समाज क्या होता है? क्यों समाज में उठना-बैठना चाहिए? क्यों एकांकी जीवन सदा आनंददायक नहीं होता? दो-तीन दिन में सही अर्थ समझा इन बातों का। हमारे बुजुर्ग जो भी कह गए हैं सौ फीसदी सही कह गए हैं। उन्होंने यूं ही धूप में बाल सफेद नहीं किए थे मान गए गुरू। अब सुनो, हमें यह बात दो-तीन दिन में क्योंकर समझ में आई? असल में ठीक आज से दो-ढाई साल पहले अपन सामाजिक आदमी थे। २४ में से १४ घंटे समाज के बीच में बीतते थे। खासकर वंचित समाज के बीच। बड़ा प्यार मिलता था। चाहे छोटा बच्चा हो या फिर ७० साल का आदरणीय वृद्ध। सभी प्रेम और अधिकार पूर्वक भैया संबोधन के साथ पुकारते थे। जब भी बस्ती में कदम रखता पहले पहल "राम-राम भैया जी" से स्वागत होता था। फिर छोटे-छोटे दोस्त अपने-अपने घर जबरन खींचकर ले जाते। वहां मां-बहनें वात्सल्य रस से सरोबोर कोई चाय तो कोई आलू के परांठे खिलाते। सबको पसंद था कि मुझे आलू के परांठे पसंद हैं, इसी वजह से कई शाम मेरी बस्ती के मेरे अपने घरों में बुक रहती थी। कभी मुझे कोई परेशानी हो या उन्हें कोई परेशानी हो तो बेवक्त और वक्त पर हम एक-दूसरे के साथ खड़े रहते थे। आज सब यह बड़ा याद आ रहा है। कारण है इसका। दो-तीन दिन से अकेला हूं। अपने मुश्किल समय में। एक-दो लोगों को छोड़ दूं तो कोई साथ नहीं खड़ा। सब अपने-अपने काम में मस्त हैं। ऐसे नहीं है कि उन्हें मेरी समस्या का पता न हो। दुख तो इस बात का है कि मदद मांगने पर भी नकार सुनने को मिल रही है। कोई कहीं बिजी है तो कोई कहीं। खैर सबको बिजी रहने का मौलिक अधिकार है। आखिर कल ही तो गणतंत्र दिवस था सबको खूब याद आए होंगे अपने मौलिक अधिकर पर मौलिक कर्तव्य तो किसी ने भूलकर भी याद नहीं किए होंगे कसम राम की।
मुझे किसी बात की इतनी परवाह नहीं है। परवाह है तो इस बात की कि मैं अपने उन निस्वार्थ लोगों से कितना दूर हो गया। यह आजकल की पढ़ाई और नौकरी का कमाल है। नहीं-नहीं यह तो सिर्फ और सिर्फ मेरा दोष है। मुझ पर वक्त था उनके साथ बिताने का, लेकिन मेरी मती फिर गई थी जो गलत जगह अनमोल समय जाया कर दिया। हे भगवान मुझे फिर से उनके बीच जाने का अवसर दे। तू अवसर दे या नहीं दे मैं तो ढूंढ लूंगा। उनके दिलों में मेरे लिए जो प्रेम है वो मर थोड़े गया होगा। अभी भी थोड़ा तो जीवित होगा। उसे फिर से प्रगाढ़ कर लुंगा मेरे राम मेरा तुझसे वादा रहा। अब मैं अकेले नहीं लडूगां फिर से मेरे अपने मेरे साथ होंगे, ठीक पहले की तरह। फिर से मैं बेफिक्र रहकर किसी भी मुश्वित को न्यौता दे सकूंगा या फिर छिपकर और अचानक आई समस्या से लड़ सकूंगा। सबके साथ। अब बस इस बार अकेला लड़ लूं, फिर जीतकर मुझे थोड़ी फुरसत मिलेगी। वही मेरे लिए मौका होगा अपनों के पास जाने का। अच्छा दोस्तो अभी मुझे अकेला लडऩा है तो मैं चलता हूं फिर जल्दी ही मिलूंगा......
बुधवार, 27 जनवरी 2010
सोमवार, 18 जनवरी 2010
आखिर कब तलक कहेंगे शहीदों को आतंकवादी....
आज फिर से वो दिन याद आ गया। वही दिन जब मैंने पहली दफा दिल्ली में कदम रखा था। तब मैं सूर्या फाउंडेशन के सौजन्य से दिल्ली दर्शन कर रहा था। दिल्ली दर्शन के दौरान हम पहुंचे त्रिमूर्ती म्यूजियम में। जहां जवाहरलाल नेहरू जी से संबंधित सामग्रियों का संग्रह किया गया था। हम करीब पचासएक लोग होंगे। हमने देखा कि म्यूजियम अलग-अलग सेक्शन में बंटा हुआ है। किसी सेक्शन में उनके द्वारा उपयोग में लाईं गईं कटोरी, चम्मच, कप और प्लेट सजाकर रखे हुए थे, मस्त! ठंडी हवा में। नेहरू जी ने चीन में कहीं खाना खाया हो या फिर रूस और इंग्लैंड में, वहां से वे या उनके शागिर्द चम्मच कटोरी लाना नहीं भूले। ये चम्मच कटोरी बड़े शान से मुंह खोले भरी गर्मी में पंखे की ठंडी हवा में पडे थे। ऐसे ही अगल-अलग सेक्शन में अलग-अलग चीजें रखी हुईं हैं किसी में कपड़े-लत्ते और किसी में चिट्ठी-पत्री. सब बढिय़ा चमचमाते साफ-सुथरे कमरों में थे।
अब हम आगे बड़े तो एक कोने में किचिननुमा छोटा सा कमरा दिखा। कमरे में पर्याप्त रोशनी नहीं थी। एक देशी लट्टू अंधकार से लड़ता दिख रहा था। मैंने देखा यहां पंखा नहीं है, दीवारें भी खुर्द-बुर्द हैं। आपको पता है इस कमरे में क्या था? इतना तो आप भी मन ही मन विचार कर चुके होंगे की इसमें नेहरू जी की कोई प्रिय वस्तु नहीं रखी होगी। अगर आप यह सोच रहे हैं तो आप सही हैं। हां इस कमरे में उनकी प्रिय वस्तु तो नहीं थी लेकिन, हमारे सबसे प्रिय और अनुकरणीय क्रांतिकारियों के फोटो थे वहां की टूटी-फूटी दीवारों पर। उनको शहादत के बाद भी यह स्थान नसीब हुआ क्यों? इतना ही नहीं उसमें नेहरूजी का एक पत्र भी लगा था जिसमें उन्होंने कांतिकारियों को आतंकवादी संबोधित किया है। हमारे क्रांतिकारियों के साथ ऐसा क्यों होता रहता है अपनी समझ से परे हैं?
पिछले दो-चार वर्षों से लगातार पढ़ता आ रहा हूं कि क्रांतिकारियों को इस किताब में आतंकवादी लिख दिया उस किताब में उग्रवादी लिख दिया। जब भी यह सब पढ़ा खून में उबाल आया। आज फिर उबाल आया और एक सकूंन भी हुआ कि उसके खिलाफ एक आम शिक्षक आवाज उठा रहा है। १६ जनवरी २०१० को दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी के शीर्षस्थ दैनिक समाचार पत्र जनसत्ता के पृष्ठ क्रमांक ४ पर खबर पढ़ी दसवीं की किताब में शहीदों को लिखा गया आतंकवादी. आईसीएसई बोर्ड नई दिल्ली के अनुमोदित कक्षा १० की इतिहास की पुस्तक में चापेकर बंधुओं, वीर सावरकर, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, असफाक उल्ला खां और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों को आतंकवादी के रूप में पढ़ाया जा रहा है। फतेहपुर जिले के शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद राहत अली ने पुस्तक की इस गलती को पकड़ा. मोहम्म अली ने दसवीं की हिस्ट्री एंड सिविक्स पार्ट-२ से इन शब्दों को हटाने की मुहिम छेड़ दी हैं। उन्होंने पुस्तक से टेररिस्ट शब्द हटाने की मांग की है। पुस्तक के पेज नंबर १२० के पहले पैरे में क्रांतिकारियों को आतंकवादी लिखा गया है।
ऐसा क्यों होता है और कब तक होता रहेगा एक बड़ा सवाल है जो हमारे सामने फन उठाए खड़ा है..... यह दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है या फिर प्रशासन का.
अब हम आगे बड़े तो एक कोने में किचिननुमा छोटा सा कमरा दिखा। कमरे में पर्याप्त रोशनी नहीं थी। एक देशी लट्टू अंधकार से लड़ता दिख रहा था। मैंने देखा यहां पंखा नहीं है, दीवारें भी खुर्द-बुर्द हैं। आपको पता है इस कमरे में क्या था? इतना तो आप भी मन ही मन विचार कर चुके होंगे की इसमें नेहरू जी की कोई प्रिय वस्तु नहीं रखी होगी। अगर आप यह सोच रहे हैं तो आप सही हैं। हां इस कमरे में उनकी प्रिय वस्तु तो नहीं थी लेकिन, हमारे सबसे प्रिय और अनुकरणीय क्रांतिकारियों के फोटो थे वहां की टूटी-फूटी दीवारों पर। उनको शहादत के बाद भी यह स्थान नसीब हुआ क्यों? इतना ही नहीं उसमें नेहरूजी का एक पत्र भी लगा था जिसमें उन्होंने कांतिकारियों को आतंकवादी संबोधित किया है। हमारे क्रांतिकारियों के साथ ऐसा क्यों होता रहता है अपनी समझ से परे हैं?
पिछले दो-चार वर्षों से लगातार पढ़ता आ रहा हूं कि क्रांतिकारियों को इस किताब में आतंकवादी लिख दिया उस किताब में उग्रवादी लिख दिया। जब भी यह सब पढ़ा खून में उबाल आया। आज फिर उबाल आया और एक सकूंन भी हुआ कि उसके खिलाफ एक आम शिक्षक आवाज उठा रहा है। १६ जनवरी २०१० को दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी के शीर्षस्थ दैनिक समाचार पत्र जनसत्ता के पृष्ठ क्रमांक ४ पर खबर पढ़ी दसवीं की किताब में शहीदों को लिखा गया आतंकवादी. आईसीएसई बोर्ड नई दिल्ली के अनुमोदित कक्षा १० की इतिहास की पुस्तक में चापेकर बंधुओं, वीर सावरकर, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, असफाक उल्ला खां और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों को आतंकवादी के रूप में पढ़ाया जा रहा है। फतेहपुर जिले के शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद राहत अली ने पुस्तक की इस गलती को पकड़ा. मोहम्म अली ने दसवीं की हिस्ट्री एंड सिविक्स पार्ट-२ से इन शब्दों को हटाने की मुहिम छेड़ दी हैं। उन्होंने पुस्तक से टेररिस्ट शब्द हटाने की मांग की है। पुस्तक के पेज नंबर १२० के पहले पैरे में क्रांतिकारियों को आतंकवादी लिखा गया है।
ऐसा क्यों होता है और कब तक होता रहेगा एक बड़ा सवाल है जो हमारे सामने फन उठाए खड़ा है..... यह दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है या फिर प्रशासन का.
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
बहुत कुछ पाया २६ वें साल में...
मकर संक्राति पर्व के दिन २६ बसंत पार कर चुका हूं। साथी पार्टी लेने की जिद पर अड़ गए। लेकिन, मुझे इस दफा पार्टी देने का कोई कारण नजर नहीं आया। अच्छा मेरा ऐसा कोई ऐसा दोस्त सामने नहीं आया जिसे असल में मेरे जन्म दिन की खुशी हो। अगर ऐसा होता तो पार्टी मांगने की जिद करने की अपेक्षा पार्टी दे भी तो सकता था। हां दो लोगों ने कहा था जिनमें से एक की तो बहुत तबियत खराब हो गई और दूसरे को मैंने मना कर दिया। मैं भी इस बार ढ़ीठ बना रहा पार्टी नहीं देना दी तो नहीं दी। क्योंकि इस दफा मैं अपने जन्म दिन को मस्ती दिवस में नहीं गवाना नहीं चाहता था, इसे मैं चिंतन दिवस के रूप में लेना चाहता था। और मैंने किया भी वही। सोचा और पीछे मुड़कर देखा तो मैंने पाया कि यह वर्ष मेरे लिए लाया तो बहुत कुछ था। बहुत बातें समझ में आईं। असल में कहूं तो जिंदगी के इस एक साल ने बहुत कुछ सीखने का अवसर दिया। जो मैं आज तक नजरअंदाज करता रहता था, उस पर इस वर्ष मेरी नजर रही। रोज मेरे माथे पर अलग-अलग भाव रहते थे जिसे कोई भी वह बंदा देख सकता था जो मेरे जैसा हो। साथ ही असफलताओं ने नए पाठ पढ़ाए। किसी ने उम्मीदें तोड़ी तो किसी ने उम्मीदें जगाईं और किसी ने उम्मीद से बढ़कर मेरे लिए किया। हालांकि मैं किसी से कोई उम्मीद नहीं रखता। जो मुझे ठीक लगता है करता हूं और जो ठीक नहीं लगता नहीं करता। इसलिए किसी से उम्मीद रखने का कोई प्रश्र ही नहीं उठता। मैं जो करता हूं अपने मन को प्रसन्न रखने के लिए करता हूं। उसी में मेरा हित, समाज का हित और मेरे अपने और गैरों का हित छुपा हुआ हो सकता है।
इस साल मैंने जिंदगी के नए सफर के लिए कदम बढ़ाए। जीवन की नैया चलती रहे सो नौकरी पाने के लिए खूब भाग-दौड़ की। जबलपुर तक राउंड मारा। वहां आश्वासन भी मिला और नौकरी का ऑफर भी लेकिन अपुन को जमा नहीं या कह सकते हैं कि उससे पहले मुझे कहीं और अवसर मिल गया। असल में सितंबर नवदुर्गा महोत्सव के दौरान मेरी किस्मत और आदरणीय मानव जी (दैनिक भास्कर के समाचार संपादक डॉ. संतोष मानव) ने मुझे ग्वालियर दैनिक भास्कर में काम करने का अवसर उपलब्ध कराया। इसके लिए मैं सदैव उनका आभारी रहूंगा। मेरी किस्मत थोड़ी अच्छी है तभी मुझे बेहतरीन साथीयों का सहयोग मिला। भास्कर की सेटेलाइट टीम में मेरी नियुक्ति हो गई। सेटेलाइट टीम के कप्तान आदरणीय श्री रमेश राजपूत का मार्गदर्शन मुझे हर रोज नई दिशा देता रहा और रहेगा भी क्योंकि वे बेहतरीन कप्तान हैं। साथियों का हौंसला कैसे बुलंद रहे अच्छी तरह से जानते हैं। मेरे साथियों ने कभी भी मुझे किसी प्रकार की परेशानी नहीं आने दी। श्री संजय सिंह जी, श्री अवधेश जी श्रीवास्तव, श्री अनिल जी श्रीवास्तव, श्री मनीष जी पिसाल और श्री सुरेंद्र मिश्रा जी सबने समय-समय पर साथ दिया, हौंसला बढ़ाया और आगे बढऩे की राह दिखाई। बहुत कुछ सीखा मैंने अपने इन नए साथियों से और सीख रहा हूं। मैं भाग्यशाली ही हूं कि मुझे अपने करियर के शुरूआत में ही इतने अच्छे लोगों का साथ मिला। यही सबसे बढ़ी उपलब्धि मिली इस वर्ष।
और तो बस सीखा चलते हुए, ठोकर खाते हुए। अभी बहुत लम्बा रास्ता है। उसमें काम आएगा इस वर्ष का सीखा हुआ।
इस साल मैंने जिंदगी के नए सफर के लिए कदम बढ़ाए। जीवन की नैया चलती रहे सो नौकरी पाने के लिए खूब भाग-दौड़ की। जबलपुर तक राउंड मारा। वहां आश्वासन भी मिला और नौकरी का ऑफर भी लेकिन अपुन को जमा नहीं या कह सकते हैं कि उससे पहले मुझे कहीं और अवसर मिल गया। असल में सितंबर नवदुर्गा महोत्सव के दौरान मेरी किस्मत और आदरणीय मानव जी (दैनिक भास्कर के समाचार संपादक डॉ. संतोष मानव) ने मुझे ग्वालियर दैनिक भास्कर में काम करने का अवसर उपलब्ध कराया। इसके लिए मैं सदैव उनका आभारी रहूंगा। मेरी किस्मत थोड़ी अच्छी है तभी मुझे बेहतरीन साथीयों का सहयोग मिला। भास्कर की सेटेलाइट टीम में मेरी नियुक्ति हो गई। सेटेलाइट टीम के कप्तान आदरणीय श्री रमेश राजपूत का मार्गदर्शन मुझे हर रोज नई दिशा देता रहा और रहेगा भी क्योंकि वे बेहतरीन कप्तान हैं। साथियों का हौंसला कैसे बुलंद रहे अच्छी तरह से जानते हैं। मेरे साथियों ने कभी भी मुझे किसी प्रकार की परेशानी नहीं आने दी। श्री संजय सिंह जी, श्री अवधेश जी श्रीवास्तव, श्री अनिल जी श्रीवास्तव, श्री मनीष जी पिसाल और श्री सुरेंद्र मिश्रा जी सबने समय-समय पर साथ दिया, हौंसला बढ़ाया और आगे बढऩे की राह दिखाई। बहुत कुछ सीखा मैंने अपने इन नए साथियों से और सीख रहा हूं। मैं भाग्यशाली ही हूं कि मुझे अपने करियर के शुरूआत में ही इतने अच्छे लोगों का साथ मिला। यही सबसे बढ़ी उपलब्धि मिली इस वर्ष।
और तो बस सीखा चलते हुए, ठोकर खाते हुए। अभी बहुत लम्बा रास्ता है। उसमें काम आएगा इस वर्ष का सीखा हुआ।
मंगलवार, 12 जनवरी 2010
किधर जा रहा है युवा.....
युवा दिवस पर विशेष
- विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती , अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई. को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।
इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि -
ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।
कल रात से सोच रहा था क्या लिखूं युवा दिवस पर युवाओं के पक्ष में या विपक्ष में? वैसे जो भी लिखने जा रहा हूं वो पक्ष में ही है।
सब ओर से आवाज आ रही है इस देश की बागडोर युवाओं को सौंप दो। इस क्षेत्र में युवाओं ने झंडा बुलंद किया। इस फील्ड में भी युवाओं ने अपने आप को साबित कर दिया है। यह सब सच है। और होगा भी क्यों नहीं, युवाओं में दम है, जोश है, उत्साह है, उमंग है और उनकी शिराओं में गर्म रक्त भी बह रहा है। लेकिन, क्या हम अपने आस-पास कभी गौर से देखते हैं। देखो क्या वाकई युवाओं के दम पर इस देश और समाज में उच्च बदलाव लाए जा सकते हैं। मैं खुद एक युवा हूं। लेकिन फिर भी मैं हमेशा से युवाओं की इस वकालत पर उंगली उठाता रहा हूं। असल में जिन युवाओं पर गर्व कर रहे हैं वो चंद उंगलियों पर गिनने लायक हैं। देश का अधिकांश युवा तो अंधे गर्त की ओर जा रहा है। महानगरों की तो बात ही क्या करना। मैं जिस शहर में रहता हूं वह महानगर और नगर के बीच की कड़ी है। यहां के युवाओं की वस्तुस्थिति देखकर ही मैं सोच में रहता हूं। स्वामी विवेकानंद को पूरे भारत भ्रमण और विश्व भ्रमण के बाद वो १०० युवा नहीं मिल पाए जिनके दम पर पूज्य श्री स्वामी जी भारत का विश्वशक्ति बनाने की बात करते थे। कारण एक ही है जो युवा प्रतिभा हैं भी वो सीमित दायरे तक सोचती हैं। खुद के बारे में और बहुत अधिक तो अपने माता-पिता के बारे में इससे ऊपर उनकी सोच ही नहीं उठ रही है। मेरे ग्वालियर शहर के युवा ही विभिन्न व्यसनों में आकंठ डूब चुके हैं। शराब, चरस, गांजा, अफीम आदि नशीले पदार्थों की गिरफ्त में वह आ चुका है। इसी सब की पूर्ति के लिए वह अपराध की ओर अग्रसर हो रहा है। चैन झपटने की सबसे अधिक वारदात युवा ही अंजाम दे रहे हैं। कारण एक ही है अपने मंहगे और व्यर्थ के शौक पूरे करने के लिए। मैली-संस्कृति को वह अपनी आदर्श जीवन शैली समझने लगा है। वह दिन-ब-दिन इसमें गहरा और गहरा घुसता जा रहा है। इन सबके पीछे बहुत से कारण हैं। एकल परिवार उनमें सबसे बड़ा कारण है उससे ही जुड़े अन्य कारण हैं। माता-पिता को यह नहीं पता होता कि उनके बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं, देर रात तक क्या और किस से बात कर रहे हैं, किस तरह की किताबें पढ़ रहे हैं? यह बात भी सही है कि क्या मां-पिता अपने बच्चों के पीछे जासूस की तरह घूमें। बच्चों को खुद सोचना चाहिए कि उनके माता-पिता ने कितनी मेहनत से रुपया पैसा कमाकर उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराईं हैं। पढऩे और आगे बढऩे के लिए अवसर उपलब्ध कराया है। लेकिन, दुर्भाग्य वह इस चमक-दमक के युग में यह सब नहीं सोचता। अपनी आजादी और उपलब्ध संसाधनों का भयंकर दुरुपयोग करता है। अपनी मटर गस्ती में मूल्यवान समय और अपने परिजनों के विश्वास पर कालिख पोतता रहता है।
विश्व की सबसे बड़ी शक्ति इस समय युवा ही है और सौभाग्य से वह हमारे देश के पास है। लेकिन, बुरी हालत में। उसे जागना होगा। स्वामी विवेकानंद के उस वाक्य को याद करके बुराईयों को दूर करके खड़े होकर हुकांर भरनी होगी। याद करो - उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक मंजिल को न प्राप्त कर लो!
- विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती , अर्थात १२ जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई. को अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि सन १९८५ से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में देशभर में सर्वत्र मनाया जाए।
इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि -
ऐसा अनुभव हुआ कि स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी के जीवन तथा कार्य के पश्चात निहित उनका आदर्श—यही भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है।
कल रात से सोच रहा था क्या लिखूं युवा दिवस पर युवाओं के पक्ष में या विपक्ष में? वैसे जो भी लिखने जा रहा हूं वो पक्ष में ही है।
सब ओर से आवाज आ रही है इस देश की बागडोर युवाओं को सौंप दो। इस क्षेत्र में युवाओं ने झंडा बुलंद किया। इस फील्ड में भी युवाओं ने अपने आप को साबित कर दिया है। यह सब सच है। और होगा भी क्यों नहीं, युवाओं में दम है, जोश है, उत्साह है, उमंग है और उनकी शिराओं में गर्म रक्त भी बह रहा है। लेकिन, क्या हम अपने आस-पास कभी गौर से देखते हैं। देखो क्या वाकई युवाओं के दम पर इस देश और समाज में उच्च बदलाव लाए जा सकते हैं। मैं खुद एक युवा हूं। लेकिन फिर भी मैं हमेशा से युवाओं की इस वकालत पर उंगली उठाता रहा हूं। असल में जिन युवाओं पर गर्व कर रहे हैं वो चंद उंगलियों पर गिनने लायक हैं। देश का अधिकांश युवा तो अंधे गर्त की ओर जा रहा है। महानगरों की तो बात ही क्या करना। मैं जिस शहर में रहता हूं वह महानगर और नगर के बीच की कड़ी है। यहां के युवाओं की वस्तुस्थिति देखकर ही मैं सोच में रहता हूं। स्वामी विवेकानंद को पूरे भारत भ्रमण और विश्व भ्रमण के बाद वो १०० युवा नहीं मिल पाए जिनके दम पर पूज्य श्री स्वामी जी भारत का विश्वशक्ति बनाने की बात करते थे। कारण एक ही है जो युवा प्रतिभा हैं भी वो सीमित दायरे तक सोचती हैं। खुद के बारे में और बहुत अधिक तो अपने माता-पिता के बारे में इससे ऊपर उनकी सोच ही नहीं उठ रही है। मेरे ग्वालियर शहर के युवा ही विभिन्न व्यसनों में आकंठ डूब चुके हैं। शराब, चरस, गांजा, अफीम आदि नशीले पदार्थों की गिरफ्त में वह आ चुका है। इसी सब की पूर्ति के लिए वह अपराध की ओर अग्रसर हो रहा है। चैन झपटने की सबसे अधिक वारदात युवा ही अंजाम दे रहे हैं। कारण एक ही है अपने मंहगे और व्यर्थ के शौक पूरे करने के लिए। मैली-संस्कृति को वह अपनी आदर्श जीवन शैली समझने लगा है। वह दिन-ब-दिन इसमें गहरा और गहरा घुसता जा रहा है। इन सबके पीछे बहुत से कारण हैं। एकल परिवार उनमें सबसे बड़ा कारण है उससे ही जुड़े अन्य कारण हैं। माता-पिता को यह नहीं पता होता कि उनके बच्चे टीवी पर क्या देख रहे हैं, देर रात तक क्या और किस से बात कर रहे हैं, किस तरह की किताबें पढ़ रहे हैं? यह बात भी सही है कि क्या मां-पिता अपने बच्चों के पीछे जासूस की तरह घूमें। बच्चों को खुद सोचना चाहिए कि उनके माता-पिता ने कितनी मेहनत से रुपया पैसा कमाकर उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराईं हैं। पढऩे और आगे बढऩे के लिए अवसर उपलब्ध कराया है। लेकिन, दुर्भाग्य वह इस चमक-दमक के युग में यह सब नहीं सोचता। अपनी आजादी और उपलब्ध संसाधनों का भयंकर दुरुपयोग करता है। अपनी मटर गस्ती में मूल्यवान समय और अपने परिजनों के विश्वास पर कालिख पोतता रहता है।
विश्व की सबसे बड़ी शक्ति इस समय युवा ही है और सौभाग्य से वह हमारे देश के पास है। लेकिन, बुरी हालत में। उसे जागना होगा। स्वामी विवेकानंद के उस वाक्य को याद करके बुराईयों को दूर करके खड़े होकर हुकांर भरनी होगी। याद करो - उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक मंजिल को न प्राप्त कर लो!
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
१० प्रतिनिधि कहानियां
अभी हाल ही भीष्म साहनी की कहानियां पढ़ी। पुस्तक का शीर्षक था - १० प्रतिनिधि कहानियां, भीष्म साहनी। किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है। कीमत ६० रुपए। जिस तरह कोई फिल्म देखने के बाद आम आदमी फिल्म की समीक्षा कुछ इस तरह करता है- फिल्म देखकर पूरे पैसे वसूल हो गए मतलब फिल्म अच्छी है। ठीक इस किताब के लिए मैं कहूंगा जो भी किताब खरीदकर पढ़ेगा उसे पछताना नहीं पड़ेगा हालांकि मैंने तो भास्कर की लाइब्रेरी से निकाल कर पढ़ी। दस कहानियां एक से बढ़कर एक। किसी भी कहानी में किसी भी पैरे में मैं बोर नहीं हुआ। हर कहानी आपके अंर्तमन में स्थिति का चित्राकंन खींचती रहती है कहानी पढ़ते समय आपको सारे दृश्य दिखते से जान पडेगें।
१० प्रतिनिधि कहानियां
- भीष्म साहनी
मूल्य : साठ रुपए
प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
४८५५9५६/२४ अंसारी रोड,दरियागंज
नई दिल्ली- ११०००२
पहली कहानी थी वाड्चू। एक बौद्ध भिक्षु की जो मूलत: चीन का रहने वाला था। कहानी में वह भारत में रहकर ज्ञान अर्जित कर रहा था। कैसे स्थितियां बदलती रहती हैं उनका सामना कैसे सीधे साधे वाड्चू को करना पड़ता है बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया गया है। उसके निश्छल प्रेम के भी नीलम ने खूब मजे लिए, हरदम उसे जानकर चिढ़ाना भाई के मना करने के बाद भी। नीलम एक और पात्र की बहन है जो श्रीनगर में वाड्चू का अच्छा दोस्त बन गया था। इस कहानी को ही पढ़ कर लगा बहुत दिन बाद कुछ बेहतर पढऩे का मौका हाथ लगा है। उसके बाद तो एक-एक कर पूरी नौ कहानियां पढ़ गया। जब भी जहां भी समय मिला किताब निकाल कर उसमें खो जाता।
दूसरी कहानी साग-मीट। इस कहानी में लेखक ने स्त्रियों की वाचालता के गुण का बखूबी बखान किया। दो महिलाओं के बीच के वार्तालाप को कहानी के रूप में परोसा है। गजब यह है कि एक ही महिला कहानी में शुरू से अंत तक बोलती रहती है। कहानी में महिला की एक डायलॉग बड़ा मजेदार था- तू कुछ खा भी ना, तू तो कुछ भी नहीं खाती। तीसरी कहानी पाली। पाली एक बच्चे का नाम है जो भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त मां-बाप से बिछड़कर पाकिस्तान में ही रह जाता है। विभाजन की भयाभयता का दृश्यांकन दिल को दहला देने वाला है। वहीं मुस्लिम और हिंदू मां-बाप का ह्रïदय के भावों को जिस तरह उकेरा है, उन से यह सत्य सिद्ध कर दिया कि मां-बाप सिर्फ मां-बाप होते हैं। उनकी जगह कोई नहीं ले सकता। विभाजन के बाद हिंदू और मुस्लिमों के मन की स्थिति का भी खूब बखान किया। चौथी कहानी थी समाधि भाई रामसिंह। एक फक्कड़ समाजसेवी की। अच्छी और रोचक कहानी थी। फूलां नाम की पांचवी कहानी में जानवरों के प्रति लगाव दिखाया है। कैसे कोई किसी पालतू जानवर के प्रति आसक्त हो जाता है। दरअसल कहानी में म्यूनिसिपालिटी क्लर्क की पत्नी है फूलां। इनके कोई संतान नहीं होती व इनके घर में माणो नाम की बिल्ली होती है जिसे फूलां अपनी संतान की तरह पालती है। इक दिन माणो कहीं चली जाती है और फूलां उसके वियोग में पगलाई सी जाती है। छंटवी कहानी संभल के बाबू में युवा युवापन में कैसे विचार मन में चलते हैं इस बात के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। पुरानी और नई परिस्थितियों में आए बदलाव को भी बखूबी दर्शाया है।
आवाजें सातवीं कहानी है। जो एक मोहल्ले पर आधारित है। नया मोहल्ला बसते बसते कैसे बस जाता है उसी का चित्रण है। मक्कखन लाल इसका गजब का पात्र है। सस्ती पोपट मारका सिगरेट पीता है और चुटकी बजाकर राख झटकता है। कुल मिलाकर मनमौजी, मदमस्त और अपनी धुन का पक्का है। बनावटी बिलकुल नहीं है हर जगह पर वह मक्खनलाल ही रहता है। हमारी तरह ऑफिस में बाबू, पार्टी में हीरो, सामाजिक कार्यो में नेताजी और बौद्धिक बैठकों में विद्वान नहीं बनता। उसका तो एक ही रूप है मक्खनलाल हर जगह मक्खनलाल। तेंदुआ आठवी कहानी है। भाग्य को प्रबलता से आगे रखती है और अंत आते-आते अपनत्व की झलक भी दिखा जाती है। कहानी में यह बताया गया है कि होनी को कौन टाल सकता है? नौवी है ढोलक और दसवी साये ये भी पूर्व की भांति अपने आप में रोचक और अर्थ प्रदान हैं। ढोलक अपने बड़ी मजेदार कहानी है। इसमें बताया गया है कि किस तरह जरा सी किताबें पढ़कर नई पीढ़ी को सारी परंपराएं ढकोसला लगने लगती हैं। कैसे अपने बुर्जगों की बातें उन्हें कोरी बकवास लगती हैं। ऐसे ही एक युवा के विवाह के समय का शब्द चित्राकंन इसमें किया गया है। जिन परंपराओं से रामदेव को चिढ़ हो रही थी, अंत में एक दूसरे पढ़े-लिखे इसी पीढ़ी का वकील ने उन्हीं परंपराओं पर उसे गर्व करना सिखा दिखा। रामदेव इस कहानी का मुख्य पात्र है इसकी की विवाह हो रहा होता है, यह घोड़ी पर बैठकर बारात में जाने से मना कर देता है लेकिन वकील अपनी सूझबूझ से ऐसी परिस्थियां निर्मित करता है कि रामदेव हंसी-खुशी लपककर घोड़ी पर सवार होकर दुल्हन लेने निकल पड़ता है।
१० प्रतिनिधि कहानियां
- भीष्म साहनी
मूल्य : साठ रुपए
प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
४८५५9५६/२४ अंसारी रोड,दरियागंज
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पहली कहानी थी वाड्चू। एक बौद्ध भिक्षु की जो मूलत: चीन का रहने वाला था। कहानी में वह भारत में रहकर ज्ञान अर्जित कर रहा था। कैसे स्थितियां बदलती रहती हैं उनका सामना कैसे सीधे साधे वाड्चू को करना पड़ता है बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया गया है। उसके निश्छल प्रेम के भी नीलम ने खूब मजे लिए, हरदम उसे जानकर चिढ़ाना भाई के मना करने के बाद भी। नीलम एक और पात्र की बहन है जो श्रीनगर में वाड्चू का अच्छा दोस्त बन गया था। इस कहानी को ही पढ़ कर लगा बहुत दिन बाद कुछ बेहतर पढऩे का मौका हाथ लगा है। उसके बाद तो एक-एक कर पूरी नौ कहानियां पढ़ गया। जब भी जहां भी समय मिला किताब निकाल कर उसमें खो जाता।
दूसरी कहानी साग-मीट। इस कहानी में लेखक ने स्त्रियों की वाचालता के गुण का बखूबी बखान किया। दो महिलाओं के बीच के वार्तालाप को कहानी के रूप में परोसा है। गजब यह है कि एक ही महिला कहानी में शुरू से अंत तक बोलती रहती है। कहानी में महिला की एक डायलॉग बड़ा मजेदार था- तू कुछ खा भी ना, तू तो कुछ भी नहीं खाती। तीसरी कहानी पाली। पाली एक बच्चे का नाम है जो भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त मां-बाप से बिछड़कर पाकिस्तान में ही रह जाता है। विभाजन की भयाभयता का दृश्यांकन दिल को दहला देने वाला है। वहीं मुस्लिम और हिंदू मां-बाप का ह्रïदय के भावों को जिस तरह उकेरा है, उन से यह सत्य सिद्ध कर दिया कि मां-बाप सिर्फ मां-बाप होते हैं। उनकी जगह कोई नहीं ले सकता। विभाजन के बाद हिंदू और मुस्लिमों के मन की स्थिति का भी खूब बखान किया। चौथी कहानी थी समाधि भाई रामसिंह। एक फक्कड़ समाजसेवी की। अच्छी और रोचक कहानी थी। फूलां नाम की पांचवी कहानी में जानवरों के प्रति लगाव दिखाया है। कैसे कोई किसी पालतू जानवर के प्रति आसक्त हो जाता है। दरअसल कहानी में म्यूनिसिपालिटी क्लर्क की पत्नी है फूलां। इनके कोई संतान नहीं होती व इनके घर में माणो नाम की बिल्ली होती है जिसे फूलां अपनी संतान की तरह पालती है। इक दिन माणो कहीं चली जाती है और फूलां उसके वियोग में पगलाई सी जाती है। छंटवी कहानी संभल के बाबू में युवा युवापन में कैसे विचार मन में चलते हैं इस बात के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। पुरानी और नई परिस्थितियों में आए बदलाव को भी बखूबी दर्शाया है।
आवाजें सातवीं कहानी है। जो एक मोहल्ले पर आधारित है। नया मोहल्ला बसते बसते कैसे बस जाता है उसी का चित्रण है। मक्कखन लाल इसका गजब का पात्र है। सस्ती पोपट मारका सिगरेट पीता है और चुटकी बजाकर राख झटकता है। कुल मिलाकर मनमौजी, मदमस्त और अपनी धुन का पक्का है। बनावटी बिलकुल नहीं है हर जगह पर वह मक्खनलाल ही रहता है। हमारी तरह ऑफिस में बाबू, पार्टी में हीरो, सामाजिक कार्यो में नेताजी और बौद्धिक बैठकों में विद्वान नहीं बनता। उसका तो एक ही रूप है मक्खनलाल हर जगह मक्खनलाल। तेंदुआ आठवी कहानी है। भाग्य को प्रबलता से आगे रखती है और अंत आते-आते अपनत्व की झलक भी दिखा जाती है। कहानी में यह बताया गया है कि होनी को कौन टाल सकता है? नौवी है ढोलक और दसवी साये ये भी पूर्व की भांति अपने आप में रोचक और अर्थ प्रदान हैं। ढोलक अपने बड़ी मजेदार कहानी है। इसमें बताया गया है कि किस तरह जरा सी किताबें पढ़कर नई पीढ़ी को सारी परंपराएं ढकोसला लगने लगती हैं। कैसे अपने बुर्जगों की बातें उन्हें कोरी बकवास लगती हैं। ऐसे ही एक युवा के विवाह के समय का शब्द चित्राकंन इसमें किया गया है। जिन परंपराओं से रामदेव को चिढ़ हो रही थी, अंत में एक दूसरे पढ़े-लिखे इसी पीढ़ी का वकील ने उन्हीं परंपराओं पर उसे गर्व करना सिखा दिखा। रामदेव इस कहानी का मुख्य पात्र है इसकी की विवाह हो रहा होता है, यह घोड़ी पर बैठकर बारात में जाने से मना कर देता है लेकिन वकील अपनी सूझबूझ से ऐसी परिस्थियां निर्मित करता है कि रामदेव हंसी-खुशी लपककर घोड़ी पर सवार होकर दुल्हन लेने निकल पड़ता है।
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