रविवार, 27 सितंबर 2020

वन्यप्रदेश के लोकगीत सुनाते अमरकंटक के जलप्रपात


अमरकंटक, मध्यप्रदेश के प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध पर्यटन स्थलों में प्रमुख है। यदि सरकार और पर्यटन विभाग थोड़ा ध्यान दे, तो ‘हिल स्टेशन’ पचमढ़ी के बाद अमरकंटक मध्यप्रदेश का प्रमुख पर्यटन स्थल बन सकता है। यहाँ का तापमान भी अपेक्षाकृत कम ही रहता है। बारिश के दिनों में यहाँ बादलों को पहाड़ों की चोटियों और ऊंचे पेड़ों से टकराते देखा जा सकता है। यहाँ के घने वन, ऊंचे पहाड़, शांत, शीतल और सौम्य वातावरण सबका मन मोह लेता है। जो एक बार यहाँ आ जाता है, वह बार-बार यहाँ आना चाहता है। मध्यप्रदेश के अन्य हिस्सों से के अलावा छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से यहाँ अधिक संख्या में पर्यटक आते हैं। देशभर से आने वाले ऐसे पर्यटकों की संख्या भी कम नहीं है, जो प्रकृति के सान्निध्य का सुख और पुण्यदायिनी माँ नर्मदा के घर में आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति चाहते हैं। अमरकंटक, सदानीरा माँ नर्मदा के उद्गम स्थल के लिए प्रसिद्ध है। शोण (सोन) और जोहिला नदियों के उद्गम स्थल भी अमरकंटक के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। ये नदियां मैदानी इलाकों में बहने से पहले अमरकंटक के पहाड़ों से उतरती हैं, तब वे यहाँ अनेक स्थानों पर आकर्षक जलप्रपात बनाती हैं। कपिल धारा और दूध धारा तो अपने सौंदर्य के लिए खूब प्रसिद्ध हैं। सोनमूड़ा में लगभग 300-350 फीट की ऊंचाई से गिरता जलप्रपात भी कम आकर्षक नहीं है। दुर्गा धारा, शंभू धारा, लक्ष्मण धारा जैसे कुछ झरने ऐसे भी हैं, जो पहाड़ों से बहकर आने वाली जलधार से बनते हैं। ये भी बहुत मनोहारी हैं। प्रकृति से प्रेम करने वाले पर्यटकों को ये बहुत भाते हैं। फुरसत से आकर इनके समीप बैठ जाओ और ध्यान से सुनो, तब ऐसा लगता है मानो ये जलप्रपात वन्यप्रदेश के लोकगीत सुना रहे हैं।

अमरकंटक के प्रमुख जलप्रपातों में सबसे पहला स्थान है, कपिल धारा और दूध धारा का। नर्मदा उद्गम स्थल से लगभग 6 किमी दूर स्थित है कपिल धारा। यह ऋषि कपिल मुनि की तपस्थली है। सांसारिक दु:खों से निवृत्ति और तात्विक ज्ञान प्रदान करने वाले ‘सांख्य दर्शन’ की रचना कपिल मुनि ने इसी स्थान पर की थी। यहाँ लगभग 100 फीट की ऊंचाई से नर्मदा के जल की दो धाराएं नीचे गिरती हैं। शेष दिनों में यह धाराएं बहुत पतली होती हैं। जबकि बारिश के दिनों में इस झरने का वेग तीव्र होता है और जलराशि भी अधिक होती है। जब यहाँ से पानी नीचे गिरता है, तब बड़ा ही मनोहारी दृश्य बनता है। 100 फीट से नीचे गिरने के बाद नर्मदा का जल बौझार और फुआर बनकर यहाँ आने वाले पर्यटकों और श्रद्धालुओं को भिगोता है, मानो नर्मदा मैया अपने तट पर आए प्रकृति प्रेमियों पर ‘गंगाजल’ छिड़क रही हों। 


मध्यप्रदेश के पर्यटन विभाग ने कपिल धारा का विहंगम दृश्य देखने के लिए ‘वॉच टॉवर’ भी बनाया है। यहाँ से जब हम देखते हैं तो नर्मदा किसी नटखट बालिका की तरह दिखाई देती हैं, जो पहाड़ों से कूदती-फांदती अपनी मौज में चली जा रही हैं। नर्मदा की अटखेलियाँ देखकर घने वन और पशु-पक्षी प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं। कपिल धारा से उतरकर तकरीबन 200 मीटर की दूरी पर नर्मदा का एक और जल प्रपात है, जिसे दूध धारा कहते हैं। दरअसल, इस जल प्रपात में पानी इतनी तेजी से गिरता है कि उसका रंग दूध की तरह धवल दिखाई देता है। इस नाम के पीछे एक जनश्रुति भी है। अपने क्रोधित स्वभाव के लिए विख्यात ऋषि दुर्वासा ने यहाँ तपस्या की थी। उनके ही नाम पर यहाँ नर्मदा की धारा का नाम ‘दुर्वासा धारा’ पड़ा, जो बाद में अपभ्रंस होकर ‘दूध धारा’ हो गया। यह भी माना जाता है कि ऋषि दुर्वासा की तपस्या से प्रसन्न होकर माँ नर्मदा ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और उन्हें दुग्ध पान कराया था, तभी से यहाँ नर्मदा की धारा का नाम दूध धारा पड़ गया। ऋषि दुर्वासा दूध के समान धवल नर्मदा जल से प्रतिदिन शिव का अभिषेक करते थे। इस स्थान पर ऋषि दुर्वासा की गुफा भी हैं, जहाँ उन्होंने ध्यान-तपस्या की होगी। इस गुफा में एक शिवलिंग भी है, जिस पर निरंतर पानी गिरता रहता है।  

शोण (सोन) के उद्गम स्थल पर बना जलप्रपात ‘सोनमूड़ा’ भी पर्यटकों को प्रिय है। सोनमूड़ा नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर स्थान है। बारिश के समय में यह झरना भरपूर चलता है। शेष समय में एक पतली जलधारा के रूप में रहता है। यह काफी ऊंचा स्थान है। इसलिए यहाँ से अमरकंटक की घाटियां, घने हरे-भरे जंगल, गाँव-टोलों के सुंदर दृश्य मन मोह लेते हैं। यहाँ प्रात: काल उगते हुए सूर्य का दर्शन भी सुखकर है। 


बरसात या फिर उसके बाद जब हम अमरकंटक पहुँचते हैं तब हमें शम्भू धारा और लक्ष्मण धारा जैसे जलप्रपात देखने का आनंद भी प्राप्त होता है। इस मौसम में ये जल प्रपात अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ पर्यटकों के सामने उपस्थित होते हैं। शम्भू धारा और लक्ष्मण धारा, नर्मदा उद्गम स्थल से तकरीबन ५ किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ तक पहुँचने के लिए घने जंगल से होकर गुजरना पड़ता है। यहाँ जंगल इतना घना है कि धूप धरती को नहीं छू पाती है। घने जंगल से होकर, कच्चे रस्ते से शम्भूधारा तक पहुँचना किसी रोमांच से कम नहीं है। अमरकंटक के अन्य पर्यटन स्थलों की अपेक्षा यहाँ कम ही लोग आते हैं। दरअसल, लोगों को इसकी जानकारी नहीं रहती। किसी मार्गदर्शक के बिना यहाँ तक आना किसी नये व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह स्थान बेहद खूबसूरत है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यहाँ पशु-पक्षियों की आवाज किसी मधुर संगीत की तरह सुनाई देती हैं। निर्जन वन होने के कारण यहाँ साधु-संन्यासी धूनी भी रमाते हैं। 


दुर्गा धारा एक बहुत छोटा जल प्रपात है, लेकिन बहुत रमणीय है। पहाड़ों में ऊपर स्थित अमरनाला या अमरताल से होकर निकली धारा तकरीबन दो-तीन किमी की दूरी सघन वन में तय करके यहाँ जल प्रपात के रूप में गिरती है। पूर्व में इसका नाम कुछ और रहा होगा। लेकिन, कालांतर में इस स्थान पर मृत्युंजय आश्रम, अमरकंटक से जुड़े स्वामी आत्मानंद सरस्वती ने दुर्गा मंदिर का निर्माण करा दिया, तब से इस जल प्रपात का नामकरण ‘दुर्गा धारा’ हो गया। जब हम माई के मण्डप के लिए जाते हैं, तब यह स्थान हमें बीच में मिलता है। इनके अलावा चिलम-पानी और धरम-पानी नामक रमणीक स्थान पर भी मनोहारी जलप्रपात हैं। ये सब जलप्रपात अमरकंटक के सौंदर्य में गुणोत्तर वृद्धि करते हैं। यहाँ आने वाले पर्यटकों के आनंद को बढ़ाते हैं।  

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

पं. दीनदयाल उपाध्याय और पत्रकारिता

 पत्रकारिता में नैतिकता और शुचिता के आग्रही दीनदयालजी 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीतिज्ञ, चिंतक और विचारक के साथ ही कुशल संचारक और पत्रकार भी थे। उनके पत्रकार-व्यक्तित्व पर उतना प्रकाश नहीं डाला गया है, जितना कि आदर्श पत्रकारिता में उनका योगदान है। उनको सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है। उन्होंने देश में उस समय राष्ट्रीय पत्रकारिता की पौध रोपी थी, जब पत्रकारिता पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था। कम्युनिस्टों के प्रभाव के कारण भारतीय विचारधारा को संचार माध्यमों में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा था, बल्कि राष्ट्रीय विचार के प्रति नकारात्मकता वातावरण बनाने के प्रयत्न किये जा रहे थे। देश को उस समय संचार माध्यमों में ऐसे सशक्त विकल्प की आवश्यकता थी, जो कांग्रेस और कम्युनिस्टों से इतर दूसरा पक्ष भी जनता को बता सके। पत्रकारिता की ऐसी धारा, जो पाश्चात्य नहीं अपितु भारतीयता पर आधारित हो। दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी दूरदर्शी सोच से पत्रकारिता में ऐसी ही भारतीय धारा का प्रवाह किया। उन्होंने राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’, साप्ताहिक समाचारपत्र ‘पाञ्चजन्य’ (हिंदी), ‘ऑर्गेनाइजर’ (अंग्रेजी) और दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ प्रारंभ कराए। उन्होंने जब विधिवत पत्रकारिता (1947 में राष्ट्रधर्म के प्रकाशन से) प्रारंभ की, तब तक पत्रकारिता मिशन मानी जाती थी। पत्रकारिता राष्ट्रीय जागरण का माध्यम थी। स्वतंत्रता संग्राम में अनेक राजनेताओं की भूमिका पत्रकार के नाते भी रहती थी। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, डॉ. भीमराव आंबेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक नाम हैं, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे और पत्रकार भी। ये महानुभाव समूचे देश में राष्ट्रबोध का जागरण करने के लिए पत्रकारिता का उपयोग करते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पत्रकारिता कुछ समय तक मिशन बनी रही, उसके पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व थे। जिनके लिए पत्रकारिता अर्थोपार्जन का जरिया नहीं, अपितु राष्ट्र जागरण का माध्यम थी।

          पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता का अध्ययन करने से पहले हमें एक तथ्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ। वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को 'प्रसिद्धि परांगमुख' होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है। अपने संगठन के इस मंत्र को दीनदयालजी ने आजन्म गाँठ बांध लिया था। इसलिए उन्होंने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित तो करायीं, लेकिन उनके 'प्रधान संपादक' कभी नहीं बने। जबकि वास्तविक संचालक, संपादक और आवश्यकता होने पर उनके कम्पोजिटर, मशीनमैन और सबकुछ दीनदयाल उपाध्याय ही थे। उन्होंने जुलाई-1947 में लखनऊ से 'राष्ट्रधर्म' मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर वैचारिक पत्रकारिता की नींव रखी और संपादक बनाया अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव लोचन अग्निहोत्री को। राष्ट्रधर्म को सशक्त करने और लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने प्राय: उसके हर अंक में विचारोत्तेजक लेख लिखे। इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन भी दीनदयालजी स्वयं ही करते थे। 

           इसी प्रकार मकर संक्राति के पावन अवसर पर 14 जनवरी, 1948 को उन्होंने 'पाञ्चजन्य' प्रारंभ कराया। राष्ट्रीय विचारों के प्रहरी पाञ्चजन्य में भी उन्होंने संपादक का दायित्व नहीं संभाला। यह दायित्व उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा। पाञ्चजन्य में भी दीनदयालजी 'विचारवीथी' स्तम्भ लिखते थे। जबकि अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ऑर्गेनाइजर में वह 'पॉलिटिकल डायरी' के नाम से स्तम्भ लिखते थे। इन स्तंभों में प्रकाशित सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दीनदयालजी की तत्कालीन घटनाओं एवं परिस्थितियों पर कितनी गहरी पकड़ थी। उनके लेखन में तत्कालीन परिस्थितियों पर बेबाक टिप्पणी के अलावा राष्ट्रजीवन की दिशा दिखाने वाला विचार भी समाविष्ट होता था। दीनदयालजी ने समाचार पत्र-पत्रिकाएं ही प्रकाशित नहीं करायीं, बल्कि उनकी प्रेरणा से कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और आगे चलकर इस क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर बने। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, देवेंद्र स्वरूप, महेशचंद्र शर्मा, यादवराव देशमुख, राजीव लोचन अग्निहोत्री, वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चंद्र मिश्र आदि प्रमुख हैं। ये सब पत्रकारिता की उसी पगडंडी पर आगे बढ़े, जिसका निर्माण दीनदयाल उपाध्याय ने किया।

            दीनदयालजी पत्रकारिता में आदर्शवाद के आग्रही थे। वे मानते थे कि एक संवाददाता या संपादक को अपने लेखन में शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। शब्दों का चयन करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। किसी मुद्दे पर विरोध होने पर लिखते समय पत्रकार को अनावश्यक उत्तेजना से बचना चाहिए। क्योंकि, अनावश्यक उत्तेजना हमारे लेखन को कमजोर और अप्रभावी बनाती है। पत्रकारिता के धर्म का निर्वहन करने के लिए अपनी भावनाओं पर काबू रखना अनिवार्य है। लेखक और पत्रकार को हमेशा याद रखना चाहिए कि अंगुली सिर्फ चाकू से ही नहीं कटती, कभी-कभी कागज की कोर से भी कट जाती है। कागज और कलम के क्षेत्र काम करने वाले विद्वानों को चाकू की भाषा के बजाय तर्कों में धार देने पर ध्यान देना चाहिए। दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में अहंकार और कटुता का समावेश अंश मात्र भी नहीं था। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकार ने दीनदयालजी को याद करते हुए लिखा था- 'उनके हृदय के अंदर कोई कटुता नहीं थी। शब्दों में भी कटुता नहीं थी। बड़े प्रेम से बोला करते थे। कभी किसी पर जरा भी नाराज नहीं हुए। बहुत खराबी होने पर भी खराबी करने वाले के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया।' 


          पत्रकारिता में नैतिकता, शुचिता और उच्च आदर्शों के वे कितने बड़े हिमायती थे, इसका जिक्र करते हुए दीनदयालजी की पत्रकारिता पर आधारित पुस्तक के संपादक डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने लिखा है- संत फतेहसिंह के आमरण अनशन को लेकर पाञ्चजन्य में एक शीर्षक लगाया गया 'अकालतख्त के काल'। दीनदयालजी ने यह शीर्षक हटवा दिया और समझाया कि सार्वजनिक जीवन में इस प्रकार की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए, जिससे परस्पर कटुता बढ़े तथा आपसी सहयोग और साथ काम करने की संभावना ही समाप्त हो जाए। अपनी बात को दृढ़ता से कहने का अर्थ कटुतापूर्वक कहना नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार का एक और उदाहरण है। जुलाई, 1953 के पाञ्चजन्य के अर्थ विशेषांक की संपादकीय में संपादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने अशोक मेहता की शासन के साथ सहयोग नीति की आलोचना करते हुए 'मूर्खतापूर्ण' शब्द का उपयोग किया था। दीनदयालजी ने इस शब्द के उपयोग पर संपादक को समझाइश दी। उन्होंने लिखा- 'मूर्खतापूर्ण शब्द के स्थान पर यदि किसी सौम्य शब्द का प्रयोग होता तो पाञ्चजन्य की प्रतिष्ठा के अनुकूल होता।' इसी प्रकार चित्रों और व्यंग्य चित्रों के उपयोग में भी शालीनता का ध्यान रखने के वह आग्रही थे।

          एक और प्रसंग उल्लेखनीय है। पाञ्चजन्य के संपादक यादवराव देशमुख ने तिब्बत और चीन के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की नीतियों से क्षुब्ध होकर पहला संपादकीय लिखा था। उन्होंने शीर्षक दिया था- 'गजस्तत्र न हन्यते'। इस संपादकीय को पढऩे के बाद दीनदयालजी ने यादवराव देशमुख को कहा था- 'भाई आपका अग्रलेख बहुत अच्छा रहा, लेकिन उसका शीर्षक तुमने शायद बहुत सोचकर नहीं लिखा है। पंडित नेहरू से हमारा वैचारिक मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि वे हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। उनकी आलोचना करते समय हल्के शब्दों का प्रयोग करना तो उचित नहीं होगा।' कितनी महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही थी। संपादक या पत्रकार होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि हमारे मन में जो आक्रोश है, उसे अपनी लेखनी के जरिए प्रकट किया जाए। देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखना ही चाहिए। आज की परिस्थितियों में हम देखें, तब क्या इस प्रकार की पत्रकारिता दिखाई देती है? हमारे समय के अनेक मूर्धन्य लेखक और पत्रकार वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जिस प्रकार के शब्द और वाक्य उपयोग करते हैं, उनसे तो यही प्रतीत होता है कि उनका अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं है। दीनदयालजी की पत्रकारिता में जिस प्रकार की सौम्यता थी, वह अब दिखाई नहीं देती है। 1968 में तीन दिन से भी कम अवधि में हरियाणा, पश्चिम बंगाल और पंजाब की गैर-कांग्रेसी सरकारें गिरा दी गईं, तब ऑर्गेनाइजर में एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित हुआ। इस कार्टून में तत्कालीन गृहमंत्री चव्हाण लोकतंत्र के बैल को काटते हुए दर्शाये गए थे। उस समय केआर मलकानी ऑर्गेनाइजर के संपादक थे। दीनदयालजी ने इस व्यंग्य चित्र के लिए उनको समझाया था कि चाहे व्यंग्य चित्र ही क्यों न हो, गो-हत्या का यह दृश्य मन को धक्का पहुंचाने वाला है। इस प्रकार के व्यंग्य चित्रों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। उनकी पत्रकारिता की शुचिता और नैतिकता का स्तर इतना ऊंचा था कि अपने विरोधी के प्रति भी असंसदीय और अमर्यादित शब्दों, फोटो या फिर व्यंग्य चित्रों के उपयोग को उपाध्यायजी सर्वथा अनुचित मानते थे।

          यह माना जा सकता है कि यदि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राजनीति में नहीं भेजा जाता तो निश्चय ही उनका योगदान पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में और अधिक होता। पत्रकारिता के संबंध में उनके विचार अनुकरणीय है, यह स्पष्ट ही है। यदि उन्होंने पत्रकारिता को थोड़ा और अधिक समय दिया होता, तब वर्तमान पत्रकारिता का स्वरूप संभवत: कुछ और होता। पत्रकारिता में उन्होंने जो दिशा दिखाई है, उसका पालन किया जाना चाहिए।

सोमवार, 14 सितंबर 2020

देश-दुनिया में हिन्दी का विस्तार

वर्ष 2015 में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित 10वां हिन्दी सम्मलेन 

वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी का विस्तार और प्रभाव पूरे विश्व में देखने को मिल रहा है। हिन्दी भारत की सीमाओं से बाहर कई देशों में अपनी पहचान बना चुकी है। भारत में भी वह सम्पर्क की प्रमुख भाषा है। महात्मा गांधी ने कहा था कि इस देश में हिन्दी ही सम्पर्क की भाषा हो सकती है। लेकिन, महात्मा गांधी की बात को सत्ताधीशों ने गंभीरता से नहीं लिया। अलबत्ता, हम देखते हैं कि संकुचित राजनीति के कारण उपजे भाषाई विरोध के बावजूद भी आज पूरे देश में हिन्दी बोलने, पढऩे, लिखने और समझने वाले लोग मिल जाते हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक भारत में हिन्दी लोकप्रिय है और सम्पर्क-संवाद की सेतु है। वह विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। साहित्य की रचना हो रही है। हिन्दी की श्रेष्ठ पुस्तकों को अनुवाद भारतीय भाषाओं में और भारतीय भाषाओं में रची गईं महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी में हो रहा है। एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि हम भले ही अपने भाषायी समाज में अपनी भाषा-बोली में बात करते हैं लेकिन जब किसी दूसरे समाज के व्यक्ति से बात करनी होती है तो हिन्दी ही माध्यम बनती है। जैसे- मराठी और मलयालम बोलने वाले आपस में संवाद करते हैं तो हिन्दी में। इस तरह हिन्दी सबकी भाषा है। 

प्रख्यात उपन्यासकार डॉ. नरेन्द्र कोहली बता रहे हैं- "हिन्दी में हैं सबसे अधिक रोजगार"

हिन्दी लम्बे समय से सम्पूर्ण देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था। यही कारण था कि जनता और सरकार के बीच संवाद में फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से दिक्कतें पेश आईं तो कम्पनी सरकार ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की थी। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।

सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा— 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।' वहीं टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा था कि जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए। जबकि विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा था- 'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।' इसी तरह एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा था- 'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'

भारत की सीमा से बाहर विश्व फलक पर निगाह दौड़ाएं तो हिन्दी का सुखद संसार नजर आएगा। दुनिया में हिन्दी को फलते-फूलते देखकर निश्चित ही प्रत्येक भारतीय और हिन्दी प्रेमी को सुखद अनुभूति होगी। बात बाजार-व्यापार की हो या फिर संस्कार की, विश्व कुटुम्ब में बदलती दुनिया की निगाह भारत की ओर है और उसकी समृद्ध भाषा हिन्दी की ओर भी है। एक ओर जहां मॉरिशस, त्रिनिदाद, टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम और फिजी जैसे देशों में प्रवासी भारतीय अपनी विरासत के तौर पर हिन्दी को पाल-पोस रहे हैं तो दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, जर्मनी, पौलेंड, कोरिया, रूस, आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे दूसरे देशों के लिए यह बाजार की जरूरत बन रही है। आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में भी हिन्दी की धमक साफ नजर आती है। सभी सर्च इंजन हिन्दी में सामग्री खोजने की सुविधा देते हैं। गूगल हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए नित नए प्रयोग कर रहा है। जब से हिन्दी इंटरनेट पर लिखी जाने लगी है, लगातार हिन्दी सामग्री की उपलब्धता इंटरनेट पर बढ़ती जा रही है। सुखद तथ्य है कि आज दुनिया के 40 से अधिक देश और उनकी 600 से अधिक संस्थाओं, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है।

मॉरिशस में फ्रेंच के बाद हिन्दी ही एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त भाषा है जिसमें पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य का प्रकाशन होता है। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) देश की पहचान सिटी ऑफ गोल्ड दुबई से है। यूएई में एफएम रेडियो के कम से कम तीन ऐसे चैनल हैं, जहां आप चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिन्दी फिल्मों के गीत सुन सकते हैं। ब्रिटेन ने हिन्दी के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दिया था। गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोश व्याकरण और भाषिक विवेचन के ग्रंथ लिखे हैं। लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। लंदन में बर्मिंघम स्थित मिडलैंड्स वर्ल्ड ट्रेड फोरम के अध्यक्ष रहे पीटर मैथ्यूज ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिन्दी समेत कई अन्य भाषाएँ सीखने की नसीहत दी है। ‘अन्तरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान’ हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है जो किसी दूसरे देश की संसद (ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स) में प्रदान किया जाता है। अमेरिका के येन विश्वविद्यालय मंभ 1815 से ही हिन्दी पढ़ाई जा रही है। आज 30 से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिन्दी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। ‘लैंग्वेज यूज इन यूनाइटेड स्टेट्स-2011’ की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि अमेरिका में बोली जाने वाली शीर्ष दस भाषाओं में हिन्दी शामिल है। अमेरिका हिन्दी को उन पाँच भाषाओं में गिनता है, जिनमें उसके नागरिकों की दक्षता जरूरी समझी जाती है। 

रूस में हिन्दी पुस्तकों का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व में किसी भाषा की पुस्तकों का हुआ हो। रूस के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य पर शोध हो रहे हैं। मास्को विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के तहत जनता की समस्याओं का अध्ययन करने वाले केंद्र के एक विशेषज्ञ, रूस की विज्ञान अकादमी के भूविज्ञान संस्थान के कर्मी रुस्लान दिमीत्रियेव मानते हैं कि भविष्य में हिन्दी बोलने वालों की संख्या इस हद तक बढ़ सकती है कि हिन्दी दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा हो जाएगी। वर्ष 2011 के आंकड़ों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया में एक लाख से अधिक लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, लट्रोब विश्वविद्यालय, सिडनी विश्वविद्यालय, मेलबोर्न विश्वविद्यालय, मोनाश विश्वविद्यालय, रॉयल मेलबोर्न इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी सहित अन्य संस्थानों में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। 

एशियाई देश जापान में हिन्दी भाषा का बहुत अधिक सम्मान है। जापान की दो नेशनल यूनिवर्सिटी ओसाका और टोकियो में स्नातक और परास्नातक स्तर पर हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था है। गौरतलब है कि प्रोफेसर दोई ने टोकियो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना की। महात्मा गांधी और टैगोर के अनन्य भक्तों में से एक साइजी माकिनो जब भारत आए तो हिन्दी के रंग में रंग गए। उन्होंने गांधीजी के सेवाग्राम में रहकर हिन्दी सीखी। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘भारत में पैंतालीस साल और मेरी हिन्दी-यात्रा’ उनकी चर्चित पुस्तक है, जो उनके भारत और हिन्दी प्रेम को प्रकट करती है साथी ही जापान और भारत के संबंधों को भी बताने का प्रयास करती है। 

जर्मनी के हीडलबर्ग, लोअर सेक्सोनी के लाइपजिंग, बर्लिन के हम्बोलडिट और बॉन विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया गया है। जर्मन के लोग हिन्दी को एशियाई आबादी के एक बड़े तबके से संपर्क साधने का सबसे बड़ा माध्यम मानने लगे हैं। त्रिनिदाद एवं टोबैगो में भारतीय मूल की आबादी 45 प्रतिशत से अधिक है। गुयाना में 51 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं। मालदीव की भाषा दीवेही भारोपीय परिवार की भाषा है। यह हिन्दी से मिलती-जुलती भाषा है। सिंगापुर, फ्रांस, इटली, स्वीडन, ऑस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क, स्विटजरलैंड, जर्मन, रोमानिया, बल्गारिया और हंगरी के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है। इसी तरह भूटान, मालदीव और श्रीलंका में भी हिन्दी का प्रभाव है। विगत वर्षों में खाड़ी देशों में हिन्दी का तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ है। वहां के सोशल मीडिया में हिन्दी का दखल बढ़ा है और कई पत्र-पत्रिकाओं को ऑनलाइन पढ़ा जा रहा है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं हैं जहां भारतीयों की उपस्थिति न हो और वहां हिन्दी का दखल न बढ़ रहा हो। एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया भर में ढाई करोड़ से अधिक अप्रवासी भारतीय 160 से अधिक देशों में रहते हैं। इनका हिन्दी भाषा के फैलाव में अतुलनीय योगदान है। दुनिया में चीनी के दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली मातृभाषा हिन्दी आज भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है। अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा रही है। आज हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। 

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