अंतरिक्ष विज्ञान के
क्षेत्र में भारत नित-नयी सफलताएं प्राप्त कर रहा है। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी ‘इसरो’ ने 22 जुलाई को
चंद्रयान-2 का प्रक्षेपण करके अंतरिक्ष में सफलता की एक और
लंबी छलांग लगाई है। इस उपलब्धि से सभी भारतीयों का स्वाभिमान भी चंद्रमा पर पहुंच
गया है। भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मेधा से उस अभिजात्य सोच को जोरदार जवाब दिया
है, जो भारत को कमतर आंकती है। अमेरिका के प्रमुख
समाचार-पत्र ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ ने 28 सितंबर, 2014 को एक कार्टून प्रकाशित किया था,
जिसमें दिखाया गया कि ‘एलिट स्पेस क्लब’
में प्रवेश के लिए भारतीय किसान अपनी गाय को लेकर पहुँचा है। वह
किसान दरवाजा खटखटा रहा है और भीतर एलिट स्पेस क्लब में बैठ कर दो अमेरिकन भारतीय
बजट में ‘मंगल अभियान’ की घोषणा को पढ़
रहे हैं। कार्टूनिस्ट महाशय हेंग किम सोंग ने अपनी अभिजात्य सोच को कार्टून में
प्रकट किया।
दरअसल, भारत के संबंध
में उनकी राय वही है, जो उन जैसे पश्चिम के अन्य लोगों के
दिमाग में बैठाई गई कि यह देश साँप-सपेरों और गो-पालकों का है। आश्चर्य है कि जब
वह भारत का उपहास उड़ाने के लिए यह कार्टून बना रहे थे, तब
उनके दिमाग में ‘इसरो की सफलताओं’ की गूँज
कैसे नहीं पहुंची थी? हम 24 सितंबर,
2014 में मंगलयान की सफलतम लॉन्चिंग कर चुके थे। भारत दुनिया का
एकमात्र देश है, जो मंगल पर पहुंचने के अपने पहले ही प्रयास
में सफल रहा। कहीं, महाशय हेंग इसी बात से आहत तो नहीं कि
भारत जैसे देश अंतरिक्ष में उनसे ऊंची छलांग कैसे लगा रहे हैं? देश-विदेश से भारत के स्वाभिमानी लोगों ने द न्यूयार्क टाइम्स के प्रबंधन
को अपनी आपत्तियां भेंजी और सोशल मीडिया पर अभियान भी चलाया। परिणाम यह हुआ कि द
न्यूयार्क टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ के संपादक एंड्रयू रोसेंथल को इस कार्टून के
लिए माफी माँगनी पड़ी। उसने स्वीकार किया कि हजारों पाठकों ने प्रतिक्रिया देकर
कार्टून पर आपत्ति जताई थी। मंगलयान के बाद एंटी सैटेलाइट मिसाइल और अब चंद्रयान-2 ऐसी ही ओछी सोच को जोरदार उत्तर है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अंतरिक्ष के
क्षेत्र में वह कर दिखाया, जो शेष विश्व अपेक्षा नहीं करता।
चंद्रयान-2 भारत की विशेष उपलब्धि है। चंद्रयान-1 की खोजों को आगे बढ़ाने के लिए चंद्रयान-2 को भेजा
गया है। चंद्रमा की सतह पर, उसके नीचे और अति विरल वातावरण
में पानी के अणुओं के वितरण का अध्ययन करना चंद्रयान-2 का
मुख्य उद्देश्य है। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-1 ने चंद्रमा
पर पानी के अणुओं की खोज की थी। चंद्रयान-2 चंद्रमा के
दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा। चंद्रमा का यह ऐसा क्षेत्र है, जिसकी
अब तक सीधे कोई जांच नहीं हुई है। अमेरिका, रूस और चीन जैसे
देशों ने भी अभी तक यहां कोई यान नहीं भेजा है।
चंद्रयान-2 की सफलता के
लिए इसरो के वैज्ञानिक निश्चय ही बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने
इसके लिए अथक परिश्रम किया और शुरुआती असफलताओं के बावजूद अपना धैर्य बनाए रखा।
हमें भरोसा है कि हमारे वैज्ञानिक वह कर दिखाएंगे, जो अब तक
कोई नहीं कर सका है। प्रत्येक नागरिक को अपने वैज्ञानिकों का हौसला बढ़ाना चाहिए।
अमरकंटक के जंगल में, ऊंचे पहाड़ पर एक चट्टान ऐसी है, जिसमें 12 महीने पानी रहता है। चट्टान में एक छेद है,
उसमें हाथ डाल कर अंजुली भर जल निकाल सकते हैं। इस आश्चर्यजनक
चट्टान को भृगु का कमंडल कहा जाता है। मेरे मित्र अशोक मरावी और मुकेश ने जब मुझे
यह बताया गया, तो उस चट्टान को देखने की तीव्र जिज्ञासा मन
में जागी। अगली सुबह इस अनोखी चट्टान को देखने जाने का तय किया। माँ नर्मदा मंदिर
से लगभग 4 किमी दूर घने जंगल और ऊंचे पहाड़ पर भृगु कमंडल
स्थित है।
भृगु कमंडल तक पहुँचना कठिन तो नहीं है, लेकिन बाकी
स्थानों की अपेक्षा यहाँ पहुँचने में थोड़ा अधिक समय और श्रम तो लगता ही है। कुछ
दूरी तक आप मोटरसाइकिल या चारपहिया वाहन से जा सकते हैं, परंतु
आगे का रास्ता पैदल ही तय करना होता है। भृगु कमंडल के लिए जाते समय आप एक और
नैसर्गिक पर्यटन स्थल धूनी-पानी पर प्रकृति का स्नेह प्राप्त कर सकते हैं। यह
स्थान रास्ते में ही पड़ता है। बहरहाल, हम मोटरसाइकिल से
भृगु ऋषि की तपस्थली के लिए निकले। रास्ता कच्चा और ऊबड़-खाबड़ था। मोटरसाइकिल पर
धचके खाते हुए हम उस स्थान पर पहुँच गए, जहाँ से पैदल आगे
जाना था। घने जंगल के बीच स्थित भृगु कमंडल तक पहुँचने के लिए पहले पहाड़ उतरकर
धूनी-पानी पहुँचे और फिर वहाँ से आगे जंगल में कीटों और पक्षियों का संगीत सुनते
हुए पहाड़ चढ़ते गए। अमरकंटक के जंगलों में पेड़ों पर एक कीट सिकोड़ा पाया जाता है,
जो एक विशेष प्रकार से टी-टी जैसी ध्वनि निकालता रहता है। शांत वन
में पेड़ों पर झुंड में रहने वाले सिकोड़ा कीट जब टी-टी का सामुहिक उच्चार करते
हैं तब विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। इस वर्ष जब भोपाल में भी यह ध्वनि
सुनाई दी, तब मेरे मित्र हरेकृष्ण दुबोलिया ने उस पर समाचार
बनाया था। उसके अनुसार यह कीड़ा हेमिपटेरा प्रजाति का है, जो
पेड़ो पर रहकर उसकी छाल से पानी अवशोषित करता है और सूखी पत्तियों को अपना भोजन
बनाता है। सिकोड़ा कीट उष्ण कटिबंधीय (गर्म) क्षेत्रों में पाया जाता है। इनके लिए
अनुकूल तापमान 40 से 50 डिग्री
सेल्सियस के बीच है। तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पार जाता
है, तो इनकी संख्या तेजी से बढ़ती है, किंतु
तापमान जैसे ही 50 डिग्री सेल्सियस के पार जाता है, यह मरने लगते हैं।
बहरहाल, घने जंगल और पहाड़ों से होकर हम भृगु कमण्डल
तक पहुँच गए। ऊंचे पहाड़ पर यह एक निर्जन स्थान है। यहाँ कम ही लोग आते हैं।
ध्यान-साधना करने वाले साधुओं का यह प्रिय स्थान है। यहाँ एक बड़ी चट्टान है,
जिसे भृगु ऋषि का कमण्डल कहा जाता है। कमण्डल की आकृति की इस चट्टान
में एक छेद है, जिसमें हाथ डाल श्रद्धालु पानी निकालते हैं
और पास ही प्रतिष्ठित शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस स्थान पर भृगु
ऋषि ने कठोर तप किया था, जिसके कारण उनके कमण्डल से एक नदी
निकली, जिसे करा कमण्डल भी कहा जाता है। कहते यह भी भृगु ऋषि
धूनी-पानी स्थान पर तप करते थे। बारिश के दिनों में वहाँ धूनी जलाना मुश्किल हो
जाता था, तब भृगु ऋषि उस स्थान पर आए जिसे आज भृगु कमण्डल
कहते हैं। जब ऋषि भृगु यहाँ आए तब उनके सामने जल का संकट खड़ा हो गया। उनकी
प्रार्थना पर ही माँ नर्मदा उनके कमंडल में प्रकट हुईं। यहाँ एक सुरंग है, जिसे भृगु गुफा कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के
मेल से यह गुफा बनी है। आज भी धार्मिक पर्यटक और श्रद्धालु गुफा में एक ओर से
प्रवेश करते हैं और दूसरी ओर से निकलते हैं। बारिश के मौसम में इसी गुफा में ऋषि
भृगु धूनी रमा कर तप करते थे। हमें यहाँ
एक बाबा मिला, जिसने यहीं झोंपड़ी बना रखी थी। वह यहीं रहकर
पूजा-पाठ करते हैं। बाबा के निर्देश पर उनके एक चेले ने हम सबके लिए चाय बनाई। चाय
वाकई शानदार बनी थी। हमने बाबा और उनके चेले को धन्यवाद दिया और वहाँ से लौट पड़े।
भृगु कमंडल (चट्टान) में हाथ डालकर जल निकलता श्रद्धालु
आश्चर्य का विषय यह है कि मई-जून की गर्मी में भी कमण्डल रूपी इस चट्टान
में पानी कहाँ से आता है? ऐसे में धार्मिक मान्यता पर
विश्वास करने के अलावा कोई और विकल्प रहता नहीं है। निश्चित ही यह प्रकृति का
चमत्कार है। बहरहाल, चमत्कार में भरोसा और रुचि नहीं रखने
वालों के लिए भी यह स्थान सुखदायक है। प्रकृति प्रेमियों को ऊंचे पहाड़ पर पेड़ों
की छांव में बैठना रुचिकर लगेगा ही, साल के ऊंचे वृक्षों की
बीच से होकर यहाँ तक की यात्रा भी आनंददायक है।
क्रिकेट की सबसे बड़ी
प्रतियोगिता ‘विश्वकप’ के
सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड से हारने के बाद भारतीय टीम की जमकर आलोचना हो रही है।
हार का ठीकरा फोडऩे के लिए अलग-अलग सिर तलाशे जा रहे हैं। कुछ लोग विराट कोहली की
कप्तानी, टीम के चयन और कुछ लोग धोनी की धीमे खेल पर अंगुली
उठा रहे हैं। यह बात सही है कि सेमीफाइनल में भारत की टीम ने वैसा प्रदर्शन नहीं
किया, जिसकी उससे अपेक्षा थी। इस विश्वकप में भारतीय टीम को
सबसे अधिक मजबूत माना जा रहा था। विश्वकप के पहले चरण में सात मुकाबले जीतकर
भारतीय क्रिकेट टीम ने अपनी दावेदारी को और प्रबल किया। हालाँकि, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और इंग्लैंड से हुए मुकाबले
में भारतीय क्रिकेट दल की कमजोरियाँ उजागर भी हुई। शीर्ष क्रम के धराशाही होने पर
समूची टीम लडख़ड़ा जाती है।
धीमे खेल के लिए जो लोग पूर्व कप्तान महेंद्र
सिंह धोनी की आलोचना कर रहे हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए
कि अगर धोनी न होते तो कई मैच में सम्मानजनक स्कोर तक पहुँचना मुश्किल हो जाता।
धोनी बहुत अनुभवी खिलाड़ी हैं, वह परिस्थितियों को समझते
हैं। इस बात का आश्चर्य जरूर है कि सेमीफाइनल में उन्हें ऊपर क्यों नहीं भेजा गया?
विश्वकप-2011 के फाइनल मुकाबले को याद कीजिए,
जब धोनी कप्तान थे। सचिन तेंदुलकर और सहवाग के जल्दी आउट होने पर
कप्तान धोनी चौथे क्रम पर बल्लेबाजी करने आए और भारत की विजय सुनिश्चित की।
क्रिकेट संभावनाओं का खेल होने के साथ ही
अनुभव, रणनीति और धैर्य का भी खेल है। इसलिए पूरी संभावना है
कि यदि न्यूजीलैंड के विरुद्ध शीर्ष क्रम के बिखरने के बाद ऋषभ या कार्तिक की जगह
धोनी आए होते तो परिणाम कुछ और होता। धोनी खुद तो भारतीय पारी को संभालते ही,
अलबत्ता साथी खिलाड़ी को भी समझाइश देते रहते, जैसा कि उन्होंने रवीन्द्र जडेजा को दीं।
‘बीती ताही बिसार दे, आगे
की सुधि लेय’ कहावत पर चलते हुए भारतीय टीम को भविष्य की
तैयारियों पर जोर देना चाहिए। क्रिकेट की सबसे बड़ी इस प्रतियोगिता में एक बात
साफतौर पर समझ में आई है कि भारतीय टीम का मध्यमक्रम बहुत कमजोर है। वहाँ अनुभवी
और अच्छे बल्लेबाज की जरूरत है। मध्यमक्रम में इसी प्रतियोगिता में भारत ने कई
प्रयोग करके देख दिए, लेकिन सफलता नहीं मिली। भारतीय टीम को
अपनी इस कमजोरी को अविलंब दूर करना चाहिए।
संभव है कि क्रिकेट के भीतर चलने वाली
राजनीति के कारण टीम को पूर्ण आकार देने में दिक्कत आ रही हो। केएल राहुल, विजय शंकर, केदार जाधव, यजुवेंद्र
चहल को लगातार अवसर देते रहना, इसी ओर इशारा कर रहे हैं।
अंबाती रायडु के अचानक संन्यास लेने से इस बात की चर्चा भी है कि ‘चहेतों’ को लगातार अवसर दिए जा रहे हैं। भारतीय
क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड और अन्य समितियों को इस दिशा में तत्काल ध्यान देना चाहिए।
भारतीय टीम किसी एक-दो व्यक्ति की पसंद से नहीं चुनी जा सकती। करोड़ो भारतीयों की
उम्मीदें इसके साथ जुड़ी होती हैं। इसलिए किस खिलाड़ी को कितना अवसर दिया जाएगा,
इस संबंध में एक स्पष्ट और पारदर्शी नीति बनानी चाहिए। ताकि यह भाव
किसी भी खिलाड़ी के मन में न आए कि वह चहेता नहीं है, इसलिए
उसे कम अवसर दिए गए। सबको समान अवसर मिलना चाहिए।
भारतीय टीम ने विश्वकप में एक अनुशासित और
संगठित दल के रूप में प्रदर्शन किया, उसके कारण ही पहले चरण
में शानदार सफलताएं प्राप्त हुईं। टीम में यह अनुशासन बना रहना चाहिए। किसी एक पर
हार का ठीकरा फोडऩे से ज्यादा अच्छा है कि ईमानदार समीक्षा के बाद भविष्य की
तैयारियाँ प्रारंभ की जाएं।
चिलचिलाती गर्मी में कहीं घूमने निकलना कतई आनंददायक नहीं
होता है। परंतु, अपन तो ठहरे यात्रा प्रेमी। संयोग से जून के पहले सप्ताह में छत्तीसगढ़ की
राजधानी रायपुर पहुँच गए। जब पहुँच गए तो फिर अपन राम का मन कहाँ होटल के आरामदेह
बिस्तर पर लगता। जिस कार्य से रायपुर पहुँचे थे, सबसे पहले
सुबह उसे पूर्ण किया। फिर दोपहर भोजन के बाद नये रायपुर की ओर निकल पड़े। नया
रायपुर मुख्य शहर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर बसाया गया
है, जिसे अब अटल नगर के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ की
पूर्व सरकार ने भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के
देहावसान के बाद उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा व्यक्त करने के लिए नये रायपुर
का नाम ‘अटल नगर’ कर दिया। उल्लेखनीय
है कि छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाये जाने की माँग लंबे समय से उठती रही, जो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वर्ष 2000 में 1 नवंबर को मान्य हुई और मध्यप्रदेश की गोद से निकलकर 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ ने अपनी यात्रा प्रारंभ की। उस समय
छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े शहर रायपुर को राजधानी बनाया गया। अब प्रशासकीय मुख्यालय
के लिए नियोजित ढंग से नये रायपुर को विकसित किया जा रहा है। आठ जून की शाम को
पुरखौती मुक्तागंन देखने के लिए हम नये रायपुर आये थे।
पुरखौती मुक्तांगन नया रायपुर स्थित एक पर्यटन केंद्र है। इसका लोकार्पण
भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्ष 2006
में किया था। मुक्तांगन 200 एकड़ भूमि पर फैला एक तरह का
खुला संग्रहालय है, जहाँ पुरखों की समृद्ध संस्कृति को
संजोया गया है। यह परिसर बहुत ही सुंदर ढंग से हमें छतीसगढ़ की लोक-संस्कृति से
परिचित करता है। वनवासी जीवन शैली और ग्राम्य जीवन के दर्शन भी यहाँ होते हैं।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्यटन केंद्रों की जानकारी भी यहाँ मिल जाती है- जैसे
चित्रकोट का विशाल जलप्रपात जिसे भारत का ‘नियाग्रा फॉल’
भी कहा जाता है, दंतेवाडा के समीप घने जंगल में ढोलकल की पहाड़ी पर
विराजे भगवान श्रीगणेश, कबीरधाम जिले के चौरागाँव का प्रसिद्ध प्राचीन भोरमदेव
मंदिर इत्यादि। मुक्तांगन में छतीसगढ़ के पर्यटन स्थलों की यह प्रतिकृतियां दो
उद्देश्य पूर्ण करती हैं। एक, आप उक्त स्थानों पर जाये बिना
भी उनकी सुंदरता एवं महत्व को अनुभव कर सकते हैं। दो, यह
प्रतिकृतियां मुक्तांगन में आने वाले पर्यटकों को अपने मूल पर आने के लिए आमंत्रित
करती हैं।
जैसे ही हम पुरखौती मुक्तांगन पहुँचे, तो उसकी बाहरी
दीवार को देखकर ही मन प्रफुल्लित हो उठा। क्या सुंदर चित्रकारी बाहरी दीवार पर की
गई है, अद्भुत। दीवार पर छत्तीसगढ़ की परंपरागत चित्रकारी से
लोक-कथाओं को प्रदर्शित किया गया है। भीतर जाने से पहले सोचा कि बाहरी दीवार को ही
अच्छे से निहार लिया जाए और उस पर बनाए गए चित्रों से भी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की
कहानी को देख-सुन लिया जाए। मुक्तांगन में प्रवेश के लिए टिकट लगता है, जिसका जेब पर कोई बोझ नहीं आता। अत्यंत कम खर्च में हम अपनी विरासत का
साक्षात्कार कर पाते हैं। हम तीन लोग थे- शुभम गुप्ता, जो
रायपुर में एक कम्प्युटर शिक्षण संस्थान एवं स्कूल का संचालन करते हैं और
इंद्रभूषण मिश्र, जो पत्रकार हैं, फिलहाल
हरिभूमि समूह को सेवाएं दे रहे हैं। इंद्रभूषण बिहार प्रांत से हैं। जैसे ही हमने
भीतर प्रवेश किया, आदमकद प्रतिमाओं ने हमारा स्वागत किया। एक
लंबा रास्ता हमें ‘छत्तीसगढ़ चौक’ तक लेकर जाता है, जिसके
दोनों ओर लोक-जीवन को अभिव्यक्त करतीं आदमकद प्रतिमाएं खड़ी हैं। चौक से एक राह ‘आमचो
बस्तर’ की ओर जाती है, जहाँ बस्तर की लोक-संस्कृति को
प्रदर्शित किया गया है। दूसरी ओर छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण स्थानों एवं नृत्य की
झलकियाँ प्रदर्शित हैं, जिसमें पंथी नृत्य, गेड़ी नृत्य, सुवा नृत्य और राउत नाच इत्यादि को
आदमकद प्रतिमाओं के जरिये दिखाया गया है। थोड़ा डूब कर देखो तो लगने लगेगा कि यह
प्रतिमाएं स्थिर नहीं हैं, सचमुच नाच रही हैं। मूर्तियों के
चेहरों के भाव जीवंत दिखाई देते हैं। आनंद से सराबोर हाव-भाव देखकर अपना भी नाचने
का मन हो उठे। छत्तीसगढ़ के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान है, उनकी आदमकद प्रतिमाएं भी इस मुक्तांगन में हैं।
‘आमचो बस्तर’ नाम से विकसित प्रखंड में बस्तर की जीवन शैली और संस्कृति के
जीवंत दर्शन होते हैं। जीवंत इसलिए, क्योंकि इस प्रखंड के
निर्माण एवं इसको सुसज्जित करने में बस्तर अंचल के ही जनजातीय लोक कलाकारों एवं शिल्पकारों
का सहयोग लिया गया है। यही कारण है कि यहाँ बनाई गई गाँव की प्रतिकृतियां बनावटी
नहीं लगतीं। आमचो बस्तर का द्वार जगदलपुर के राजमहल का सिंग डेउढ़ी जैसा बनाया गया
है। समीप में ही विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का रथ भी रखा गया है। एक गोलाकार
मण्डप में चित्रों के माध्यम से बस्तर दशहरे के संपूर्ण विधान को भी प्रदर्शित
किया गया है। इस प्रखंड में धुरवा होलेक, मुरिया लोन,
कोया लोन, जतरा, अबूझमाडिय़ा
लोन, गुन्सी रावदेव, बूढ़ी माय,
मातागुड़ी, घोटुल, फूलरथ,
नारायण मंदिर, गणेश विग्रह, राव देव, डोलकल गणेश, पोलंग
मट्टा, उरूसकाल इत्यादि को प्रदर्शित किया गया है। होलेक और
लोन अर्थात् आवास गृह। एक स्थान पर लोहा गलाकर औजार बनाने की पारंपरिक विधि ‘घानासार’
को भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है। पुरखौती मुक्तांगन को अभी और विकसित किया जाना
है। पूर्ववर्ती सरकार की इच्छा इसे आदिवासी अनुसंधान केंद्र एवं संग्रहालय के रूप
में विकसित करने की थी।
पारंपरिक
छत्तीसगढ़ी खान-पान का ठिहाँ- गढ़ कलेवा :
पुरखौती मुक्तांगन की यादों को समेट कर हम वहाँ से निकले और
छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खान-पान का स्वाद लेने के लिए पहुँच गए ‘गढ़ कलेवा’। यह
स्थान महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, रायपुर के परिसर में है। रायपुर आने वाले
पर्यटकों और जो लोग अपने पारंपरिक खान-पान से दूर हो चुके हैं, उन्हें छत्तीसगढ़ी व्यंजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 26 जनवरी, 2016 को गढ़ कलेवा का शुभारंभ हुआ। गढ़
कलेवा का संचालन महिला स्व-सहायता समूह द्वारा किया जाता है। यहाँ भी छत्तीसगढ़ की
लोक-संस्कृति का अनुभव किया जा सकता है। बैठने के लिए बनाए गए कक्षों/स्थानों के
नाम इसी प्रकार के रखे गए हैं, यथा- पहुना, संगवारी, जंवारा इत्यादि। गढ़ कलेवा परिसर में
आंतरिक सज्जा ग्रामीण परिवेश की है। बरगद पर मचान बनाया गया है। बैठने के बनाए गए
कक्षों को रजवार समुदाय के शिल्पियों ने मिट्टी की जालियां और भित्ति चित्र से
सज्जित किया है। बस्तर के मुरिया वनवासियों ने लकड़ी की उत्कीर्ण बेंच, स्टूल, बांस के मूढ़े बनाये हैं। अपन राम ने यहाँ
चीला, फरा, बफौरी जैसे छत्तीसगढ़ी
व्यंजन का स्वाद लिया। इसके अलावा चौसेला, घुसका, हथफोड़वा, माड़ा पीठा, पान
रोटी, गुलगुला, बबरा, पिडिय़ा, डेहरौरी, पपची इत्यादि
भी उपलब्ध थे, लेकिन बफौरी थोड़ी भारी हो गई। पेट ने इस तरह
जवाब किया कि ‘चहा पानी ठिहाँ’ पर चाह कर भी करिया चाय, दूध
चाय, गुड़ चाय और काके पानी का स्वाद नहीं ले सका। अधिक खाने
के बाद उसे पचाने के लिए तेलीबांधा तालाब पर विकसित ‘मरीन ड्राइव’ टहलने का आनंद
भी उठाया जा सकता है। शाम के बाद यहाँ टहलने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं।
रायपुर की मरीन ड्राइव देर रात तक गुलजार रहती है।
कुल मिलाकर रायपुर के प्रवास को ‘पुरखौती मुक्तांगन’ और ‘गढ़ कलेवा’ ने
यादगार बना दिया। यदि आप कभी रायपुर जायें तो इन दोनों जगह जाना न भूलियेगा।
पुरखौती मुक्तांगन में आपको तीन-चार घंटे का समय लेकर जाना चाहिए। गर्मी के दिनों
में जाएं तो शाम के समय का चयन करें। सर्दी में किसी भी समय जा सकते हैं।