संघ की विकास यात्रा : दूसरे चरण में श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संपूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार हो गया, इसके लिए उन्होंने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विकास यात्रा का दूसरा चरण प्रारंभ होता है, जिसमें संघ कार्य का विस्तार संपूर्ण भारत में होता है। पहले चरण में संघ ने राष्ट्रीय कार्य की मजबूत नींव तैयार की, ताकि उस पर बनने वाला राष्ट्रीयता का दिव्य मंदिर किसी प्रकार के आघात को झेल सके। जड़ें गहरी हों तो वृक्ष का खूब विस्तार होता है। संघ विचारक श्रद्धेय रंगा हरि जी लिखते हैं कि “अगर पहले चरण में संघ एक ‘संस्था’ के तौर पर आकार ले रहा था तो दूसरे चरण में वह एक ‘अभियान’ के तौर पर उभर रहा था। अगर पहले चरण में उसने संस्था की सेवा, पोषण और उसे शक्तिसम्पन्न किया तो दूसरे चरण में उसने हमारे बहुरंगी समाज की जरूरत और माँग को पूरा करने के लिए कठोर श्रम किया”। संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्रीगुरुजी’ को मिला। जब श्रीगुरुजी को सरसंघचालक का दायित्व मिला, उस समय उनकी उम्र केवल 34 वर्ष थी। श्रीगुरुजी ने अंतिम श्वांस तक कुल 33 वर्ष तक सरसंघचालक के रूप में संघ रूप राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया। जून, 1940 से श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संघ की वैचारिक यात्रा के साथ-साथ संगठनात्मक विस्तार भी प्रारंभ हुआ। संघ कार्य को देश के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए श्रीगुरुजी ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) की नयी पद्धति को विकसित किया। वर्ष 1941-42 में उन्होंने कार्यकर्ताओं से प्रचारक के रूप में अपना जीवन संघ को देने का आग्रह किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में प्रचारक आगे आए। ये प्रचारक देश के विभिन्न हिस्सों में गए और संघ कार्य को प्रारंभ किया। संपूर्ण देश में संघ के कार्य का विस्तार हो, इसके लिए स्वयं श्रीगुरुजी ने भी देशभर में प्रवास किया। कहते हैं कि उन्होंने अपने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की। अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर भी उन्होंने अपने प्रवास जारी रखे। उन्हें एक ही धुन थी कि संघ कार्य अपने विराट स्वरूप को प्राप्त हो। उनके बराबर देश का भ्रमण शायद ही किसी और नेता ने किया हो। उनके लिए गीत लिखा गया- “गाड़ी मेरा घर है कहकर, जिसने की दिन-रात तपस्या”।
श्रीगुरुजी के कालखंड (1940 से 1973) के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तेजी से विकास हुआ। हालांकि, परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। यह कालखंड संघ के लिए ही उतार-चढ़ाव से भरा हुआ नहीं था, अपितु देश के सामने भी अनेक प्रकार की चुनौतियां इसी दौरान आईं। स्वतंत्रता के साथ भारत के हिस्से में विभाजन की त्रासदी आई। जम्मू-कश्मीर में कबाईलियों के भेष में पाकिस्तानी सेना का आक्रमण, 1962 में चीन के साथ युद्ध, 1965 एवं 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच का युद्ध। प्रत्येक मोर्चे पर बड़ी कुशलता से अपनी भूमिका का निर्वहन कर, समाज का विश्वास जीतते हुए संघ आगे बढ़ता गया। देश के विभाजन की घोषणा के बाद पाकिस्तान में इस्लामिक आतंक का शिकार हो रहे हिन्दुओं को सुरक्षित निकालकर भारत लेकर आने का बड़े दायित्व का निर्वहन भी श्रीगुरुजी की प्रेरणा से संघ के स्वयंसेवकों ने किया। भारत विभाजन की त्रासदी में अपना सबकुछ खोकर भारत आए हिन्दू परिवार आज भी संघ के कार्यकर्ताओं के साहस और उनके सहयोग को भूलते नहीं हैं। इसी दौर में, राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पुरुष महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ को कुचलने का निंदनीय प्रयास भी किया गया, जिसका उत्तर श्रीगुरुजी के नेतृत्व में हजारों स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह करके दिया। एक ओर जहाँ गांधीजी के नाम पर कांग्रेस के कार्यकर्ता महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मणों की हत्याएं कर रहे थे, उनके घरों-व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को नष्ट कर रहे थे, उसी समय संघ के कार्यकर्ता अहिंसा और सत्याग्रह का पालन कर रहे थे। संघ से असंवैधानिक प्रतिबंध हटाने के लिए देशभर में आयोजित सत्याग्रहों में शामिल हो रहे स्वयंसेवकों की संख्या ने बता दिया था कि संघ किसी की मुट्ठी में नहीं आएगा। अंतत: तत्कालीन सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा। प्रतिबंध और झूठे आरोपों की आग से बाहर निकलकर संघ कुंदन की भाँति और अधिक चमक उठा। देश का प्रबुद्ध वर्ग उसके साथ आकर खड़ा हो गया।
श्रीगुरुजी, देश के कोने-कोने में गए पूर्णकालिक प्रचारकों एवं समर्पित गृहस्थ कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम से देशभर में संघ की शाखाएं प्रारंभ होने से संघकार्य राष्ट्रव्यापी हो गया। अब संघ के स्वयंसेवक समाज परिवर्तन में अपनी भूमिका निभाएं और संघकार्य को सर्वव्यापी एवं सर्वस्पर्शी बनाएं, इस संबंध में श्रीगुरुजी ने स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करना प्रारंभ कर दिया। श्रीगुरुजी की प्रेरणा से संघकार्य को सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी बनाने के लिए स्वयंसेवकों ने समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में समविचार संगठन प्रारंभ किए। सबसे पहले 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की गई। 1951 में जनसंघ, 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम एवं विद्या भारती, 1955 में भारतीय मजदूर संघ और 1964 में विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन प्रारंभ हुए। शिक्षा, कृषि, कला, राजनीति, विज्ञान सहित विविध क्षेत्रों भारत के ‘स्व’ के आधार पर कार्य खड़ा हो, इसके लिए आज उपरोक्त संगठनों के साथ ही भारतीय किसान संघ, सेवा भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, स्वदेशी जागरण मंच, प्रज्ञा प्रवाह जैसे 32 से अधिक संगठन समाज जीवन में सक्रिय हैं। ये सभी संगठन अपने-अपने क्षेत्र में बहुत प्रभावी हैं और संघ के आदर्श को आगे बढ़ा रहे हैं। संघ शाखा से संस्कारित होकर विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय कार्य की मशाल लेकर पहुँचे कार्यकर्ताओं पर श्रीगुरुजी को अखंड विश्वास था। वर्ष 1954 के सिंदी पुनर्विन्यास के दौरान सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने कहा था- “विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हमारे कार्यकर्ता, हमारे राजदूत या फील्ड-मार्शलों की तरह हैं। अपने चातुर्य, बुद्धिमत्ता तथा अपने परिश्रम एवं बलिदान से उन्हें उन क्षेत्रों में वांछित परिवर्तन लाना ही होगा और सुनिश्चित करना होगा कि संघ के आदर्श मूर्तरूप लें”। आज श्रीगुरुजी के इस विश्वास को हम साकार रूप में देख रहे हैं।
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