शुक्रवार, 29 मई 2020

महात्मा गांधी की दृष्टि में स्वातंत्र्यवीर सावरकर



“सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।” आपको किसी प्रकार का भ्रम न हो इसलिए बता देते हैं कि स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश सावरकर के लिए ये विचार किसी हिंदू महासभा के नेता के नहीं हैं, बल्कि उनके लिए यह सब अपने समाचार-पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने 18 मई, 1921 को लिखा था। महात्मा गांधीजी ने यह सब उस समय लिखा था, जब स्वातंत्र्यवीर सावरकर अपने बड़े भाई गणेश सावरकर के साथ अंडमान में कालापानी की कठोरतम सजा काट रहे थे। (हार्निमैन और सावरकर बंधु, पृष्ठ-102, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय)

          भारत माता के वीर सपूत सावरकर के बारे में आज अनाप-शनाप बोलने वाले कम्युनिस्टों और महात्मा गांधी के ‘नकली उत्तराधिकारियों’ को शायद यह पता ही नहीं होगा कि सावरकर बंधुओं के प्रति महात्मा कितना पवित्र और सम्मान का भाव रखते थे। गांधीजी की उपरोक्त टिप्पणी में इस बात पर गौर कीजिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि- “मौजूदा शासन प्रणाली (ब्रिटिश सरकार) की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने (वीर सावरकर) ने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले (गांधीजी से भी काफी पहले), देख लिया था।” इस पंक्ति में महात्मा वीर सावरकर की दृष्टि और उनकी निष्ठा को स्पष्ट रेखांकित कर रहे हैं। लेकिन, वीर सावरकर के विरुद्ध विषवमन करने वालों ने न तो महात्मा गांधी को ही पढ़ा है और न ही उन्हें सावरकर परिवार के बलिदान का सामान्य ज्ञान है। नकली लोग बात तो गांधीजी की करते हैं, उनकी विचारधारा के अनुयायी होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके विचार का पालन नहीं करते हैं। जुबान पर गांधीजी का नाम है, लेकिन मन में घृणा-नफरत और हिंसा भरी हुई है। इसी घृणा और हिंसा के प्रभाव में ये लोग उस युगद्रष्ट महापुरुष की छवि को बिगाडऩे के लिए षड्यंत्र रचते हैं, जिसकी प्रशंसा स्वयं महात्मा गांधी ने की है। 
          महात्मा गांधी और विनायक दामोदर सावरकर की मुलाकात लंदन में 1909 में विजयदशमी के एक आयोजन में हुई थी। लगभग 12 वर्ष बाद भी महात्मा गांधी की स्मृति में यह मुलाकात रहती है और जब वे अपने समाचार-पत्र यंग इंडिया में सावरकर के कारावास और उनकी रिहाई के संबंध में लिखते हैं, तो पहली मुलाकात का उल्लेख करना नहीं भूलते। इसका एक ही अर्थ है कि क्रांतिवीर सावरकर और भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके प्रयासों ने महात्मा गांधी के मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। 

          इससे पूर्व भी महात्मा गांधी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक से एक विस्तृत टिप्पणी लिखी है। यह टिप्पणी उन सब लोगों को पढऩी चाहिए, जो क्रांतिवीर सावरकर पर तथाकथित ‘क्षमादान याचना’ का आरोप लगाते हैं। इस टिप्पणी में हम तथाकथित ‘माफीनामे’ प्रसंग को विस्तार से समझ पाएंगे और यह भी जान पाएंगे कि स्वयं महात्मा गांधीजी सावरकर बंधुओं की मुक्ति के लिए कितने आग्रही थे? सावरकर बंधुओं के साथ हो रहे अन्याय पर भी महात्माजी ने प्रश्न उठाया है। इस टिप्पणी में महात्मा गांधी ने उस ‘शाही घोषणा’ को भी उद्धृत किया है, जिसके अंतर्गत उस समय अनेक राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जा रहा था। वे लिखते हैं कि – “भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने इस संबंध में जो कार्रवाई की उसके परिणामस्वरूप उस समय कारावास भोग रहे बहुत लोगों को राजानुकम्पा का लाभ प्राप्त हुआ है। लेकिन कुछ प्रमुख ‘राजनीतिक अपराधी’ अब भी नहीं छोड़े गए हैं। इन्हीं लोगों में मैं सावरकर बंधुओं की गणना करता हूँ। वे उसी माने में राजनीतिक अपराधी हैं, जिस माने में वे लोग हैं, जिन्हें पंजाब सरकार ने मुक्त कर दिया है। किंतु इस घोषणा (शाही घोषणा) के प्रकाशन के आज पाँच महीने बाद भी इन दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं गया है।” 
          इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि अंग्रेज सरकार जल्द से जल्द सावरकर बंधुओं को स्वतंत्र करे। सावरकर बंधुओं के प्रकरण में अपनायी जा रही दोहरी नीति को उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से जनता के बीच उजागर कर दिया। महात्मा गांधी अपने इस आलेख में अनेक तर्कों से यह इस सिद्ध कर रहे थे कि ब्रिटिश सरकार के पास ऐसा कोई कारण नहीं कि वह अब सावरकर बंधुओं को कैद में रखे, उन्हें तुरंत मुक्त करना चाहिए। हम जानते हैं कि महात्मा गांधी अधिवक्ता (बैरिस्टर) थे। सावरकर बंधुओं पर लगाई गईं सभी कानूनी धाराओं का उल्लेख और अन्य मामलों के साथ तुलना करते हुए गांधीजी ने इस लेख में स्वातंत्र्यवीर सावरकर बंधुओं का पक्ष मजबूती के साथ रखा है। 
          उस समय वाइसराय की काउंसिल में भी सावरकर बंधुओं की मुक्ति का प्रश्न उठाया गया था, जिसका जिक्र भी गांधीजी ने किया है। काउंसिल में जवाब में कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार के विचार से दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं जा सकता। इसका उल्लेख करते हुए गांधीजी ने अपने इसी आलेख के आखिर में लिखा है- “इस मामले को इतनी आसानी से ताक पर नहीं रख दिया जा सकता। जनता को यह जानने का अधिकार है कि ठीक-ठीक वे कौन-से कारण हैं जिनके आधार पर राज-घोषणा के बावजूद इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, क्योंकि यह घोषणा तो जनता के लिए राजा की ओर से दिए गए ऐसे अधिकार पत्र के समान है जो कानून का जोर रखता है।” 
          आज जो दुष्ट बुद्धि के लोग वीर सावरकर की अप्रतिम छवि को मलिन करने का दुष्प्रयास करते हैं, उन्हें महात्मा गांधी की यह टिप्पणी इसलिए भी पढऩी चाहिए क्योंकि इसमें गांधीजी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए दोनों भाइयों के योगदान को भी रेखांकित किया है। यह पढऩे के बाद शायद उन्हें लज्जा आ जाए और वे हुतात्मा का अपमान करने से बाज आएं। हालाँकि, संकीर्ण मानसिकता के इन लोगों की बुद्धि न भी सुधरे तो भी कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि जो भी सूरज की ओर गंदगी उछालता है, उससे उनका ही मुंह मैला होता है। क्रांतिवीर सावरकर तो भारतीय इतिहास के चमकते सूरज हैं, उनका व्यक्तित्व मलिन करना किसी के बस की बात नहीं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर तो लोगों के दिलों में बसते हैं। युगद्रष्टा सावरकर भारत के ऐसे नायकों में शामिल हैं, जो यशस्वी क्रांतिकारी हैं, समाज उद्धारक हैं, उच्च कोटि के साहित्यकार हैं, राजनीतिक विचारक एवं प्रख्यात चिंतक भी हैं। भारत के निर्माण में उनका योगदान कृतज्ञता का भाव पैदा करता है। उनका नाम कानों में पड़ते ही मन में एक रोमांच जाग जाता है। गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है। श्रद्धा से शीश झुक जाता है।

स्वदेश, भोपाल समूह में 28 मई, 2020 को प्रकाशित

गुरुवार, 21 मई 2020

'की-बोर्ड का सिपाही' प्रो. संजय द्विवेदी बने पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति


देश के जाने-माने पत्रकार एवं मीडिया शिक्षक प्रो. संजय द्विवेदी को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय का प्रभारी कुलपति नियुक्त किया गया है। इससे पहले वे विश्वविद्यालय के कुलसचिव की जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे थे। प्रो. द्विवेदी 10 वर्ष से अधिक समय तक विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष भी रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि कुलपति प्रो. संजय द्विवेदी लंबे समय तक सक्रिय पत्रकारिता में रहे हैं। उन्हें प्रिंट, बेव और इलेक्ट्रॉनिक, तीनों ही मीडिया में कार्य करने का वृहद अनुभव है। उन्होंने दैनिक भास्कर, हरिभूमि, नवभारत, स्वदेश, इंफो इंडिया डाट काम और छत्तीसगढ़ के पहले सेटलाइट चैनल जी-24 छत्तीसगढ़ जैसे मीडिया संगठनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाली। मुंबई, रायपुर, बिलासपुर और भोपाल में लगभग 14 साल सक्रिय पत्रकारिता में रहने के बाद प्रो. द्विवेदी शिक्षा क्षेत्र से जुड़े।

प्रो. द्विवेदी 12 वर्षों से नियमित जनसंचार के सरोकारों को केंद्रित पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ के कार्यकारी संपादक भी हैं। वे विभिन्न विश्वविद्यालयों की अकादमिक समितियों एवं मीडिया से संबंधित संगठनों में सदस्य एवं पदाधिकारी भी हैं।

निश्चित ही उनके सुदीर्घ अनुभव का लाभ विश्वविद्यालय को मिलेगा। यह विश्वविद्यालय के लिए भी सुखद है कि यहीं के विद्यार्थी को विश्वविद्यालय का नेतृत्व करने का अवसर मिला है। फरवरी-2009 में वे विश्वविद्यालय से जुड़े थे। विश्वविद्यालय में उन्होंने विभागाध्यक्ष एवं कुलसचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों कार्य किया।

मेरे उनका पहला परिचय ब्लॉगिंग के माध्यम से हुआ। सर 'की-बोर्ड के सिपाही' के नाम से ब्लॉग लिखते हैं। वर्ष 2007 में जब अपन ने ब्लॉग लिखना शुरू किया तब से सर का ब्लॉग पढ़ते आ रहे हैं। वे नियमित तौर पर राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर लेखन करते हैं। उनका लिखा विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी नियमित प्रकाशित होता है। उनकी सक्रियता सदैव प्रेरणा देती है। उन्होंने अब तक 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन भी किया है।

उनके साथ काम करने का पहला अवसर 2013 में मिला। विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में वे विभागाध्यक्ष थे और मैंने प्रोडक्शन सहायक के तौर पर ज्वाइन किया था। विश्वविद्यालय जैसे संस्था में काम करने का यह मेरा पहला अवसर था, लेकिन संजय सर की उपस्थिति ने हौसला दिया। वे लगातार प्रोत्साहित करते रहते हैं।
जनसंचार के विभागाध्यक्ष रहते हुए और कुलसचिव के रूप में भी उन्होंने सदैव विद्यार्थियों के हित में अच्छे निर्णय लिए हैं। जनसंचार विभाग में एक समृद्ध विभागीय पुस्तकालय की स्थापना उन्होंने की। विद्यार्थियों को व्यवहारिक प्रशिक्षण देने के लिए प्रायोगिक समाचार-पत्र का प्रकाशन हमने उनके मार्गदर्शन में किया। न्यूज़ बुलेटिन निकलना और अन्य गतिविधियाँ वे लगातार विद्यार्थियों के लिए आयोजित करते रहे। सार्थक शनिवार जैसी अनूठी परम्पर उन्होंने शुरू की। यह विद्यार्थियों का सांस्कृतिक मंच था।

मंगलवार, 19 मई 2020

‘देशप्रेम की साकार और व्यावहारिक अभिव्यक्ति है स्वदेशी’



मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आई कि कुछ लोगों को स्वदेशी जैसे अनुकरणीय, उदात्त और वृहद विचार का विरोध क्यों करते हैं? स्वदेशी से उन्हें क्या दिक्कत है? आपको यह समझ आये कि ये लोग स्वदेशी का विरोध क्यों करते हैं या उसका मजाक क्यों बनाते हैं तो कृपया कमेंट बॉक्स में मुझे भी बताईयेगा।

मुझे लगता है कि स्वदेशी का विरोध वे ही लोग करते हैं जो मानसिकरूप से अभी भी गुलाम हैं या फिर उनको विदेशी उत्पाद से गहरा लगाव है। संभव है इनमें से बहुत से लोग उन संस्थाओं और संगठनों से जुड़े हों या प्रभावित हों, जो विदेशी कंपनियों से चंदा पाते हैं। 

जब से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आह्वान किया है और लोकल के लिए वोकल होने के लिए कहा है, तब से ही कुछ लोग सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़ कर स्वदेशी का विरोध कर रहे हैं। आप इन्हें अच्छी तरह पहचान लीजिये, ये कौन लोग हैं जो भारत में बनी वस्तुओं और उनके उपयोग को हतोत्साहित कर रहे हैं। 

स्वदेशी भारत की अनेक समस्याओं का समाधान है। स्वदेशी का विचार लोगों के मन में बैठ गया तो लाखों लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलेगा। स्थानीय प्रतिभा को आगे बढ़ने का अवसर मिलगा। हमारे कुशल कारीगरों के हाथ मजबूत होंगे। उनके उत्पाद की मांग बढ़ेगी तो किसे लाभ होगा? भारत को, भारत के लोगों को ही उसका लाभ मिलेगा। इसलिए जो लोग स्वदेशी का विरोध कर रहे हैं, असल में वे भारत का विरोध कर रहे हैं।
स्वदेशी केवल उत्पाद से जुड़ा हुआ विषय नहीं है बल्कि यह एक विचार है। एक आन्दोलन है। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का एक प्रमुख विचार रहा है, स्वदेशी। 

महात्मा गाँधी कहते थे- “स्वदेशी केवल रोटी, कपड़ा और मकान का नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन का दृष्टिकोण है। स्वदेशी देश की प्राणवायु है, स्वराज्य और स्वाधीनता की गारंटी है। गरीबी-भुखमरी और गुलामी से मुक्ति का उपाय है यह। स्वदेशी के अभाव में राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्वातंत्र्य सर्वथा असंभव है।”


अपने आप को महात्मा गाँधी का उत्तराधिकारी बताते वाले ‘नकली लोगों’ को महात्मा गाँधी जी को ठीक से पढ़ना चाहिए, वे स्वदेशी के बारे में क्या सोचते थे। उनका तो पूरा जीवन ही स्वदेशी को समर्पित था। चरखे से सूत कातना और खादी के कपड़े पहनना, क्या था? विदेशी कपड़ों की होली जलना और नमक क़ानून का उल्लंघन, ये सब स्वदेशी की भावना को मजबूत करने और सब प्रकार की स्वतंत्रता प्राप्त करने के महात्मा गाँधीजी के प्रयोग थे। हम गाँधीजी के स्वदेशी के विचार को कैसे भूल सकते हैं, जबकि इस वर्ष हम उनकी 50वीं जयंती माना रहे थे। 

गाँधी-इरविन पैक्ट के समय चर्चा चल रही थी। दोपहर में चाय का समय था। वायसराय साहब के लिए चाय आई और महात्मा गाँधी के लिए नींबू पानी आया। वायसराय देख रहे थे कि गांधीजी क्या करते हैं? गांधीजी ने एक पुड़िया निकाली और उसे खोलकर उसमें से कुछ नींबू पानी में डाल दिया। वायसराय को समझ नहीं आया कि गाँधीजी ने क्या किया तो उन्होंने पूछा कि आपने यह क्या डाला पानी में? गांधीजी ने उत्तर दिया- “आपके नमक क़ानून का उल्लंघन कर मैंने जो नमक बनाया था, उस नमक की पुड़ी को मैंने इसमें डाला है।” इतना मजबूत और विस्तृत है स्वदेशी का विचार। 

स्वदेशी क्या है, उसे और विस्तार देते हुए प्रख्यात स्वदेशी चिन्तक दत्तोपंत ठेंगडी ने कहा है- “यह मानना भूल है कि ‘स्वदेशी’ का सम्बन्ध केवल माल या सेवाओं से है। यह फौरी किस्म की सोच होगी। इसका मतलब है देश को आत्मनिर्भर बनाने की प्रबल भावना, राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता की रक्षा तथा समानता के आधार पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग।” उनका स्पष्ट मानना था कि स्वदेशी, देशप्रेम की साकार और व्यावहारिक अभिव्यक्ति है। 

स्वदेशी के विरोध में दो बहुत उथले तर्क दिए जाते हैं- एक, आप अपना मोबाइल फेंक दीजिये, टीवी फोड़ दीजिये, क्योंकि वे विदेशी उत्पाद हैं। दूसर कुतर्क है, सरकार विदेशी सामान के आयत पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगा देती। पहले दूसरे कुतर्क का जवाब है कि अंतर्राष्ट्रीय नीतियों के कारण सरकार की कुछ मजबूरी हो सकती है, लेकिन हमारी क्या मजबूरी है विदेशी उत्पाद खरीदने की? हम खुद क्यों नहीं विदेशी उत्पाद से दूरी बना लेते। जब हम खरीदेंगे ही नहीं तो भविष्य में कभी वह माल बिकने के लिए यहाँ आएगा ही नहीं। 

इसको एक ऐतिहासिक उदाहरण से समझिये। एक वर्ष अमेरिका में प्रचुर मात्र में संतरे का उत्पादन हुआ। जापान की महिलाओं को संतरे बहुत पसंद थे। अमेरिका ने जापान को अपने संतरे बेचने के लिए उचित बाज़ार समझा और जापान पर दबाव बनाया कि वह अमेरिका के संतरे अपने बाज़ारों में बिकने दे। पहले तो जापान ने इनकार किया, लेकिन अमेरिका की धौंस-पट्टी के कारण उसे अपने बाज़ार खोलने पड़े। लेकिन, जैसे ही जापान की महिलाओं और अन्य नागरिकों को यह ज्ञात हुआ कि हमारे बाजारों में जो संतरे की भरी आवक दिख रही है, उसके पीछे अमेरिका की धौंस-पट्टी है तो उन्होंने बहुत पसंद होने के बाद भी संतरे नहीं खरीदे। यह है स्वदेशी के प्रति नागरिक बोध। कोई भी अंतर्राष्ट्रीय नीति या दबाव नागरिकों को मजबूर नहीं कर सकता।

पहले कुतर्क का उत्तर, स्वदेशी के लिए लम्बे समय से आन्दोलन चला रहे संगठन स्वदेशी जागरण मंच का एक नारा है- ‘चाहत से देसी, जरूरत से स्वदेशी और मजबूरी में विदेशी’। इस नारे में ही उस कुतर्क का सटीक उत्तर छिपा है, साथ में स्पष्ट सन्देश है। इसके बाद भी स्वदेशी विरोधियों को कुछ समझ न आये तो उनको कहिये कि उनसे कुछ हो न पायेगा। वे बस विरोध करते रहें। उनका विरोध भारत के कारीगरों, कामगारों और उत्पादकों के विरोध में हैं। वे नहीं चाहते कि देश के उत्पाद आगे बढ़ें, यहाँ के कारीगर-उत्पादकों का लाभ हो। 

अब जरा सोचिये, देशभक्त नागरिक होने के नाते आपको क्या करना है? बहुत सरल मंत्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया है- “लोकल के लिए वोकल हो जाईये।” अपने बंधुओं द्वारा निर्मित स्वदेशी उत्पादों पर गर्व कीजिये। जहाँ तक संभव हो सके स्वदेशी वस्तुएं खरीदिये। स्वदेशी विचार को जीवन में उतरिये। 

सोमवार, 18 मई 2020

‘नागरिक पत्रकारिता’ की आवश्यकता को रेखांकित करती पुस्तक



सूचनाओं का आदान-प्रदान करना हम सबका मानव स्वभाव है। इस प्रवृत्ति का एक ही अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर किसी न किसी रूप में ‘एक पत्रकार’ बैठा है। किसी मीडिया संस्थान के प्रशिक्षित पत्रकार की भाँति वह भी समाज को सूचनाएं/समाचार देना अपना दायित्व समझता है या सूचनाएं देने की इच्छा रखता है। इंटरनेट और स्मार्टफोन की सहज उपलब्धता के कारण अब तो उसके पास जनसंचार माध्यम भी हैं। इंटरनेट पर ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर और यूट्यूब इत्यादि के माध्यम से सामान्य व्यक्ति व्यापक पहुँच रखता है। कई बार उसके पास ऐसे समाचार, चित्र और वीडियो होते हैं, जो किसी भी बड़े से बड़े मीडिया संस्थान के पास नहीं होते। इस कारण बड़े मीडिया संस्थानों ने भी विशाल नागरिक संसाधन का उपयोग प्रारंभ किया है। उन्होंने भी अपने माध्यम से पत्रकारिता के लिए नागरिकों को स्थान देना आरंभ किया है। नागरिक पत्रकारिता का इतना अधिक महत्व और प्रयोग बढऩे से इस विषय पर व्यापक प्रबोधन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इस दृष्टि से जनसंचार एवं मीडिया के शिक्षण-प्रशिक्षण से जुड़े डॉ. पवन सिंह मलिक की पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ महत्वपूर्ण है। डॉ. मलिक एक दशक से भी अधिक समय से मीडिया शिक्षा एवं मीडिया के क्षेत्र से जुड़े हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। 
          पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ में इस विधा के लगभग उन सब आयोगों को शामिल किया गया है, जिनकी जानकारी एक नागरिक को बतौर पत्रकार होनी चाहिए। पुस्तक का पहला अध्याय ही इस प्रश्न के साथ प्रारंभ होता है कि ‘हम नागरिक पत्रकार क्यों बनें?’ संयोग से यह अध्याय मुझे (लोकेन्द्र सिंह) ही लिखने का अवसर प्राप्त हुआ है। इस अध्याय में मैंने उन सब कारणों का उल्लेख किया है, जिनके कारण से आज समाज में नागरिक पत्रकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। नागरिक पत्रकारिता को अपनाने का मन बनाने वाले साथियों के सामने इस दायित्व की जवाबदेही, गंभीरता एवं उद्देश्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नागरिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कितनी संभावनाएं हैं, किन माध्यमों का उपयोग हम समाचार/विचार सामग्री के प्रसारण हेतु कर सकते हैं और मुख्यधारा के मीडिया में बतौर नागरिक पत्रकार हम कैसे अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं, इन बिन्दुओं को छूने का भी प्रयास किया है। 
          नागरिक पत्रकारिता का बखूबी उपयोग करने वाले प्रशांत बाजपेई ने अपने अध्याय में नागरिक पत्रकारिता की आधुनिक समाज में भूमिका को विस्तार से बताया है। उन्होंने नागरिक पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल बताया है। मीडिया के शिक्षक अनिल कुमार पाण्डेय ने अपने आलेख में न केवल नागरिक पत्रकारिता के प्रकारों का उल्लेख किया है बल्कि विस्तार के उसके लिए उपयुक्त माध्यम का जिक्र किया है और उनके अभ्यास पर प्रकार डाला है। उन्होंने अपने अध्याय में नागरिक पत्रकारिता के विभिन्न माध्यमों की विशेषताओं का उदाहरण सहित वर्णन किया है। इससे नागरिक पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोगों को अपनी रुचि का माध्यम चुनने में सहायता मिलेगी। 
          लेखक दिनेश कुमार ने अपने आलेख में बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है। उन्होंने उन बातों की ओर संकेत किया है, जिनकी कमी नागरिक पत्रकारिता में दिखाई देती है। यदि उनके सुझावों पर अमल किया जाए तो बहुत हद तक नागरिक पत्रकार किसी विशेषज्ञ पत्रकार की तरह काम करने लगेंगे और उनके द्वारा प्रसारित सामग्री भी अधिक विश्वसनीय एवं संतुलित होगी। मीडिया शोधार्थी अमरेन्द्र कुमार आर्य ने अपने आलेख में बताया है कि नागरिक पत्रकारिता लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। नि:संदेह नागरिक पत्रकारिता ने मुख्यधारा के मीडिया को न केवल अधिक लोकतांत्रिक बनाया है अपितु समाचारों के चयन एवं प्रसारण के उसके एकाधिकार को चुनौती भी दी है। आज किसी भी समाचार चैनल या समाचार-पत्र पर सोशल मीडिया (नागरिक पत्रकारिता) द्वारा उठाये गए मुद्दों का दबाव रहता है। समाचारों के प्रसारण में यह स्पष्टतौर पर दिखाई देता है। मीडिया न तो किसी मुद्दे को अब अनदेखा कर सकता है और न ही किसी मुद्दे दबा सकता है। हमारे सामने अनेक उदाहरण हैं जब नागरिक पत्रकारों द्वारा सामने लाई सूचनाओं पर व्यावसायिक मीडिया ने ध्यान दिया।


          वरिष्ठ फोटो पत्रकार डॉ. प्रदीप तिवारी का आलेख नागरिक पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोगों का हौसला बढ़ाता है। इस लेख में उन्होंने अनेक सुविख्यात पत्रकारों का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे उन्होंने अपनी शुरुआत बतौर नागरिक पत्रकार की थी और बाद में वे बड़े संस्थानों तक पहुँचे। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापक डॉ. भारती बत्तरा ने नागरिक पत्रकारिता में सूचना का अधिकार कानून के महत्व को रेखांकित किया है। अर्थात् नागरिक पत्रकार आरटीआई की मदद से महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त कर भंडाफोड़ कर सकते हैं। उन्होंने इसके चर्चित उदाहरण भी दिए हैं। पुस्तक के आखिरी अध्याय में मीडिया शिक्षक डॉ. अमित भारद्वाज ने नागरिक पत्रकारिता प्रशिक्षण के महत्व को रेखांकित किया है। 
          मीडिया शिक्षक डॉ. पवन सिंह मलिक की पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ में कुल 15 अध्याय/आलेख शामिल हैं। पुस्तक की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने लिखी है। उनकी यह प्रस्तावना ही नागरिक पत्रकारिता की उपयोगिता, आवश्यकता एवं उसके महत्व को भली प्रकार सिद्ध कर देती है। वह लिखते हैं कि नागरिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं, जैसे- सूचना एकत्रीकरण के नए जरिए पैदा किए, सूचनाओं पर एकाधिकार समाप्त किया, सूचनाओं के संप्रेषण के लिए नए रास्ते और तकनीक अपनाई एवं नए तरह के मीडियाकर्मी पैदा किए। यह पुस्तक न केवल उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो नागरिक पत्रकारिता के प्रति उत्साही हैं, बल्कि यह उनको भी एक दृष्टि देती है जो पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थी भी इस पुस्तक के अध्ययन से नागरिक पत्रकारिता में अपनी संभावनाएं तलाश सकते हैं। यश पब्लिकेशंस, दिल्ली ने पुस्तक का प्रकाशन किया है।



पुस्तक : नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म)
संपादक : डॉ. पवन सिंह मलिक 
मूल्य : 350 रुपये (साजिल्द)
पृष्ठ : 142 
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस 
1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
दूरभाष : 011-40018100
ई-मेल : yashpublisherprivatelimited@gmail.com 

शनिवार, 9 मई 2020

प्रारंभ से पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा हैं देवर्षि नारद



भारतीय परंपरा में प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक अधिष्ठात्रा देवता/देवी का होना हमारे पूर्वजों ने सुनिश्चित किया है। इसका उद्देश्य प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए कुछ सनातन मूल्यों की स्थापना करना ही रहा होगा। सनातन मूल्य अर्थात् वे मूल्य जो प्रत्येक समय और परिस्थिति में कार्य की पवित्रता एवं उसके लोकहितकारी स्वरूप को बचाए रखने में सहायक होते हैं। यह स्वाभाविक ही है कि समय के साथ कार्य की पद्धति एवं स्वरूप बदलता है। इस क्रम में मूल्यों से भटकाव की स्थिति भी आती है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हम मूल्यों की पुनर्स्थापना पर विमर्श करते हैं, तब अधिष्ठात्रा देवता/देवी हमें सनातन मूल्यों का स्मरण कराते हैं। ये आदर्श हमें भटकाव और फिसलन से बचाते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शित करते हैं। उनसे प्राप्त ज्ञान-प्रकाश के आलोक में हम फिर से उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं, जिसमें लोकहित है। इसलिए भारत में जब आधुनिक पत्रकारिता प्रारंभ हुई, तब हमारे पूर्वजों ने इसके लिए दैवीय अधिष्ठान की खोज प्रारंभ कर दी। उनकी वह तलाश तीनों लोक में भ्रमण करने वाले और कल्याणकारी समाचारों का संचार करने वाले देवर्षि नारद पर जाकर पूरी हुई। भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती (23 मई, 1826 दिन- मंगलवार / वैशाख कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चयन किया। किंतु किसी तकनीकी कारण से उदन्त मार्तण्ड का पहला अंक 23 को प्रकाशित नहीं हो सका, हालाँकि अंक प्रकाशन हेतु तैयार था। इसलिए जब 30 मई को उदन्त मार्तण्ड का पहला अंक प्रकाशित होकर आया तो उसमें नारद जयंती का हर्ष के साथ उल्लेख था। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है। 


          ऐसा नहीं है कि पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा देवता के रूप में देवर्षि नारद को मान्यता दी, अपितु अन्य प्रारम्भिक व्यक्तियों/संस्थाओं ने भी उनको ही संचार का प्रेरणास्रोत माना। जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने अपने एक आलेख ‘ब्रह्माण्ड के प्रथम पत्रकार’ में लिखा है- “हमारे यहाँ सन् 1940 के आस-पास पत्रकारिता की शिक्षा बाकायदा शुरू हुई। लेकिन पत्रकारिता का जो दूसरा या तीसरा इंस्टीट्यूट खुला था, नागपुर में, वह एक क्रिश्चिन कॉलेज था। उसका नाम है इस्लाब कॉलेज। जब मैं नागपुर में रह रहा था तब पता चला था कि उस कॉलेज के बाहर नारद जी की एक मूर्ति लगाई गई थी।” इसी तरह 1948 में जब दादा साहब आप्टे ने भारतीय भाषाओं की प्रथम संवाद समिति (न्यूज एजेंसी) ‘हिंदुस्थान समाचार’ शुरू की थी, तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने हिंदुस्थान समाचार को जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि देवर्षि नारद पत्रकारिता के पितामह हैं। पत्रकारिता उन्हीं से शुरू होती है।  
          यह दो-तीन उदाहरण इसलिए दिए हैं, क्योंकि भारत में एक वर्ग ऐसा है, जो सदैव भारतीय परंपरा का विरोध करता है। देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श मानने पर वह विरोध ही नहीं करता, अपितु देवर्षि नारद का उपहास भी उड़ाता है। इसके लिए वह जुमला उछालता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पत्रकारिता का ‘भगवाकरण’ करने का प्रयास कर रहा है। इस वर्ग ने त्याग और समर्पण के प्रतीक ‘भगवा’ को गाली की तरह उपयोग करना प्रारंभ किया है। इससे ही इनकी मानसिक और वैचारिक क्षुद्रता का परिचय मिल जाता है। बहरहाल, उपरोक्त उदाहरणों से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि आरएसएस ने देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श या आद्य पत्रकार घोषित नहीं किया है, बल्कि भारत में प्रारंभ से ही पत्रकारिता विद्या से जुड़े महानुभावों ने देवर्षि नारद को स्वाभाविक ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया था। क्योंकि यह भारतीय परंपरा है कि हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक दैवीय अधिष्ठान है और जब हम वह कार्य शुरू करते हैं तो उस अधिष्ठात्रा देवता/देवी का स्मरण करते हैं। पत्रकारिता क्षेत्र के भारतीय मानस ने तो देवर्षि नारद को सहज स्वीकार कर ही लिया है। जिन्हें देवर्षि नारद के नाम से चिढ़ होती है, उनकी मानसिक अवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है। उनका आचरण देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में उनकी आस्था नहीं है। अब तो प्रत्येक वर्ष देवर्षि नारद जयंती के अवसर पर देशभर में अनेक जगह महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। नारदीय पत्रकारिता का स्मरण किया जाता है। 

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के 'नारद भक्ति सूत्रों' में पत्रकारिता के सिद्धांत 
          पिछले कुछ वर्षों में आई जागरूकता का प्रभाव दिखना प्रारंभ हो गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली नयी पीढ़ी भी अब देवर्षि नारद को संचार के आदर्श के रूप में अपना रही है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (डीएविवि) के पत्रकारिता विभाग के बाहर दीवार पर युवा कार्टूनिस्टों ने देवर्षि नारद का चित्र बनाया है, जिसमें उन्हें पत्रकार के रूप में प्रदर्शित किया है। संभवत: वे युवा पत्रकारिता के विद्यार्थी ही रहे होंगे। डीएविवि जाना हुआ, तब वह चित्र देखा, बहुत आकर्षक और प्रभावी था। इसी तरह एशिया के प्रथम पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर देवर्षि नारद का चित्र एवं उनके भक्ति सूत्र उकेरे गए हैं। विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रदर्शित नारद भक्ति सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल, उन सूत्रों में पत्रकारिता के आधारभूत सिद्धांत शामिल हैं। ये सूत्र पत्रकारिता के विद्यार्थियों को दिशा देने वाले हैं। पहला सूत्र लिखा है- ‘तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात।’ अर्थात् मतों में विभिन्नता एवं अनेकता है। ‘विचारों में विभिन्नता और उनका सम्मान’ यह पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी तरह दूसरा है- ‘तद्विहीनं जाराणामिव।’ अर्थात् वास्तविकता (पूर्ण सत्य) की अनुपस्थिति घातक है। अकसर हम देखते हैं कि पत्रकार जल्दबाजी में आधी-अधूरी जानकारी पर समाचार बना देते हैं। उसके कितने घातक परिणाम आते हैं, सबको कल्पना है। इसलिए यह सूत्र सिखाता है कि समाचार में सत्य की अनुपस्थिति नहीं होनी चाहिए। पूर्ण जानकारी प्राप्त करके ही समाचार प्रकाशन करना चाहिए। एक और सूत्र को देखें- ‘दु:संग: सर्वथैव त्याज्य:।’ अर्थात् हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए। देवर्षि नारद के संपूर्ण संचार का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह लोककल्याण के लिए संवाद का सृजन करते थे। देवर्षि नारद सही अर्थों में पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा हैं।

देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के पत्रकारिता विभाग के बाहर देवर्षि नारद के पत्रकारीय पक्ष को कार्टून विधा के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास

शुक्रवार, 1 मई 2020

कल्पना और झूठ पर आधारित है अमेरिकी आयोग की रिपोर्ट



अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में जो सुझाव दिया है, वह कोरी कल्पनाओं और सफेद झूठ पर आधारित है। यूएससीआईआरएफ ने भारत को ‘कुछ खास चिंताओं’ वाले उन 14 देशों की सूची में शामिल करने का सुझाव दिया है, जहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों पर उत्पीडऩ लगातार बढ़ रहा है। दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों पर नजर रखने वाली अमेरिका की इस संस्था ने भारत को इस सूची में शामिल करने के लिए जो तथ्य और कथ्य जुटाए हैं, वे शुद्धतौर पर काल्पनिक हैं। यूएससीआईआरएफ की उपाध्यक्ष नेन्डिन माएजा ने कहा है- ‘भारत के नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी से लाखों भारतीय मुसलमानों को हिरासत में लिए जाने, डिपोर्ट किए जाने और स्टेटलेस हो जाने का खतरा है।’ यह कल्पना नहीं तो और क्या है? इस संदर्भ में यह समझने की भी जरूरत है कि नागरिकता और धर्म, दोनों अलग चीज हैं। लेकिन, इस संस्था ने भारत की छवि खराब करने के लिए दोनों का घालमेल कर दिया। रिपोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी करने, गोहत्या और धर्म-परिवर्तन (कन्वर्जन) विरोधी कानूनों को धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ के तौर पर रेखांकित किया गया है। श्रीरामजन्मभूमि प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उत्पीडऩ से जोड़ कर आयोग ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को सांप्रदायिक चश्मे से देख कर अमेरिकी आयोग ने अपनी नासमझी और मानसिक क्षुद्रता का ही परिचय दिया है।

          संस्था की यह राय साफ तौर पर उन लोगों के बयानों/लेखन के आधार पर बनी हुई दिख रही है, जो भारत की छवि खराब करने के षड्यंत्र में शामिल हैं। यदि हम पूरी रिपोर्ट को पढ़े तो यही समझ आएगा कि यह किसी ‘शाहीन बाग के प्रेमी’ द्वारा लिखी गई रिपोर्ट है। वास्तविकता यह है कि नागरिकता संशोधन कानून का किसी भी प्रकार का कोई लेना-देना भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक नागरिकों से नहीं है। इस कानून से भारत के अल्पसंख्यकों का उत्पीडऩ होने की कोई गुंजाइश नहीं है। बल्कि यह तो धार्मिक आधार पर उत्पीडऩ का शिकार हुए हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, ईसाई समुदाय के बंधुओं का संरक्षण करने वाला कानून है। दुनिया जानती है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों के साथ किस तरह के अत्याचार किए जा रहे हैं। इन देशों से अपनी जान बचाकर भारत में शरण लेने आए धार्मिक अल्पसंख्यकों का स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार देने का सराहनीय काम भारत सरकार ने किया है। अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग को इस कानून के लिए भारत सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए थी। 

          वहीं, राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) किसी भी देश का संवैधानिक कार्य है। नागरिकों और घुसपैठियों की पहचान देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़ा मामला है। इसका भी संबंध भारत के अल्पसंख्यकों से नहीं है। एनआरसी के जरिये किसी को भी धार्मिक आधार पर डिपोर्ट या नागरिकता से बेदखल नहीं किया जाना है। एनआरसी में कहीं नहीं लिखा कि इसके जरिए धार्मिक अल्पसंख्यकों को डिपोर्ट किया जाएगा। हैरत है कि अंतरराष्ट्रीय संस्था को इतनी सी बात समझ नहीं आ रही और उसने धर्म एवं नागरिकता का आपस में घालमेल कर दिया। इसलिए भारत सरकार ने उचित ही प्रत्युत्तर यूएससीआईआरएफ को दिया है। भारत के विदेश मंत्रालय ने न केवल आयोग की रिपोर्ट के दावों को खारिज किया है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इसमें भारत के खिलाफ की गई भेदभावपूर्ण और भड़काऊ टिप्पणियों में कुछ नया नहीं है। यह आयोग पहले भी भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार करने का प्रयास करता रहा है। लेकिन इस बार गलत दावों का स्तर एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है। 

          बहरहाल, इस झूठी रिपोर्ट और उसके फर्जी दावों के विरुद्ध आयोग के ही दो सदस्य भारत के पक्ष में खड़े हैं। यह हमारे लिए संतोष की बात है। आयोग के नौ में से दो वरिष्ठ सदस्यों गैरी एल. बॉर और टेन्जिन दोरजी ने रिपोर्ट से अपनी असहमति भी जतायी है और कहा है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तथा उसे चीन और उत्तर कोरिया जैसे एकाधिकारवादी शासनों के साथ नहीं रखा जा सकता है। कमिश्नर गैरी एल. बॉर ने रिपोर्ट के दावों से असहमति जताते हुए अपने नोट में लिखा है- ‘भारत को सीपीसी (कंट्री ऑन पर्टिक्यलर कंसर्न) सूची में रखे जाने के बारे मैं अपने साथियों से अलग राय रखता हूं। भारत कम्युनिस्ट चीन देश की तरह नहीं है, जो सभी धार्मिक विश्वासों से युद्ध लड़ रहा है। भारत दक्षिण कोरिया की तरह भी नहीं है और न ही यह ईरान की तरह है, जहाँ इस्लामिक चरमपंथी नियमित तौर पर अन्य मत को मानने वालों के सर्वनाश (हालकॉस्ट) की धमकी देते रहते हैं। मुझे विश्वास है कि भारत सदैव धार्मिक स्वतंत्रता के साथ अन्य सब प्रकार की स्वतंत्रताओं के साथ खड़ा रहेगा।’ इसी तरह टेन्जिन दोरजी ने अमेरिकी आयोग की रिपोर्ट के प्रति अपनी असहमति में लिखा है- ‘भारत एक प्राचीन देश है, जहाँ प्राचीन काल से ही विभिन्न मत-विश्वास को मानने वाले लोग, एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारते और एक-दूसरे का सम्मान करते हुए रहते आए हैं। भारत ही वह देश है, जहाँ तिब्बती शरणार्थी आनंद के साथ रहते हैं। चीन और तिब्बत में भी वे उतने स्वतंत्र नहीं, जितने भारत में हैं।’ नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में भी उन्होंने महत्वपूर्ण टिप्पणी दर्ज कराई है। उन्होंने कहा कि इससे अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था क्या हो सकती है कि भारत में नागरिकता संशोधन कानून का खुलकर विरोध किया गया। कांग्रेस, कानूनविद, सिविल सोसायटी और अन्य समूहों ने भी इसका विरोध किया है। मीडिया ने भी सीएए के पक्ष में और उसके विरोध में खुलकर रिपोर्टिंग की है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस मामले की सुनवाई की है। गैरी एल. बॉर के कहने से स्पष्ट है कि भारत सरकार ने यह कानून जबरन नहीं थोपा है। बल्कि इसके लिए तय संवैधानिक प्रक्रिया का पालन किया गया है। संसद से लेकर सड़क तक भरपूर बहस हुई है, किसी के विरोध को कुचला नहीं गया। 
          भारत के संदर्भ में जो दावे किए गए हैं, वे इसलिए भी खोखले हैं क्योंकि इसमें झूठ का भी सहारा लिया गया है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता धार्मिक अल्पसंख्यकों को धमकी देने, उत्पीडऩे करने और हिंसा की बहुत-सी घटनाओं में शामिल रहे हैं। यह कोई तथ्य नहीं है, बल्कि शुद्धतौर पर भारत विरोधी ताकतों के द्वारा चलाए गए प्रोपोगंडा से प्रेरित है। रिपोर्ट में मॉब लिंचिंग की कथित तौर पर बढ़ती घटनाओं को धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ के तौर पर रेखांकित किया गया है। इस संदर्भ में झारखंड में तबरेज आलम की हत्या से जुड़े उदाहरण को भी ठीक उसी प्रकार वर्णित किया गया है, जैसा कि भारत की टुकड़े-टुकड़े गैंग करती है। मॉब लिंचिंग में आयोग ने भी वही धूर्तता दिखाई है, जो भारत का तथाकथित सेकुलर दिखाता है। आयोग ने हिंदुओं की मॉब लिंचिंग की घटनाओं की अनदेखी की है। 
          अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की यह रिपोर्ट ईसाई मिशनरीज के समर्थन में दिखाई देती है, जो भारत की अनुसूचित जाति-जनजाति के कन्वर्जन के आपत्तिजनक काम में संलग्न हैं। आयोग की पीड़ा यह है कि भारत में कन्वर्जन को रोकने के लिए राज्यों ने कठोर कानून क्यों बनाया है? तब क्या आयोग की मंशा यह है कि भारत को ईसाई मिशनरीज के लिए किसी चारागाह की तरह छोड़ दिया जाए। कन्वर्जन को रोकने वाले कानून ईसाई धर्म के बंधुओं का उत्पीडऩ करने के लिए नहीं बनाए गए हैं, बल्कि वह दलित और वनवासी समुदाय को ईसाई मिशनरीज के कन्वर्जन के खेल से बचाने के लिए बनाए गए हैं। यह भी अत्याचार को बढ़ाने वाले कानून नहीं बल्कि विभिन्न मत-विश्वासों का संरक्षण करने वाला कानून है। इसी तरह आयोग को गोहत्या रोधी कानूनों से दिक्कत है। मूक पशु का संरक्षण करने के कानून से भला किस प्रकार धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीडऩ संभव है? 
          कुल मिलाकर यह रिपोर्ट ऐसे ही झूठों का पुलिंदा है। यह उन कपोल कल्पनाओं और प्रोपोगंडा का चिट्ठा मात्र है, जो वर्षों से भारत विरोधी ताकतों के द्वारा चलाया जा रहा है। इस तरह तथ्यहीन बातों के आधार पर रिपोर्ट तैयार करने अंतरराष्ट्रीय संस्था यूएससीआईआरएफ ने स्वयं को ही संदिग्ध बनाया है। भारत जैसे लोकतांत्रित देश पर अंगुली उठाने से पहले आयोग को अपने ही गिरेबां (अमेरिका में) ही देख लेना चाहिए था कि किस तरह वहाँ नस्लीय एवं धार्मिक भेदभाव और उत्पीडऩ किया जाता है। कोरोना महामारी के भयंकर संकट में भी अमेरिका का स्वास्थ्य विभाग नागरिकों के इलाज में भेदभाव कर रहा है।