लिया था। परिणामस्वरूप सर्वसम्मति से माखनलाल जी को कर्मवीर के संपादन की महती जिम्मेदारी सौंप दी गई। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण माखनलाल जी को जेल जाना पड़ा और 1922 में कर्मवीर का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में, माखनलाल जी ने 4 अप्रैल, 1925 से कर्मवीर का पुन: प्रकाशन खण्डवा से प्रारंभ किया। 11 जुलाई, 1959 का कर्मवीर का अंक दादा द्वारा संपादित अंतिम अंक था। 
          कर्मवीर के संपादन को लेकर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्पष्टता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग है।  भारतीय भाषाई पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन भयंकर डरा हुआ था। भाषाई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए तमाम प्रयास प्रशासन ने कर रखे थे। यदि किसी को भारतीय भाषा में समाचार पत्र प्रकाशित करना है तो उसका अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करनी होती थी। अनुमति प्राप्त करने से पहले समाचार-पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था। इसी संदर्भ में जब माखनलाल जी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गये, तब वहाँ सप्रेजी, रायबहादुर जी, पं. विष्णुदत्त शुक्ल सहित अन्य लोग उपस्थित थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आईसीएस के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र माखनलाल जी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने के उद्देश्य से कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूँ। रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएंगे तो यह आवेदन देकर अनुमति पत्र प्राप्त कर लेंगे। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी साहस और सत्य के हामी थे, उन्होंने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं किया। जब मिस्टर मिथाइस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं? तब दादा माखनलाल ने बड़ी स्पष्टता से कहा- 'आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूँगा कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए।' मिस्टर मिथाइस माखनलाल जी के साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिना जमानत राशि लिए ही कर्मवीर निकालने की अनुमति दे दी। यह घटना ही माखनलाल जी की पत्रकारिता के तेवर का प्रतिनिधित्व करती है। यह साहस और बेबाकी कर्मवीर की पहचान बनी। 
जीवन : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई गांव में हुआ। पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था, जो गाँव की प्राथमिल पाठशाला में अध्यापक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। 30 जनवरी, 1968 को 80 वर्ष की आयु में माखनलाल चतुर्वेदी का निधन खण्डवा में हुआ। 
प्रमुख प्रकाशन : 
कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे : गरीब इरादे, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, माता, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही।
रतौना आन्दोलन पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

पत्रकारिता की पाठशाला : जहाँ कलम पकड़ना सीखा

- लोकेन्द्र सिंह -
एक उम्र होती है, जब अपने भविष्य को लेकर चिंता अधिक सताने लगती है। चिकित्सक बनें, अभियंत्री बनें या फिर शिक्षक हो जाएं। आखिर कौन-सा कर्मक्षेत्र चुना जाए, जो अपने पिण्ड के अनुकूल हो। वह क्या काम है, जिसे करने में आनंद आएगा और घर-परिवार भी अच्छे से चल जाएगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर अंतर्मन में तो खोजे ही जाते हैं, अपने मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया जाता है। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह उम्र मेरे सामने समय से थोड़ा पहले आ गई थी। पिताजी का हाथ बँटाने के लिए तय किया कि अपन भी पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करेंगे। शुभचिंतकों ने कहा कि नौकरी के सौ तनाव हैं, जिनके कारण पढ़ाई पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन, मेरे सामने भी कोई विकल्प नहीं था। प्रारंभ से ही मेरी रुचि पढऩे-लिखने में रही है। अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखना और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित निबंध/लेख प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर पत्र-पुष्प भी प्राप्त करता रहा। मेरा मार्गदर्शन करने वाले लोग मेरे इस स्वभाव से भली प्रकार परिचित थे। तब उन्होंने ही सुझाव दिया कि मुझे पत्रकारिता को अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहिए। हालाँकि उस समय अपने को पत्रकारिता का 'क-ख-ग' भी नहीं मालूम था। तब तय हुआ कि इसके लिए स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीखने के साथ-साथ बिना तनाव के जेबखर्च भी कमाया जा सकता है। इस संबंध में स्वदेश, ग्वालियर के संपादक लोकेन्द्र पाराशर जी और मार्गदर्शक यशवंत इंदापुरकर जी से मेरा परिचय कराया गया। उन्होंने मेरे मन को खूब टटोला और स्वदेश में तीन माह तक बिना वेतन के प्रशिक्षु पत्रकार रखने का प्रस्ताव दिया। तय हुआ कि काम सीख जाने पर तीन माह बाद मानदेय मिलना प्रारंभ हो सकेगा। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

सोमवार, 26 नवंबर 2018

उजाले से भरा स्वदेश का दीपावली विशेषांक

- लोकेन्द्र सिंह -
स्वदेश ग्वालियर समूह की ओर से प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाले दीपावली विशेषांक की प्रतीक्षा स्वदेश के पाठकों के साथ ही साहित्य जगत को भी रहती है। समृद्ध विशेषांकों की परंपरा में इस वर्ष का विशेषांक शुभ उजाले से भरा हुआ है। प्रेरणा देने वाली कहानियां, संवेदनाएं जगाने वाली कविताएं और ज्ञानवर्धन करने वाले आलेख सहित अन्य पठनीय सामग्री लेकर यह विशेषांक पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। प्रख्यात ज्योतिर्विद ब्रजेन्द्र श्रीवास्तव की वार्षिक ज्योतिष पत्रिका स्वदेश के दीपावली विशेषांक को और अधिक रुचिकर बनाती है।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के गौरवशाली 51 वर्ष

पत्रकारिता में श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना करने वाले स्वदेश के प्रधान संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा का मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित गरिमामय समारोह में आत्मीय अभिनंदन

पत्रकारिता जब मिशन से हटकर व्यावसायिकता की पटरी चढ़ चुकी है, तब भी सिद्धांतों से डिगे बिना 51 वर्ष की लंबी यात्रा पूरी करने वाले स्वदेश (भोपाल समूह) के प्रधान संपादक श्री राजेन्द्र शर्मा को देखकर एक विश्वास पक्का हो जाता है कि पत्रकारिता अब भी मिशनरी मोड में है। निष्कलंक, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की यह यात्रा अब भी जारी है। लोकतंत्र के इस चौथे खंबे की ओर उम्मीदों से देखने वाला समाज चाहता है कि पत्रकारिता के यह गौरवशाली और ध्येयनिष्ठ 51 वर्ष 101 हो जाएं। पत्रकारिता के निरभ्र आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र ध्रुव की भांति श्री राजेन्द्र शर्मा न केवल आम जनमानस की आवाज बनें, बल्कि लोकहित के अपने पथ से भ्रष्ट होती पत्रकारिता का मार्गदर्शन भी करते रहें। उनके सान्निध्य में अनेक भारतीय कलम तैयार हुई हैं, जिनके लिए पत्रकारिता में समाज और राष्ट्र सर्वोपरि रहे। जिस प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों भी श्री शर्मा अपने पत्रकारिता धर्म पर अड़े रहे, अपने मूल्यों को साधे रहे, उसी तरह उनसे सीख कर पत्रकारिता जगत में आए पत्रकारों की कलम भी कभी झुकी नहीं। इस तरह स्वदेश परिवार के मुखिया श्री राजेन्द्र शर्मा ने न केवल अपनी कलम से देश की सेवा की, अपितु अपने गुरु दायित्व से भी राष्ट्र की उन्नति में योगदान दिया है। उनके त्याग, संघर्ष और मूल्यनिष्ठ पत्रकारीय जीवन को समाज भी मान्यता देता है। सम्मान करता है। 2018 में उनकी पत्रकारिता के 51 वर्ष पूर्ण होने पर उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने और समूची यात्रा को आज की पीढ़ी से समक्ष उपस्थित करने के उद्देश्य से आम समाज ने 01 सितंबर को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में अभिनंदन समारोह का आयोजन किया। इस सारस्वत आयोजन में मंच पर देश की सम्मानित विभूतियों और अपेक्स बैंक के सभागार ‘समन्वय भवन’ में गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति यह बयान करने के लिए पर्याप्त थी कि श्री राजेन्द्र शर्मा एवं उनकी निष्कलंक पत्रकारिता के प्रति समाज के सुधिजनों में अपार श्रद्धा-आदर है। मंच पर भारतीय ज्ञान-परंपरा के प्रख्यात चिंतक, राजनीतिज्ञ एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी, त्रिपुरा के राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर, एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास संस्थान के निदेशक डॉ. महेश चंद्र शर्मा, पूर्व मुख्यमंत्री श्री कैलाश जोशी, श्री बाबूलाल गौर, पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री सुरेश पचौरी, नगरीय प्रशासन एवं शहरी विकास मंत्री श्रीमती माया सिंह, भोपाल महापौर श्री आलोक शर्मा, सांसद श्री आलोक संजर, आयोजन समिति के कार्याध्यक्ष मूर्धन्य साहित्यकार श्री कैलाशचंद्र पंत, पूर्व सांसद रघुनंदन शर्मा, श्रीमती अरुणा शर्मा (श्री शर्मा की सहधर्मिणी) और स्वदेश के प्रबंध संपादक श्री अक्षत शर्मा उपस्थित रहे।

- चित्रों में देखें पूरी यात्रा - 

         
         

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

हिंदी का स्वाभिमान बचाने समाचार-पत्रों का शुभ संकल्प

 समाचार  माध्यमों में अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हिंदी के लिए सुखद अवसर है कि मध्यप्रदेश के हिंदी के समाचार-पत्रों ने हिंदी के स्वाभिमान की सुध ली है। कथित सरल हिंदी और बोलचाल की भाषा के नाम पर हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी शब्दों की अवैध घुसपैठ को रोकने का पवित्र संकल्प प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों स्वदेश, नईदुनिया, दैनिक नईदुनिया, नवभारत, हरिभूमि, पीपुल्स समाचार, राज एक्सप्रेस, दबंग दुनिया, राष्ट्रीय हिन्दी मेल, अग्निबाण, न्यूज एक्सप्रेस-जबलपुर एक्सप्रेस समूह एवं उनकी न्यूज एजेन्सी ईएमएस और समय जगत ने लिया है। हिंदी का स्वाभिमान बचाने के इस आंदोलन का सूत्रधार स्वदेश समाचार पत्र बना है। स्वदेश के पवित्र संकल्प और आग्रह को स्वीकार कर इस आंदोलन में एक के बाद एक सभी प्रमुख समाचार पत्र आ रहे हैं। यह चिंता केवल स्वदेश की नहीं है, बल्कि अपनी भाषा को बचाने का कर्तव्य सबका है। अब यह संकल्प प्रत्येक समाचार पत्र को स्वयं ही आगे ले जाना होगा। स्वदेश मात्र उत्प्रेरक की भूमिका में है। इस शुभ संकल्प का बीजारोपण 6 नवम्बर, 2016 को भोपाल के रवीन्द्र भवन में स्वदेश के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर हुआ। 'हिन्दी समाचार माध्यमों में भाषा की चुनौती' विषय राष्ट्रीय विमर्श में विद्वानों ने हिंदी को विद्रूप करने के षड्यंत्र और उसके खतरों की ओर जब स्पष्ट संकेत किया तब मध्यप्रदेश के उक्त समाचार पत्रों ने हिंदी की अस्मिता के लिए उठकर खड़ा होने का यह संकल्प लिया। हिंदी समाचार पत्रों का यह संकल्प ऐतिहासिक और अनुकरणीय है। बड़े पत्रकारिता संस्थान, जो लगभग कारोबारी समूहों में बदल चुके हैं, उन्हें भी राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व के इस आंदोलन को स्वीकार करना चाहिए। यह हमारी पहचान से जुड़ा मुद्दा भी है।

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

पेड न्यूज बनाम विश्वसनीयता

 भा रत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। लोकतांत्रिक सरकार के चुनाव में देश का प्रत्येक व्यक्ति हिस्सेदार होता है। इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका होती है। अखबार और न्यूज चैनल्स लगातार सत्य और तथ्यात्मक खबरें प्रकाशित कर अपनी साख आम आदमी के बीच बनाते हैं। यही कारण है कि मीडिया की खबरों से पाठकों का मानस बनता और बदलता है। समाचार-पत्र और न्यूज चैनल्स लगातार सत्तारूढ़ दल और अन्य राजनीतिक दलों के संबंध में नीर-क्षीर रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। मौके पर जनता अपने मताधिकार का उपयोग सही नेताओं और सरकार को चुनने में करे, इसके लिए एक तस्वीर मीडिया की इन खबरों से बनती है। लेकिन, कुछ वर्षों से पेड न्यूज का चलन बढ़ गया है। पेड न्यूज यानी ऐसी खबर जिसे प्रकाशित करने के लिए रुपए या अन्य किसी प्रकार का आर्थिक सौदा किया गया हो। पेड न्यूज यानी नोट के बदले खबर छापना। पेड न्यूज का ही असर है कि जिस सामग्री को विज्ञापन के रूप में प्रकाशित/प्रसारित होना चाहिए था वो समाचार के रूप में लोगों के पास पहुंच रही है। यानी पाठक/दर्शक को सीधे तौर पर भ्रमित किया जा रहा है। अखबार या न्यूज चैनल के प्रति जो पाठक/दर्शक का विश्वास है उसका मजाक बनाया जा रहा है। चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान, जब मीडिया को तथ्यात्मक और निष्पक्ष समाचार प्रकाशित करने चाहिए थे, तब पेड न्यूज का बाजार गर्म है। महसूस होता है कि पेड न्यूज के सिन्ड्रोम में अब मीडिया का नीर-क्षीर वाला विवेक कहीं खो गया लगता है। वैसे भी जबसे पत्रकारिता के संस्थानों में कॉर्पोरेट कल्चर बढ़ा है, आर्थिक लाभ विश्वास की पूंजी कमाने से अधिक प्राथमिक हो गया है। 
वर्ष २००९ में लोकसभा के चुनाव के दौरान पेड न्यूज के कई मामले सामने आए थे। पहली बार पेड न्यूज एक बड़ी बीमारी के रूप में सामने आई थी। अखबारों और न्यूज चैनल्स ने बकायदा राजनीतिक पार्टी और नेताओं की खबरें प्रकाशित/प्रसारित करने के लिए पैकेज लांच किए थे। यानी राजनीति से जुड़ी खबरें वास्तविक नहीं थीं। जिसने ज्यादा पैसे खर्च किए उस पार्टी/नेता के समर्थन में उतना बढिय़ा कवरेज। जिसने पैसा खर्च नहीं किया उसके लिए कोई जगह नहीं थी। इस दौरान कई राजनेताओं ने सबूत के साथ मीडिया पर आरोप लगाए कि उनके समर्थन में खबरें छापने के लिए पैसा वसूला गया है या वसूला जा रहा है। कई मीडिया संस्थान तो चुनाव लडऩे वाले नेताओं पर न्यूज कवरेज के पैकेज लेने के लिए दबाव भी बना रहे थे। जिन नेताओं ने ये पैकेज नहीं लिए उनके खिलाफ नकारात्मक खबरें प्रकाशित कर उन पर दबाव बनाया गया। यही नहीं कई नेता तो तगड़ा धन खर्च कर विरोधी नेता के खिलाफ नकारात्मक खबरें तक प्लांट कराने में सफल रहे। आंध्रप्रदेश की लोकसत्ता पार्टी के उम्मीदवार पी. कोडंडा रामा राव ने तो प्रेस काउंसिल को जो चुनाव खर्च का ब्योरा दिया, उसमें साफ बताया कि उन्होंने कितना पैसा मीडिया कवरेज पाने के लिए खर्च किया। पेड न्यूज सिन्ड्रोम पर इसके बाद जो बहस का दौर चला, उसमें मीडिया संस्थानों की काफी किरकिरी हुई। उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। 
भारतीय प्रेस परिषद, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन, एडिटर गिल्ड ऑफ इंडिया, संसद की स्थायी समिति, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती और भारतीय निर्वाचन आयोग सहित मीडिया के क्षेत्र में काम कर रहे अन्य संगठनों, बुद्धिजीवियों ने पेड न्यूज सिन्ड्रोम पर चिंता जाहिर की। इससे उपजने वाले खतरों से आगाह किया। पेड न्यूज पर रोक लगाने के लिए उपाय करने पर विचार किया। इसके लिए देश के प्रतिष्ठित और क्षेत्रीय समाचार माध्यमों से अपेक्षा कि वे स्वत: ही इस दिशा में कुछ करें। आखिर यह उनकी भी विश्वसनीयता का सवाल है। लेकिन, जैसा कि हम समझ सकते हैं कि आसानी के साथ धन बनाने के माध्यम को इतनी आसानी से कोई नहीं छोड़ सकता। खासकर उसका इस्तेमाल कर चुके लोग/संस्थान। पेड न्यूज पर मचे हो-हल्ले के कारण अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखना और साबित करना देश के नामचीन मीडिया घरानों के सामने चुनौती बन गया। देश के छोटे से बड़े सभी मीडिया संस्थानों ने इस बात की घोषणा तो की कि वे पेड न्यूज परंपरा का विरोध करते हैं और अपने समाचार-पत्र और पत्रिका में पेड न्यूज नहीं छापेंगे। न्यूज चैनल पर पेड न्यूज नहीं दिखाएंगे। लेकिन चुनावी समय में इन मीडिया संस्थानों की सब घोषणाएं और विरोध धरा रह जाता है। वे पेड न्यूज को लेकर पहले से काफी सतर्क हो जाते हैं। एक ओर तो तमाम संस्थान अपने समाचार-पत्र में बकायदा पेड न्यूज के खिलाफ अभियान चलाते हैं, पेड न्यूज के खिलाफ विज्ञापन छापते हैं और लोगों को पेड न्यूज की शिकायत करने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन दूसरी ओर पेड न्यूज का तरीका बदलकर समाचार बेचने का व्यापार किया जाता है। पेड न्यूज के लिए नए तरीके खोज लिए गए हैं। अब पैसा लेकर किसी पार्टी/नेता समर्थन में कैंपेनिंग करने और विज्ञापन को समाचार की शक्ल में प्रकाशित/प्रसारित करने से कुछ हद तक मीडिया संस्थान बच रहे हैं। अब मीडिया घरानों के द्वारा राजनीतिक दल/नेता से वादा किया जाता है कि आप धन दीजिए, आपके खिलाफ कोई खबर प्रकाशित/प्रसारित नहीं की जाएगी। आपकी गलतियों, भ्रष्टाचार और कमजोरियों को जनता के सामने नहीं रखा जाएगा। आपके खिलाफ आ रही नकारात्मक खबरों को हम अपने समाचार-पत्र/न्यूज चैनल में जगह नहीं देंगे। मतलब साफ है मीडिया संस्थानों में पेड न्यूज का चलन जारी है। पहले खुला खेल फर्रूखावादी था अब वे कंबल ओढ़कर घी पी रहे हैं। दरअसल, पत्रकारिता की आड़ में धन कमाने की लोलुपता इतनी अधिक बढ़ गई है कि पत्रकारिता की जिम्मेदारी, सिद्धांत और मूल्य चूल्हे में चले गए हैं। 
अगर पेड न्यूज को सिर्फ राजनीतिक खबरों तक नहीं बांधा जाए तो मीडिया संस्थान सालभर इस गोरखधंधे में लगे रहते हैं। व्यापारिक और कई सामाजिक संगठनों से पैसे लेकर उनके समर्थन में खबरें प्रकाशित/प्रसारित करना भी तो पेड न्यूज के दायरे में आता है। पेड न्यूज का ही असर है कि कोई संस्था भले ही कितना अच्छा काम कर रही हो लेकिन उससे संबंधित समाचारों को समाचार-पत्र और न्यूज चैनल्स में जगह नहीं मिलती। दरअसल, होता यह है कि उसी तरह की अन्य संस्थाएं मीडिया को मैनेज करके चलती हैं। कार्यक्रम कवरेज करने के लिए संस्थानों को विज्ञापन के रूप में धन दिया जाता है। जो संस्था विज्ञापन नहीं देती, उसके समाचार प्रकाशित नहीं किए जाते। जो संस्था विज्ञापन देती है, उसके किसी कार्यक्रम के आयोजन का समाचार चार दिन बाद भी प्रकाशित किया जा सकता है। इस तरह के समाचारों से भी मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं। 
पैसा लेकर खबर छापना/दिखाना एक सामान्य अपराध नहीं है बल्कि यह नैतिक अपराध है। यह पाठक और दर्शक की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। आम दिनों की अपेक्षा चुनाव के नजदीक या चुनाव के दौरान पेड न्यूज के जरिए आम जनता से धोखाधड़ी अधिक गंभीर होती है। मीडिया लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मीडिया के प्रति जनमानस में यह विश्वास है कि मीडिया आम आदमी की आवाज बनकर उसकी समस्याएं तो उठाता ही है साथ ही देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति पर भी नजर रखता है। चूंकि आम आदमी अपना मानस समाचार-पत्र में प्रकाशित रिपोर्ट पढ़कर और न्यूज चैनल्स पर प्रसारित खबरें देखकर बना रहा है। उसे भरोसा होता है कि समाचार माध्यम पुख्ता और सही जानकारी उस तक पहुंचा रहे हैं। लोगों तक सच पहुंचाना ही तो मीडिया की जिम्मेदारी है। मीडिया को सच का प्रहरी ही तो माना जाता है। मीडिया खुद भी स्वयं को लोकतंत्र का चौथा खंबा मानता है। लोकतंत्र में खुद को वॉच डॉग की भूमिका में मानता है। ऐसे में चुनाव के समय में पेड न्यूज कहीं न कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विपरीत असर डालती हैं। संभवत: यही कारण है कि सालभर चलने वाली पेड न्यूज की अपेक्षा चुनाव के वक्त राजनीतिक खबरों की खरीद-फरोख्त पर अधिक चिंता जताई जाती है। पेड न्यूज सिन्ड्रोम भारतीय पत्रकारिता के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। एक तरफ पैसा है और दूसरी तरफ विश्वसनीयता। स्वस्थ लोकतंत्र और विश्वसनीय पत्रकाारिता के लिए पेड न्यूज की बीमारी पर जल्द काबू पाना होगा। बीमारी और अधिक बढ़ी तो बहुत नुकसान करेगी। समय रहते इसका इलाज जरूरी है। पेड न्यूज के दायरे और उसकी परिभाषा को जानकर तो लगता है कि किसी कानून की मदद से उस पर रोक लगा पाना मुश्किल है। इसके लिए स्वार्थ और धन लोलुपता छोड़कर मीडिया संस्थानों को ही आगे आना पड़ेगा।  आखिर सबसे बड़ा सवाल मीडिया की विश्वसनीयता का है। यदि पेड न्यूज को दूर नहीं किया तो भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता जाती रहेगी, फिर उसकी किसी बात पर कोई आसानी से भरोसा नहीं करेगा। जब लोगों को ही मीडिया पर भरोसा नहीं रहेगा तो राजनीतिक दल/नेता क्यों अपनी खबरें छपवाने/दिखवाने के लिए पैसा खर्चा करेंगे। तब मीडिया के पास न धन आएगा और न ही विश्वसनीयता बची रहेगी। इसलिए अच्छा होगा पेड न्यूज के चलन को खत्म करने के लिए अभी कुछ ठोस उपाय किए जाएं।
- मीडिया विमर्श में प्रकाशित आलेख 

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

यशवंत ने 68 दिन में जेल को बना लिया जानेमन

 भ ड़ास ब्लॉग और भड़ास4मीडिया वेबसाइट के संस्थापक एवं संचालक यशवंत सिंह ने एक मामले में 68 दिन जेल में जिए। डासना जेल में। यहां मैंने 'जिए' शब्द जानबूझकर इस्तेमाल किया है। यशवंतजी ने जेल में दिन काटे नहीं थे वरन इन दिनों को उन्होंने बड़े मौज से जिया और सदुपयोग भी किया। यह बात आप उनके जेल के संस्मरणों का दस्तावेज 'जानेमन जेल' पढ़कर बखूबी समझ सकेंगे। दरअसल, मीडिया संस्थानों के भीतरखाने की खबरें उजागर कर उन्होंने कई 'रूपर्ट मर्डोक' से सीधा बैर ले रखा है। उनको जेल की राह दिखाने में ऐसे ही 'सज्जनों' का हाथ था। यह दीगर बात है कि उनके इस अंदाजेबयां से लाखों लोग (पत्रकार-गैर पत्रकार) उनके साथ आ गए हैं। दोस्त भी बन गए हैं। 
'जानेमन जेल' के मुखपृष्ठ पर जेल जाते हुए यशवंत सिंह का फोटो छपा है, जो उनके सहयोगी और भड़ास4मीडिया के कंटेंट एडिटर अनिल सिंह ने खींचा था। बाद में, उन्हें भी पकड़कर जेल में डाल दिया गया था। यशवंत के जेल जाने से दु:खी अनिल सिंह यह फोटो खींचने की स्थिति में नहीं थे। यशवंतजी ने बड़ी जिरह की और अनिल को कहा कि भाई मेरी बात मान ले फोटो खींच ले, यह मौका बार-बार नहीं आता। किताब में कुल जमा 112 पृष्ठ हैं। लेकिन पाठक जब किताब पढऩा शुरू करेगा तो संभवत: 112 वें पृष्ठ पर जाकर ही रुकेगा। यशवंत सिंह बहुत ही सरल शब्दों में सरस ढंग से अपनी बात आगे बढ़ाने हैं। जेल के भीतर के दृश्यों को तो निश्चित ही उन्होंने सजीव कर दिया है। पढऩे वाले को लगेगा कि सब उसकी आंखों के सामने किसी फिल्म की तरह चल रहा है। 'जानेमन जेल' में यशवंत सिंह ने भारतीय जेलों की अव्यवस्थाओं को भी बखूबी दिखाया है। भारत में डासना जेल की तरह ही लगभग सभी जेलों में क्षमता से कहीं अधिक कैदी-बंदी बंद हैं। इस कारण तमाम परेशानियां खड़ी होती हैं। 
किताब में यशवंत सिंह ने जेल में कैदियों-बंदियों की दिनचर्या और आपसी रिश्तों को भी खूब समझाया है। जेल के एकांत में कुछ लोग अपने किए पर पछताते हैं और बाहर निकलकर एक नई शुरुआत की योजना बनाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो बैठे-बैठे बदला लेने की प्लानिंग भी करते रहते हैं, हालांकि जेल से छूटने तक इनमें से भी कई लोगों का मन बदल जाता है। वाकई जेल है तो सुधारगृह की तरह। अब यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह सुधरता है या जैसा गया था वैसा ही निकलता है। जेल में स्वास्थ्य दुरुस्त रखने के लिए खेल की सुविधा के साथ ही योग कक्षाएं भी हैं। पढऩे के लिए पुस्तकालय भी। योग कक्षा और पुस्तकालय का यशवंत जी ने बड़ा अच्छा इस्तेमाल किया। एक अच्छी किताब 'जानेमन जेल' को पढऩे के साथ ही पाठकों को एक अध्याय में कई और अच्छी किताबों की जानकारी भी मिलेगी। जिन्हें यशवंतजी ने पढ़ा और अपने पाठकों को भी पढऩे की सलाह देते हैं। साथ ही कुछ ऐसी किताबों के भी नाम आपको पता चलेंगे जो जेल में 'सुपरहिट' हैं। आप भी जान पाएंगे कि जेल में कैदी 'सुपरहिट' किताबों को पढऩे के लिए कितने लालायित रहते हैं। जो कैदी-बंदी पढ़ नहीं सकते, वे सुनने के लिए तरसते हैं। अभी तक मैं सोचता था कि खुशवंत सिंह सरीखे बड़े लेखक 'औरतें' किसके लिए लिखते हैं, अब समझ में आया कि भारत की जेलों में भी बड़ी संख्या में उनका पाठक वर्ग है। हालांकि 'जानेमन जेल' में खुशवंत सिंह की किसी किताब का जिक्र नहीं हुआ है। लेकिन, मेरा पक्का दावा है कि जेल की लाइब्रेरी में उनकी एक भी किताब होगी तो वह जरूरी किसी बैरक में, किसी कैदी-बंदी के तकिए के नीचे छिपी होगी। 
यशवंत सिंह के जेल से बाहर निकलने के बाद के भी कुछ संस्मरण भी 'जानेमन जेल' में हैं। पत्रकारिता और भड़ास से जुड़े सभी पत्रकार और अन्य लोगों को किताब जरूरी पढऩी चाहिए, यह मेरी सलाह और निवेदन है। किताब खरीदकर पढि़ए, हालांकि मैंने मुफ्त में पढ़ी है। भोपाल में मीडिया एक्टिविस्ट अनिल सौमित्र जी की लाइब्रेरी में यह किताब देखी तो अपुन झट से निकालकर ले आए। किताबों के मामले में अपुन हिसाब-किताब ठीक रखते हैं, वापस भी करने जाएंगे भई। ऐसे पत्रकार जो सोशल मीडिया से जुड़े हैं, उन्हें यह किताब हौसला देगी। कभी जेल जाने की नौबत आए तो क्या करना है, कैसे जेल में रहना है, इस सबके लिए गाइड भी करेगी। 'जानेमन जेल' के जरिए यशवंत भाई ने जेल को पिकनिक स्पॉट की तरह पेश किया है। किताब मंगाने के लिए पाठक यशवंत सिंह से सीधे संपर्क कर सकते हैं। 
मोबाइल : 9999330099
ईमेल : yashwant@bhadas4media.com
वेबसाइट : bhadas4media.com
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किताब : जानेमन जेल
मूल्य : 95 रुपए
प्रकाशक : हिन्द-युग्म
1, जिया सराय, हौज खास, नईदिल्ली-110016

रविवार, 18 नवंबर 2012

क्या फिर से पढ़ाए जाएंगे नैतिकता के पाठ?

 भ्रष्टाचार, अत्याचार, यौनाचार, अवमानना जैसी बुराइयों की लम्बी सूची है, जो आज देश में चहुं ओर अपने बलवति रूप में दिख रही हैं। इन बुराइयों में लिप्त लोगों को सब दण्ड देना चाह रहे हैं। घोटाले-भ्रष्टाचार रोकने के लिए सिस्टम (जैसे लोकपाल) बनाने की मांग कर रहे हैं। अपराध को कम करने के लिए कानून के हाथ और लम्बे करने पर विमर्श चल रहा है। यह चाहत, मांग और विमर्श अपनी जगह सही है। दुष्टों को दण्ड मिलना ही चाहिए, भ्रष्टाचार रोकने सिस्टम जरूरी है और बेलगाम भाग रहे अपराध पर लगाम कसने के लिए कानून के हाथ मजबूत करना ही चाहिए। लेकिन, इसके बाद भी ये बुराइयां कम होंगी क्या? इस बात को लेकर सबको शंका है।
    ऐसे में विचार आता है कि भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र में ये टुच्ची बुराइयां इतनी विकराल कैसे होती जा रही हैं? यही नहीं घोटाले और भ्रष्टाचार व्यक्ति के बड़े होने की पहचान बन गए हैं। हाल ही में यूपीए सरकार के मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट पर विकलांगों का पैसा खाने का आरोप लगा। मामला पूरे ७१ लाख के घोटाले का था। लेकिन, खुर्शीद के बचाव में एक कांग्रेसी नेता कहते हैं कि ७१ लाख का घोटाला कोई घोटाला है। खुर्शीद मंत्री हैं वे महज ७१ लाख का घोटाला करेंगे ये माना ही नहीं जा सकता। हां, अगर ये ७१ लाख की जगह ७१ करोड़ होते तो सोचना भी पड़ता कि खुर्शीद ने गबन किया है। कांग्रेस नेता के बयान से साफ झलकता है कि बड़ा घोटाला यानी बड़ा मंत्री। खैर जाने दीजिए। कमी कहां हो रही है कि समाज की यह स्थिति बनी है। दरअसल, इसका मूल कारण नैतिक मूल्यों का पतन होना है। जब मनुष्य की आत्मा यह पुकारना ही भूल जाए कि तुम जो कर रहे हो वह गलत है तो मनुष्य किसकी सुनेगा। नैतिक मूल्यों की कमी तो आएगी ही शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी कर रखी है कि मनुष्य को मनुष्य नहीं पैसा कमाने वाला रोबोट बनाया जा रहा है। रोबोट तो रोबोट होता है। उसे क्या भले-बुरे का ज्ञान। स्कूल के समय से उसके मन में एक बात बिठाई जाती है कि बड़ा होकर अमीर बनना है, पैसा कमाना है, अरबों-खरबों में खेलना है। बड़ा होकर वह इसी काम में जुट जाता है। जो जिस स्तर पर है उस स्तर का घोटाला कर रहा है।
    आज हालात ये हैं कि व्यक्ति महिलाओं के बदसलूकी करते वक्त भूल जाता है कि उसके घर में भी मां-बहन है। अपने बूढ़े मां-पिता को सताते समय उसे यह ज्ञान नहीं रहता कि आने वाले समय में वह भी बूढ़ा होगा। दूसरों को ठगते समय वह यह नहीं देखता कि बेईमानी की कमाई नरक की ओर ले जाती है। किसी की मेहनत की कमाई चोरी करते वक्त वह सोचता है कि उसे कौन पकड़ेगा, वह भूल जाता है कि आत्मा है, परमात्मा है जो सबको देख रहा है और पकड़ रहा है। यह सब उसे भान नहीं है क्योंकि उसका नैतिक शिक्षण नहीं हुआ। वह नैतिक रूप से पतित है। बेचारा सीखता कहां से? हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्यों को विकसित करने की व्यवस्था ही खत्म कर दी गई। परिवार भी एकल हो गए। दादा-दादी से महापुरुषों का चरित्र सुनकर नहीं सोते आजकल का नौनिहाल बल्कि उनका चारित्रिक विकास तो टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट कर रहा है। मैकाले का उदाहरण अकसर सभी देते हैं। उसने ब्रिटेन पत्र लिखकर बताया कि भारत को गुलाम बनाना मुश्किल है क्योंकि यहां की शिक्षा व्यवस्था लोगों के नैतिक पक्ष को मजबूत बनाती है। वे देश और समाज के लिए जीने-मरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि भारत को गुलाम बनाना है तो सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त करनी होगी। बाद में उसने यही किया। भारत में गुरुकुल और ग्राम-नगर की पाठशालाएं खत्म कर मिशनरीज के स्कूल खुलवा दिया। अभी तक हम मैकाले के हिसाब से पढ़ रहे हैं, अपना नैतिक पतन करने के लिए। आजाद होने के बाद सबसे पहला सुधार शिक्षा व्यवस्था में होना चाहिए था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब जाकर भाजपा या अन्य राष्ट्रवादी पार्टियां/संगठन शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात करती हैं तो भगवाकरण कहकर उसका विरोध किया जाता है।
    भारत में गैरसरकारी स्तर पर अतुलनीय योगदान देने वाले महान शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका भी इस बात को कई बार कहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया गया है। शिक्षा से नैतिक मूल्य हटाने से बच्चे स्कूल-कॉलेजों से स्वार्थी, स्पर्धालु, आलसी, आराम-तलबी और धर्महीन मनुष्य बनकर निकल रहे हैं। उनका शिक्षा की दशा-दिशा तय करने वालों से आग्रह था कि शिक्षा पद्धति में धार्मिक-नैतिक जीवन को, गुरु-परंपरा और आदर्श शिक्षक को स्थान दें।  लेकिन, इस दिशा में अभी तक कुछ हुआ नहीं। उल्टा जितना था उसे भी निकाल बाहर किया। हां, रामायण के कुपाठ पढ़ाने के जरूर इस बीच प्रयास हुए, भरपूर हुए। खैर, जब बात हाथ से निकलती दिखने लगी है। समाज एकदम विकृत होता दिखने लगा तब जाकर सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की आंख खुली है। अब ये कितनी खुलीं हैं और किस ओर खुलीं हैं, ये देखने की बात है। खबर है कि एनसीईआरटी प्राथमिक स्तर पर नैतिक और मूल्य आधारित शिक्षा शुरू करेगा। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने बड़े होते बच्चों को नैतिक शिक्षा के सकारात्मक पक्ष के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए एनसीईआरटी को इसकी संभावना तलाशने को कहा है। मंत्रालय ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के एक प्रतिनिधि मंडल को अगले महीने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया है। नैतिक शिक्षा का विषय प्राथमिक शिक्षा का एक हिस्सा होगा। इसके अलावा मूल्य आधारित विषय जैसे बड़ों का आदर और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। अब यहां यह देखना है कि एनसीईआरटी और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय नैतिक मूल्य भारत की संस्कृति की जड़ों में तलाश करेंगे या फिर बाहर से आयातित करेंगे। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी को संभालकर रखना है और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना है तो उसे शिक्षित करने के लिए भारतीय संस्कृति की जड़ों में ही लौटना होगा। पश्चिम में तो वैसे ही नैतिक मूल्यों के नाम पर कुछ है नहीं। वहां के नैतिक मूल्य ही तो मैकाले हमारी शिक्षा में ठूंस गया जिसके दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैं।

रविवार, 6 मई 2012

संस्थागत हुआ मीडिया में भ्रष्टाचार

 मी  डिया में भ्रष्टाचार अब व्यक्तिगत भ्रष्टाचार नहीं रह गया है यह केवल कथन भर नहीं है, बल्कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तकरीबन सच है। २००९ के लोकसभा चुनावों और कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में यह बात खुलकर सामने आ गई थी कि किस तरह उम्मीदवार या पार्टी को मीडिया के मार्फत मतदाताओं को बेचा जा रहा है। इस दौरान पेड न्यूज या पैकेज पत्रकारिता की शक्ल में बड़े पैमाने पर मीडिया में भ्रष्टाचार का मामला सामने आया। २००९ के चुनावों में हालात यह हो गए थे कि कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों के प्रतिनिधि उम्मीदवारों और पार्टियों के पास कवरेज का रेट कार्ड तक लेकर पहुंचे और खबरों का सौदा किया। मीडिया में भ्रष्टाचार को लेकर लम्बे समय से चली आ रही छुटपुट बहस ने इसी दौरान आग पकड़ी। सबदूर पेड न्यूज की चर्चा और भत्र्सना होने लगी। लोग पत्रकारों और पत्रकारिता को संदिग्ध निगाह से देखने लगे। खबरों की विश्वसनीयत पर सवाल उठने लगे। पत्रकार और लेखक अपने-अपने स्तर पर मीडिया में पेड न्यूज और अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार का विरोध करने लगे तो कई अपने को पाक-साफ साबित करने में जुट गए। इस हाल में प्रेस परिषद से अपेक्षा की गई की वह कुछ करे। लेकिन, प्रेस परिषद तो वैसे ही नख-दंतहीन संस्था है। फिर भी उससे जो बन सकता था उसने प्रयास करने शुरू कर दिए। पेड न्यूज को परिभाषित करते हुए पे्रस परिषद ने कहा कि 'कोई भी समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफदारी के बदले किसी भी मीडिया में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में माना जाएगा।' इसके साथ ही प्रेस परिषद ने स्वप्रेरणा से जांच के लिए एक समिति गठित की थी। वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठकुरता को इस समिति में शामिल किया गया। उनके साथ वरिष्ठ पत्रकार के. श्रीनिवास रेड्डी को भी समिति में रखा गया। कड़ी मेहनत के बाद समिति ने पेड न्यूज से संबंधित ७१ पृष्ठ की एक रिपोर्ट तैयार की थी। 'हाउ करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइंस डेमोक्रेसी' नाम से जैसे ही यह रिपोर्ट तैयार हुई, पे्रस परिषद में बैठे मीडिया घरानों के प्रतिनिधियों में खलबली मच गई। उन्होंने इस रिपोर्ट को बाहर न आने देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। आखिरकार वे अपने प्रयास में सफल हुए। ७१ पृष्ठों की रिपोर्ट दबा दी गई। उसके बदले में ३० जुलाई को प्रेस परिषद ने सरकार को १२ पृष्ठों की एक संक्षिप्त रिपोर्ट सौंपी। इस संक्षिप्त रिपोर्ट में पेड न्यूज छापने वाले मीडिया घरानों के नाम नहीं दिए गए। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट को भी परिषद ने अपनी वेबसाइट पर नहीं डाला। परंजॉय गुहा कहते हैं कि रिपोर्ट के सामने आने से कई दिग्गज मीडिया संस्थानों का काला-पीला सच सामने आ जाता। दुनिया को पता चल जाता कि उन्होंने कैसे और कब-कब पैसे लेकर खबरें बेचीं और खबरें दबाईं।
    मीडिया में बढ़ते कदाचार, भ्रष्टाचार और पेड न्यूज की बीमारी पर दिवंगत वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने भी खूब लिखा और कई मंचों से विरोध किया। प्रभाष जोशी १० मई २००९ को जनसत्ता के अपने कॉलम 'कागद कारे' में एक लेख लिखा। जिसके अंश हैं-
    'डायरी पढऩे के बाद इस दोस्त से मैंने कवरेज का तरीका पूछा। तो वह बताता है कि सबेरे सब हमारे दफ्तर आते हैं। उनके लिए नाश्ता, पीने का पानी और गाड़ी तैयार की जाती है। भोजन का पैसा नकद दिया जाता था। तय रेट के हिसाब से रोज का खर्चा-पानी अलग। चैनल वालों में छठे वेतन आयोग का वेतन पाने वाले दूरदर्शन के लोग भी होते थे। हमारी गाडिय़ों से निकलने से पहले वे दूसरे उम्मीदवारों से भी प्रबंध करते थे। किसी से पेट्रोल के पैसे लेते तो किसी से गाड़ी के। एक पत्रकार तो पैकेज का पैसा लेने के लिए रात दो बजे तक दरवाजे के बाहर बैठा रहा।'
उक्त विवरण से पता चलता है कि मीडिया में भ्रष्टाचार किस सीमा तक पहुंच चुका है। पत्रकार भोजन और पेट्रोल तक का पैसा ले रहे हैं। ऐसे में चिंता होना लाजमी है। प्रथम प्रवक्ता पत्रिका (१६ जुलाई २००९) में भी कई नेताओं ने अपने इंटरव्यू में पत्रकार और मीडिया घरानों पर खबरों के लिए पैसा लेने के आरोप लगाए। प्रथम प्रवक्ता में पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री हरमोहन धवन के हवाले से छपा है कि मैं २००९ का चुनाव बसपा के टिकट पर चंडीगढ़ से लड़ रहा था। प्रिंट मीडिया के एक प्रतिनिधि ने कवरेज के लिए मुझसे पैसे की मांग की। उसने कहा कि यदि आप हमसे डील करते हैं तो हम अपके समर्थन में अपने अखबार में खबरें छापेंगे। इसी अंक में आजमगढ़ से लोकसभा का चुनाव जीते भाजपा के रमाकांत यादव ने बताया कि एक अखबार ने कवरेज के लिए मुझसे १० लाख रुपए की मांग की। पैसे नहीं देने पर इस अखबार में मेरे खिलाफ एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें मेरे हारने का दावा किया गया था। आजमगढ़ से ही कांग्रेस के उम्मीदवार डॉ. संतोष सिंह ने बताया कि एक अखबार ने मुझसे दस लाख और पांच लाख रुपए के दो पैकेज में से एक खरीदने को कहा। प्रथम प्रवक्ता पत्रिका को उप्र के घोसी लोकसभा क्षेत्र के उम्मीदवार अरशद जमाल ने कहा कि अखबारों ने मुझसे पैसे मांगे। यहीं से भाजपा के राम इकबाल सिंह ने भी खबरों के लिए पैसे मांगे जाने की बात कही।
    भारतीय मीडिया में पेड न्यूज से उपजे भ्रष्टाचार की चर्चा अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्र 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' में भी हुई। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने पेड न्यूज को मुख्य रूप से भारतीय भाषाओं के मीडिया की समस्या के तौर पर पेश किया। मीडिया साइट 'द हूट' ने भी 'साउंड ऑफ मनी' शीर्षक से संपादकीय लिखकर इस मसले पर चिंता जाहिर की। लेकिन, मेरा मानना है कि पेड न्यूज और भ्रष्टाचार की बीमारी सिर्फ भारतीय भाषाओं के मीडिया संगठनों में ही नहीं है। अंगे्रजी मीडिया में भी यह उतनी ही गहरी है। बल्कि पेड न्यूज के खेल में बड़े खिलाड़ी अंग्रेजी के अखबार और टीवी चैनल्स ही हैं। हालांकि अंग्रजी मीडिया पेड न्यूज और मीडिया में करप्शन को लेकर हो रही बहस-आलोचना के दायरे से इस समय लगभग बाहर है। जबकि न्यूज स्पेस बेचने की शुरुआत अंग्रेजी प्रकाशनों से ही हुई है। न्यूज बेचने का काम संस्थाबद्ध तरीके से सबसे पहले टाइम्स ऑफ इंडिया ने किया। आज भी अंग्रेजी मीडिया संस्थान इस खेल में जमे और मंजे हुए बड़े खिलाड़ी हैं। ठीक राजनीति की तरह। राजनीति में जो पकड़ा जाए वो भ्रष्टाचारी बाकि सब पाक-साफ। जबकि कई वहां भी पुराने और जमे-जमाए खिलाड़ी हैं।
    भारत में पत्रकारिता कोई नई विधा नहीं है। यह तो प्राचीन काल से अलग-अलग रूपों में हर समय भारत में मौजूद रही है। ब्रिटिश शासन से संघर्ष से के दौर में यह एक मिशन रही। उसके बाद भी कुछ समय तक मिशन और समाजसेवा दोनों दायित्वों को भारतीय पत्रकारिता ने बखूबी निभाया। दरअसल मीडिया में भ्रष्टाचार का घुन लगा मीडिया हाउसों के विकसित होने के बाद। पत्रकारिता से मीडिया बनने के साथ। मिशन से व्यवसाय बनने के साथ। मीडिया में भी अर्थ का खेल बढऩे के बाद भ्रष्टाचार ने यहां अपनी जड़े रोपीं। भारत में आज ६० हजार से अधिक अखबार। १०० से अधिक खबरों के चैनल। ६०० से अधिक टीवी चैनल हैं। यह परिवर्तन बहुत कम समय में हुआ है। इतने कम समय में दुनिया के किसी भी देश की संचार माध्यमों में परिवर्तन नहीं आया है। १९९१ में भारत में मात्र एक टेलीविजन ब्रॉडकॉस्टर था दूरदर्शन। आज ६०० से अधिक ब्रॉडकॉस्टर हैं। इससे पत्रकारिता में व्यवसाय बढ़ा है, पूंजी बढ़ी है और प्रतिस्पर्धा भी। मीडिया संस्थानों की ताकत बढ़ती जा रही है। पत्रकारों की ताकत घटती जा रही है। मीडिया में अर्थव्यवस्था के खेल ने पत्रकारिता को मिशन मानने वाले खांटी पत्रकारों को पीछे छोड़ दिया है। ऐसे लोग ताकत के साथ आगे आ गए हैं जो संस्था और मालिकों के लिए लॉबिंग कर सकें। नीरा राडिया काण्ड से यह उजागर हो चुका है। इस काण्ड से जाहिर हुआ कि जो मीडियाकर्मी आम समाज और युवा पत्रकारों के हीरो थे वे भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। बरखा दत्त, वीर सांघवी और प्रभु चावला सरीखे नाम भ्रष्टाचार में लिप्त मिले। ऐसे लोगों को पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों से कोई लेने देने नहीं होता। इनका काम होता है स्वयं का और मालिकों का हित साधना।
    ऐसा भी नहीं है मीडिया में भ्रष्टचारा आज की देन है। यह पहले भी था। पाठक और दर्शक भले ही न जाने, लेकिन सरकार, राजनीतिक दल, एनजीओ और कॉरपोरेट सेक्टर से लेकर स्पोट्र्स और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री तक सब जानते हैं कि मीडिया को मैनेज करने की जरूरत पड़ती है, मीडिया को मैनेज किया जा सकता है और मीडिया को मैनेज किया जा रहा है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज चैनल्स पर अचानक कुछ विशेष खबरों का आना और गायब हो जाना इसी ओर इशारा करता है। आठ-दस हजार वेतन पाने वाले पत्रकार कैसे चारपहिया वाहन मेंनटेन करते हैं। महंगी शराब-महंगे कपड़े व अन्य गैजेट्स कहां से आते हैं इस महंगाई के दौर में। ऐसे ही अनेक प्रश्न मीडिया में भ्रष्टाचार की ओर इंगित करते हैं। अब तक और आज भी निजी स्तर पर भी मीडियाकर्मियों में भारी भ्रष्टाचार मौजूद है। खबर छापने के पैसे, खबर नहीं छापने के पैसे, फोटो छापने के पैसे, नहीं छापने के पैसे। इतना ही नहीं कार्यक्रमों में शामिल लोगों के नाम तक छापने के पैसे मीडियाकर्मी वसूल लेते हैं। हालांकि पेड न्यूज और पैकेज के चलन से परिदृश्य में थोड़ा बदलाव आया है। खबरों और खबरों के पैकेज के क्रय-विक्रय में अब मीडिया संस्थान खुद ही उतर आए हैं। इसमें पत्रकारों की भूमिका सेल्समैन या बिचौलिए वाली ही बनकर रह गई है। खबर बेचने के धंधे की कमान अब प्रबंधन के हाथ में है। यही बात ज्यादा परेशान करने वाली है। व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के उतने नुकसान नहीं है जितने संस्थागत भ्रष्टचारा से हैं।
त्रैमासिक पत्रिका मीडिया क्रिटिक में प्रकाशित आलेख.
    पत्रकारिता में बढ़ते भ्रष्टाचार ने लोगों के मन में खबरों को लेकर संशय और भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। आज का पाठक सोच में रहता है कि किस खबर को सच माने और किस खबर को प्रायोजित। खबर के सभी पहलुओं को ठीक से समझने के फेर में कई बार उसे तीन-चार अखबारों का सहारा लेना पड़ता है। दरअसल, बेहतर लोकतंत्र के लिए कथित चौथे खंबे (मीडिया) का ईमानदार होना अतिआवश्यक है। कम से कम मीडिया से संस्थागत भ्रष्टचार से निजात पाना बेहद जरूरी है। मीडिया और राजनीतिक गठजोड़ से उपजे भ्रष्टाचार में एक स्वस्थ्य लोकतंत्र सांस नहीं ले सकता। भारत में पत्रकारिता को पवित्र दृष्टि से देखा जाता है। भारतीय जनमानस की बड़ी उम्मीद रहती है पत्रकारिता से। जब वह सबदूर से निराश होता है तो न्याय और अपनी बात कहने का निष्पक्ष माध्यम उसे यही दीखता है। इसलिए एक ईमानदार कोशिश हो कि मीडिया संगठन पेड न्यूज और अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार से दूर रहें।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

सच्ची बात कही थी मैंने...

  स दिन ग्वालियर की गुलाबी ठंडी शाम थी। वाकया नवंबर २००४ का है। मौका था रूपसिंह स्टेडियम में आयोजित 'जगजीत नाइट' का। कार्यक्रम में काफी भीड़ पहुंची थी। मैंने 'भीड़' इसलिए लिखा है क्योंकि वे सब गजल रसिक नहीं थे। यह भीड़ गजल के ध्रुवतारे जगजीत सिंह को सुनने के लिए नहीं शायद देखने के लिए आई थी।  बाद में यह भीड़ जगजीत सिंह की नाराजगी का कारण भी बनी। दरअसल गजल के लिए जिस माहौल की जरूरत होती है। वैसा वहां दिख नहीं रहा था। लग रहा था कोई रईसी पार्टी आयोजित की गई है। जिसमें जाम छलकाए जा रहे हैं। गॉसिप रस का आनंद लिया जा रहा है। जगजीत सिंह शायद यहां उस भूमिका में मौजूद हैं, जैसे कि किसी शादी-पार्टी में कुछेक सिंगर्स को बुलाया जाता है, पाश्र्व संगीत देने के लिए। गजल सम्राट को इस माहौल में गजल की इज्जत तार-तार होते दिखी। आखिर गजल सुनने के लिए एक अदब और सलीके की जरूरत होती है। यही अदब और सलीका आज की 'जगजीत नाइट' से नदारद था। गजल के आशिक और पुजारी जगजीत सिंह से गजल की यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उनका मूड उखड़ गया। उन्होंने महफिल में बह रहे अपने बेहतरीन सुरों को और संगीत लहरियों को वापस खींच लिया। इस पर आयोजक स्तब्ध रह गए। सभी सन्नाटे में आ गए। आयोजकों ने जगजीत जी से कार्यक्रम रोकने का कारण पूछा। इस पर गजल सम्राट ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि 'गजल मेरे लिए पूजा है, इबादत है। यहां इसका सम्मान होता नहीं दिख रहा है। अगर गजल सुननी है तो पहले इसका सम्मान करना सीखें और सलीका भी। मैं कोई पार्टी-शादी समारोह में गाना गाने वाला गायक नहीं हूं। गजल से मुझे इश्क है। मैं इसका अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता। यहां उपस्थित अधिकांश लोग मुझे गजल श्रोता, गजल रसिक नहीं दिखते। संभवत: आप लोग यहां सिर्फ जगजीत सिंह को देखने के लिए आए हैं। ऐसे में मेरे गजल कहने का कोई मतलब नहीं है। मैं खामोश ही भला।
      उनका इतना कहना था कि आयोजकों के चेहरे देखने लायक थे। काफी अनुनय, विनय और माफी मांगने पर जगजीत सिंह फिर से गाने के लिए तैयार हुए। लेकिन, उन्होंने चिट्ठी न कोई संदेश... गाकर ही कार्यक्रम को विराम दे दिया। जगजीत सिंह की महफिलों में अक्सर यही आखिरी गजल होती है। यह घटनाक्रम दूसरे दिन शहर के सभी अखबारों की सुर्खियां बना। उस दिन ग्वालियरराइट्स के दिलों में गजल के लिए सम्मान के भाव जगा दिए थे। इस पूरे वाकए पर उनकी लोकप्रिय गजलों में से एक 'सच्ची बात कही थी मैंने...' सटीक बैठती है।
       गजल के प्रति यह समर्पण देखकर ही गुलजार साहब उन्हें 'गजल संरक्षक' कहते हैं। यह उनकी आवाज का ही जादू था कि इतने लम्बे समय तक गजल और जगजीत सिंह एक दूजे का पर्याय बने रहे। वर्ष २००४ के दौरान मैंने जब अपने पसंदीदा गजल गायक के बारे अधिक जानने की कोशिश की तो पता चला कि आपकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह भी बेहतरीन गजल गायिका हैं। चित्रा से जगजीत जी का विवाह १९६९ में हुआ था। दोनों ने १९७० से १९८० के बीच संगीत की दुनिया में खूब राज किया। बाद में सड़क दुर्घटना में बेटे विवेक की मौत के बाद चित्रा सिंह ने गाना छोड़ दिया। जबकि जगजीत सिंह बेटे के गम में डूबने से बचने के लिए गजल और आध्यात्म में और अधिक डूब गए। गजल को अधिक लोकप्रिय बनाने में जगजीत सिंह का योगदान अतुलनीय है। ऑर्केस्ट्रा के साथ गजल प्रस्तुत करने का सिलसिला भी इन्हीं की देन है। यह फॉर्मूला बेहद हिट हुआ। जगजीत सिंह गजल गायक, संगीतकार, उद्योगपति के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। वे कई कलाकारों की तंगहाली में मदद करते रहे, क्योंकि उन्होंने भी शुरूआती दिनों में संघर्ष की पीड़ा का डटकर सामना किया। आखिर में इस महान गायक का जन्म ८ फरवरी  १९४१ को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। ७० वर्ष का सफर तय कर मुंबई में १० अक्टूबर २०११ को निधन हो गया। पिता ने उनका नाम जगमोहन रखा था। उनके गुरु ने ही उन्हें जगजीत सिंह नाम दिया। गुरु का मान रखते हुए उन्होंने 'जग' से विदा लेते-लेते   इसे 'जीत' लिया था।

रविवार, 22 मई 2011

शिक्षा का वामपंथीकरण, पढ़ो गांधी की जगह लेनिन

  सो च रहा था कम्युनिस्ट इस देश की सभ्यता व संस्कृति को मान क्यों नहीं देते? ध्यान में आया कि उनकी सोच और प्रेरणास्रोत तो अधिकांशत: विदेशी हैं। फिर क्यों ये इस देश के आदर्शों पर गर्व करेंगे। भारत की सभ्यता, संस्कृति और आदर्श उन्हें अन्य से कमतर ही नजर आते हैं। हालांकि भारत के युवा वर्ग को साधने के लिए एक-दो भारतीय वीरों को बोझिल मन से इन्होंने अपना लिया है। हाल ही में उन्होंने मेरे इस मत को पुष्ट भी किया। वामपंथियों ने त्रिपुरा में स्कूली किताबों में महात्मा गांधी की जगह लेनिन को थोप दिया है। यह तो किसी को भी तर्कसंगत नहीं लगेगा कि भारत के नौनिहालों को महात्मा गांधी की जगह लेनिन पढ़ाया जाए। त्रिपुरा में फिलहाल सीपीएम की सरकार है। मुख्यमंत्री कम्युनिस्ट माणिक सरकार हैं। त्रिपुरा में कक्षा पांच के सिलेबस से सत्य, अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की जगह कम्युनिस्ट, फासिस्ट, जनता पर जबरन कानून लादने वाले लेनिन (ब्लादिमिर इल्या उल्वानोव) को शामिल किया है। 
        लेनिन की मानसिकता को समझने के लिए उसकी एक घोषणा का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। लेनिन ने एक बार सार्वजनिक घोषणा द्वारा अपने देशवासियों को चेतावनी दी थी कि 'जो कोई भी नई शासन व्यवस्था का विरोध करेगा उसे उसी स्थान पर गोली मार दी जाएगी।'  लेनिन अपने विरोधियों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया करता था। ऐसे आदर्श का पालन करने वाले लेनिन को अब त्रिपुरा के बच्चे पढेंग़े। वे बच्चे जो अभी कक्षा पांच के छात्र हैं। इस उम्र में उनके मन में जिस तरह के विचारों का बीजारोपण हो जाएगा। युवा अवस्था के बाद उसी तरह की फसल देश को मिलेगी। इस तथ्य को वामपंथी अच्छे से जानते हैं। इसी सोची समझी साजिश के तहत उन्होंने महात्मा को देश के मन से हटाने की नापाक कोशिश की है। उन्होंने ऐसा पहली बार नहीं किया, वे शिक्षा व्यवस्था के साथ वर्षों से दूषित खेल खेलते आ रहे हैं।
    वामपंथियों की ओर से अपने हित के लिए समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था के साथ किए जाने वाले परिवर्तनों पर, तथाकथित सेक्युलर जमात गुड़ खाए बैठी रहती है। उन्हें शिक्षा का यह वामपंथीकरण नजर नहीं आता। वे तो रंगे सियारों की तरह तब ही आसमान की ओर मुंह कर हुआं...हुआं... चिल्लाते हैं जब किसी भाजपा सरकार की ओर से शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है। तब तो सब झुंड बनाकर भगवाकरण-भगवाकरण जपने लगते हैं। सेक्युलर जमातों की यह नीयत समझ से परे है। खैर, वामपंथियों को तो वैसे भी महात्मा गांधी से बैर है। क्योंकि, गांधी क्रांति की बात तो करते हैं, लेकिन उसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं। वहीं वामपंथियों की क्रांति बिना रक्त के संभव ही नहीं। गांधी इस वीर प्रसूता भारती के सुत हैं, जबकि कम्युनिस्टों के, इस देश के लोग आदर्श हो ही नहीं सकते। गांधीजी भारतीय जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, जबकि वामपंथी कहते हैं कि भारतीयों को जीना आता ही नहीं। गांधीजी सब धर्मों का सम्मान करते हैं और हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं, जबकि कम्युस्टिों के मुताबिक दुनिया में हिन्दू धर्म में ही सारी बुराइयां विद्यमान हैं। वामपंथियों का महात्मा गांधी सहित इस देश के आदर्शों के प्रति कितना 'सम्मान' है यह १९४० में सबके सामने आया। १९४० में वामपंथियों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया। उस समय कुटिल वामपंथियों ने भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध खूब षड्यंत्र किए। गांधी और भारत के प्रति द्वेष रखने वाले वामपंथी देश के बच्चों को क्यों महात्मा को पढऩे देना चाहेंगे।
    शिक्षा बदल दो तो आने वाली नस्ल स्वत: ही जैसी चाहते हैं वैसी हो जाएगी। इस नियम का फायदा वामपंथियों ने सबसे अधिक उठाया। बावजूद वे उतने सफल नहीं हो पाए। इसे भारत की माटी की ताकत माना जाएगा। तमाम प्रयास के बाद भी उसके बेटों को पूरी तरह भारत विमुख कभी नहीं किया जा सका है। वैसे वामपंथी भारत की शिक्षा व्यवस्था में बहुत पहले से सेंध लगाने में लगे हुए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के प्रकल्प के तहत दस खण्डों के 'स्वाधीनता की ओर' ग्रंथ का प्रकाशन करवाया गया। इसे तैयार करने में अधिकांशत: कम्युनिस्ट टोली लगाई गई। अब ये क्या और कैसा भारत का इतिहास लिखते हैं इसे सहज समझा जा सकता है।  इस ग्रंथ में १९४३-४४ तक के कालखण्ड में महात्मा गांधी जी के बारे में केवल ४२ दस्तावेज हैं, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सैकड़ों। ऐसा क्यों? क्या कम्युनिस्ट पार्टी इस देश के लिए महात्मा गांधी से अधिक महत्व रखती है? क्या कम्युनिस्ट पार्टी का स्वाधीनता संग्राम में गांधी से अधिक योगदान है? भारतीय इतिहास के पन्नों से हकीकत कुछ और ही बयां होती है। इतिहास कहता है कि १९४३-४४ में भारत के कम्युनिस्ट अंग्रेजों के पिट्ठू बन गए थे। इसी ग्रंथ में विश्लेषण के दौरान गांधी जी को पूंजीवादी, शोषक वर्ग के प्रवक्ता, बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावाद का संरक्षक आदि कहकर गालियां दी गईं। यह है कम्युनिस्टों का चेहरा। यह है गांधीजी के प्रति उनका द्वेष।
    स्वतंत्रता पूर्व से ही वामपंथियों ने बौद्धिक संस्थानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। इसका असर यह हुआ कि तब से ही शिक्षा-साहित्य में भारतीयता के पक्ष की उपेक्षा की जाने लगी थी। जयशंकर को दरकिनार किया, उनकी जगह दूसरे लोगों को महत्व दिया जाने लगा। कारण, जयशंकर भारतीय संस्कृति के पक्ष में और उसे आधार बनाकर लिखते थे। ऐसे में उन्हें आगे कैसे आने दिया जाता। वहीं प्रेमचंद की भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत रचनाओं को कचरा बताकर पाठ्यक्रमों से हटवाया गया। उनके 'रंगभूमि' उपन्यास की उपेक्षा की गई। क्योंकि, रंगभूमि का नायक 'गांधीवादी' और भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व करता है। निराला की वे रचनाएं जो भारतीय मानस के अनुकूल थीं यथा 'तुलसीदास' और 'राम की शक्तिपूजा' आदि की उपेक्षा की गई। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं।
    आजादी के बाद इन्होंने तमाम विरोधों के बाद भी मनवांछित बदलाव शिक्षा व्यवस्था में किए। महान प्रगतिशीलों ने 'ग' से 'गणेश' की जगह 'ग' से 'गधा' तक पढ़वाया। केरल में तो उच्च शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर दिया है। वहां राजनीति, विज्ञान और इतिहास में राष्ट्रभक्त नेताओं और विचारकों का नामोनिशान ही नहीं है। केरल के उच्च शिक्षित यह जान ही नहीं सकते कि विश्व को शांति का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी और अयांकलि के समाज सुधारक श्रीनारायण गुरु सहित अन्य विचारक कौन थे। इनके अध्याय वहां के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। ये यह भी नहीं जान सकते कि भारत ने आजादी के लिए कितने बलिदान दिए हैं, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन का तो जिक्र ही नहीं है, जबकि माक्र्सवादी संघर्ष से किताबें भरी पड़ी हैं।
यह लेख भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र एलएन स्टार के २१ मई को प्रकाशित अंक में भी पढ़ा जा सकता है.

बुधवार, 23 मार्च 2011

नियोजित ढंग से बसा है लश्कर

 "पत्रिका के ग्वालियर संस्करण ने १२ मार्च माह से एक नया प्रयोग किया है। नगर संस्करण के छह पेजों में से आधा पेज प्रतिदिन शहर के दो उपनगरों लश्कर और मुरार की खबरों के लिए समर्पित किया है। सप्ताह के तीन दिन यह स्थान लश्कर के लिए आरक्षित है और बाकी के तीन दिन मुरार के लिए। चूंकि मैं उपनगर लश्कर में रहता हूं तो इसके लिए गठित टीम में मैं भी शामिल हूं। लश्कर पत्रिका के नाम से पहली बार आधा पेज १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था। उस अवसर पर मैंने लश्कर के संदर्भ में निम्न आलेख लिखा था। वह अब आप लोगों को समर्पित है।" - लोकेन्द्र सिंह राजपूत

लश्कर स्थित महाराज बाड़ा ऐतिहासिक और व्यावसायिक द्रष्टि से महत्त्वपूर्ण है
 व र्तमान में ग्वालियर तीन उपनगरों से मिलकर बना है, उपनगर ग्वालियर, लश्कर और मुरार। लश्कर, ग्वालियर का मुख्य उपनगर है। लश्कर में प्रमुख व्यापारिक, राजनीतिक संगठनों के साथ ही प्रशासनिक दफ्तर हैं। बड़े और प्रमुख बाजारों से भी लश्कर समृद्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लश्कर योजनाबद्ध ढंग से बसने वाला जयपुर के बाद दूसरा शहर है। हालांकि इससे पहले ग्वालियर विद्यमान था। जो किले की तलहटी और स्वर्ण रेखा नदी के आसपास बसा था। इसमें तंग, छोटी और पतली गलियां हुआ करती थीं। शायद कोई नियोजित बस्ती या बाजार की बसाहट नहीं थी। १८१० में दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से हटाकर ग्वाल्हेर स्थापित की। उस समय यहां चारों तरफ पहाड़ और जंगल ही थे। नदी बहती थी। जंगली जानवर विचरण करते थे। तब दौलतराव सिंधिया ने अपने लाव लश्कर के साथ वर्तमान महाराज बाड़े के निकट तंबू लगाकर पड़ाव डाला। सन् १८१८ तक यह लगभग सैनिक छावनी जैसा ही रहा। सिंधिया के लाव-लश्कर के पड़ाव स्थापित होने के कारण ही इस स्थान का नाम 'लश्कर' पड़ गया। दौलतराव से पूर्व लश्कर का यह क्षेत्र अम्बाजी इंगले के पास था।
    दौलतराव सिंधिया ने अपनी रानी गोरखी के नाम पर सबसे पहले १८१० में गोरखी महल का निर्माण करवाया। राजा की सुरक्षा सुदृढ़ रहे, इसलिए उनके सरदारों को गोरखी महल के आसपास ही बसाया गया। गोरखी के आसपास सरदार शितोले, सरदार जाधव, सरदार फालके और सरदार आंग्रे की हवेलियां बनीं। इसके बाद दौलतराव सिंधिया ने बाजारों के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने सबसे पहले सराफा बाजार का निर्माण करवाया, यहां बसने के लिए राजस्थान के जोहरियों को बुलावा भेजा गया। लश्कर में सबसे पहली सड़क भी सराफा बाजार में ही बनी थी। यह काफी चौड़ी थी। दोनों ओर नगरसेठों की नयनाविराम हवेलियां थीं। दशहरे के लिए इसी सड़क से सिंधिया की शोभायात्रा निकलती थी। सड़क के दोनों ओर हवेलियों के नीचे बने चबूतरों पर खड़े होकर प्रजा पुष्पवर्षा कर शोभायात्रा का स्वागत करती थी। समय के साथ इस बाजार की राजशाही रौनक अतिक्रमण की मार से धुंधली पड़ गर्ई थी। जो शायद अब फिर से देखने को मिले। सराफा बसने के बाद लश्कर का विस्तार होना शुरू हो गया। इसके बाद दौलतराव सिंधिया के नाम पर ही दौलतगंज बसा। इसके बाद ही कम्पू कोठी (महल) और जयविलास पैलेस बने।
    माधौराव सिंधिया (१८८५-१९२५) को ग्वालियर का आधुनिक निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भी अनेक बाजारों का योजनाबद्ध ढंग से निर्माण कराया। उनमें लश्कर के दाल बाजार, लोहिया बाजार, नया बाजार आदि प्रमुख हैं।  इन बाजारों में भी नगर के तत्कालीन कारीगरों की हुनरमंदी आज भी देखने को मिलती है। अनेक झरोखे, पत्थरों की कलात्मक जालियां, दरवाजों पर उकेरी गईं मूर्तियां और बेलबूटे आज भी बरबस ही ध्यान आकर्षित कर लेते हैं।
    वर्तमान में लश्कर के प्रमुख स्थापत्य
१. महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय ।
२. महाराज बाड़ा।
३. शासकीय गजराराजा कन्या विद्यालय।
४. जयारोग्य अस्पताल समूह।
५. केआरजी कालेज और पद्मा कन्या विद्यालय।
६. जलविहार, फूलबाग।
७. डरफिन सराय।
८. मोती महल।
९. आरटीओ कार्यालय।
१०. गोपाचल पर्वत।