28 अक्टूबर, 2011 को साहित्य का एक चमकता सूरज ढल गया था। भविष्य के कैलेंडर में हमेशा इस दिन एक काला बिंब दिखा करेगा। मैं बात कर रहा हूं उपन्यास सूनी घाटी का सूरज (1957) से साहित्य की दुनिया में उपस्थित दर्ज कराने वाले और कालजयी उपन्यास राग दरबारी के रचयिता की। यानी श्रीलाल शुक्ल की। उनकी अन्य रचनाएं- पहला पड़ाव, मकान, अज्ञातवास और विश्रामपुर का संत प्रख्यात हैं। लेकिन, समाज उन्हें राग दरबारी के लिए अधिक पहचानता है। लम्बे अरसे से मैं राग दरबारी पढऩे का इच्छुक था। बीच में मेरे मित्र ने मुझे यह उपन्यास पढऩे के लिए दिया। दो दिन भी न बीते थे कि हम दोनों में किसी अन्य पुस्तक को लेकर बहस हो गई। मैं थोड़ा गरम मिजाज का हूं। गुस्सा आ गया, अपना थैला खोला और राग दरबारी निकलकर उन्हें थमा दी। आज के बाद आपसे पढऩे के लिए कोई किताब नहीं लूंगा, ऐसा कहकर उनसे नमस्ते कर लिया। चूंकि मेरे मित्र उम्र में मुझसे बड़े हैं। उन्हें गुस्सा दिखाने के लिए माफी मांगने का धर्म मेरा ही था। दूसरे ही दिन उनके घर जाकर साथ में खाना खाया लेकिन किताब तब भी नहीं ली पढऩे। मैंने तब तक राग दरबारी के चार पन्ने ही पढ़े थे। उन चार पन्नों ने जो छाप मन में छोड़ी, उससे लगातार मन में राग दरबारी को जल्द ही पढ़ लेने की इच्छा बलवती हो रही थी। इसी दौरान मेरा स्थानांतरण पत्रिका के भोपाल संस्करण में हो गया। यहां नए दोस्त बनना शुरू हुए। कुछ अपने टाइप के मिल गए। यहीं मुझे मेरी मित्र ने राग दरबारी पढऩे को दी। मैंने राग दरबारी पौने दो बार (एक बार डूबकर, दूसरी बार सरसरी तौर पर) पढ़कर खत्म की। उसके पात्र और कहानी हमारे आसपास के ही प्रतीत होते हैं। वैध महाराज, रामधीन भीखमखेड़ी, लंगड़, शनिचर सब हमारे आसपास मिल जाएंगे।
उपन्यास की भाषा शैली के लिए लेखक को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। एक अखबार को उन्होंने बताया था कि राग दरबारी में अजीब-सी भाषा है, कुछ असभ्य-सी। इसे अपने भीतर उतारने के लिए उन्हें काफी मेहनत, परेशानी और बेइज्जती झेलनी पड़ी। उपन्यास जब लिखा जा रहा था, उस दौरान उनके व्यवहार और बातचीत से अक्सर लोग नाराज हो जाया करते थे। खासकर महिलाएं तो उन्हें बेहूदा इंसान समझने लगी थीं। इस उपन्यास को पूरा करने के लिए कुछ महीनों के लिए वे दुनिया से कट गए थे। घर छोड़कर एक फ्लैट किराए से लिया। फ्लैट की जानकारी किसी को नहीं थी। वहीं रहकर उन्होंने उपन्यास लेखन किया। इस दौरान श्रीलाल शुक्ल काफी बीमार भी हो गए थे। उपन्यास के कुछ मुहावरे, कथन अजब ही हैं। ठोस, लोहार के हथौड़े की तरह प्रहार करने वाली भाषा। कुछ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं :-
उपन्यास की भाषा शैली के लिए लेखक को काफी मेहनत करनी पड़ी थी। एक अखबार को उन्होंने बताया था कि राग दरबारी में अजीब-सी भाषा है, कुछ असभ्य-सी। इसे अपने भीतर उतारने के लिए उन्हें काफी मेहनत, परेशानी और बेइज्जती झेलनी पड़ी। उपन्यास जब लिखा जा रहा था, उस दौरान उनके व्यवहार और बातचीत से अक्सर लोग नाराज हो जाया करते थे। खासकर महिलाएं तो उन्हें बेहूदा इंसान समझने लगी थीं। इस उपन्यास को पूरा करने के लिए कुछ महीनों के लिए वे दुनिया से कट गए थे। घर छोड़कर एक फ्लैट किराए से लिया। फ्लैट की जानकारी किसी को नहीं थी। वहीं रहकर उन्होंने उपन्यास लेखन किया। इस दौरान श्रीलाल शुक्ल काफी बीमार भी हो गए थे। उपन्यास के कुछ मुहावरे, कथन अजब ही हैं। ठोस, लोहार के हथौड़े की तरह प्रहार करने वाली भाषा। कुछ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं :-
- ट्रक : उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है।
- बैठक : ईंट-गारा ढोनेवाला मजदूर भी जानता है कि बैठक ईंट और गारे की बनी इमारत भर नहीं है। नं. 10 डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, के्रमलिन आदि मकानों के नहीं ताकतों के नाम हैं।
- कुकुरहाव : कुत्ते आपस में लड़ते हैं और एक-दूसरे को बढ़ावा देने के लिए शोर मचाते हैं। उसी को कुकरहाव कहते हैं।
- बुद्धिजीवी : हालत यह है कि हैं तो बुद्धिजीवी, पर विलायत का एक चक्कर लगाने के लिए यह साबित करना पड़ जाय कि हम अपने बाप की औलाद नहीं हैं, तो साबित कर देंगे। चौराहे पर दस जूते मार लो, पर एक बार अमरीका भेज दो - ये हैं बुद्धिजीवी।
- बाछें (वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हैं) खिल गईं।
- हाथी आते हैं, घोड़े जाते हैं, बेचारे ऊंट गोते खाते हैं।
- जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है।
- तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलाते हैं।
- सब मीटिंग में बैठकर रांड़ों की तरह फांय-फांय करते हैं, काम-धाम के वक्त खूंटा पकड़कर बैठ जाते हैं।
- आग खाएगा तो अंगार हंगेगा।
- सच्ची बात ठांस दूंगा तो कलेजे में कल्लाएगी।
- जिस किसी की दुम उठाकर देखो, मादा ही नजर आता है।
- हमारी ही पाली लोमड़ी, हमारे ही घर में हुआ-हुआ। (यद्यपि लोमड़ी हुआ-हुआ नहीं करती)
- कल्ले में जब बूता नहीं होता, तभी इन्सानियत के लिए जी हुड़कता है।
- धरती-धरती चलो। आसमान की छाती न फाड़ो।
- गला देश भक्ति के कारण नहीं, खांसी के कारण भर आया था।
- हिन्दुस्तानी छैला, आधा उजला आधा मैला।
- सच्ची बात और गदहे की लात को झेलने वाले बहुत कम मिलते हैं।
- मर्द की जबान एक कि दो?
- चौदह लड़कों को हमने पैदा किया और हमीं को ये सिखाते हैं कि औरत क्या चीज है।
- घोड़े की लात और मर्द की बात कभी खाली नहीं जाती।
- एक-एक से सवा लाख की कोठी में मूंज न कुटवाऊं तो समझ लेना तुम्हारे पेशाब से पैदा नहीं हुआ हूं।
- एक-एक वकील करने में सौ-सौ रण्डी पालने का खर्च है।
- कोई कटी अंगुली पर भी मूतने वाला नहीं।
- हमारा पेशाब किसी के मुकाबले पतला नहीं होता।
- यह भी कोई गड्ढा है। चिडिय़ा भी एक बार मूत दे तो उफना चलेगा।
- टहलना काम है घोड़ी का, मर्द-बच्चे का नहीं।
- पांच सौ डण्ड फटाफट मारिए, लोहा-लंगड़ सबकुछ पेट में हजम हो जाएगा।
- पेशाब से चिराग जलना।
- घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है।
- सब चिड़ीमार हैं तो तुम्हीं साले तीसमार खां बनकर क्या उखाड़ लोगे।
- गू खाय तो हाथी का खाय।
- देह पर नहीं लत्ता, पान खायं अलबत्ता।
- वोट साला कौन छप्पन टके की चीज है।
- हमें कौन साला वोट का अचार डालना है। जितने कहो, उतने वोट दे दें।
- तुम्हारी जवानी पर पिल्ले मूतते हैं साले।
- कल तक जोगी, चूतड़ तक जटा।
- गिलहरी के सिर पर महुआ चू पड़े तो समझेगी, गाज गिरी है।
- जैसे तुम तो विलायत से आए हो और बाकी सब काला-आदमी-जमीन पर हगने वाला है।
- सूअर का लेंड, न लीपने का के काम आय, न जलाने के।
- जहां मुर्गा न होगा तो क्या वहां भोर न होगा।
- हम तो गलत समझेंगे ही। तुम पतलून पहने हो, साहब। सही बात तो तुम्हीं समझोगे।
पंचू कहिन : जिसने राग दरबारी न पढ़ी हो तो उसे पढऩी ही चाहिए। जो पढ़ चुका हो वो बार-बार पढ़कर आनंद ले सकता है।
राग दरबारी की नए अंदाज में की गयी यह समीक्षा अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम हुई ....हम राग दरबारी तो पढ़ चुके हैं ...आपकी यह समीक्षा पढना भी एक नया अनुभव रहा ....!
जवाब देंहटाएंलोकेन्द्र जी, आपके राजनैतिक तेवर में आया यह सुखद बदलाव, वास्तव में प्रशंसा योग्य है.. और आज पंडित श्रीलाल शुक्ल जी का चयन तो मेरे दिल की बात है.. शुक्ल जी की व्यंग्य शैली इतनी पैनी है कि सीधा प्रहार करती है और पता भी नहीं चलता.. जॉर्ज ऑरवेल के उपन्याद "एनिमल फ़ार्म" और "१९८४" के मुकाबले सिर्फ 'राग दरबारी' और 'काशी का अस्सी' ही खड़े हो सकते हैं और वो भी छाती ठोंक कर!! आपने उनके द्वारा प्रयुक्त जिन मुहावरों का उल्लेख किया है, वे मैं अपने मित्रों के साथ बातचीत में सदा प्रयोग करता हूँ.. एक बेहतरीन लेखक की एक कालजयी रचना!!
जवाब देंहटाएंशुक्ल जी के बारे में इतना सब जानना अच्छा लगा। अपनी प्रकृति के विपरीत पात्रों को साथ लेकर चलना एक लेखक के लिये आसान नहीं होता लेकिन उससे पार पाना भी आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंऔर आखिरी वाक्य, बंदर के नाचने वाली बात...
जवाब देंहटाएंराग दरबारी पढ़ी है ... बहुत बढ़िया आलेख श्री लाल शुक्ल जी को लेकर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर पुस्तक परिचय .... आनंद आया आपके लेखन को पढ़ कर ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी शुक्ल जी के बारे में, ख़ासकर कुछ शब्दों की व्याख्या मेरे लिए भी एकदम नयी थी, आगे देखता हूँ की इन्हें मैं कहाँ अपने ब्लॉग पर फिट कर पाटा हूँ :) ! जानकार अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति,समीक्षा अच्छी लगी,...
जवाब देंहटाएंMY NEW POST ...कामयाबी...
सचमुच मील का पत्थर है "राग दरबारी" कोई विषय तो नहीं छोड़ा उन्होंने... और इतना सूक्ष्म विश्लेषण... गुदगुदाती शैली... वाह! जितनी बार पढो उतना ही आनंद...
जवाब देंहटाएंश्री लाल जी को नमन.
लोकेन्द्र जी अच्छी रचना को चाहे कितनी बार पढें वह हर बार नई लगती है । राग-दरबारी के ये अंश कई बार पढ कर भी नए लगे ।
जवाब देंहटाएंगजब की लेखनी है शुक्ल जी की। मैंने राग दरबारी नहीं पढ़ी लेकिन अब उत्कंठा जाग गयी है..इस परिचय के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंRagdarbari ke bare mein upyogi jankari uplabdh karane ke liye dhanyabad.
जवाब देंहटाएंशुक्ल जी के पात्र जिस परिवेश के हैं वहां की बोली -मुहावरों का प्रयोग उनकी लेखकीय विवशता थी .....उपन्यास को प्रभावी और कालजयी बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है. यह उपन्यास ही नहीं हमारे समाज और सरकारी कार्यशैली का सच्चा इतिहास भी है. नक़ल के लिए आज भी कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते जूते के तल्ले घिस जाते हैं लोगों के .....
जवाब देंहटाएंनए अंदाज़ की समीक्षा ... बहुत समय बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जागृत हो गयी ...
जवाब देंहटाएंये उपन्यास दस्तावेज़ है समाज का ...