सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्त्ता नीरू सिंह ज्ञानी। |
भ गवान ने इंसान को इंसान बनाते समय कोई भेदभाव नहीं बरता। लेकिन मनुष्य ने अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हुए आदमी-आदमी के बीच भेदभाव की तमाम दीवारें खड़ी कर दीं। किसी को जाति के आधार पर बांट दिया। किसी को काले-गोरे के भेद में रंग दिया। किसी को धन-दौलत के तराजू में तौल दिया। खुद इंसान ने इंसान को इंसान नहीं रहने दिया। अपनी दुष्ट बुद्धि के उपयोग से उसने इंसानों के साथ जानवरों-सा बर्ताव किया और कर रहा है। पैसे और रसूख के जोर पर कमजोर आदमी को अपना गुलाम बनाया। उसे अपनी जागीर समझा। उससे कोहलू तक चलवाया और दो वक्त का खाना तक नसीब नहीं होने दिया। इंसानों के द्वारा ही इंसानों की खरीद-फरोख्त का धंधा चलाया जा रहा है। यह देख मानवता के रचियता को भी रोना आता होगा।
अपने निहित स्वार्थों के चलते इंसान ने कई काले टीके अपने माथे पर लगा रखे हैं। मानव तस्करी (ह्यूमन ट्रैफिकिंग) इंसानों की दुनिया का विद्रूप सत्य है। यह एक तरह से इंसानों की मण्डी है। जहां इंसानों की खरीद-फरोख्त होती है। इसमें सबसे अधिक औरतें और मासूम बेटियां बेची जाती हैं। ह्यूमन ट्रैफिकिंग के जरिए सबसे अधिक महिलाओं और बच्चों का शोषण, उनके साथ दुराचार और अनैतिक व्यवहार किया जाता है। दुनिया ह्यूमन ट्रैफिकिंग की समस्या से जूझ रही है। भारत में भी यह गंदा धंधा संगठित रूप से चल रहा है। पड़ोसी मुल्कों के अलावा उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सहित भारत के अन्य राज्यों से महानगरों में लाकर महिलाओं को अनैतिक तरीके से देह व्यापार में इस्तेमाल किया जाता और बच्चों को बंधुआ मजदूर की तरह रखा जाता है। दिल्ली, बैंगलूरू, गोवा, मुंबई और चंडीगढ़ जैसे बड़े शहरों में रसूखदार और तथाकथित ऊंचे तबके के लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए मासूम बच्चों और लड़कियों की खरीद-फरोख्त करते हैं। उन्हें अपने घर में बंधक बनाकर रखते हैं। जानवरों की तरह काम कराते हैं। बर्ताव भी घोर आपत्तीजनक रहता है। छोटे बच्चों से जोखिम भरे काम कराए जाते हैं। खाने को बचा-खुचा दिया जाता है। लड़कियों से देह व्यापार कराया जाता है। उन्हें नर्क की ऐसी आग में झौंक दिया जाता है कि वे वर्षों तक उसमें झुलसती रहती हैं। हालांकि भारत में भी सरकार ने मानव तस्करी के खिलाफ कानून बना रखा है। अनैतिक व्यापार (निवारण) अधिनियम-१९५६ किसी भी प्रकार से इंसान को अनैतिक व्यापार में लगाने का सख्ती से विरोध करता है। इसके बावजूद भी ह्यूमन ट्रैफिकिंग रुकने का नाम नहीं ले रही।
समाज से ह्यूमन ट्रैफिकिंग जैसे भद्दे दाग को हटाने के लिए सरकार के साथ-साथ तमाम एनजीओ भी अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। दुनिया में ह्यूमन ट्रैफिकिंग की समस्या खत्म हो, इसके लिए एमटीवी एक्जिट (एण्ड एक्सप्लोएशन एण्ड ट्रैफिकिंग) अपने स्तर पर कार्य कर रही है। खासकर इस समस्या को लेकर जनजागृति लाने की दिशा में उनके प्रयास को सार्थक कहा जा सकता है। ट्रैफिकिंग की समस्या को लेकर २८ फरवरी से एमटीवी पर आधे-आधे घंटे की पांच शॉर्ट डाक्युमेंट्री का प्रसारण किया जाएगा। सोशल मीडिया पर इसके प्रोमो आने लगे हैं। लीक से हटकर फिल्में बनाने के लिए ख्यात बॉलीवुड के डायरेक्टर अनुराग कश्यप ने इन फिल्मों का निर्देशन किया है। ग्वालियर की समाजसेवी नीरू सिंह ज्ञानी और उनकी प्रतिभाशाली बेटी प्रांजुल एक-एक फिल्म में दिखेंगी। प्रांजुल ने पांचों फिल्मों में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम किया है। नीरू सिंह एक फिल्म में समाजसेवी की भूमिका में दिखेंगी। दिल्ली का एक परिवार है, जहां एक मासूम को अवैध रूप से खरीदकर रखा गया है। वह परिवार उस मासूम से घर के सभी काम कराता है। समाजसेवी रागिनी (नीरू सिंह ज्ञानी) उस मासूम को मुक्त कराती हैं। उसके पुनर्वास की व्यवस्था करती हैं। यह तो फिल्म की बात हुई। असल जिन्दगी में भी नीरू सिंह ज्ञानी अपने स्तर पर समाजसेवा के काम करती रही हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी ऐसी ही है। श्रीमती सिंह के श्वसुर ने ग्वालियर के नजदीक रायरू में बेशकीमती जमीन पर गांव के बच्चों के पढऩे के लिए स्कूल शुरू किया। वे हमेशा स्थानीय लोगों के लिए मददगार के रूप में मौजूद रहते थे। अब उनके बेटे-बहू उनकी सोच और काम को आगे बढ़ा रहे हैं। नीरू सिंह ज्ञानी अपने एनजीओ प्रांजुल आटर््स के जरिए सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ाने की दिशा में भी काम कर रही हैं। उनके प्रयास प्रसंशनीय हैं। सार्थक हैं। उनकी सोच सकारात्मक है। समाजसेवा के उनके प्रयास तब और महत्वपूर्ण हो जाते हैं जबकि वे सक्रिय राजनीति से जुड़ी हैं। उनका अधिकतम समय महिलाओं और गांवों में भाजपा संगठन को मजबूत करने में जाता है। राजनीति कोयले की कोठरी है। इसमें सब काले ही काले लोग हैं। साफ-सुथरे लोग भी इसमें आकर काले हो जाते हैं। सब अपने लोभ-स्वार्थ को लेकर राजनीति में आते हैं। अब वो दौर नहीं रहा जब राजनीति को समाजसेवा का जरिया माना जाता था। अब तो राजनीति शुद्ध रूप से करियर हो गई है। ऐसा करियर जिसमें अकूत धन-दौलत कमाने का मौका मिलता है, बेईमान होकर। उम्दा और क्रियेटिव लोगों की यहां कमी है। भारतीय राजनीति और राजनेताओं के बारे में अमूमन हम यह सब सुनते रहते हैं। नीरू सिंह ज्ञानी जैसे लोगों से मिलकर यह मिथक टूटता-सा महसूस होता है। राजनीति में सब बुरे हैं, यह पूरा सच नहीं है। सच तो यह है कि बहुत से लोग भाजपा सहित अन्य पार्टियों में भी ऐसे हैं, जो निहायत ईमानदार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। बिना किसी शोर-शराबे के अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। कुछ क्रियेटिव वर्क। कुछ नया गढ़ रहे हैं। कुछ नई राहें बना रहे हैं।
ह्यूमन ट्रैफिकिंग को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में नीरू सिंह बताती हैं कि मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के साथ यह भेदभाव किसी एक देश में नहीं अपितु पूरी दुनिया में हुआ। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का अंश मानने वाली परम्परा का देश भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। दुनिया में रोज कई औरतें और बेटियां खरीदी-बेची जा रही हैं। स्त्री के मान का मर्दन किया जा रहा है। दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गई है। पारदर्शिता का जमाना आ गया है। दुनियाभर में जनजाग्रति के अभियान चलाए जा रहे हैं। मनुष्य खुलकर, अपने हिसाब से, स्वस्थ वातावरण में जी सके इसके लिए दुनियाभर में तमाम कानून बन गए हैं। १० दिसम्बर १९४८ को संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा हो चुकी है। तब से अब तक मानवाधिकारों पर लम्बी-लम्बी सार्थक बहस हो चुकी हैं, ठोस कदम उठाए जा चुके हैं। इस सबके बावजूद आज भी मनुष्य अपनी दुष्टतई से बाज नहीं आ रहा। किसी व्यक्ति से, चाहे वो पुरुष हो, महिला हो या फिर छोटा बच्चा, उसकी मर्जी के खिलाफ या उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर, उनका शोषण करना, उन पर अत्याचार करना, उन्हें बंधुआ मजदूरों की तरह रखना, अनैतिक काम में लगाना, मानवाधिकारों का सीधा-सीधा उल्लंघन है। दरअसल, कुछ पैसे वाले लोग, रसूखदार, सफेदपोश और तथाकथित सभ्य समाज के लोग ह्यूमन ट्रैफिकिंग को बढ़ावा देते हैं। मनुष्य होकर मनुष्यों के साथ दुराचार करते हैं। मानव सभ्यता को लज्जित करते हैं। किसी की गरीबी का फायदा उठाकर मासूम बच्चों के साथ अनाचार करते हैं। ये ही पढ़े-लिखे रईस लोग सार्वजनिक मंचों से समानता की बात करते हैं और घर में किसी को गुलाम बनाकर रखते हैं। यह समाज का असली चेहरा है। यह समाज का घिनौना चेहरा है। वे बताती हैं कि अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी के कारण ही बहुत से लोग इंसानों की मण्डी में अपनों को बेचते हैं। मानव तस्करी रोकने के लिए समाज जागरण के साथ ही सरकारी स्तर पर बहुत से प्रयास होने जरूरी हैं। शिक्षा और रोजगार के अवसर बढऩे से काफी हद तक ह्यूमन ट्रैफिकिंग को रोका जा सकता है।
ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर आधारित पांचों शॉर्ट फिल्मस् सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं। इनमें पहली फिल्म सेक्सुल ट्रैफिकिंग है। इसके अलावा डोमेस्टिक सर्विट्यूट, बांडेड लेबर और चाइल्ड लेबर में भी ह्यूमन ट्रैफिकिंग का स्याह चेहरा दिखाया गया है। इन फिल्मों की ज्यादातर शूटिंग बनारस, मुंबई, गोवा और दिल्ली में हुई है। ह्यूमन ट्रैफिकिंग को लेकर जनजागृति लाने में ये फिल्में मील का पत्थर साबित हों, इसी उम्मीद के साथ।