१४ अगस्त १९४७ आधुनिक भारत का सबसे दु:खद दिन था। कुछ सिर-फिरे नेताओं की सत्तालोलुपता के कारण दोनों ओर से हजारों-लाखों लोगों को मार डाला गया। विशेषकर वर्तमान पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं की निर्ममता से हत्या की गई। जुलाई-अगस्त से ही उपद्रव शुरू हो गए थे, जो विभाजन के बाद तक जारी रहे। रात के समय हिन्दुओं के घर और दुकान अधिकारियों की मिलीभगत से उपद्रवी जला रहे थे और हिन्दुओं को मार-काट कर उन पर कब्जा कर रहे थे। बीभत्स नर-संहार के समाचार पाकिस्तान में बसने के इच्छुक लोगों को भी कंपा रहे थे। खून-पसीने की कमाई से बनाए पूर्वजों के और अपने पहले घर को कोई छोडऩा नहीं चाहता। लेकिन, धार्मिक देश के नाम पर नर से पिचाश बने लोगों के आगे उदार हिन्दुओं की हिम्मत जवाब देने लगी। आखिर ज्यादातर हिन्दुओं ने पाकिस्तान जो कि हिन्दुओं के लिए नापाक हो चुका था, से भाग आना ही उचित समझा। अहो! दुर्भाग्य, सुरक्षित भारत चले आना भी उनके नसीब में नहीं था। उस पार से रेलगाडिय़ों में जिन्दा इंसान की जगह लाशें यात्रा कर हिन्दुस्तान आती थीं। जिनकी किस्मत बहुत ही बुलंद थी, वे ही अमन की सरजमीं पर सही-सलामत आ सके। महज तीन माह में ही पाकिस्तान में बसे ९० फीसदी हिन्दुओं ने हमेशा के लिए अपने पैतृक भूमि को छोड़ दिया, या कहें छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा। विभाजन की नींव हिन्दू-मुस्लिम एकता को छिन्न-भिन्न करके रखी गई थी। उस दौर के कई मुस्लिम और हिन्दू संतों ने इस खूनी मंजर को रोकने के अथाह प्रयास किए थे लेकिन प्रयास रंग नहीं ला सके। विभाजन का दंश हिन्दुओं को ही नहीं चुभा वरन इससे उदार मुस्लिम भी आहत हुए। उन्होंने भी अपने लोग खोए और भूमि भी। लेकिन, तुलनात्मक रूप से इसका खामियाजा हिन्दुओं को अधिक उठाना पड़ा। विभाजन की अधिक मार हिन्दुओं पर ही पड़ी। लुटे-पिटे हिन्दू, खाली हाथ बमुश्किल जान बचाकर हिन्दुस्तान आ सके थे।
कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने शायद इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा या अहमद बेहद निर्मम है, जिसे विभाजन के घाव को कुरेदने में मजा आ रहा है। तभी मिस्टर अहमद ने बड़ी आसानी से कह दिया कि लालकृष्ण आडवाणी यहां सेवा नहीं मेवा खाने के लिए आए हैं। पाकिस्तान से यहां आना महज आडवाणी का मसला नहीं है। यह तो उन लाखों लोगों का दु:ख है, जिन्होंने अपनी जमीन खोयी और अपनी आंखों के सामने परिजनों की हत्या देखी। आडवाणी का भारत मेवा खाने के लिए आना, ऐसा कह कर कांग्रेसी नेता ने इन लाखों लोगों को तकलीफ पहुंचाई है। हकीकत तो यह है कि आडवाणी जैसे ही तमाम हिन्दुओं के लिए वहां रहना मुमकिन ही नहीं था। जो वहां रह गए, आज उनकी क्या हालत है, किसी से छिपी नहीं। विश्व के मीडिया में आई रिपोर्ट बयां करती हैं कि आज भी पाकिस्तान में हिन्दू सबसे निचले दर्जे का आदमी है। या कहें, पाकिस्तानी हुकूमत को उसकी फिक्र ही नहीं, उसकी नजर में हिन्दू पाकिस्तान का नागरिक है ही नहीं। वहां हिन्दू अपनी ही सुरक्षा और सेवा नहीं कर पा रहा है तो भला दूसरे हिन्दुओं की देखभाल कैसे करे? यह बात कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद को समझ नहीं आएगी क्योंकि वह भारत में रहते हैं। उन्हें जीने के लिए टेरर टैक्स नहीं देना पड़ता। उन्हें अपने परिजन की मौत पर धार्मिक रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने में बाधा नहीं होती। राजनीति में शीर्ष सत्ता तक पहुंचने में आसानी है। उन्हें जवान होती बेटियों के अपहरण और बलात्कार का डर नहीं। बलात धर्मांतरण का खौफ नहीं, क्योंकि शकील अहमद भारत में रहते हैं, धर्मनिरपेक्ष और हिन्दु बहुसंख्यक भारत में। पाकिस्तान में उक्त कामों में से एक भी हिन्दू आसानी के साथ नहीं कर पाता। उसका जीना दूभर है। वह बेचारा भारत भी नहीं आ पाता। आ भी जाता है तो यहां की सरकार उसकी चिंता नहीं करती है।
विभाजन के वक्त भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी २० साल से भी कम उम्र के थे। लेकिन, सामाजिक जीवन में सक्रिय थे। सिंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ताओं में उनका नाम था। संघ उस वक्त पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं से यही आग्रह कर रहा था कि हिन्दू अपनी जमीन न छोड़ें, भारत नहीं जाएं, मिल-जुलकर यहीं पाकिस्तान में बसे रहें। इससे स्पष्ट है कि विभाजन की घोषणा के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का विचार नहीं बनाया होगा। लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा 'मेरा देश मेरा जीवन' में लिखते हैं कि सितंबर के आरंभ में एक दिन वे मोटरसाइकिल से कराची के मुख्य रेलवे स्टेशन के पास की सड़क पर जा रहे थे। उन्होंने वहां एक व्यक्ति का शव देखा, जिसकी छुरा घोंपकर हत्या कर दी गई थी। कुछ दूर ही चले थे कि उन्होंने एक और शव देखा, फिर एक तीसरा....। वे आगे लिखते हैं कि यह दृश्य उनके लिए अस्वाभाविक और परेशान करने वाला था। उन्होंने अपने जीवन में पहली बार सड़कों पर इस तरह लाशें देखी थीं। अपने आसपास इस तरह की घटनाएं देखने के बाद ही आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का निश्चय किया।
शकील अहमद साहब को जरा सोचना चाहिए कि ऐसी स्थिति में भला कोई इंसान रुकना चाहेगा। हां, उनकी सुप्रीमो यहां मेवा खाने जरूर आई हैं। अब भला शकील अहमद आडवाणी को ढाल बनाकर अपनी ही पार्टी की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को निशाना बना रहे हैं तो बात अलग है। लेकिन, जायज फिर भी नहीं। क्योंकि यह केवल एक आडवाणी से जुड़ा मसला नहीं है वरन विभाजन से आहत लाखों लोगों की बात है।
कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद ने शायद इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा या अहमद बेहद निर्मम है, जिसे विभाजन के घाव को कुरेदने में मजा आ रहा है। तभी मिस्टर अहमद ने बड़ी आसानी से कह दिया कि लालकृष्ण आडवाणी यहां सेवा नहीं मेवा खाने के लिए आए हैं। पाकिस्तान से यहां आना महज आडवाणी का मसला नहीं है। यह तो उन लाखों लोगों का दु:ख है, जिन्होंने अपनी जमीन खोयी और अपनी आंखों के सामने परिजनों की हत्या देखी। आडवाणी का भारत मेवा खाने के लिए आना, ऐसा कह कर कांग्रेसी नेता ने इन लाखों लोगों को तकलीफ पहुंचाई है। हकीकत तो यह है कि आडवाणी जैसे ही तमाम हिन्दुओं के लिए वहां रहना मुमकिन ही नहीं था। जो वहां रह गए, आज उनकी क्या हालत है, किसी से छिपी नहीं। विश्व के मीडिया में आई रिपोर्ट बयां करती हैं कि आज भी पाकिस्तान में हिन्दू सबसे निचले दर्जे का आदमी है। या कहें, पाकिस्तानी हुकूमत को उसकी फिक्र ही नहीं, उसकी नजर में हिन्दू पाकिस्तान का नागरिक है ही नहीं। वहां हिन्दू अपनी ही सुरक्षा और सेवा नहीं कर पा रहा है तो भला दूसरे हिन्दुओं की देखभाल कैसे करे? यह बात कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद को समझ नहीं आएगी क्योंकि वह भारत में रहते हैं। उन्हें जीने के लिए टेरर टैक्स नहीं देना पड़ता। उन्हें अपने परिजन की मौत पर धार्मिक रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने में बाधा नहीं होती। राजनीति में शीर्ष सत्ता तक पहुंचने में आसानी है। उन्हें जवान होती बेटियों के अपहरण और बलात्कार का डर नहीं। बलात धर्मांतरण का खौफ नहीं, क्योंकि शकील अहमद भारत में रहते हैं, धर्मनिरपेक्ष और हिन्दु बहुसंख्यक भारत में। पाकिस्तान में उक्त कामों में से एक भी हिन्दू आसानी के साथ नहीं कर पाता। उसका जीना दूभर है। वह बेचारा भारत भी नहीं आ पाता। आ भी जाता है तो यहां की सरकार उसकी चिंता नहीं करती है।
विभाजन के वक्त भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी २० साल से भी कम उम्र के थे। लेकिन, सामाजिक जीवन में सक्रिय थे। सिंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ताओं में उनका नाम था। संघ उस वक्त पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं से यही आग्रह कर रहा था कि हिन्दू अपनी जमीन न छोड़ें, भारत नहीं जाएं, मिल-जुलकर यहीं पाकिस्तान में बसे रहें। इससे स्पष्ट है कि विभाजन की घोषणा के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का विचार नहीं बनाया होगा। लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा 'मेरा देश मेरा जीवन' में लिखते हैं कि सितंबर के आरंभ में एक दिन वे मोटरसाइकिल से कराची के मुख्य रेलवे स्टेशन के पास की सड़क पर जा रहे थे। उन्होंने वहां एक व्यक्ति का शव देखा, जिसकी छुरा घोंपकर हत्या कर दी गई थी। कुछ दूर ही चले थे कि उन्होंने एक और शव देखा, फिर एक तीसरा....। वे आगे लिखते हैं कि यह दृश्य उनके लिए अस्वाभाविक और परेशान करने वाला था। उन्होंने अपने जीवन में पहली बार सड़कों पर इस तरह लाशें देखी थीं। अपने आसपास इस तरह की घटनाएं देखने के बाद ही आडवाणी ने पाकिस्तान छोडऩे का निश्चय किया।
शकील अहमद साहब को जरा सोचना चाहिए कि ऐसी स्थिति में भला कोई इंसान रुकना चाहेगा। हां, उनकी सुप्रीमो यहां मेवा खाने जरूर आई हैं। अब भला शकील अहमद आडवाणी को ढाल बनाकर अपनी ही पार्टी की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को निशाना बना रहे हैं तो बात अलग है। लेकिन, जायज फिर भी नहीं। क्योंकि यह केवल एक आडवाणी से जुड़ा मसला नहीं है वरन विभाजन से आहत लाखों लोगों की बात है।