दि ल्ली विधानसभा के नतीजे किसी की हार से अधिक लोकतंत्र की जीत के प्रतीक हैं। उम्मीद से अधिक सीट पाने वाली आम आदमी पार्टी (आआपा) की जीत से कहीं अधिक यह जनतंत्र की जीत है। लोकतंत्र के भरोसे की जीत है। दिल्ली की जनता ने बता दिया कि लोकतंत्र में जनता ही सबकुछ है। जनता जनार्दन ने संदेश दिया है कि जो उसे अपना-सा लगने लगता है, वह उसे गले से लगा लेती है और जो उसे अपने से दूर जाता दिखता है, उसे सबक सिखा देती है। दिल्ली विधानसभा में प्रचण्ड बहुमत पाना आम आदमी पार्टी और उसके कार्यकताओं के लिए सुखद हैं। अब उन्हें किसी से समर्थन नहीं लेना होगा, कुर्सी भी छोड़कर नहीं भागना पड़ेगा और अरविन्द केजरीवाल को भी कोई कसम तोडऩे की जरूरत नहीं पड़ेगी। वहीं, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को गंभीर मंथन की आवश्यकता है। नरेन्द्र मोदी जैसे अनुभवी और लोकप्रिय खैवनहार होने के बावजूद भाजपा की नाव दिल्ली में क्यों डूब गई? भाजपा को ईमानदारी से विश्लेषण करना चाहिए। जबकि कांग्रेस को तो नए सिरे से काम करना होगा। जमीन काम। उन्हें तत्काल संगठन में आमूलचूल परिवर्तन कर नेहरू-गांधी परिवार के बाहर के सशक्त और स्वच्छ छवि के नेता को जिम्मेदारी देनी होगी। जनता के खोये भरोसे को पाना कांग्रेस के लिए पत्थर में से पानी निकालने के समान है, तो उतना परिश्रम लगेगा ही। कोई देर किए बिना जनता में इस कदर नाराजगी का कारण जानने के लिए कांग्रेस को शहर-शहर, गांव-गांव निकल लेना चाहिए।
ओपीनियन और एक्जिट पोल इस मायने में सच साबित हुए कि आआपा को बहुमत मिलेगा और अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन, किसी भी ओपीनियन और एक्जिट पोल ने इस तरह के रुझान नहीं दिए थे कि भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने का संकेत तो लगभग सभी ने दिया था। दिल्ली विधानसभा के चुनाव से तीनों प्रमुख पार्टियों को सबक लेने की आवश्यकता है। सबसे पहले भाजपा को हार के कारणों का गंभीर विश्लेषण करना होगा। पार्टी पर एकछत्र राज कर रहे नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अमित शाह को हार की जिम्मेदारी ईमानदारी के साथ स्वीकारनी होगी। मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू नहीं चलेगा। यदि हार का ठीकरा किसी और के सिर फोडऩे का प्रयास किया गया तो निश्चित ही जनता में अच्छा संदेश नहीं जाएगा। जीते तो मोदी और हारे तो बेदी, यह नहीं चल पाएगा। चुनाव के एनमौके पर किरण बेदी को लाने का फैसला भी तो मोदी और शाह का ही था। इसलिए भी हार को स्वीकार करने से बचना ठीक नहीं। किरण बेदी की छवि भले ही उज्ज्वल हो लेकिन उनके आने के बाद से लगातार पार्टी का ग्राफ नीचे जाता रहा। दरअसल, यूं अचानक बेदी के आने से वर्षों से पार्टी की सेवा कर रहे महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगा कि उनकी घोर उपेक्षा की गई है। भले ही दिल्ली में भाजपा खेमों में बंटी हो लेकिन नेतृत्व का मौका तो स्थानीय नेता को ही दिया जाना चाहिए था। हम देख चुके हैं कि डॉक्टर हर्षवर्धन के नेतृत्व में दिल्ली संगठन एक होकर चुनाव लड़ा था। नतीजे भी सराहनीय ही थे। इसलिए इस बार भी किसी स्थानीय और लम्बे समय से पार्टी का काम देख रहे नेता को ही कमान सौंपनी चाहिए थी। चुनाव पूर्व ही मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा करना भी भाजपा को महंगा साबित हुआ। राज्यों के पिछले किसी भी चुनाव में भाजपा ने पहले से मुख्यमंत्री की घोषणा नहीं की, चुनाव जीतने के बाद ईमानदार छवि के व्यक्ति को मुख्यमंत्री घोषित किया गया। इस हार से भाजपा के चाणक्य बताए जा रहे अमित शाह की रणनीति पर सवाल उठ रहे हैं। दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर चुनाव लड़ाने का अमित शाह का फैसला कहीं न कहीं भाजपा को भारी पड़ गया है। पार्टी नेतृत्व को स्वीकार करना चाहिए कि बीते 14 महीने से जिस रणनीति से भाजपा लगातार चुनाव जीत रही थी, दिल्ली में उसे ठीक से लागू नहीं किया जा सका।
भाजपा की करारी हार का एक कारण, भाजपा का कांग्रेसीकरण होते जाना भी है। जिन नेताओं के खिलाफ जनता ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट दिया, अब वे ही नेता भाजपा में शामिल होते जा रहे हैं। कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से आ रहे कचरे को भी भाजपा में जमा करने की रणनीति भी जनता को समझ नहीं आ रही है। धीरे-धीरे सारे कांग्रेसी भाजपा की सदस्यता ले लेंगे तो भाजपा बची रह जाएगी क्या? भारतीय जनता पार्टी के पास नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। पार्टी नेतृत्व को समझना होगा कि पिटे-पिटाये चेहरों को पार्टी में भर्ती करने से अधिक जरूरी है अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाना और नए चेहरों को जोडऩा। जिन्हें जनता नापसंद कर चुकी है, उन्हें भाजपा में भी कैसे वह स्वीकार कर लेगी। भाजपा के काडर को ही नहीं बल्कि आम जनता को भी डर सताने लगा है कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' के चक्कर में कहीं 'कांग्रेस युक्त भाजपा' न हो जाए। वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक ने लोकसभा चुनाव के वक्त मुझसे एक सवाल पूछा था कि भाजपा की सरकार बनती है तो सबसे अधिक दु:खी कौन होगा? सही जवाब सूझ नहीं रहा था। उन्होंने ही जवाब दिया- 'भाजपा का कार्यकर्ता सबसे दु:खी होगा।' वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा का कार्यकर्ता और विचारधारा के सिपहसलार खुश नहीं है, यह कड़वा सच है। भाजपा संगठन आधारित पार्टी है। एकला चालो की नीति यहां अधिक दिन तक चल नहीं सकती। राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि मोदी और शाह की जोड़ी जिस तरह एकला चालो का राग अलाप रही है, वह भाजपा के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। सबको साथ लेकर ही आगे बढऩा होगा।
भाजपा की हार का एक और महत्वपूर्ण कारण है, मोदी नाम के भरोसे पार्टी का सुस्त हो जाना। दिल्ली में जिस तरह की मेहनत आम आदमी पार्टी ने की है, वैसा परिश्रम दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों ने नहीं किया है। 14 फरवरी, 2014 को अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ी, तब से ही उनकी पार्टी दिल्ली में सक्रिय हो गई थी। आम जनता के बीच जाकर उसका भरोसा जीता। कुर्सी छोडऩे का अपना कारण अरविन्द केजरीवाल जनता को संभवत: अच्छे से समझा सके। यही कारण रहा कि इस बार जनता ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया है। जबकि इसी कालखण्ड में भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में सुस्त पड़ी रही। कोई व्यापक जनसंपर्क नहीं। उन्हें मोदी की पूंछ पकड़कर भवसागर के पार जाने की उम्मीद थी। इसी एक नाम के भरोसे वे ख्याली पुलाव पकाने में व्यस्त रहे। मोदी का नाम अहम है लेकिन अकेले मोदी के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता, इतनी पुरानी और बड़ी पार्टी होकर गंभीर चूक कैसे हो गई भाजपा से?
आआपा की जीत को कुछ चुनाव विश्लेषक नरेन्द्र मोदी के जादू और उनके अब तक के कामकाज से जोड़कर जरूर देखेंगे। दिल्ली के नतीजे को वे मोदी के जादू के बेअसर होने और सरकार चलाने में असफल होने का प्रमाण बताने का प्रयास भी करेंगे। लेकिन, दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम को इस नजरिए से देखना अभी उचित नहीं होगा। लेख की शुरुआत में ही मैंने कह दिया है कि ये लोकतंत्र की जीत है, किसी की हार नहीं। हां यह जरूर है कि एक-दो प्रकरणों से नरेन्द्र मोदी के प्रति लोगों की संवेदनाएं कम हुई हैं, उनके प्रति आकर्षण भी कम हुआ है और कहीं न कहीं थोड़ा-बहुत भरोसा भी मोदी ने खो दिया है। 'दस लाख के सूट प्रकरण' ने मोदी की एक दूसरी ही छवि बना दी। जिस 'चायवाले' की छवि पर लोगों ने प्यार उड़ेला था, वह कहीं गुम-सी दिख रही है। बहरहाल, मोदी के काम का नतीजा दिल्ली का जनादेश नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने निश्चित ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति को मजबूत किया है। राष्ट्र का स्वास्थ्य सुधारने के लिए भी ठोस प्रयास किए हैं, जिनके नतीजे कुछ समय बाद जनता को दिखाई देंगे। 60 साल के गड्डे आठ महीने में भरने की उम्मीद जनता भी नहीं कर रही है। उसे मालूम है मोदी कोई जादूगर नहीं हैं कि मंच पर आते ही लोगों को अचम्भित कर देंगे। दिल्ली विधानसभा के नतीजों को हम अरविन्द केजरीवाल में दिख रहे आम आदमी की जीत कह सकते हैं, एक ईमानदार और जनता के लिए सड़क पर संघर्ष करने वाले नेता की जीत कह सकते हैं और लोकतंत्र में भरोसे की जीत कह सकते हैं। अब अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी की कड़ी परीक्षा होनी है। जनता से किए वादे पूरे करने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी। 49 दिन की सरकार चलाने के दौरान निश्चित ही उन्हें अनुभव तो बहुत-से हो ही गए होंगे। अब राजनीति में नये होने का बहाना बनाकर वे भी बच नहीं सकते हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम भविष्य की राजनीति के लिए बड़ा संकेत है। तीनों पार्टियों को इसका अध्ययन कर आगे का रोडमैप तैयार करना चाहिए। इसी साल अक्टूबर में बिहार में चुनाव होने हैं। इसके बाद 2016 में पश्चिम बंगाल में और उसके बाद 2017 में उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है। आम आदमी पार्टी को जहां दिल्ली के नतीजों से ताकत मिली है। दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में भी निश्चित ही उसका जनाधार बढ़ेगा। बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश के चुनाव में आआपा अधिक आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरेगी। दूसरी पार्टियां अब आआपा की अनदेखी करने का प्रयास नहीं करेंगी। भाजपा के चुनावी रथ को दिल्ली में झटका लगा है। अपना विजयी रथ पहले की तरह दौड़ाने के लिए उसे नए सिरे से अपनी रणनीति पर विचार करना होगा। बहरहाल, 16 मई, 2014 से लगातार आ रहे चौकाने वाले चुनावी परिणामों की कड़ी में दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी जुड़ जाते हैं। दिल्ली के जनादेश को लोकतंत्र के हवन में जनता की सार्थक आहूति मानिये।