सोमवार, 31 दिसंबर 2012

दामिनी कह गई- अब सोना नहीं

 दु: खद, बेहद दु:खद 2012 का आखिरी शनिवार। दामिनी चली गई। हमेशा के लिए इस बेदर्द दिल्ली से। बेहया दुनिया से, जहां उसे सिर्फ मांस की तरह देखा गया। भेडिय़ों ने नोंचा था, 13 दिन पहले उसका जिस्म। १३ दिन बाद मौत हो गई भारत की अस्मिता की। घनघोर शर्मनाक दिन था 16 दिसंबर, जब भारत के दिल में महज रात 9 बजे, चलती बस में दामिनी की आत्मा का बलात्कार किया ६ हरामखोर भेडिय़ों ने। 17 दिसंबर की सुबह लज्जा से सिकुड़ गया था सारा देश (युवा), जमा हो गया राजपथ पर, इंडियागेट पर और संसद के माथे पर। आक्रोशित, उद्ेलित, बेबस देश अपनी ही सरकार से पूछ रहा था- नारी को पूजने वाले देश में अब नारी कहां सुरक्षित रह गई है? सरकार आखिर करती क्या है? कब तक यूं ही तार-तार होती रहेगी मर्यादा, आजादी और दामिनी?
    शर्मनाक आंकड़ा है- भारत में हर 20 मिनट में एक दामिनी के साथ बलात्कार होता है और हवस का शिकार बनाया जाता है। हर 25 मिनट में किसी न किसी सार्वजनिक जगह, बस, ट्रेन, चौराहा, मॉल, स्कूल-कॉलेज या बाजार में दामिनी को छेड़ा जाता है। उस पर अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं। ये इस हद तक अश्लील और अमर्यादित होती हैं कि कई दामिनी घर जाकर जिंदगी ही खत्म कर लेती हैं। वर्ष 2009 में 23 हजार 996, वर्ष 2010 में 25 हजार 215, वर्ष 2011 में 26 हजार 436 और वर्ष 2012 में भी लगभग बीते वर्ष के बराबर दामिनी भूखे जानवरों का ग्रास बनीं। लेकिन, देश अब जागा। देर से ही सही जागा तो सही वरना और देर हो जाती। ये मामले ऐसे हैं, जिनमें चार्जशीट दाखिल हुई। इसके इतर कई मामले तो थाने ही नहीं पहुंच पाते तो कई मामले थाने में ही समझौते के बाद खत्म हो जाते हैं। इतना ही नहीं उक्त मामलों में महज 22 फीसदी बलात्कारियों को ही सजा हुई। जबकि बलात्कार की शिकार प्रत्येक दामिनी रोज सजा पा रही है। जिंदगीभर भेडिय़े की हरकत उसे भीतर ही भीतर खाये जाती है।
    देश इस बार जागा था कि अपराधियों को फांसी से कम सजा पर नहीं मानेगा, चुप नहीं बैठेगा। देश की यह स्व स्फूर्त जाग्रति है। सोशल मीडिया की इसमें अहम भूमिका है। निरुत्तर सरकार देश को जवाब देने की जगह पुलिस को देश पर लाठियां भांजने का हुक्म देती है। लेकिन, इस बार गुस्सा पानी का बुलबुला नहीं था। युवा राजपथ पर डट गए, सह गए पानी की तेज धार। आंसू गैस के गोले क्या रूलाते आंखें तक 16 दिसंबर को ही सूख गईं थी। युवा जोश के सामने बेकार साबित हुए पुलिस के अश्रु गोले। पीठ, पैर और सीने पर लाठी खाकर भी मुंह से उफ नहीं निकली, निकली तो बस एक आवाज- वी वांट जस्टिस। बलात्कारियों को फांसी दो। देश की अस्मित की सुरक्षा की गारंटी दो..... सरकार फिर भी खामोश रही। सोनिया के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी आज भी कायम रही। युवराज हमेशा की तरह लापता थे। मंत्री फितरत के मुताबिक आज भी देश को टरकाने के मूड में दिखा। दिल्ली की महारानी एक बार भी पीडि़त के हाल जानने नहीं पहुंची। सब दूर से निराश युवा इंसाफ की आस लिए नए नवेले राष्ट्रपति प्रणव दा के पास भी गया था लेकिन वहां भी सन्नाटा ही पसरा था। न्याय नहीं मिलता देख आखिर युवा मन उखड़ गया। लेकिन, हारा नहीं। अब तो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल.... मुंबई यानी सारा देश साथ खड़ा हो गया दामिनी के हक के लिए। आधी आबादी के लिए। सृष्टि के शक्ति केन्द्र के सम्मान में सब दूर आवाज बुलंद हो उठी। जज्बा, उत्साह, उमंग, हौसला, गुस्सा और आक्रोश ऐसा दिखा कि सरकार से आर-पास की लड़ाई हो ही जाए। नारा बुलंद हुआ- कितना दम है दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे। गूंजी मांग - जब तक इंसाफ नहीं होता ये आक्रोश ठंडा नहीं पड़ेगा। कानून कड़े बनाए। सुधार लाओ। सुरक्षा पुख्ता करो। बलात्कारियों को फांसी दो। 13 दिन से आक्रोश बरकरार था। अब अलविदा कह गई दामिनी। तो क्या गुस्से को ठंडा होने दिया जाए। सरकार तो यही चाहती है। लेकिन, आज फिर युवा देश ने कह दिया- अभी न्याय बाकी है, गुस्सा बाकी है, लड़ाई जारी है और जारी रहेगी इंसाफ होने तक। 29 दिसंबर को दामिनी चली गई हमें बेशर्म व्यवस्था से अपने अधिकार के लिए लडऩा सिखाकर। उसकी सीख जाया नहीं होने देना है, गुस्सा खत्म नहीं होने देना है। कभी नहीं जागने वाली नींद में जाने से पहले कह गई वो- अब और कोई दामिनी नहीं बननी चाहिए। न्याय चाहिए। मेरे हक में उठे हाथ, आवाज अब खामोश नहीं होने चाहिए। युवा मन में जो उबाल आया है वह ठंडा नहीं होना चाहिए। नींम बेहोशी से जो देश जागा है तो अब सोना नहीं चाहिए।
    इन १३ दिन में राजनीति के पतन का शीर्ष भी दिखा तो हड़बड़ाए नेताओं का मानसिक दिवालियापन भी सामने आया। लोमहर्षक, बीभत्स, नृशंस अपराध के बाद भी नेता जुबान संभालकर बात नहीं कर पाते। प्रणव दा के बेटे अभिजीत कहते हैं कि कैंडल मार्च फैशन हो गया है। दिन में प्रदर्शन, शाम को कैंडल जलाने के बाद ये रंगी-पुती युवतियां पब में मौज उड़ाती हैं। एक महिला नेता कहती है कि जब छह लोगों ने घेर लिया था तो उसे वीरता दिखाने की क्या जरूरत थी, सरेंडर कर देना चाहिए था। महिला अधिकारी की हितैषी एक अन्य महिला कहती है कि इतनी रात फिल्म देखने जाएंगी तो यही होगा। घोर आपत्तिजनक हैं ये बयान। चाय की गुमठी और चौराहे पर पान की पीक थूकते लोग भी शायद इस समय ऐसी बात कर रहे हों। दूसरे नेता कहते हैं कि देश में अराजक स्थितियां हैं। सवाल उठता है कि इन स्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है? कौन संभालेगा देश? एक ने कहा कि माहौल ऐसा है कि मेरी बेटियां भी सुरक्षित नहीं। महोदय यह सफेद झूठ है। आपकी बेटियां जिस दिन असुरक्षित हो जाएंगी तो झट से कड़े कानून आ जाएंगे। तब दरिंदे 13 दिन तक जीवित नहीं रहेंगे। शर्म करो... संसद और विधानसभा में बैठकर काम करने की जगह अश्लील फिल्म देखते हो, दामिनी पर बहस होती है तो खीसें निपोरकर हंसते हो। कुछ काम करो ताकि आम आदमी की बेटी, पत्नी, बहू घर से बिना संकोच निकले, शान से सिर उठाकर सड़क पर चले और बिना किसी अपमानजनक स्थिति का सामना किए खुशी मन से घर लौट सके। कानून में सुधार लाओ। वैज्ञानिक तरीके से सबूत जुटाए जाएं। पुलिस को संवेदनशील बनाओ। गवाहों को सरंक्षण दो। फास्ट ट्रैक कोर्ट पर सुनवाई हो ताकि अपराधी बचकर न निकल सकें। उनमें खौफ पैदा हो। गलत काम की कीमत उन्हें चुकानी पड़े।
    आखिर में लंबी नींद से जागे हुए देश से अपील है। जिंदगी की जंग हारने से पहले दामिनी जगा गई है देश को। 13 दिन देश सोया नहीं, थका नहीं, डरा नहीं सरकार के वार से। इस जज्बे को बनाए रखना होगा वरना फिर किसी चलती बस में, होटल में, पब में या फिर किसी चाहरदीवारी के भीतर तार-तार कर दी जाएगी दामिनी।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

ठाकरे पथ के राही प्रभात

 म ध्यप्रदेश में प्रभात झा ने महज ढाई साल में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और शक्तिशाली भी बनाया। वरिष्ठ नेता कहते हैं कि जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे अति सक्रिय नेता थे। उनका क्षण-क्षण पार्टी के विस्तार के लिए समर्पित था। पार्टी की जड़ें मजबूत करने में उनका अतुलनीय योगदान है। उन्होंने देश के कई प्रांतों में भाजपा को खड़ा किया। मध्यप्रदेश की राजनीति का सौभाग्य है कि इसे कुशाभाऊ ठाकरे ने सींचा। प्रदेश के इस छोर से उस छोर तक प्रवास किया, कई बार किया। कभी थके नहीं, कभी रुके नहीं, कभी थमे नहीं। छोटे से लेकर बड़े, सभी कार्यकर्ताओं के लिए वे सहज थे। दूसरे दल के नेताओं के लिए भी अनुकरणीय थे। प्रभात झा को ऐसे ही कुशल संगठनकर्ता का सानिध्य मिला। मार्गदर्शन मिला। सार्थक और सकारात्मक काम करने की प्रेरणा मिली। सच के लिए अडऩे और लडऩे का हौसला मिला। कुशाभाऊ ठाकरे के विराट व्यक्तित्व की तुलना प्रभात झा से नहीं की जा सकती लेकिन राजनीति की जिस राह पर प्रभात झा ने कदम रखा है, जिस राह पर वे बढ़ रहे हैं, उस राह पर स्वर्गीय ठाकरे के पग चिह्न हैं। वह राह ठाकरे की राह है। वह सही राह है। सकारात्मक और असली राह है।
    प्रभात झा ने ढाई साल पहले प्रदेशाध्यक्ष बनते ही अपने काम करने के तौर तरीके जाहिर कर दिए थे। मेरे स्वागत-सत्कार में कोई बैनर और होर्डिंग नहीं लगाया जाएगा। कार्यकर्ताओं को यही सबसे पहले निर्देश थे उनकी ओर से। वे जानते हैं, भारतीय जनता पार्टी के पितृपुरुष कभी नहीं चाहते थे कि भाजपा में व्यक्ति पूजा को महत्व दिया जाए। व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिले। यह कैडर आधारित पार्टी है। यहां संगठन और सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं, व्यक्ति नहीं। उन्होंने दूसरा जरूरी काम किया कि पार्टी को पार्टी कार्यालय से चलाया, बंगले से नहीं। प्रभात झा से पूर्ववर्ती प्रदेशाध्यक्ष बंगले से ही सारे राजनीतिक कार्यक्रम संचालित करते थे। ऐसे में पार्टी कार्यालय खाली-खाली सा रहता था। प्रभात झा के प्रदेशाध्यक्ष बनने से पार्टी कार्यालय में रौनक बढ़ गई। लगने लगा कि यह सत्तारूढ़ पार्टी का कार्यालय है। प्रदेश के पार्टी कार्यालय में ही प्रदेशभर के कार्यक्रमों की रूपरेखा बनना शुरू हो गई।
    प्रभात झा का व्यक्तित्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में भी गढ़ा गया है। वहीं उन्होंने सीखा कि कार्यकर्ता को अपने कार्य से सीख दो, सिर्फ भाषण से नहीं। उन्होंने मंडल-मंडल में प्रवास शुरू कर मंत्रियों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों को नींद से जगाना शुरू किया। उन्होंने सबको साफ शब्दों में कह दिया आपको जो जिम्मेदारी पार्टी ने दी है, जनता ने दी है उसका निर्वहन ठीक ढंग से किया जाए। अपने-अपने क्षेत्र में लोगों से मिलो, संपर्क करो, दौरे करो। कुर्सी मिल गई है तो काम करो वरना कुर्सी जाते देर नहीं लगेगी। एक साधारण से कार्यकर्ता को अहसास कराया कि भाजपा तुम्हारी पार्टी है, तुम्हारे सहयोग के बिना नहीं चल सकती। सेठ-साहूकारों की जगह उन्होंने आम कार्यकर्ता से १०-१० रुपए चंदा एकत्र कराया ताकि कार्यकर्ता में समर्पण का भाव जगे। स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे के बाद प्रभात झा ऐसे प्रदेशाध्यक्ष हैं जिन्होंने अपने एक ही कार्यकाल में प्रदेश के लगभग सभी मंडलों में प्रवास किया, एक बार नहीं कई जगह तो कई बार पहुंचे। उनके लगातार संपर्क और अथक मेहनत का ही नतीजा रहा कि भाजपा उनके कार्यकाल में कोई भी उपचुनाव नहीं हारी। कांग्रेस के गढ़ माने जाने वाले क्षेत्रों में भी जीत का परचम पहराया। स्थानीय नगर पालिका और नगर पंचायतों के चुनाव में भी पार्टी को विजय मिली। प्रभात झा ने कभी भी किसी जीत को अपनी या किसी और व्यक्ति विशेष की मेहनत नहीं बताया। उन्होंने हर जीत के बाद यही कहा कि यह जीत पार्टी की जीत है, अनुशासन की जीत है, कार्यकर्ताओं की मेहनत की जीत है। वर्ष २०११ में प्रदेश में कई जगह स्थानीय निकायों के चुनाव चल रहे थे। प्रभात झा प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते सभी जगह पहुंचकर कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा रहे थे। शाजापुर नगरपालिका के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी की आर्थिक स्थिति कुछ कमजोर थी। चुनाव खर्च उसके लिए मुश्किल खड़ी कर रहा था। प्रभात झा को इस बात का जैसे ही पता चला, उन्होंने तुरंत मौके पर ही उन्हें अपना एक माह का वेतन उस कार्यकर्ता को चुनाव लडऩे के लिए दे दिया। उनके इस प्रयास का असर बाकी कार्यकर्ताओं पर भी हुआ। शाजापुर नगरपालिका का अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहे कार्यकर्ता के चुनाव प्रचार के लिए उसी दिन करीब १२ लाख रुपए जमा हो गए।
    प्रभात झा भाजपा सरकार के श्रेष्ठ पालक साबित हुए। वे उच्चकोटि के पत्रकार रहे हैं। पत्रकारों को क्या खबर चाहिए, बेहतर जानते हैं प्रभात झा। अपने इसी चातुर्य का फायदा उन्होंने मुख्ममंत्री और भाजपा सरकार का संरक्षण करने में किया। वे ढाई साल तक पत्रकारों से लेकर कांग्रेसी नेताओं को अपने मायाजाल में ही उलझाकर रखे रहे। लगातार कांग्रेसी नेताओं पर बयानबाजी कर उन्हें घेरे रखा। उन्हें फुरसत ही नहीं दी कि वे भारतीय जनता पार्टी को सदन या सदन के बाहर घेर सकें। प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से अधिक समाचार माध्यमों और राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय प्रभात झा हो गए थे। यही कारण है कि प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने उन्हें डेंजर की उपाधि से नवाजा। प्रभात झा का कार्यकाल पूरा होने पर अजय सिंह ने राहत की सांस लेते हुए कहा भी - अहा! हमारा डेंजर चला गया।
    हालांकि प्रभात झा को दूसरा कार्यकाल नहीं मिलना अप्रत्याशित है। उनके मुताबिक परमाणु विस्फोट जैसा ही है। २०१३ विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं। ढाई साल में प्रभात झा ने जो मेहनत की उसकी परीक्षा का समय आ रहा था। प्रभात झा की संगठन पर बढ़ती पकड़ और लोकप्रियता प्रदेश के मुख्यमंत्री को सशंकित करने लगी थी। उस पर भी प्रभात झा मुख्यमंत्री को हटाकर स्वयं प्रदेश के मुखिया बनना चाहते हैं, जैसी अफवाहों से बाजार गर्म था। इन सब कारणों से शिवराज सिंह चौहान प्रभात झा को फिर से भाजपा प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी पर देखना नहीं चाहते थे। वे अपने किसी विश्वस्त सिपहसलार को पार्टी संगठन की कमान सौंपना चाह रहे थे। वे ऐसे किसी चेहरे की तलाश में थे कि उनके सामने नरेन्द्र सिंह तोमर को आगे कर दिया गया। एक सुनियोजित योजना के तहत नरेन्द्र सिंह प्रदेश में अपनी वापसी के लिए प्रयासरत भी थे। आखिर  शिवराज सिंह चौहान का वरदहस्त पाकर नरेन्द्र सिंह तोमर प्रदेश अध्यक्ष बन गए हैं। हालांकि इसके पीछे राजनीति की लंबी कहानी है, जिसके बीज उत्तरप्रदेश के चुनावी संग्राम के समय ही बोए जा चुके थे। इसकी फसल नरेन्द्र सिंह तोमर काटेंगे। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में २०१३ के चुनाव जीतना तय बात है। यह भी तय बात है कि शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री के पद पर ताजपोशी होगी। लेकिन, यह बात भी गांठ बांध ली जाए कि शिवराज सिंह चौहान अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई और ही सुशोभित होगा। शिवराज सिंह चौहान जिस नरेन्द्र सिंह तोमर को अपना हितैषी और खास समझ रहे हैं तो उन्हें करीब तीन साल पुराना घटनाक्रम याद करना होगा। ये वही ठाकुर नरेन्द्र सिंह तोमर हैं जो शिवराज सिंह चौहान को ओबीसी कैटेगिरी का ठाकुर समझते हैं। उन्हें अपने से कमतर आंकते हैं। ये वही नरेन्द्र सिंह तोमर हैं जिन्होंने ग्वालियर में स्थापित महाराजा मानसिंह प्रतिमा को इसलिए दूध से धुलवा दिया था क्योंकि उसका अनावरण पिछड़ा वर्ग के शिवराज सिंह चौहान ने किया था। खैर, राजनीति में कब अपने पराए हो जाते हैं और पराए अपने, कहा नहीं जा सकता। फिलहाल तो यही कहना होगा कि भाजपा तमाम खामियों के बाद भी सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी है। यही कारण है कि एक ऐसा आदमी जो स्वदेश के दफ्तर में जिस टेबल पर अपनी खबर लिखता था, रात में उसी टेबल पर सो जाता था, भारतीय राजनीति में उत्तरोत्तर सोपान चढ़ रहा है। प्रभात झा ने सिद्धांत, मूल्यपरक और स्वस्थ राजनीति की जो लकीर खींची है, उम्मीद है भाजपा उस पर आगे बढ़े। प्रभात झा ने यही किया, भाजपा को कांग्रेस संस्कृति से बाहर निकालकर सादगी, शुचिता और मूल्यों की राजनीति की धारा में लाए। 
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बुधवार, 19 दिसंबर 2012

सब समाज का है 'शिवराज'

 म ध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समाज के प्रत्येक वर्ग के करीबी हो गए हैं। जब कोई अपना हो जाता है तो उसे उसके मुख्य नाम से नहीं बुलाते। उसके लिए प्यार से एक नया नाम यानी निकनेम रखते हैं। प्रदेश में लिंगानुपात बहुत अधिक है। लड़का-लड़की के भेद को कम करने के लिए मुख्यमंत्री ने लाडली लक्ष्मी योजना शुरू की। इसके बाद शिवराज सिंह प्रदेशभर की बच्चियों के 'मामा' बन गए। किसान खुशहाल हों तो प्रदेश भी तरक्की की राह पकड़ ले। यही सोचकर मुख्यमंत्री  ने किसानों के लिए जीरो फीसदी पर कर्ज मुहैया कराने की योजना शुरू की। यानी ब्याज जीरो, किसान हीरो का नारा देकर वे किसानों के मसीहा बन गए। किसान पुत्र बन गए। हाल ही में बुजुर्गों को मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना के तहत तीर्थ यात्रा पर भेजकर शिवराज इस युग के 'श्रवण कुमार' बन गए। काफिला रुकवाकर किसी की दुकान से जलेबी तो किसी ठेलेवाले से पोहा खाना, लोगों के कंधे पर हाथ रखकर उनका हालचाल पूछना और गांव-गांव संपर्क करने से उन्हें 'पांव-पांव वाले भैया' के नाम से पुकारा जाने लगा। योग और गीताज्ञान को स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल कराकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को संघ का खाटी 'स्वयंसेवक' कहलाने में गुरेज नहीं। भेष बदलकर, चोरी-छिपे जनता का हाल जानने सड़कों पर निकलकर 'विक्रमादित्य' बन गए शिवराज। प्रदेश में लोकप्रियता के चरम पर हैं शिवराज सिंह चौहान। मुख्यमंत्री की लोकप्रियता के बारे में एक लाइन में कुछ कहना हो तो - मध्यप्रदेश का मुखिया भारत के दिल पर काबिज है और आगे भी रहने वाला है।
    शिवराज सिंह चौहान की विनम्रता, पार्टी गाइडलाइन का पालन, वरिष्ठ नेताओं व पार्टी संगठन से सांमजस्य और विरोधियों की प्रशंसा करने के गुण उन्हें अन्य नेताओं से अलग करते हैं। 29 नवंबर, 2005 को उन्होंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। सात साल से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे शिवराज सिंह चौहान की शैली ऐसी है कि कोई उनसे नाराज नहीं होता। यहां तक कि विरोधी भी उनकी विनम्रता के मुरीद हो जाते हैं। विधानसभा की कार्यवाही में भी अकसर दिख जाता है कि कांग्रेस भाजपा सरकार को तो घेरने के प्रयास करती दिखती है लेकिन सीएम को निशाना नहीं बनाती। हाल ही में ग्वालियर में स्वर्गीय माधवराज सिंधिया प्रतिमा के अनावरण कार्यक्रम में कांग्रेस के युवा मंत्री ज्योतिरादित्य ने मुख्यमंत्री की कार्यशैली, विनम्रता और वाकपटुता की खुलकर प्रशंसा की। सिंधिया ने मुख्यमंत्री की प्रशंसा उस वक्त की है जबकि प्रदेश कांग्रेस का एक धड़ा उन्हें कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर २०१३ के चुनाव फतेह करना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी कहते हैं कि एक सफल शासक में जिस प्रकार की विनम्रता जरूरी है, शिवराज का व्यक्तित्व उस पहलू को बहुत उजागर करता है।
    किसान परिवार में जन्मे और किरार जाति (पिछड़ा वर्ग) से संबंध रखने वाले शिवराज सिंह चौहान का भाषण देना का अंदाज भी निराला है। जिस तरह कथावाचक अपने श्रोताओं को बांधकर रखता है वैसे ही शिवराज सिंह चौहान अपनी बात आहिस्ता-आहिस्ता जनता के मन में गहरे तक उतार देते हैं। सरकार की उपलब्धि पर वे मंच से जनता की हामी भरवा लेते हैं और केन्द्र सरकार के खिलाफ अपनी बात पर लोगों की मुहर भी लगवा लेते हैं।
    जाति फैक्टर का भारतीय राजनीति में बड़ा महत्व है। किसी भी प्रांत की राजनीति पर नजरें दौड़ा लें तो जाति बड़ा कारक सामने आता है। उत्तरप्रदेश में यादव, ब्राह्मण और दलित राजनीति का बोलबाला है। बिहार में भी भाजपा के आने से पहले यही हाल था। शिवराज सिंह चौहान इस मामले में भी अन्य राजनेताओं से अलग दिखते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में पाए गुणों के कारण ही वे समरस समाज का स्वप्न देखते हैं और जातिगत राजनीति से दूर रहते हैं। वर्ष २००५ में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान को ग्वालियर आने के लिए उनके जातिगत समाज ने बुलावा भेजा। किरार समाज ने अपनी जाति के साधारण से किसान पुत्र को बुलंदी चूमने पर सम्मानित करने का निर्णय लिया था। वीरागंना लक्ष्मीबाई समाधिस्थल के सामने मैदान में मुख्यमंत्री के सम्मान का समारोह आयोजित किया गया। मंच से किरार जाति के नेताओं ने समाजहित की चिंता करते हुए कुछ अपेक्षाएं अपने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के समझ व्यक्त कीं। माइक संभालते ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने सम्मान के लिए समाज को धन्यवाद दिया। इसके बाद उन्होंने भरे मंच और मैदान में कहा- शिवराज किसी एक समाज का नहीं है। उसे प्रदेश के हर समाज, प्रत्येक वर्ग की चिंता का गुरुतर दायित्व प्रदेश की सारी जनता ने दिया है। इसीलिए आपसे माफी मांगते हुए कहता हूं कि मैं महज किरार समाज का नहीं वरन् सब समाज का हूं।
    भारतीय राजनीति में किसी भी नेता के लिए जाति के बड़े-बड़े नेताओं के सामने इस तरह की बात कहना इतना आसान नहीं होता लेकिन जिसे समाज को समरस बनाना हो उसके लिए इतना कठिन भी नहीं होता है। वरना वोटों और कुर्सी के भूखे नेता ऑनर किलिंग तक का समर्थन कर जाते हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यही व्यक्तित्व है, जिसके आगे विपक्ष टिक नहीं पा रहा है और भाजपा के लिए मिशन-२०१३ की राह भी आसान दिख रही है। 

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

इमेज सेट करने का खालिस षड्यंत्र

 के न्द्र सरकार यानी यूपीए-२ भ्रष्टाचार के मामलों में अपनी साख बुरी तरह खो चुकी है। पहले सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने सरकार की जमकर किरकिरी कराई। बाद में, महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक (कैग) ने सारी ठसक छीन ली। यह अलग बात है कि सरकार और उसके नुमाइंदों ने बेशर्मी की मोटी चादर ओढ़ रखी है। बेहयाई की हद देखिए, जिसने भी सरकार के कामकाज के तरीके पर अंगुली उठाई, सरकार चून बांधकर (फोकस करके) उसके पीछे पड़ गई। चाहे वह बाबा रामदेव हों या अन्ना हजारे या फिर अरविंद केजरीवाल। सरकार के नुमाइंदों ने सब को चोर, ठग और सिरफिरा करार दे दिया। यूपीए-२ अब सीएजी को बदनाम करने के लिए प्रोपेगंडा रच रही है। भारतीय राजनीति के इतिहास में आपातकाल के काले पृष्ठ को छोड़ दिया जाए तो संवैधानिक संस्था को इस तरह कभी निशाना नहीं बनाया गया है। सीएजी को घेरना, उसकी विश्वसनीयता, निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवाल खड़े करना बेहद हल्की राजनीति का उदाहरण भर है।
        भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस ने सीएजी के पूर्व अधिकारी आरपी सिंह के दावे को हथियार बनाकर भारतीय जनता पार्टी और सीएजी विनोद राय पर हमला बोल दिया है। आरपी सिंह ने दावा किया है कि सीएजी ने टूजी घोटाले में १.७६ लाख करोड़ के घाटे का जो आंकड़ा पेश किया है वह सही नहीं है। असल घाटा तो २६४५ करोड़ रुपए था। आरपी सिंह ने यह आरोप भी लगाया है कि रिपोर्ट पर जबरन दस्तखत कराए गए हैं। उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि घाटे का आंकड़ा बड़ा दिखाने के लिए लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने सीएजी पर दबाव डाला था। इन आरोपों को मुद्दा बनाकर यूपीए की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी से लेकर हाल ही में प्रमोशन पाए सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी, कानून मंत्री अश्विनी कुमार और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा और संवैधानिक संस्था सीएजी पर सीधा हमला बोला है। इस मसले पर जरा गौर करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि यूपीए-२ किसी भी हद तक जाकर अपनी इमेज सेट करने की कोशिश कर सकती है। एक ऐसे व्यक्ति की बातों को आधार बनाकर संवैधानिक संस्था पर आरोप लगाए जा रहे हैं, जिसने टूजी पर हुए भारी बवंडर के बीच तो चुप्पी साधे रखी। भ्रष्टाचार के आरोप में कई मंत्री-संत्री जेल की सैर कर आए लेकिन आरपी सिंह कुछ बोले नहीं। इतना ही नहीं इन महाशय ने लोक लेखा समिति और टूजी घोटाले की जांच कर रही जेपीसी के समझ भी यह सच्चाई नहीं उगली थी। सेवानिवृत्त होने के १४ महीने बाद मुंह खोला है। आरपी सिंह के रवैए को देखकर भाजपा के इस आरोप में दम दिखती है कि आरपी सिंह कांग्रेस के हाथ खेल रहे हैं। कांग्रेस सीएजी को झूठा साबित करके अपना दामन उजला दिखने की कोशिश में हैं। जबकि कांग्रेस का दामन कोयले में भी खूब काला हो चुका है। यूपीए-२ के मंत्री कपिल सिब्बल ने तो शुरुआत में ही 'जीरो लॉस' की थ्योरी पेश की थी, जिससे सरकार की जमकर थू-थू हुई। बाद में, सरकार ने टूजी मामले की जांच कराई और अपने ही मंत्रियों को इस मामले में जेल की हवा खिलवाई। यह सवाल उठता है कि यदि आरपी सिंह के दावे सही हैं तो क्या सरकारी एजेंसियों की जांच गलत है? क्या सुप्रीम कोर्ट गलत है? चलो एक बार को मान भी लें कि आरपी सिंह का यह दावा सच है कि घाटे का आंकडा १.७६ लाख करोड़ बहुत अधिक ज्यादा है लेकिन फिर भी सरकार ने खेल तो खेला ही न। घोटाला छोटा ही सही, हुआ तो। फिर सरकार अपने को पाक-साफ दिखने की जद्दोजहद क्यों कर रही है? क्यों नहीं अपनी गलती मानकर देशवासियों से माफी मांग लेती? क्यों नहीं भ्रष्टाचार के दोषियों को सजा देती? लेकिन नहीं, कांग्रेसनीत सरकार गलती स्वीकार करने की जगह आरपी सिंह को ढाल बनाकर सीएजी पर अंगार उगल रही है।
           कांग्रेस सीएजी को झूठा और नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती है। हालांकि हर बार उसे ही मुंह की खानी पड़ती है। इस मामले में भी आरपी सिंह ने जैसे ही खुद को घिरता देखा तो पलटी खा गए, साथ में कांग्रेस और यूपीए-२ को भी औंधा (उल्टा) करा दिया। दो दिन ही बीते कि आरपी सिंह ने कह दिया कि १.७६ लाख करोड़ के घाटे का आंकड़ा जारी कराने में भाजपा के वरिष्ठ नेता और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कोई दबाव नहीं डाला। पूर्व में मीडिया ने उनके बयान को गलत अर्थ में पेश किया। आरपी सिंह के पलटी खाते ही भाजपा सोनिया गांधी सहित कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर मुखर हो गई। टूजी स्पेक्ट्रम मामले में इससे भी कांग्रेस के बयान उसके गले की फांस बन गए थे। हाल ही में टूजी स्पेक्ट्रम की निराशाजनक नीलामी के बाद भी सरकार के ढोलों ने जमकर हल्ला मचाया था कि देखा, हमने तो पहले ही कहा था कैग ने मनगढंत आंकडे पेश किए हैं। सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ। कैग की मिलीभगत है भाजपा के साथ, उसने जबरन यूपीए सरकार को बदनाम करने की कोशिश की। दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने नीलामी में विसंगति पाई और सरकार की जमकर खिंचाई कर दी। मतलब साफ है, यहां भी सरकार ने सीएजी की रिपोर्ट को झूठ का पुलिंदा साबित करने के लिए नीलामी ही गलत ढंग से कर दी। 
            यूपीए-२ सरकार सीएजी से इतनी परेशान है कि उसने सीएजी के पर कतरने की तैयारी तक कर रखी है। दरअसल, जल्द ही सीएजी जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण योजना (जेएनएनयूआरएम), मनरेगा, किसान कर्ज माफी योजना और उर्वरकों की सबसिडी में हुए घोटाले और अनियमितता को लेकर संसद में रिपोर्ट पेश करने वाली है। इससे फिर कांग्रेस की छवि पर बट्टा लगना है। इसलिए सरकार के अंदरखाने के लोगों ने सीएजी को नख-दंतहीन संस्था बनाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। यह बात यूं साफ होती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने ११ नवंबर को बहुसदस्यीय महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव की भनक लगते ही विपक्ष ने जमकर विरोध किया। अपने मौन के लिए विख्यात प्रधानमंत्री को आखिर बोलना पड़ा। कहा कि कई सदस्यों का महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक बनाने की सरकार की कोई मंशा नहीं है। प्रधानमंत्री ने तब भले ही कांग्रेस और सरकार की किरकिरी होने से बचाने के लिए ऐसा जवाब दिया। असल में तो सरकार सीएजी को नापने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। दरअसल, सरकार का सोचना है कि सीएजी की गलत साबित करने के बाद ही जनता के बीच उसका चेहरा चमकदार दिखेगा।
          इधर, केन्द्र सरकार ने दूसरे उपाय भी शुरू कर दिए हैं अपनी छवि सुधारने के लिए। कांग्रेस के नेता दबी जुबान में स्वीकार कर रहे हैं कि कसाब को टांगकर सरकार ने जनता को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है। वरना, देश की संसद पर हमला करने वाले अफजल का नंबर पहले था। खैर, सब जानते हुए जनता इस बात के लिए सरकार की पीठ थपथपा रही है। लेकिन, वह सरकार के घोटालों को भूलना नहीं चाहती। कसाब की फांसी के बदले केन्द्र सरकार की १०० गलतियों को माफ करना नहीं चाहती। २१ नवंबर को कसाब की फांसी की खबर सुनकर देशवासियों ने एक-दूसरे को बधाई संदेश भेजे। इनमें उन्होंने एक-दूसरे को याद दिलाया कि केन्द्र सरकार ने यह काम बढिय़ा किया है लेकिन उसके द्वारा किए गए घोटालों को हमें भूलना नहीं है।
कांग्रेस सीएजी पर सवाल उठाकर और कसाब को फांसी पर लटकाकर इतनी आसानी से अपनी इमेज सेट नहीं कर पाएगी। दरअसल, ये जो पब्लिक है, ये सब जानती है। खास बात यह है कि इस बार पब्लिक माफ करने के मूड में दिख नहीं रही।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

भारत में चमका था विज्ञान का सूर्य

 भा रत और भारत के लोगों के बारे में एक धारणा दुनिया में प्रचलित की गई कि भारत जादू-टोना और अंधविश्वासों का देश है। अज्ञानियों का राष्ट्र है। भारत के निवासियों की कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रही न ही विज्ञान के क्षेत्र में कोई योगदान है। भारत के संदर्भ में यह प्रचार लंबे समय से आज तक चला आ रहा है। नतीजा यह हुआ कि अधिकतर भारतवासियों के अंतर्मन में यह बात अच्छे से बैठ गई कि विज्ञान यूरोप की देन है। विज्ञान का सूर्य पश्चिम में ही उगा था उसी के प्रकाश से संपूर्ण विश्व प्रकाशमान है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज हम हर बात में पश्चिम के पिछलग्गू हो गए हैं क्योंकि हम मानते हैं कि पश्चिम की सोच वैज्ञानिक सम्मत है। पश्चिम ने जो सोचा है, अपनाया है वह मानव जाति के लिए उचित ही होगा। इसलिए हमें भी उसका अनुकरण करना चाहिए। भारत में योग पश्चिम से योगा होकर आया तो जमकर अपनाया गया। आयुर्वेद को चिकित्सा की सबसे कमजोर पद्धति मानकर एलोपैथी के मुरीद हुए लोगों की आंखें तब खुली जब आयुर्वेद पश्चिम से हर्बल का लेवल लगाकर आया। भारत में विज्ञान को लेकर जो वातावरण निर्मित हुआ उसके लिए हमारे देश के कर्णधार भी जिम्मेदार हैं। जिन्होंने तमाम शोध और विमर्श के बाद भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा को शामिल नहीं किया। भारत के छात्रों का क्या दोष, जब उन्हें पढ़ाया ही नहीं जाएगा तो उन्हें कहां से मालूम चलेगा कि भारत में विज्ञान का स्तर कितना उन्नत था।
    विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी? भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था? विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञानदृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञानदृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी? आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है? ऊपर के पैरे को पढ़कर निश्चिततौर पर हर किसी के मन में यही सवाल हिलोरे मारेंगे तो इन सवालों के जवाब के लिए 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' पुस्तक पढऩी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुरेश सोनी की इस पुस्तक में तमाम सवालों के जवाब निहित हैं। पुस्तक में कुल इक्कीस अध्याय हैं। धातु विज्ञान, विमान विद्या, गणित, काल गणना, खगोल विज्ञान, रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, प्राणि शास्त्र, कृषि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, ध्वनि और वाणी विज्ञान, लिपि विज्ञान सहित विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भारत का क्या योगदान रहा इसकी विस्तृत चर्चा, प्रमाण सहित पुस्तक में की गई है। यही नहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि विज्ञान को लेकर पश्चिम और भारतीय धारणा में कितना अंतर है। जहां पश्चिम की धारणा उपभोग की है, जिसके नतीजे आगे चलकर विध्वंसक के रूप में सामने आते हैं। वहीं भारतीय धारणा लोक कल्याण की है। सुरेश सोनी मनोगत में लिखते हैं कि आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय की 'हिन्दू केमेस्ट्री', ब्रजेन्द्रनाथ सील की 'दी पॉजेटिव सायन्स ऑफ एन्शीयन्ट हिन्दूज', राव साहब वझे की 'हिन्दी शिल्प मात्र' और धर्मपालजी की 'इण्डियन सायन्स एण्ड टेकनोलॉजी इन दी एटीन्थ सेंचुरी' में भारत में विज्ञान व तकनीकी परंपराओं को प्रमाणों के साथ उद्घाटित किया गया है। वर्तमान में संस्कृत भारती ने संस्कृत में विज्ञान और बॉटनी, फिजिक्स, मेटलर्जी, मशीन्स, केमिस्ट्री आदि विषयों पर कई पुस्तकें निकालकर इस विषय को आगे बढ़ाया। बेंगलूरु के एमपी राव ने विमानशास्त्र व वाराणसी के पीजी डोंगरे ने अंशबोधिनी पर विशेष रूप से प्रयोग किए। डॉ. मुरली मनोहर जोशी के लेखों, व्याख्यानों में प्राचीन भारतीय विज्ञान परंपरा को प्रभावी रूप से प्रस्तुत किया गया है।
    भारत में विज्ञान की क्या दशा और दिशा थी उसको समझने के लिए आज भी वे ग्रंथ मौजूद हैं, जिनकी रचना के लिए वैज्ञानिक ऋषियों ने अपना जीवन खपया। वर्तमान में जरूरत है कि उनका अध्ययन हो, विश्लेषण हो और प्रयोग किए जाएं। हालांकि कई विद्याएं जानने वालों के साथ ही लुप्त हो गईं क्योंकि हमारे यहां मान्यता रही कि अनधिकारी के हाथ में विद्या नहीं जानी चाहिए। विज्ञान के संबंध में अनेक ग्रंथ थे जिनमें से कई आज लुप्त हो गए हैं। हालांकि आज भी लाखों पांडुलिपियां बिखरी पड़ी हैं। भृगु, वशिष्ठ, भारद्वाज, आत्रि, गर्ग, शौनक, शुक्र, नारद, चाक्रायण, धुंडीनाथ, नंदीश, काश्यप, अगस्त्य, परशुराम, द्रोण, दीर्घतमस, कणाद, चरक, धनंवतरी, सुश्रुत पाणिनि और पतंजलि आदि ऐसे नाम हैं जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र रचना, जहाज निर्माण और जीवन के सभी क्षेत्रों में काम किया। अगस्त्य ऋषि की संहिता के उपलब्ध कुछ पन्नों को अध्ययन कर नागपुर के संस्कृत के विद्वान डॉ. एससी सहस्त्रबुद्धे को मालूम हुआ कि उन पन्नों पर इलेक्ट्रिक सेल बनाने की विधि थी। महर्षि भरद्वाज रचित विमान शास्त्र में अनेक यंत्रों का वर्णन है। नासा में काम कर रहे वैज्ञानिक ने सन् १९७३ में इस शास्त्र को भारत से मंगाया था। इतना ही नहीं राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का ३१वें अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान, यांत्रिक दरबान और सिपाही (रोबोट की तरह)। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता में चिकित्सा की उन्नत पद्धितियों का विस्तार से वर्णन है। यहां तक कि सुश्रुत ने तो आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का वर्णन किया है। सृष्टि का रहस्य जानने के लिए आज जो महाप्रयोग चल रहा है उसकी नींव भी भारतीय वैज्ञानिक ने रखी थी। सत्येन्द्रनाथ बोस के फोटोन कणों के व्यवहार पर गणितीय व्याख्या के आधार पर ऐसे कणों को बोसोन नाम दिया गया है।
    भारत में सदैव से विज्ञान की धारा बहती रही है। बीच में कुछ बाह्य आक्रमणों के कारण कुछ गड़बड़ जरूर हुई लेकिन यह धारा अवरुद्ध नहीं हुई। 'भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा' एक ऐसी पुस्तक है जो भारत के युवाओं को जरूर पढऩी चाहिए।

पुस्तक : भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परंपरा
मूल्य : ६० रुपए
लेखक : सुरेश सोनी
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन
१७, दीनदयाल परिसर, ई/२ महावीर नगर,
भोपाल-४६२०१६, दूरभाष - (०७५५) २४६६८६५
   

रविवार, 18 नवंबर 2012

क्या फिर से पढ़ाए जाएंगे नैतिकता के पाठ?

 भ्रष्टाचार, अत्याचार, यौनाचार, अवमानना जैसी बुराइयों की लम्बी सूची है, जो आज देश में चहुं ओर अपने बलवति रूप में दिख रही हैं। इन बुराइयों में लिप्त लोगों को सब दण्ड देना चाह रहे हैं। घोटाले-भ्रष्टाचार रोकने के लिए सिस्टम (जैसे लोकपाल) बनाने की मांग कर रहे हैं। अपराध को कम करने के लिए कानून के हाथ और लम्बे करने पर विमर्श चल रहा है। यह चाहत, मांग और विमर्श अपनी जगह सही है। दुष्टों को दण्ड मिलना ही चाहिए, भ्रष्टाचार रोकने सिस्टम जरूरी है और बेलगाम भाग रहे अपराध पर लगाम कसने के लिए कानून के हाथ मजबूत करना ही चाहिए। लेकिन, इसके बाद भी ये बुराइयां कम होंगी क्या? इस बात को लेकर सबको शंका है।
    ऐसे में विचार आता है कि भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र में ये टुच्ची बुराइयां इतनी विकराल कैसे होती जा रही हैं? यही नहीं घोटाले और भ्रष्टाचार व्यक्ति के बड़े होने की पहचान बन गए हैं। हाल ही में यूपीए सरकार के मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट पर विकलांगों का पैसा खाने का आरोप लगा। मामला पूरे ७१ लाख के घोटाले का था। लेकिन, खुर्शीद के बचाव में एक कांग्रेसी नेता कहते हैं कि ७१ लाख का घोटाला कोई घोटाला है। खुर्शीद मंत्री हैं वे महज ७१ लाख का घोटाला करेंगे ये माना ही नहीं जा सकता। हां, अगर ये ७१ लाख की जगह ७१ करोड़ होते तो सोचना भी पड़ता कि खुर्शीद ने गबन किया है। कांग्रेस नेता के बयान से साफ झलकता है कि बड़ा घोटाला यानी बड़ा मंत्री। खैर जाने दीजिए। कमी कहां हो रही है कि समाज की यह स्थिति बनी है। दरअसल, इसका मूल कारण नैतिक मूल्यों का पतन होना है। जब मनुष्य की आत्मा यह पुकारना ही भूल जाए कि तुम जो कर रहे हो वह गलत है तो मनुष्य किसकी सुनेगा। नैतिक मूल्यों की कमी तो आएगी ही शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी कर रखी है कि मनुष्य को मनुष्य नहीं पैसा कमाने वाला रोबोट बनाया जा रहा है। रोबोट तो रोबोट होता है। उसे क्या भले-बुरे का ज्ञान। स्कूल के समय से उसके मन में एक बात बिठाई जाती है कि बड़ा होकर अमीर बनना है, पैसा कमाना है, अरबों-खरबों में खेलना है। बड़ा होकर वह इसी काम में जुट जाता है। जो जिस स्तर पर है उस स्तर का घोटाला कर रहा है।
    आज हालात ये हैं कि व्यक्ति महिलाओं के बदसलूकी करते वक्त भूल जाता है कि उसके घर में भी मां-बहन है। अपने बूढ़े मां-पिता को सताते समय उसे यह ज्ञान नहीं रहता कि आने वाले समय में वह भी बूढ़ा होगा। दूसरों को ठगते समय वह यह नहीं देखता कि बेईमानी की कमाई नरक की ओर ले जाती है। किसी की मेहनत की कमाई चोरी करते वक्त वह सोचता है कि उसे कौन पकड़ेगा, वह भूल जाता है कि आत्मा है, परमात्मा है जो सबको देख रहा है और पकड़ रहा है। यह सब उसे भान नहीं है क्योंकि उसका नैतिक शिक्षण नहीं हुआ। वह नैतिक रूप से पतित है। बेचारा सीखता कहां से? हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्यों को विकसित करने की व्यवस्था ही खत्म कर दी गई। परिवार भी एकल हो गए। दादा-दादी से महापुरुषों का चरित्र सुनकर नहीं सोते आजकल का नौनिहाल बल्कि उनका चारित्रिक विकास तो टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट कर रहा है। मैकाले का उदाहरण अकसर सभी देते हैं। उसने ब्रिटेन पत्र लिखकर बताया कि भारत को गुलाम बनाना मुश्किल है क्योंकि यहां की शिक्षा व्यवस्था लोगों के नैतिक पक्ष को मजबूत बनाती है। वे देश और समाज के लिए जीने-मरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि भारत को गुलाम बनाना है तो सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त करनी होगी। बाद में उसने यही किया। भारत में गुरुकुल और ग्राम-नगर की पाठशालाएं खत्म कर मिशनरीज के स्कूल खुलवा दिया। अभी तक हम मैकाले के हिसाब से पढ़ रहे हैं, अपना नैतिक पतन करने के लिए। आजाद होने के बाद सबसे पहला सुधार शिक्षा व्यवस्था में होना चाहिए था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब जाकर भाजपा या अन्य राष्ट्रवादी पार्टियां/संगठन शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की बात करती हैं तो भगवाकरण कहकर उसका विरोध किया जाता है।
    भारत में गैरसरकारी स्तर पर अतुलनीय योगदान देने वाले महान शिक्षाविद् गिजुभाई बधेका भी इस बात को कई बार कहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया गया है। शिक्षा से नैतिक मूल्य हटाने से बच्चे स्कूल-कॉलेजों से स्वार्थी, स्पर्धालु, आलसी, आराम-तलबी और धर्महीन मनुष्य बनकर निकल रहे हैं। उनका शिक्षा की दशा-दिशा तय करने वालों से आग्रह था कि शिक्षा पद्धति में धार्मिक-नैतिक जीवन को, गुरु-परंपरा और आदर्श शिक्षक को स्थान दें।  लेकिन, इस दिशा में अभी तक कुछ हुआ नहीं। उल्टा जितना था उसे भी निकाल बाहर किया। हां, रामायण के कुपाठ पढ़ाने के जरूर इस बीच प्रयास हुए, भरपूर हुए। खैर, जब बात हाथ से निकलती दिखने लगी है। समाज एकदम विकृत होता दिखने लगा तब जाकर सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की आंख खुली है। अब ये कितनी खुलीं हैं और किस ओर खुलीं हैं, ये देखने की बात है। खबर है कि एनसीईआरटी प्राथमिक स्तर पर नैतिक और मूल्य आधारित शिक्षा शुरू करेगा। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने बड़े होते बच्चों को नैतिक शिक्षा के सकारात्मक पक्ष के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए एनसीईआरटी को इसकी संभावना तलाशने को कहा है। मंत्रालय ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के एक प्रतिनिधि मंडल को अगले महीने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया है। नैतिक शिक्षा का विषय प्राथमिक शिक्षा का एक हिस्सा होगा। इसके अलावा मूल्य आधारित विषय जैसे बड़ों का आदर और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय और उनके प्रति संवेदनशीलता इस विषय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। अब यहां यह देखना है कि एनसीईआरटी और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय नैतिक मूल्य भारत की संस्कृति की जड़ों में तलाश करेंगे या फिर बाहर से आयातित करेंगे। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी को संभालकर रखना है और उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना है तो उसे शिक्षित करने के लिए भारतीय संस्कृति की जड़ों में ही लौटना होगा। पश्चिम में तो वैसे ही नैतिक मूल्यों के नाम पर कुछ है नहीं। वहां के नैतिक मूल्य ही तो मैकाले हमारी शिक्षा में ठूंस गया जिसके दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैं।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

संकल्प


दीपों के इस महा उत्सव में 
एक दीप कर्म-ज्योति का हम भी जलाएं। 
धरा के गहन तिमिर को हर लें
हम स्वमेव दीपक बन जाएं।।

भारत के नवोत्थान के प्रयत्नों में 
एक अमर प्रयत्न हम भी कर जाएं। 
उत्कृष्ट भारत के निर्माण में काम आए
हम नींव के पत्थर बन जाएं।। 

नवयुग के इन निर्माणों में
एक निर्माण हम भी कर जाएं।
संस्कृति का तेजस झलकाएं
हम वो आत्मदीप बन जाएं।।

पशुता/अनाचार के जग में
एक बने सब और नेक भी हम बन जाएं। 
छू न सके भावी पीढ़ी को पाप छद्म ये
हम वो अकाट्य पर्वत बन जाएं।।

- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

इस कविता को देखने-सुनने के लिए 'अपना वीडियो पार्क'


मंगलवार, 6 नवंबर 2012

मेरा भारत



मेरा भारत है साक्षात कृष्ण स्वरूप।
देखो उसके आभा-मंडल से झलकता है अलौकिक तेज।
छेड़कर मुरली की मधुर तान
चर-अचर समूचे जग को आनंदित करता है।
शांति, पंचशील की संरचना हेतु
पल प्रतिपल सौम्य वातावरण निर्मित करता है।
अखिल ब्रह्मांड का पोषण करने
डाल अंगोछा कांधे, चरवाहा बनता है मेरा मोहन।।

मेरा भारत है साक्षात राजा राम स्वरूप।
देखो उसके ललाट पर दमकता है अनोखा ओज।
पुरुखों की रीति-परम्परा
जग कल्याण हित अग्रेषित वह करता है।
सत्य, सत की रक्षा हेतु
वन में रहकर विध्वंसक का वध करता है।
स्वर्णमयी लंका तज करके
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहता है मेरा पुरुषोत्तम।।
---
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)


शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

कुंआरा करवाचौथ

 का र्तिक मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी का दिन था। यानी करवाचौथ के एक दिन बाद। सुबह के करीब ११ बज रहे होंगे। सूरज आसमान के बीचों-बीच जगह बनाने को चल रहा था। धूप हो रही थी लेकिन जाड़े ने उसकी उष्णता कम कर दी थी। दोपहर की धूप भी गुनगुनी, अच्छी लग रही थी। छत पर सब बैठे थे। मैं अभी-अभी नहा-धोकर निपटा था। ठंड में देर से ही नहाने की हिम्मत हो पाती है। फिर ग्वालियर की ठंड के क्या कहने। हालांकि अभी ठंड अपने सबाब पर नहीं आई थी। भोजन की तैयारी थी। तभी दरवाजे से आवाज आई।
    कहां है भाई? इधर आ।
    अंदर ही आ जा। मैं खाना खाने बैठ गया हूं।
आवाज मैं पहचान गया था। सत्यवीर आया था बाहर। यहीं एक गली छोड़कर ही तो रहता है। मैन रोड पर उसका मकान है। मेरा सबसे खास दोस्त है। दिन-रात के २४ घंटे में से कम से कम १० घंटे हम साथ रहते हैं। वैसे तो वह मेरे घर कम ही आता है। मैं ही उसके घर पहुंच जाता हूं। थोड़ी देर पहले उसी के यहां से तो आया था।
    अरे यार, तू बाहर निकल आ।
    अब ऐसी भी क्या बात है। अंदर आकर ही बता देता।
    क्या बता देता? बैंड बजी पड़ी है। तू तो यहां आराम से रोटी खा रहा है कोई दो दिन से प्यासा है।
    क्यों, क्या हो गया? कौन प्यासा है? साफ-साफ बता।
    अरे यार, उसकी अम्मा की... पूर्वी ने करवाचौथ का व्रत धर लिया है। कल से पानी तक नहीं पिया है, पिया के चक्कर में। सत्यवीर ने झुंझलाते हुए कहा। मेरे कंधे पर हाथ रखा और फिर मुझे सड़क की ओर लेकर चल दिया।
    साली कुतिया की तरह घूम रही है। मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। एक तो मां को पहले ही सब पता चल गया है कि मेरा उसके साथ लफड़ा चल रहा है। तुझे तो पता ही है चार दिन पहले ही मां उसके घर जाकर उसकी मां को ठांस आई- तुम्हारी लड़की हवा में उडऩे लगी है। संभालो। मेरे घर आई या मेरे लड़के से मिली तो टांगे तोड़ दूंगी। ये साली हरामखोर ने करवाचौथ का व्रत धर लिया। अब व्रत खुलवाने के लिए दिमाग खा रही है। संदेश पर संदेश भेज रही है। मैं क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा।
    तू बहुत बड़ा वाला है यार। तेरे से मैंने पहले ही कही थी- मत पड़ उस लड़की के चक्कर में। तुझे उससे प्यार-व्यार तो था नहीं। मजे के चक्कर में फंस गईं न लेंडी। अब भुगतो, और क्या।
    अबे तू दोस्त है या दुश्मन। मैं मुसीबत में हूं तू मजे ले रहा है। उसे समझा न कि ये त्योहार कुंआरी लौंडियों के लिए नहीं होता। ब्याह के बाद रहे अपने पति के लिए रखे मजे से। मेरे गले क्यों पड़ रही है?
    उसने तो तुझे मन ही मन पति मान लिया न। अब क्या किया जा सकता है। मैंने हंसते हुए कहा।
    वह शांत रहा क्योंकि घर आ गया था। हम छत पर पहुंचे। दो मंजिल मकान है। कुल जमा ३० जीने चढऩे होते हैं छत पर पहुंचने के लिए। यहां ही हम सब मुद्दों पर चर्चा करते हैं। पूर्वी को पहली चिट्ठी भी सत्यवीर ने मुझसे यहीं बैठकर लिखवायी थी।
    अबे यार, मजाक का टाइम नहीं है। हमको तो समझ में नहीं आता कि ये कौन-सा चलन चल निकला है, कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रख लेती हैं।
    हम बताते हैं क्या चलन है। वैलेन्टाइन का नाम सुना है।
    अब हमको ये भी नहीं पता होगा क्या?
    मालूम है तुम्हें नहीं पता होगा तो क्या मुझ जैसे ब्रह्मचारी को पता होगा। दो-दो तीन-तीन गोपियों से उपहार जो वसूलते हो उस दिन। देने के नाम पर सबको चूतिया बना देते हो। हां तो सुनो भाई साधौ। देशी वैलेन्टाइन हो गया है करवाचौथ। जितनी भी लड़कियां प्रेम में आकंठ डूबी हैं। जिनका प्रेम सरेबाजार बाइक पर बैठते समय कुछ अपने प्रेमी पर टपकता है कुछ रास्ते पर, ऐसी सभी कथित कुंआरी लड़कियां करवाचौथ का व्रत रखने लगी हैं। और सुन बेटा लौंडे भी कम नहीं, वे भी करवाचौथ कर रहे हैं।
    पगला गए है भौसड़ी के सब। उसकी झुंझलाहट और बढ़ गई थी। छत से पूर्वी का घर साफ-साफ दिखता है। सत्यवीर और पूर्वी के नैना यहीं से चार होते रहे हैं। अभी भी पूर्वी इधर-उधर चहल-कदमी कर रही थी। वह इशारे से सत्यवीर को कहीं बुलाना चाह रही थी। यह देखकर सत्यवीर का दिमाग गर्म हो रहा था। वह रसिक जरूर था लेकिन ये सब चोचलेबाजी उसे कतई पसंद नहीं थी। पूर्वी को वैसे भी वह छोडऩे की फिराक में था। एक तो मां ने सारा मामला पकड़ लिया था। दूसरा सत्यवीर को भी समझ आ गया था कि यह चिपकने वाली लड़की है।
    पगलाए नहीं हैं बच्चू। प्रेम में हैं। प्रेम जो न कराए वो कम है। तू सुन, प्रेमी युगल करवाचौथ का व्रत खोलने के क्या-क्या उपाय करते हैं। तेरा मामला तो लेट हो गया। बेचारी पूरे दो दिन से बिना अन्न-पानी के है। कुछ रहम कर अपनी महबूबा पर। तो लड़के पाइप से चढ़कर अपनी कुंआरी पत्नी को चांद से चेहरे का दीदार कराने और उसे अपने हाथ से पानी पिलाने पहुंच जाते हैं। लड़कियां सबके सोने के बाद चुपके से छत पर आ जाती हैं। या फिर कहीं बाहर मिल लेते हैं।
    तू एक काम कर खाना खाकर आ। फिर अपन दो दिन के लिए गांव चलते हैं। कॉलेज में भी खास पढ़ाई नहीं चल रही है। मुझे समस्या से बाहर निकालने के लिए तेरा दिमाग भी नहीं चल रहा है।
    गांव जाने से समस्या का हल नहीं निकलेगा मेरे भाई।
    अब तू जा जल्दी खाना खाकर आ। तेरा दिमाग नहीं चलेगा। मेरी खाज है मुझे ही खुजानी पड़ेगी।
    खाना खाने के बाद मैंने घर पर बताया कि दो दिन के लिए गांव होकर आता हूं। बहुत दिन हो गए हैं, गांव गए हुए। एक जोड़ी कपड़े पॉलीबैग में डाले और चला आया फिर से सत्यवीर के घर। वो तैयार बैठा था। बस पकडऩे के लिए हम घर से बचते-बचाते निकले, कहीं पूर्वी न देख ले। बस स्टॉप पर खड़े हुए पांच मिनट ही हो पाईं थीं कि पूर्वी आ गई। वो मैडम तो घाघ की तरह शिकार पर नजरें जमाए बैठी थी। उसे देखकर सत्यवीर के माथे की लकीरें बढ़ गईं। कोई देख ले और घर जाकर कह दे तो मां के हाथ दोनों के बारह बजने तय थे। सत्यवीर और पूर्वी के बारह मेरे नहीं। मेरे तो तेरह बजते।
    भैया इन्हें समझाओ न। मैंने इनके लिए व्रत रखा है और ये हैं कि मुझे पानी तक नहीं पिला रहे हैं। मैं दुकान तक जाने की कहकर आई हूं जल्दी वापस जाना होगा। आप प्लीज इन्हें समझाइए। पूर्वी ने उदास चेहरे के साथ मुझसे गुहार लगा रही थी।
    वैसे तुम्हें ये व्रत रखने की सलाह किसने दी? ये व्रत कुंआरी लड़कियों के लिए होता ही नहींं हैं। जाओ खुद ही पानी पी लेना, कोई दिक्कत नहीं होगी। मैंने अपनी लंगोटिया यारी निभाने की कोशिश की। हालांकि मुझे पता थी कि लड़की प्रेम में पगलाई हुई है। आसानी से मानेगी नहीं। वह नहीं मानी और सत्यवीर के पास पहुंच गई। खूब विनय किया पूर्वी ने लेकिन सत्यवीर नहीं माना। तब एक बार फिर वो मेरे पास आई।
    बस आप मेरा व्रत खुलवा दीजिए। आपका एहसान रहेगा मुझ पर।
    यहां तो पानी ही नहीं है। कैसे खुलेगा तुम्हार व्रत?
    इतना सुनते ही उसने इधर-उधर देखा। टिक्की (पानी पूरी) वाले के ठेले को देखकर उसका चेहरा खिल गया। वो पट्ठी दौड़ते हुए वहां गई। टिक्की वाले से एक दोना (पत्ते की कटोरी) लिया और उसमें जलजीरा का पानी भरकर ले आई।
    अब बुला लो अपने दोस्त को। जरा अपने हाथ से पिला दे फिर भाग जाए, जहां जाना हो।
    ठीक है। लेकिन, तुम्हारे लिए एक सलाह है। ये लड़का तुम्हें प्यार नहीं करता। इसलिए इसका ख्याल अपने दिल से निकाल देना। भविष्य में इस तरह की नाटक-नौटंकी मत करना। हमारी बात बुरी लग रही होगी लेकिन यही सत्य है।
    सत्यवीर के हाथ से टिक्की का पानी पीकर वह अपने घर चली गई। सत्यवीर ने भी राहत की सांस थी। उसने कहा - अब क्या करेंगे गांव जाकर।
    अब गांव तो चलना ही पड़ेगा। हम मन बना चुके हैं। दो दिन गांव में रहकर आएंगे। चलो बस आ गई।
    दोनों बस में सवार हो गए। ईश्वर की कृपा से सीट भी मिल गई। सत्यवीर किसी सोच में डूब गया। हम मंद-मंद मुसकरा रहे थे। पूरे एपिसोड को सोच-सोच कर मैं मन ही मन व्यथित भी था तो हंस भी रहा था। व्यथित इसलिए था कि आज के युवा किस रास्ते पर हैं। जिन्हें न तो प्रेम का पता है न परंपराओं का।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

अब लेनिन के बुत भी बर्दाश्त नहीं

 क भी रूस की ताकत का प्रतीक रहे कम्युनिस्ट लीडर ब्लादिमिर लेनिन की प्रतिमाएं भी लोग बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं। हाल ही में मंगोलिया की राजधानी उलान बटोर में क्रेन की मदद से ब्रॉन्ज से बनी लेनिन की विशालकाय प्रतिमा हटा दी गई। लेनिन को मंगोलिया में (दुनियाभर में भी) दमन और हत्याओं का कारण माना जाता है। २०वीं शताब्दी में मंगोलिया कम्युनिस्ट शासन के तहत रहा। इस दौरान लेनिन ने मंगोलिया का भारी दमन और शोषण किया। लेनिन के बाद सोवियत तानाशाह जोसेफ स्टालिन के शासन में भी यहां के लोगों का जमकर उत्पीडऩ किया गया। मंगोलिया जाति ने शोषण के प्रतीक (लेनिन) का अपने देश की गलियों और चौराहों से सफाया कर दिया। यूं तो मंगोल जाति भी खूंखार मानी जाती रही है। इसका इतिहास भी रक्तरंजित है। लेकिन, यह शुभ संकेत है कि इस देश ने अन्य देशों को भी गर्व से खड़े होने की प्रेरणा दी है। गुलामी और शोषण के प्रतीकों को उखाड़ फेंकने का संदेश दिया है। यह देखने की बात है कि इस राह पर कौन-कौन बढ़ता है।
     मंगोल साम्राज्य की स्थापना १२०६ में क्रूर और अधर्मी लुटेरे चंगेज खान ने की थी। मंगोल को ही अरबी में मुगल कहते हैं। चंगेज खान के वंशजों ने भारतवासियों पर बहुत अत्याचार किए थे। स्वयं को दूसरा चंगेज खान मानने वाला तैमूर लंग एक तरह से राक्षस था। उसने दुनिया को लूटने की चाह में लाखों लोगों की हत्या की। तैमूर भारत लूटने भी आया था, तब उसने दिल्ली को सुल्तान विहीन कर दिया था। चंगेज खान और तैमूर लंग का वंशज ही था बाबर। आक्रांता बाबर भी अपने दादा-नानाओं की तरह वहशी था। उसने भारत की अस्मिता पर वार किया। बाबर के आदेश पर भारत के जन-जन के मन में बसने वाले राम का मंदिर ध्वस्त कर दिया गया। मंदिर की नींव पर ही मस्जिद बना दी गई। जिसे बाद में बाबरी मस्जिद के नाम से जाना गया। इस कलंक को धोने का प्रयास कुछ राष्ट्रभक्तों ने किया तो बवंडर खड़ा हो गया जो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। खैर बात मंगोलिया की करते हैं। मंगोलिया खानाबदोशों ने यहां-वहां से आकर बसाया था। जिसे विधिवत रूप से साम्राज्य का रूप खूंखार और बर्बर चंगेज खान ने दिया था। बाद के वर्षों में मंगोलिया इस्लामिक राष्ट्र हो गया। बौद्ध धर्म भी मंगोलिया तक पहुंचा। फिलहाल मंगोलिया में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या अधिक है। मंगोलिया में वामपंथियों के शासनकाल में सन् १९२४ के आसपास करीब ३० हजार बौद्धों को कत्ल कर दिया गया था। इस तरह की कत्लोगारत के लिए कम्युनिज्म जाना जाता है। रूस में स्टालिन, रूमानिया में चासेस्क्यू, पोलैंड में जारू जेलोस्की, हंगरी में ग्रांज, पूर्वी जर्मनी में होनेकर, चेकोस्लोवाकिया में ह्यूसांक, बुल्गारिया में जिकोव और चीन में माओ-त्से-तुंग जैसे अधिनायकवादों ने भारी नरसंहार कर आतंक का राज किया। कम्युनिज्म का आर्विभाव १९१७ में रूस की बोल्शेविक क्रांति के साथ हुआ। लेकिन, कम्युनिज्म के प्रति लोगों का आकर्षण इसी शताब्दी में खत्म हो गया। रूस में ही १९९१ में व्यापक भ्रष्टाचार और देशव्यापी भुखमरी के बीच कम्युनिज्म ने दम तोड़ दिया। रूस में कम्युनिज्म के पैरोकारों की क्या स्थिति वहां की जनता ने की होगी उसे इस बात से समझें। कम्युनिस्ट शासन ने तंग हो चुकी जनता ने रूस में लेनिन और स्टालिन के शवों को भी बुरी तरह पीटा था। बाद में यहां लेनिनग्राद का नाम पुन: सेंट पीटर्सबर्ग और स्टालिनग्राद का नाम वोल्गोग्राद कर दिया था। कम्युनिस्टों के कारनामों से काले पृष्ठों का ही नतीजा है कि मंगोलियन भी अपने देश से एक-एक कर शोषण की निशानियां मिटा गर्वोन्मुक्त महसूस कर रहे हैं। जिस समय मंगोलिया की राजधानी उलान बटोर में लेनिन की विशालकाय प्रतिमा हटाई जा रही थी तब सडक़ों पर उत्साहित नौजवानों और वृद्धों की भीड़ जमा थी। सब जुट आए थे कंलक को मिटता देखने के लिए। 
      हिन्दू संस्कृति का मंगोलिया पर खासा असर देखने को मिलता है। यही कारण रहा कि समय के साथ यहां के बर्बर लोग सभ्य होते दिखे। भारतीय संस्कृति के प्रभाव में आने के बाद यहां सांस्कृतिक परिवर्तन देखे गए। मंगोलिया में भारत की तरह दोनों हाथ जोडक़र अभिवादन करने की परंपरा थी। यहां धार्मिक कृत्य एवं पूजा गंगाजल के बिना पूरी नहीं होती थी। यहां संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषाओं में ग्रंथ रचे गए और यहां के लोक-काव्य में रामायण की कथाएं प्रचलित हैं। इतना ही नहीं बैकल झील के चारों ओर विद्या के अनेक केन्द्र थे। जहां देवी सरस्वती के अनेक चित्र और मूर्तियां थीं। मंगोलिया ने सभ्य होने के भारत से बहुत कुछ सीखा तो भारत को मंगोलिया से अब सीख लेनी चाहिए। जिस तरह गर्व से मंगोलिया ने शोषण के प्रतिकों को उखाड़ा है भारत को भी अपने देश से गुलामी के प्रतीक चिह्नों को हटा देना चाहिए। चाहे वो किसी मुस्लिम आक्रांता के नाम पर भारत की धरती पर अब तक स्थापित हो या ब्रिटिश शासन काल की निशानियां हों। आक्रांताओं और अत्याचारियों के बुत उखाड़ फेंक दिए जाएं, उनके नाम से बने शहर, सडक़, गली और मोहल्लों के नाम बदल दिए जाएं। तभी युवा भारत गर्व की सांस ले सकेगा।

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

कठिन है ‘शब्द साधना’ की राह

lokendra singh/लोकेन्द्र
  अ पने ब्लॉग पर मैंने आखिरी पोस्ट (बड़ों के लिए किस्से बचपन के) २४ सितंबर को प्रकाशित की थी। तब से लेकर अब तक भारी व्यस्तता का दौर रहा। इस बीच पढऩे-लिखने का क्रम ही टूट गया। शिखा वाष्र्णेय की पुस्तक ‘स्मृतियों में रूस’ को रोज लालायित होकर देखता हूं लेकिन पढ़ नहीं पा रहा हूं। कारण एक ही है भारी व्यस्तता। १६ अक्टूबर को बालक पांच माह का हो गया। अपने नन्हें राजकुमार को भी समय देने में असमर्थ हूं। कल तो श्रीमती जी ने ताना मार ही दिया- तुम्हारे पास तो परिवार के लिए समय ही नहीं है। अपुन सुनकर रह गए। और कर भी क्या सकते थे। खैर, आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा कौन-सा मील चला रहा था? हमारे इधर कहावत है- मील चलाना। जो मनुष्य यह कहता हुआ पाया जाता है कि मेरे पास समय नहीं है। दूसरे मनुष्य उसे पलटकर यही कहावत सुना देते हैं- तुम कौन-सा मील चला रहे, जो तुम्हारे पास दो मिनट का भी समय नहीं है। कुछ नहीं दोस्तो अभी-अभी संस्थान बदला है। राजस्थान पत्रिका को विदा कह कर नईदुनिया (जागरण ग्रुप) आया हूं। नया माहौल, नया सिस्टम, थोड़ा सहज होने में समय तो लगता ही है। फिर अपुन तो महाआलसी राम हैं। जरा-सा बदलाव, थोड़ा देर से सोना, बहुत देर से उठना। समय कब निकल जाता है अपुन को पता ही नहीं चलता।
           खैर, अभी तक की कहानी शीषर्क से मेल नहीं खा रही न? चलो यू टर्न लेते हैं। गपशप छोडक़र मुद्दे की बात पर आते हैं। दरअसल, भारी व्यस्तता का एक और कारण है, जिसकी चर्चा मैं आप लोगों से करना चाहता हूं। इन दिनों में अपने पहले काव्य संग्रह के प्रकाशन को लेकर इधर-उधर हाथ-पैर मारने में लगा हूं। संग्रह तैयार है लेकिन प्रकाशक नहीं मिल रहा। मिले भी तो क्यों? अपुन कोई देश-विदेश में ख्याति अर्जित कवि हैं नहीं। अपुन कोई बेस्टसेलर बुक राइटर भी नहीं? साहित्य का कोई सामंत भी अपना मुंह बोला ताऊ नहीं। अपनी कविताओं से विवाद भी नहीं फैलने वाला। ‘लोकेन्द्र जी हम कविताएं नहीं छापते’। कई प्रकाशकों का यह जवाब सुनकर तो माथे पर चिंता की और लकीरें और बढ़ गईं। एक तो आटा कम था वह भी गीला हो गया। दोस्तो, इस भागम-भाग भरे डेढ़ माह में एक विद्वान ने अपुन को उम्मीद की लौ दिखाई कि लगे रहो बेटा जब तक सांस है, कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा। हारकर बैठ गए तो कुछ नहीं होना। उन्होंने यह मंत्र मुझे सीधे नहीं दिया। यह तो उन्होंने साहित्य जगत की बिडम्वना को लेकर कहा था। 
          हुआ यूं कि मैं गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की पुस्तकों के लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचा। कार्यक्रम में मंच पर देश के बड़े साहित्यकार जगदीश जी तोमर और दिवाकर विद्यालंकार जी विराजमान थे। विद्यालंकार जी ने अपने उद्बोधन में गिरिजा जी की पुस्तकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में दो तरह की साधना होती है। एक तो भाव साधना और दूसरी शब्द साधना। भाव साधना पहली साधना है। शब्द साधना अगली सीढ़ी है। भाव साधना में साहित्यकार कितना भी पारंगत हो जाए लेकिन उसकी साधना तब तक अधूरी है जब तक शब्द साधना पूरी न हो जाए। शब्द साधना का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि शब्द साधना का मोटा-मोटा अर्थ है भावों का प्रकाशित हो जाना। किसी साहित्यकार की कृति प्रकाशित होने में बड़ा श्रम लगता है। हिन्दी साहित्य में प्रकाशक या तो स्थापित नामों को ही छाप रहे हैं या फिर जो उन्हें धन देता है उसे छाप देते हैं। अर्थात् भाव साधना से भी अधिक परिश्रम और महत्व की साधना है शब्द साधना। लेखक और कवि की बात समाज में जन-जन तक पहुंचे उसके लिए शब्द साधना बहुत जरूरी है। विद्यालंकार जी ने आगे कहा कि निराश होकर रचनाकार कभी-कभी सोचता है कि उसकी कृति स्तरीय नहीं है। यह सोचकर वह उसे किसी संदूक या किसी कोने में छुपा देता है। ऐसा करके वह भावों की हत्या करता है। अशुद्धियों और त्रुटियों के डर से साहित्य रचना को प्रकाशित नहीं कराना गलत कदम है। सबकी रचनाओं में कमियां रह जाती हैं, जिन्हें समालोचना, आलोचना और समीक्षा के बाद दूर किया जाता है।
            मित्रो उनके इस उद्बोधन ने अपने पिचकते फेंफड़ों में हवा भर दी। कार्यक्रम में ही जोश आ गया। मन ही मन तय किया कि अब और जोर-शोर से अपने काव्य संग्रह के प्रकाशन की तैयारी की जाएगी। शब्द साधना की कठिन डगर पर चल निकला हूं, देखते हैं कब पूरी होती है।
चलते-चलते : आप लोग भी बहुत दुष्ट हो। जरा ब्लॉग से दूर क्या हुआ? आप लोगों ने तो आना ही बंद कर दिया। दुष्टई की हद होती है, हाल-चाल तक नहीं पूछा मेरा। चलो छोड़ो अब आते रहिएगा। आभासी दुनिया के रिश्तों में भी थोड़ी संवेदनशीलता बनी रहनी चाहिए, वरना दुश्मनों के आरोपों को सच होते देर नहीं लगती।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

बड़ों के लिए किस्से बचपन के

 गि रिजा कुलश्रेष्ठ का पहला कहानी संकलन है 'अपनी खिड़की से'। भले ही यह उनका पहला कहानी संग्रह है लेकिन उनकी लेखनी की धमक पहले से मौजूद है साहित्यकारों के बीच। हाल ही में अपने स्थापना के तीन सौ साल पूरे करने वाली बाल जगत की पत्रिका 'चकमक' में उनकी कहानियां प्रकाशित होती रही हैं। झरोका, पाठक मंच बुलेटिन  और सोशल मीडिया भी उनकी रचनाओं को लोगों तक पहुंचा चुका है। 'अपनी खिड़की से' में १५ बाल कहानियां हैं। हालांकि परंपरागत नजरिए से ये बाल कहानियां हैं लेकिन मेरे भीतर का मन इन्हें सिर्फ बाल कहानियां मानने को तैयार नहीं। इन १५ कहानियों का जो मर्म है, आत्मा है, संदेश है वह न सिर्फ बच्चों के लिए आवश्यक है बल्कि उनसे कहीं अधिक जरूरी बड़ों के लिए है। भाग-दौड़ के जीवन में अक्सर हमारा मन इतना थक जाता है कि हम अपने बच्चों की आवाज भी नहीं सुन पाते, उनकी संवेदनाओं को महसूस करना तो दूर की बात है। ऐसे में गिरिजा कुलश्रेष्ठ की कहानियां हमें ये सोचने पर मजबूर करती हैं कि अनजाने में ही सही कहीं हम अपने लाड़ले के बचपन के साथ नाइंसाफी तो नहीं कर रहे। हालांकि 'अपनी खिड़की से' की कहानियां खुलेतौर पर बड़ों को उनकी गलतियां नहीं बतातीं लेकिन कहानियों का मर्म यही है। ये कहानियां गुदगुदाती हैं, जिज्ञासा जगाती हैं, चाव बढ़ाती हैं, मुस्कान लाती हैं और हौले से जीवन की अनमोल सीख दे जाती हैं।
     संग्रह का शीर्षक पहली कहानी के शीर्षक से लिया गया है। पहली कहानी में साधारण परिवार का बालक वचन अपने घर की खिड़की से पड़ोस में रहने वाले अमीर परिवार के बालक नीलू की गतिविधियां देखकर अपना मन उदास करता रहता है। नीलू के कितने मजे हैं। उसके पास कितने खिलौने हैं। इकलौता होने के कारण मम्मी-पापा के प्रेम पर भी अकेले का अधिकार। लेकिन, जिस दिन वह मौका पाकर नीलू के घर उसके साथ खेलने जाता है और वहां उसकी जिंदगी से बावस्ता होता है तब उसे पता चलता है कि मजे तो नीलू के नहीं उसके हैं। उसके मां-पिता कहीं भी जाते हैं तो सब भाई-बहनों को लेकर जाते हैं। वह जी भरकर साइकिल चला सकता है। कपड़े मैले होने का डर नहीं, वह मैदान में खेल सकता है। लेकिन नीलू की मां तो कितनी रोक-टोक करती है। चुपके से यह कहानी बड़ों को भी समझाइश देती है कि बच्चों के मन को समझो और उन्हें तितली की तरह आजाद रहने दो। तमाम तरह की बंदिशों में बचपन को बांधकर उन पर जुल्म न किया जाए। बच्चों को महंगे खिलौनों से अधिक अपनों का स्नेह चाहिए होता है। इसलिए दुनियादारी के बीच से अपने मासूमों के लिए थोड़ा-सा वक्त तो निकाला जाए। दूसरी कहानी 'पतंग' बड़ी महत्वपूर्ण है। माता-पिता कई बार जबरन और कुतर्क के साथ अपने विचार अपने बच्चों पर थोप देते हैं। बच्चे की खुशी जाए भाड़ में। माता-पिता की यही गलतियां कई बार उन्हें और बच्चों को असहज स्थितियों में लाकर खड़ा कर देती हैं। अब इसी कहानी के पात्र सूरज को लीजिए, वह ईमानदार, सच बोलने वाला और माता-पिता का आज्ञाकारी बालक है। उसके पिता का मत है कि पतंग उड़ाने वाले लड़कों का भविष्य निन्यानवे प्रतिशत खराब है। वे सबके सामने यदाकदा घोषणा भी करते रहते हैं कि हमारा बेटा सूरज कभी पतंग नहीं उड़ाएगा। उसे तो एक अच्छा विद्यार्थी बनना है। अब भला पतंग न उड़ाने और अच्छे विद्यार्थी बनने का क्या विज्ञान है? सूरज का मन तो पतंगों के रंगीन ख्वाब सजाता है। एक दिन पतंग उड़कर खुद ही उसके करीब आ जाती है। अब वह पिता के डर से उसे छिपाता है, झूठ भी बोलता है, इस चक्कर में वह गिरकर चोटिल भी हो जाता है। हालांकि अंत में पिता को पता चल जाता है और बेटे की खुशी को भी वो समझ लेते हैं। 'रद्दी का सामान, इज्जत वाली बात, मां, बॉल की वापसी और आंगन में नीम' बेहद रोचक कहानियां हैं। ये बड़ों और छोटों के मनोविज्ञान को उकेरती हैं। बड़ों और छोटों के बीच किन बातों को लेकर उठापटक, खटपट और अनबन रहती है और इन्हें कैसे दूर करके दोनों एक-दूसरे के नजदीक आ सकते हैं, दोस्त बन सकते हैं, इन कहानियों में बेहद खूबसूरती से इसका शब्द चित्रण किया गया है।
    'कोयल बोली' निश्चित ही आपको भावुक कर देगी। आपको आपका छुटपन और छुटपन के खास दोस्त की याद दिला देगी। 'बिल्लू का बस्ता' स्कूल के शुरुआती वर्षों की यादों का पिटारा खोल देगा। स्कूल जाने की कैसी-कैसी शर्तें होती थी। मां-पिता भी कितने प्रलोभन देते थे स्कूल भेजने के लिए। हमारे बस्ते में किताबें कम खिलौने ज्यादा मिला करते थे। विद्या के नाम पर किताबों में किसी पक्षी के रंगीन पंख और पौधे की पत्तियां। कंचे, डिब्बे-डिब्बियां, किताबों से काटे गए कार्टून और फूल के चित्र न जाने क्या-क्या। उस वक्त तो यही हमारे लिए कुबेर का खजाना होता था। सबसे छिपाकर रखना पड़ता था अपना खजाना।
    'सूराख वाला गुब्बारा' और 'बादल कहां गया' बड़ी मजेदार कहानियां हैं। सूराख वाला गुब्बारा का आशय चंद्रमा से है। यह धरती, सूरज और चंद्रमा के संबंध में है। मनुष्य की गलतियों की वजह से 'बादल का अपहरण' हो गया है। हवा बालक बादल को अपने साथ ले गई है। उसने फिरौती के रूप में मांगे हैं पेड़, पौधे, जंगल और बगीचे। बादल चाहिए तो हमें धरती को हरी साड़ी से सुशोभित करना पड़ेगा। प्रकृति के संवद्र्धन का संदेश देती कहानी है यह।
    तो मित्रो गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने अपने पहले ही कहानी संग्रह में हमें एक भरी-पूरी फुलवारी सौंपी है। जिसके १५ पुष्पों से उठती तरह-तरह की भीनी खुशबू बेहतरीन है। लेखिका प्रस्तावना में उम्मीद व्यक्त करती हैं उनकी ये बाल-कहानियां बाल पाठकों में ही नहीं वरन् प्रबुद्ध पाठकों के बीच में भी अपना स्थान बनाएंगी। मेरा मत है कि कहानियां प्रबुद्ध पाठकों द्वारा निश्चित ही सराही जाएंगी। अपने मकान की 'अपनी खिड़की से' देखेंगे तो कहीं न कहीं ये कहानियां हमें अपने आस-पास ही बिखरी नजर आएंगी।
दो शब्द अलग से : संग्रह में 'अपराजिता' का एक ही अंश प्रकाशित हो सका है। पूरी कहानी होती तो अपना प्रभाव ठीक से छोड़ पाती। कई बार अंश कथा के मर्म को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाते। 'तनु को रोना क्यों आ गया' इस सवाल का जवाब तो मुझे नहीं सूझा। संभवत: कहानी का संदेश कहीं फंस-सा गया। एक और छोटी-सी खामी दिखी। संग्रह में कहीं-कहीं वर्तनी की मामूली-सी त्रुटियां भी दिखीं। हालांकि इन्हें मैं प्रकाशक की जिम्मेदारी ही मानता हूं। एक और सूचना - गिरिजा जी का एक खंडकाव्य 'ध्रुव गाथा' प्रकाशित होकर आ गया है. आप गिरिजा जी को यहाँ (ये मेरा जहाँ ) पढ़ सकते हैं.

रविवार, 16 सितंबर 2012

ज्ञान है तो जहान हैं

 कौ न बनेगा करोड़पति का छठवां सीजन शुरू हो गया है। तीसरे ही एपिसोड में जम्मू कश्मीर के मनोज कुमार करोड़पति भी बन गए हैं। अमिताभ बच्चन ने केबीसी को और केबीसी ने अमिताभ बच्चन को, दोनों ने एक-दूसरे को नई ऊंचाई पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस बार केबीसी की टैग लाइन लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही है। साथ ही एक सकारात्मक संदेश भी दे रही है। 'आपका ज्ञान ही आपको आपका हक दिलाता है' वाकई हॉट सीट पर बैठे व्यक्ति को तो उसका ज्ञान ही रुपया जितवा सकता है। हमारे बड़े-बुजुर्ग भी कहते हैं- 'पढ़-लिख लो बेटा ज्ञान ही तुम्हारे काम आएगा। जमीन, मकान और दुकान सब बंट जाएगा लेकिन बुद्धि का बंटबारा नहीं होता। वह निजी संपत्ति है। सब कुछ छीना जा सकता है, लूटा जा सकता है, हड़पा जा सकता है लेकिन बुद्धि नहीं। बुद्धि के बल पर फिर से सब हासिल किया जा सकता है। ज्ञान है तो जहान है यानी ज्ञान ही आपको आपका हक दिलाता है।' हालांकि यह एक अलग बात है कि केबीसी में हॉट सीट तक पहुंचने के लिए कहीं न कहीं किस्मत कनेक्शन की जरूरत होती है। अब मुझे ही लीजिए इस सीजन में मैंने करीब ५०० रुपए के मैसेज भेजे और हां सभी सही जवाब। लेकिन, हॉट सीट तक पहुंचना तो दूर एक बार पलट कर फोन भी नहीं आया। खैर, छोडि़ए अपनी बात में क्या रखा, कुछ बच्चन साहब की बात की जाए और कुछ केबीसी की।
    'आपका ज्ञान ही आपको आपका हक दिलाता है' टैग लाइन का विचार कहां से आया? इस सवाल का जवाब है - सुशील कुमार। याद आया बिहार, मोतीहारी के सुशील कुमार, जिन्होंने पिछले सीजन में पांच करोड़ रुपए की रकम जीती थी। केबीसी के अब तक के इतिहास में इतनी बड़ी रकम कोई नहीं जीत सका। लेकिन, मोतीहारी के एक साधारण शिक्षक ने अपने ज्ञान के बूते पर यह कामयाबी हासिल करके दिखाई। अमिताभ बच्चन मीडिया को बताते हैं कि सुशील कुमार के उदाहरण से ही शो को थीम मिली। यह शो महज एक गेम शो नहीं है बल्कि इसके माध्यम से कहीं न कहीं अमिताभ या कहें शो निर्माता कंपनी सामाजिक मुद्दे भी उठाने की कोशिश करते हैं। बहरहाल, केबीसी-६ के अलग-अलग विज्ञापन कई संदेश देते दिखे। बेटा-बेटी में अंतर न किया जाए। खासकर सबको पढऩे के समान अवसर उपलब्ध कराए जाएं। समाज में अकसर देखने को मिलता है कि लोग सोचते हैं बेटी को पढ़ाने से पैसा जाया हो रहा है क्योंकि कल तो यह ससुराल चली जाएगी। स्त्री इस देश की आधी शक्ति है, उसे उसका अधिकार मिलना ही चाहिए। एक और महत्वपूर्ण विज्ञापन है जो हिन्दी के महत्व को उजागर करता है। विज्ञापन साफ संदेश देता है कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना ही श्रेष्ठता की पहचान नहीं है। एक भारतीय हिन्दी में कहीं अधिक सहजता से ज्ञार्नाजन करता है। ज्ञान किसी भाषा के बंधन में नहीं बंधा। शिक्षा की राष्ट्रीय परिचर्या-२००५ की रूपरेखा में भी इस बात को स्वीकारा गया है कि अपनी भाषा में इंसान बेहतर सीख सकता है। इसलिए हिन्दी को हीनभावना से देखने वाले निरे मूर्ख हैं। हिन्दुस्तान की बिन्दी है हिन्दी। इस बिन्दी पर हमें नाज होना चाहिए। भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां विदेशी भाषा को देशी भाषा से अधिक मान सरकारी स्तर पर दिया गया है। अध्ययन-अध्यापन, व्यापार, संवाद और लेखन अंग्रेजी में होता है। जबकि चीन, जापान, इजराइल और ब्रिटेन सहित दुनियाभर के तमाम देशों में वहीं की मूल भाषा में शिक्षा, संवाद से लेकर व्यापार तक होता है। कई बार देशभर में अमिताभ बच्चन की आलोचना होती है कि बच्चन ने देश और समाज को क्या दिया है? बाकी तो मुझे ज्ञात नहीं लेकिन बच्चन ने हिन्दी की बड़ी सेवा की है। शायद ही कोई बॉलीवुड सितारा होगा जो पर्दे के बाहर शुद्ध हिन्दी में बात करता हो। केबीसी के जितने भी सीजन बच्चन ने होस्ट किए हैं सबमें उनकी हिन्दी ने लोगों को खासा आकर्षित किया है।
     हिन्दी सिनेमा की १५० से अधिक फिल्मों अभिनय कर चुके अमिताभ बच्चन ११ अक्टूबर को ७० वर्ष को हो जाएंगे। इसके अगले दिन ही केबीसी-६ का १६वां एपिसोड होगा। निश्चित ही यह एपिसोड खास होगा। अमिताभ बच्चन को इस सदी का महानायक कहा जाता है। उनके होनेभर से केबीसी सफलता के शिखर चूम लेता है। केबीसी और बिग बी एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। अमिताभ केबीसी को होस्ट करने के लिए काफी मेहनत भी करते हैं। केबीसी ही है जिसने लगभग कंगाल हो चुके अमिताभ बच्चन को भी करोड़पति बनाया बल्कि बच्चन की एक नई पारी को शुरुआत दी। और वह अमिताभ बच्चन ही हैं जो केबीसी की सफलता की अनिवार्य शर्त हैं। सभी जानते हैं एक बार शाहरूख खान भी गेम शो होस्ट कर चुके हैं जो बुरी तरह फ्लोप हुआ था। उम्मीद है कि कौन बनेगा करोड़पति-६ सफलता के नए प्रतिमान स्थापित करेगा। हॉट सीट तक पहुंचने वाले के ज्ञान का हक अदा करेगा।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

इश्क के सिक्के

Lokendra singh
सुनहरा समय सरक गया हाथों से
हम बाहर हो गए उसके ख्वाबों से।

निकले थे सफर पर वो हाथ थामकर
मृग मरीचिका ने भटका दिया राहों से।

जिसके दिल-ओ-दिमाग में थे हरदम
अब हम निकल गए उनकी यादों से।

यादों के ठूंठ रह गए जिन्दगी में
महकते सब फूल टूट गए बागों से।

साथ देने की कसम ली थी मुझसे
आज वो ही मुकर गए अपने वादों से।

पहुंच न सकूं उसके आंगन तक
पैरों के निशां मिटाते चले वो राहों से।

ठन-ठन गोपाल रह गए जिन्दगी के मेले में
इश्क के सिक्के सब टपक गए फटी जेबों से।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)



बुधवार, 29 अगस्त 2012

कठपुतलियों के हाथ में है देश

लोकेन्द्र सिंह/भारतवाणी
 दे श का वर्तमान परिदृश्य देखकर लगता नहीं हम आजाद हैं। आजादी के ६६वें सालगिरह पर मनाई पार्टी का भी खुमार नहीं चढ़ा। देश में लूट मची है। सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार करके भी साफ मुकर रहे हैं। जबकि सब बेईमानी की कीचड़ में सिर तक सने हैं। अब तो कथित ईमानदार प्रधानमंत्री का झक सफेद कुर्ता भी कोयले से काला हो गया है। निर्लज्जता देखिए यूपीए के मंत्रियों की- वे कैग को ही गरिया रहे हैं, झुठला रहे हैं। विपक्ष और जनता सवाल उठा रही है लेकिन यूपीए-२ सरकार कंबल ओढ़ कर घी पी रही है। इतना ही नहीं एक और गंभीर दृश्य है देश के बुरे हाल का। देश बंधक है वंशवाद की राजनीति का। देश को कठपुतलियां चला रहीं है। जनता की पीड़ा पर प्रधानमंत्री चुप है। राष्ट्रपति सरकार की बोली बोल रहे हैं। गजब देखिए संसद का संचालन भी अध्यक्ष के विवेक से नहीं वरन किसी के इशारे से हो रहा है। इशारे कहां से हो रहे हैं? कौन कर रहा है? किसे नहीं पता! सबको पता है।
    भारतीय संसद के इतिहास की पुस्तक में काले पन्नों पर दर्ज होने वाला प्रकरण है राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन और केन्द्रीय मंत्री राजीव शुक्ला की कानाफूसी। वह तो शुक्र है कांग्रेस और यूपीए सुप्रीमो ने सबके दिमाग अपने पास गिरवी रख रखे हैं। वरना राजीव शुक्ला उपसभापति के कान में फुसफुसाने से पहले माइक बंद करना नहीं भूलते। उपसभापति के माइक ने राज्यसभा में उपस्थित सांसदों और राज्यसभा टीवी ने देश की आवाम को दिखा-सुना दिया कि राजीव शुक्ला ने पीजे कुरियन से कहा - कोयला घोटाले पर हंगामा थमेगा नहीं, आप कार्रवाई दिनभर के लिए स्थगित कर देना। इस पर कुरियन बोलते हैं - जी अच्छा। इसके बाद उपसभापति ने एकाएक सदन की कार्रवाई को स्थगित कर दिया। जबकि सदन का संचालन निष्पक्ष रूप से किया जाना चाहिए था। सभापति किसी न किसी पार्टी से जरूर होता है लेकिन वह पार्टी लाइन से ऊपर होता है। उस समय वह एक तरह से पंच परमेश्वर की कुर्सी पर बैठा होता है। पंच तो सबका होता है और किसी का नहीं। सदन में सभापति सर्वोच्च होता है। भारतीय संसदीय व्यवस्था में सभापति की महती भूमिका है। उनकी जिम्मेदारी है कि सदन का सफलता से संचालन हो ताकि जनता के करोड़ों रुपए हंगामे की भेंट न चढ़े। सदन की कार्रवाई से देशहित में कुछ न कुछ निकल कर आए। सदन का संचालन सभापति को स्वविवेक के आधार पर करना होता है किसी की इच्छानुसार नहीं। खैर, इस कानाफूसी काण्ड से पीजे कुरियन 'कु'नजीर बन गए। लोग वर्षों-बरस याद करेंगे कि एक थे कुरियन जो खाली दिमाग थे। सदन का संचालन सरकार के मंत्री के इशारे पर करते थे। एक क्षण रुकिए, क्योंकि यहां साफ कर दूं कि पीजे कुरियन को यह ज्ञान भी मिस्टर शुक्ला ने स्वविवेक से नहीं दिया। बल्कि इसके पीछे सौ फीसदी कांग्रेस सुप्रीमो के निर्देश होंगे।
    इधर, देश के प्रधानमंत्री की नाक के नीचे लगातार घोटाले हो रहे हैं और अब भी वे ईमानदारी का लबादा ओढ़े घूम रहे हैं। बोल तो उतना ही रहे हैं जितना उनको निर्देश है। देश में शायद ही कभी इतना लाचार, बेबस और कमजोर प्रधानमंत्री रहा होगा। भविष्य में भी शायद ही ऐसा कोई आए। बड़ी लज्जाजनक स्थिति है कि अब भारत के प्रधानमंत्री चुटकुलों का केन्द्रीय पात्र हो गए हैं। वर्ष २००४ में सेन्ट्रल हॉल से लेकर अब तक प्रधानमंत्री ने इतनी बेइज्जती सहन की है कि उनकी सहनशीलता का लोहा मानना पड़ेगा। असली लौहपुरुष हैं हमारे प्रधानमंत्री। सबको याद होगा सेन्ट्रल हॉल का नाटक। सोनिया गांधी 'त्याग' की मूर्ति बनी थी। सारे कांग्रेसी टसुए बहा रहे थे, साष्टांग दंडवत थे। वे सोनिया के अलावा किसी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहते थे। मनमोहन सिंह के पक्ष में एक भी संसद सदस्य नहीं था। मैडम ने पूरा होमवर्क करके प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया था। उन्हें मालूम था कि 'मिस्टर क्लीन' उनके आदेशों का अक्षरश: पालन करेंगे। साथ ही भ्रष्टाचार में ढाल का भी काम करेंगे। प्रधानमंत्री ने अपनी उपयोगिता समय-समय पर प्रदर्शित की। यूपीए-२ में हजारों करोड़ रुपए की लूट कथित ईमानदार पीएम की छवि के पीछे होने दी। मनमोहन सिंह सशक्त प्रधानमंत्री नहीं है इस बात का वे खुद प्रमाण देते हैं। जनता और विपक्ष ने जब भी प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा, मनमोहन चुप्पी साध गए। कांग्रेस एकजुट होकर उनके बचाव में आ जाते हैं। माफ कीजिएगा, उनके नहीं ये सब अपने बचाव में एकजुट होते हैं क्योंकि इन्हें उनकी आड़ लेकर देश को और लूटना था। इसमें एक गजब की बात देखिए - जनता और विपक्ष के मांगने पर इस्तीफा नहीं देने वाले प्रधानमंत्री युवराज के लिए कुर्सी छोडऩे को दिन-रात तैयार रहते हैं। सार्वजनिक मंचों से इस बात को कह भी चुके हैं। जलालत झेलने को तैयार लेकिन चलेंगे रिमोट से ही, ऐसे हैं हमारे पीएम ऑफ इंडिया। यही हाल गृहमंत्री और वित्तमंत्री सहित अन्य के हैं।
    राष्ट्रपति देश का प्रथम और सर्वोच्च पद है। पद की गरिमा बहुत है। लेकिन, कांग्रेस ने अपने शासन काल में जिस तरह राज्यपाल व्यवस्था को तार-तार किया है, ठीक उसी तरह राष्ट्रपति पद की साख को भी नुकसान पहुंचाया है। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का चयन हो या फिर वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का। नि:संदेह प्रणव मुखर्जी एक कद्दावर और साफ छवि के नेता हैं। देश के सर्वोच्च पद के दावेदार भी। उनकी लोक ताकत को देखते ही कांग्रेस सुप्रीमो ने उन्हें कभी प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। हालांकि उनका भी मैडम ने विपरीत परिस्थितियों में जमकर उपयोग किया। प्रणव बाबू भी अनजाने में ही सही गांधी-नेहरू वंश की गोद में खेलते रहे। युवराज के सिंहासनरूढ़ होने का रास्ता साफ हो सके इसके लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र रचा गया। यूपीए-२ के सशक्त नेता को उपकृत करके पंगु करने का षड्यंत्र। प्रणव बाबू को देश का प्रथम नागरिक बनवा दिया गया। हांलाकि इसमें कांग्रेस सुप्रीमों के पसीने जरूर छूट गए। सरकार ने पैकेज नहीं बांटे होते तो सहयोगियों ने सुप्रीमो का खेल बिगाडऩे का पूरा इंतजाम कर रखा था। सुप्रीमो के लिए प्रणव बाबू को राष्ट्रपति भवन पहुंचाना जरूरी था इसलिए पैकेज के दम पर थोक में वोट खरीदे गए। नतीजा ६६वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रपति भी सरकार के मंत्रियों की बोली बोलते नजर आए। यानी राष्ट्रपति के भेष में यूपीए का एक मंत्री। राष्ट्रपति ने कहा कि जन आंदोलनों से लोकतंत्र को खतरा है। सब जानते हैं कि खतरा किसको है, लोकतंत्र को, कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को, कांग्रेस को या फिर वंशवाद की राजनीति को। इतिहास तो गवाही देता है कि जन आंदोलनों ने लोकतंत्र को मजबूत किया है, कमजोर नहीं। जन आंदोलनों ही देश की आजादी की राह सुगम की थी। हाल ही में विश्व पटल पर अन्य देशों में भी जन आंदोलनों से लोकतंत्र की बहाली हुई है। फिर क्यों देश के राष्ट्रपति जनता का मनोबल गिरा रहे थे। दरअसल, प्रणव बाबू की आवाज में कांग्रेस की मनस्थिति थी। उनका यह भाषण कांग्रेस सुप्रीमो के प्रति धन्यवाद था। 
    भारत की वर्तमान सरकार की आस्था जनता में न होकर किसी विशेष परिवार में हैं। ये सरकार तानाशाह भी है। घोटाले दर घोटाले उजागर हो रहे हैं। महंगाई बढ़ रही है। विकास दर घट रही है। देश में कानून व्यवस्था नाम की चीज नहीं। देश में अलगाव की आग सुलग रही है। अवैध घुसपैठियों की भरमार हो गई है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के पक्षधर गृहयुद्ध जैसी स्थितियां बना रहे हैं। लेकिन, सरकार की चमड़ी की मोटाई और चिकनाहट बढ़ रही है। वह हर बार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर आवाम की आंख में धूल झौंकने का काम कर रही है। जनता ने बड़ी उम्मीद से अपने नेता को संसद में चुनकर भेजा था। ताकि देश के सर्वोच्च सदन में नेता उनकी बात रख सकेगा। लेकिन, सब उम्मीदें ध्वस्त। वह तो दिल्ली में १० जनपथ की चाकरी करता दिख रहा है। कांग्रेस सुप्रीमों की अंगुलियों पर ता-ता थैय्या कर रहा है। जनता ने भी अब मन बना लिया है- २०१४ में देश कठपुतलियों को नहीं सौंपना।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

लोकजीवन के लिए 'समरसता के सूत्र'

 स मरसता के सूत्र पुस्तक की प्रस्तावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक कुप्.सी. सुदर्शन ने लिखी है। इसके अलावा इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर दिए गए उनके भाषण को भी पुस्तक में शामिल किया गया है। श्री सुदर्शन लिखते हैं कि विश्व में हिन्दू चिंतन सबसे विशिष्ट और अनोखा है जो विश्व के अन्य किसी समाज के पास नहीं है। यह विश्व बंधुत्व की भावना का विकास करता है। इसमें चर-अचर सबके कल्याण की बात कही गई है। विदेशियों के हमले, समय के चक्र और कुरीतियों के बीच हिन्दू समाज में कुछ बुराइयां घर कर गईं। इनमें सर्वाधिक कष्ट इस बात का है कि जाति के आधार पर हिन्दू और हिन्दू के बीच भेदभाव एवं अस्पृश्यता घुसपैठ हो गई। समय के साथ यह बुराई विकराल हो गई। हिन्दू समाज को इन सब से मुक्त कर समरस, सजग, सचेत, सबल, समद्ध और स्वावलंबी समाज बनाने के कलए स्वामी विवेकानन्द, वीर सावरकर, ऋषि अरविन्द, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरुजी, शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले, गाडगे महाराज, तुकड़ोजी महाराज और डॉ. अंबेडकर जैसे महापुरुषों का बड़ा योगदान रहा। लेकिन, समाज अभी भी जितना बदलना चाहिए, उतना नहीं बदला है। प्रतिदिन हमें जातिभेद के आधार पर होने वाले अत्याचारों, अन्याय और विद्रूपताओं का परिचय मिलता है। इस समस्या के निर्मूल निवारण के लिए अभी और काम किया जाना शेष है। श्री सुदर्शन जी ने 'समरसता सूत्र' के संपादन के लिए तत्कालीन पाञ्चजन्य के संपादक (वर्तमान में राज्यसभा सांसद) तरुण विजय और मराठी साप्ताहिक विवेक के संपादक रमेश पतंगे के लिए साधुवाद दिया। उन्होंने प्रस्तावना में लिखा है कि 'समरसता सूत्र' हिन्दू समाज को समरसता के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकेगा, यह मुझे विश्वास है। पुस्तक में कुल ३५ आलेख हैं। इनमें श्री गुरुजी, दत्तोपंथ ठेंगड़ी, हो.वे. शेषाद्रि, महाशूद्र के साथ ही राजनाथ सिंह, गिरिलाल जैन, किशोर मकवाणा, प्रदीप कुमार, राजा माधव और रामनाथ सिंह के विचारों को स्थान दिया गया है। इसके अलाव पुस्तक में सत्येन्द्रनाथ दत्त, श्रीप्रकाश और रसिक बिहारी मंजुल की चार कविताओं को स्थान दिया गया।
    'समरसता के सूत्र' हिन्दू समाज में जाति भेदभाव और अस्पृश्यता के बीजारोपण से लेकर समस्या के विकराल बनने, समाज को हुए नुकसान और समस्या के निवारण के लिए हो रहे प्रयासों समझने का ग्रंथ है। पुस्तक के संपादक रमेश पतंगे अपने एक आलेख में समरसता शब्द के महत्व को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हैं। १९४७ के पूर्व 'स्वतंत्रता या आजादी' एक ऐसा ही शब्द था जो सभी के अंत:करण के तार छेड़ देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'समाजवाद' यह शब्द आर्थिक, सामाजिक समता को अभिव्यक्त करने वाला था, इसलिए इसका चलन बहुत अधिक होता रहा। १९७० के दशक में 'समता' शब्द का भी प्रचुर मात्रा में उपयोग होने लगा। लेकिन, इन सबसे इतर 'समरसता' शब्द अति व्यापक अर्थ को व्यक्त करता है। सृष्टि के मनुष्य जीवन में एक ही चेतना होने के कारण मनुष्य-मनुष्य इस नाते से एकदूजे के समान हैं। भारतीय विचार परंपरा हमें यह सिखाती है कि सारी सृष्टि चेतन-अचेतन एक ही तत्व का आविष्कार है। इसीलिए परस्पर सामंजस्य और समरसता होना अत्यंत स्वाभाविक है। 'समरसता' शब्द नया नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन में पहली बार इसका उपयोग किया। श्री गुरुजी के 'सामाजिक विचार दर्शन' में अनेक बार इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहीं, १९७० के दशक में 'समरसता' शब्द का प्रयोग वैचारिक क्षेत्र में एक सिद्धांत के रूप में शायद पहली बार किया गया। इसका श्रेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को देना चाहिए। रमेश पतंगे ने इसी आलेख में दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी द्वारा स्थापित समरसता मंच के कार्यों का उल्लेख किया है। समसरता मच की स्थापना १९७३ को हुई, तब से मंच समाज में समरसता लाने के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। इसका असर भी हिन्दू समाज में अब दिखता है।
      इस पुस्तक के संपादक तरुण विजय अपने आलेख 'दलित दर्द-यह दर्द भारत का है' में मनुष्य-मनुष्य में भेद पर तीखा सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं कि हम राम और कृष्ण की उपासना करते हैं और कहते हैं कण-कण में राम हैं। हम पत्थर को भी ईश्वर बनाकर चंदन लगाते हैं, उस पर माला चढ़ाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हम पत्थर को तो भगवान बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन जीते जागते प्राणवान मनुष्य में प्रत्यक्ष ईश्वर बसता है, उस पर अपने घर में आने तक रोक लगाते हैं। हम होली दीवाली मनाते हैं पर तीज-त्योहार पर न तो इन वंचितों के घर जाते हैं और न ही इन्हें अपने घर बुलाते हैं। वे लिखते हैं सामाजिक भेदभाव की खाई पाटने और समाज में समरसता लाने सार्थक प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके स्वयंसेवकों में द्वारा किए जा रहे हैं। संघ में न तो किसी की जाति पूछी जाती है और न ही जाति का भेदभाव चलता है।
      पुस्तक में तमाम विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि समाज में समरसता लाने के लिए कोई सही दिशा में काम कर रहा है तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। यह सच भी है। संघ के निर्माताओं का ध्येय भी यही रहा हिन्दू समाज का संगठन। संगठन भेदभाव की खाई पाटे बिना नहीं हो सकता इसलिए संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा भी कि हिन्दवो सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता। श्री गुरुजी के प्रयासों से ही प्रयाग के कुंभ में संत-महात्माओं ने धर्म संसद में सभी हिन्दू समान है इस आशय की घोषणा की। संघ के प्रयासों से ही बेंगलूरु में स्वामी विश्वेश्वरा तीर्थ अनुसूचित जाति की बस्ती में गए , सहभोज किया। सन् १९८९ में अनुसूचित जाति के व्यक्ति कामेश्वर चौपाल ने रामजन्मभूमि की पहली शिला रखी। काशी में संतों ने डोमराजा के घर पहुंचकर प्रसाद ग्रहण किया। संघ के कार्य को स्पष्ट करते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं कि हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। समष्टिरूप भगवान की सेवा करेंगे। उसका कोई अंग अछूत नहीं, कोई हेय नहीं है। उसका एक-एक अंग पवित्र है, यह हमारी धारणा है। हम इस धारणा के आधार पर समाज बनाएंगे। भारत में जातीय भेदभाव पुरातन काल से नहीं है। पूर्व काल में तो समाज के सभी बंधुओं को समान अधिकार-समान सम्मान प्राप्त था। पंचायत व्यवस्था में हर तबके का प्रतिनिधि शामिल रहता था। प्रभु रामचंद्र की राज्य व्यवस्था का भी जो वर्णन है, उसमें चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पांचवां निषाद यानी वनवासी बंधुओं का प्रतिनिधि पंचायत में शामिल रहता था। परन्तु बीच कालखण्ड में वह व्यवस्था टूट गई।
      इस पुस्तक के एक आलेख में दत्तोपंत ठेंगडी लिखते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अपने सात वर्ष के कार्यकाल में ही १९३२ के नागपुर के विजयादशमी महोत्सव में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने घोषित किया था कि संघ क्षेत्र में जातिभेद और अस्पृश्यता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। इस घोषणा की सत्यता की प्रतीति सन् १९३४ के वर्धा जिले के संघ शिविर में महात्मा गांधी को भी हुई थी। हो.वे. शेषाद्रि लिखते हैं कि हिन्दू समाज में समरसता के लिए काम करने वाले दो महापुरुषों का योगदान उल्लेखनीय है - डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। डॉ. हेडगेवार ने तो संघ की स्थापना के साथ ही मौन रूप से इस दिशा में कार्य प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने अंबेडकर जी के प्रयासों की सराहना भी की। १९२४ में मुम्बई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा में डॉ. अंबेडकर ने भी कहा था कि अस्पृश्यों का उद्धार केवल अस्पृश्यों के बलबूते पर ही नहीं होगा, अपितु पूरे समाज को साथ लेकर आगे बढऩे से होगा। डॉ. अंबेडकर जब पुणे के संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने पया कि यहां तो अस्पृश्यता नाम की चीज ही नहीं है। सभी लोग वहां पर समान थे। उच्च जाति, निचली जाति, ब्राह्मण आदि के साथ उन्होंने समान व्यवहार देखा।
      कई बार एक मिथ्या धारणा बड़े जोर-शोर से चिल्लाकर प्रचारित की जाती है कि संघ में तथाकथित उच्चवर्ग के लोगों की बाहुलता है। पूछा जाता है कि आखिरकार जिनको हरिजन या दलित अथवा अस्पृश्य जाति से संबंधित कहा जाता है, उनके बीच में संघ की सक्रियता कहां तक है और वे संघ कार्य की मुख्यधारा में कहां दिखाई देते हैं? तो जिसे हम मुख्यधारा कहते हैं उसका अर्थ हिन्दू एकता ही है। कार्यकर्ता किस जाति के हैं और किस घर में पैदा हुए हैं- यह जानना मुख्यधारा नहीं होती। संघ में यह नहीं देखा जाता कि कार्यकर्ता किस जाति का है। सभी का व्यवहार, मानसिकता समरसता की है। स्वयं गांधी जी भी जब संघ शिविर में आए थे तो उन्होंने यही पया था। द टाइम्स ऑफ इण्डिया के पूर्व संपादक गिरिलाल जैन और अमृतलाल नागर के उपन्यास की भूमिका के अंश स्पष्ट करते हैं कि किस तरह भारत में जाति का भूत खड़ा हुआ। जिन लोगों को आज अस्पृश्य, अछूत माना जा रहा है उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए कितने कष्ट सहे हैं। एक और झूठ प्रचारित किया जाता है कि हिन्दू धर्म में तथाकथित शूद्रों को वेद अध्ययन या पूजा-पाठ का अधिकार नहीं दिया गया। इस झूठ से पर्दा उठाते हुए राजा जाधव लिखते हैं कि याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि शूद्रों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। शम-दम-सत्य का पालन और धर्माचरण करने वाला शूद्र भी ब्राह्मण कहलाता है ऐसा वेदव्यास ने महाभारत में कहा है। पराशर, वशिष्ठ, व्यास, कणाद, मंदपाल, मांडव्य आदि सारे ऋषि शूद्र ही थे। धीवर, चांडाल, गणिका, आदि कनिष्ठ जातियों की संतान भी उस काल में गुरुकुल में पढ़ती थीं। ऐतरेय महिदास शुद्रपुत्र ही था। वह वेदवेत्ता बन गया। ऐतरेय ब्राह्मण यह ग्रंथ उसी ने रचा है।
     राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई अनुषांगिक संगठन समाज में समरसता लाने के लिए जुटे हैं। विश्व हिन्दु परिषद और सेवा भारती उन्हीं में से हैं। सेवा भारती के माध्यम से आज देशभर में तमाम निचली जाति की बस्तियों के सेवा कार्य और शिक्षा के प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। गुजरात की मासिक पत्रिका नमस्कार के संपादक किशोर मकवाणा लिखते हैं कि विगत दस वर्षों से संघ कार्य को निकट से देखकर, शाखाओं में घुल-मिलकर स्वयंसेवकों के व्यवहार को देखकर, आज यह सब पढऩे को मिलता है कि - संघ दलित विरोधी है। तब ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने गाल पर चांटा मार दिया हो और मन में भयंकर वेदना उठती है। कितना सफेद झूठ। समाज के तथाकथित दलितोद्धार के ठेकेदारों ने वर्षों से दलित समाज में जो विष भरा है, उसे निकालना काफी कठिन कार्य है। इस दिशा में संघ की शक्ति और कार्य अभी भी बढऩा चाहिए। जितेन्द्र तिवारी अपने आलेख 'कले थे अछूत आज बने पण्डित' में बताते हैं कि किस प्रकार संघ प्रेरणा से समाज में बदलाव आए। जिन्हें अछूत माना जाता था वे पढ़-लिखकर पूजा-पाठ कार्य भी संपन्न करा पा रहे हैं।
     समरसता के सूत्र समाज को एकजुट करने और हिन्दू-हिन्दू में भेदाभेद को खत्म करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से किए जा रहे कार्यों का ग्रंथ तो है ही यह समाज में अन्य महानुभावों द्वारा इस दिशा में किए गए और किए जा रहे कार्यों की जानकारी भी देती है। अंत में एक बात कहना चाहूंगा जो पुस्तक का ध्येय भी है- देश और समाज के विकास के लिए समरसता जरूरी है। इसलिए हिन्दू-हिन्दू के बीच का भेद खत्म करने के लिए सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए।
पुस्तक : समरसता के सूत्र
मूल्य : ३५० रुपए (सजिल्द)
संपादक : रमेश पतंगे, तरुण विजय
प्रकाशक : मचान,
सी-३७५, सेक्टर-१०, नोएडा (उत्तरप्रदेश) - २०१३०१

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

मीडिया चौपाल : सोशल मीडिया की 'अगस्त क्रांति'

मीडिया चौपाल-२०१२ में उपस्थित सोशल मीडिया के सिपाही.
सोशल मीडिया भी मुख्यधारा का मीडिया
 अ गस्त क्रांति का बिगुल सन् १९४२ में भारत से अंग्रेजों को भगाने के लिए फूंका गया था। यूं तो इसे 'भारत छोड़ो आंदोलन' के नाम से अधिक जाना जाता है। युवाओं को आकर्षित करने के लिए संभवत: इसे अगस्त क्रांति का नाम दिया गया। ८ अगस्त, १९४२ को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान से अगस्त क्रांति का उद्घोष किया गया। इस क्रांति ने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दी थीं। फलत: १९४७ में अंग्रेजों को बोरिया बिस्तर समेटकर भारत से जाना पड़ा। आखिरकार भारत ने लंबे संघर्ष, छोटी-बड़ी क्रांति, आंदोलन और प्रतिरोध के बाद आजादी हासिल कर ली। लेकिन, आजादी के बाद देश सही दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। देश के कर्णधार विकास का देशज मॉडल विकसित नहीं कर सके। पहली सरकार के कार्यकाल से ही घोटाले की परिपाटी शुरू हो गई। नतीजतन आज भी देश के हालात अंग्रेज जमाने के भारत से बेहतर नहीं है। भ्रष्टाचार, नौकरशाही, राजनीति में वंशवाद-तानाशाही, पेड न्यूज जर्नलिज्म जैसी तमाम बीमारियों की गिरफ्त में देश है। देश का कोई कोना, कोई विभाग और दफ्तर भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा। इस सबकी आंच पर भीतर ही भीतर देश उबल रहा था, उबल रहा है। नतीजा एक और अगस्त क्रांति। अगस्त २०११ में अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली में भारत उमड़ आया। भ्रष्टाचार के खिलाफ और जनलोकपाल के लिए अगस्त क्रांति का नारा बुलंद हुआ। अन्ना हजारे के आंदोलन के पहले से कालेधन के मुद्दे पर गांव-गांव में अलख जगा रहे बाबा रामदेव ने एक बार फिर अगस्त २०१२ में दिल्ली के रामलीला मैदान में जनशक्ति का प्रदर्शन किया। इन अगस्त क्रांति से तात्कालिक और प्रत्यक्ष परिवर्तन भले ही न आए हो लेकिन आने वाले समय में असर जरूर दिखेगा। क्रांति से सुलगी आग बड़ी देर में शांत होती है। बहरहाल, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के नेतृत्व में हुए आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका अहम मानी जा रही है। भारत के आमजन की तरह सोशल मीडिया भी तमाम परेशानियों और चुनौतियों से जूझ रहा है। इन सब पर चिंतन के साथ ही विज्ञान के साथ विकास की बात करने के लिए भोपाल में १२ अगस्त को सोशल मीडिया संचारकों का जमावड़ा हुआ। आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद और स्पंदन संस्था की ओर से था। दिनभर की दिमागी कसरत के बाद देर शाम को भोपाल उद्घोषणा के नाम से सोशल मीडिया की नीतियों और उद्देश्यों की घोषणा हुई। सर्वसम्मति से तैयार की गई नीतियों और उद्देश्यों को मीडिया चौपाल के सह आयोजक स्पंदन संस्था के सचिव अनिल सौमित्र ने सबके सामने रखा। अनिल सौमित्र के बुलावे पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देशभर से करीब डेढ़ सौ सोशल मीडिया संचारक पहुंचे। चर्चा के दौरान विचारों के आदान-प्रदान से स्पष्ट हो गया कि सब सिस्टम से लडऩे के मूडी हैं। सब युवा थे, जोश-उत्साह से लबरेज और अध्ययनशील भी। सोशल मीडिया को पॉपकोर्न मीडिया, न्यू मीडिया और टाइमपास मीडिया कहने वालों का उन्होंने तीखा विरोध किया। युवाओं ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि अब से सोशल मीडिया को भी मुख्यधारा का मीडिया माना जाए। सोशल मीडिया को भी समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझकर काम करना होगा। भाषा-तथ्य की शुद्धता और स्वनियंत्रण के लिए आचार संहिता के पालन पर विशेष ध्यान देना होगा। लड़ाई लम्बी चलनी है इसलिए सोशल मीडिया फोरम बनाने का निर्णय मीडिया चौपाल में हुआ। युवा वेब पत्रकारों के जज्बे को देखकर सोशल मीडिया संचारकों के इस जमावड़े को 'सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति' कहा जा सकता है।
    बाजारवाद के प्रभाव में जब समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने आमजन को जगह देना कम कर दिया तब सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा मंच बनकर सामने आया है। कुछेक समाचार पत्रों को छोड़ दिया जाए तो अब समाचार पत्रों में पाठकों के पत्रों के लिए भी जगह नहीं बची है, विचारों के लिए तो कतई जगह नहीं। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। चर्चित और अधिक सर्च की जाने वाली वेबसाइट पर भी हर कोई अपनी बात कहने में सक्षम है। ब्लॉग, फेसबुक, ऑरकुट और ट्विीटर भी अभिव्यक्ति का मंच बन गए हैं। कई मुद्दे तो सोशल मीडिया के कारण ही चर्चा में आए। मीडिया चौपाल में इस बात पर तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गईं कि कथित मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया से खबरें, लेख व अन्य सामग्री कॉपी कर अपने पन्ने भर रहा है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया के उस सिपाही को आभार भी व्यक्त नहीं कर रहा जिसकी सामग्री उसने उपयोग की। कई बार सोशल मीडिया प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों के पीछे की कहानी को भी उजागर कर देती है। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रचार प्रमुख राममाधव ने कहा कि सोशल मीडिया ने सही मायनों में पत्रकारिता को लोकतांत्रिक कर दिया है। अब सच छुपाए से भी नहीं छुप सकता। सूचनाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं। सोशल मीडिया को और अधिक सशक्त करने की जरूरत है। हालांकि उन्होंने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्व को भी रेखांकित किया। वहीं वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने सोशल मीडिया के उजले और स्याह पक्षों को सबके सामने रखा। सोशल मीडिया के बेहतर भविष्य के लिए उन्होंने कुछ सुझाव भी दिए। इनमें भाषा और तथ्य की मर्यादा बनाए रखने की बात कही। सोशल मीडिया पर एक सरसरी नजर दौड़ाएं तो केजी सुरेश की चिंता जायज है। कई बार ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया भी भटकाव के पथ पर न बढ़ जाए। बेहद फूहड़ फोटोग्राफ्स, टिप्पणियां, लेख और समाचार वर्चुअल वल्र्ड में तैरते दिखते हैं। कंटेंट की गेटकीपिंग के अभाव में गाली-गलौज तक की भाषा धड़ल्ले से लिखी जा रही है। गलत बात का विरोध करने के लिए अपने शब्दों की धार तीखी रखो लेकिन पवित्रता के साथ। शब्द ब्रह्म होता है। इसलिए सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को एक आचार संहिता बनानी होगी और पालन भी करना होगा। तभी सोशल मीडिया की ताकत बढ़ेगी। सच की ताकत बढ़ेगी। बात का असर होगा। तभी व्यवस्था में भी परिवर्तन होगा। वेब पत्रकारों के इरादों को मजबूत करते हुए श्री सुरेश ने स्वामी विवेकानंद का प्रसंग सुनाया। किसी भी अच्छे काम का पहले तो समाज या कहें कि उस क्षेत्र के जमे-जमाए लोग उपहास उड़ाते हैं। हम अपना काम तब भी जारी रखे रहे तो जमकर विरोध और आलोचना होती है। इन दोनों सीढिय़ों के पार विजय हमारे स्वागत में पुष्पहार लेकर खड़ी होती है। यानी समाज हमें स्वीकार कर लेता है। ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया के द्वंद्व को मीडिया चौपाल में पहुंचे 'सामना' (हिन्दी) मुंबई के संपादक प्रेम शुक्ल ने खत्म कर दिया। उन्होंने साफ किया कि ओल्ड मीडिया और न्यू मीडिया जैसी कोई चीज नहीं है। समय के साथ सब ही अपनी अपडेट अवस्था में हैं। दोनों प्रतिद्वंद्वी की भूमिका में रहे तो समाज का भला होने से रहा। दोनों को मिलकर काम करना होगा। बात सही भी है वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम हमेशा गड़बड़ ही रहता है। इस बात पर मंथन के बाद तय हुआ कि सोशल मीडिया को अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। इस बात को कमल संदेश पत्रिका के संपादक, राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि बिना लक्ष्य के कोई भी कार्य फलीभूत नहीं होता। अधिकांश लोग फिलहाल इंटरनेट पर निरुद्देश्य लिख रहे हैं। पहले तय किया जाए कि ब्लॉग किसलिए लिखना है, फेसबुक पर लगातार क्या और क्यों अपडेट करना है और वेबपोर्टल क्यों चलाना है? जब तक गोल स्पष्ट नहीं होगा तब तक कुछ भी संभव नहीं है। सांसद प्रभात झा ने सोशल मीडिया का समर्थन किया और वर्तमान की जरूरत बताया।
    मीडिया चौपाल की महत्वपूर्ण घोषणा है - वेब पत्रकारों के हितों की लड़ाई के लिए मीडिया फोरम का गठन करना। ताकि सत्ता के नशे में चूर राजनेता या अन्य लॉबी वेब पत्रकारों का दमन नहीं कर सके। मीडिया चौपाल से भड़ास फॉर मीडिया के संपादक यशवंत सिंह और समाचार संपादक अनिल सिंह के खिलाफ की गई पुलिस कार्रवाई का विरोध किया गया। सोशल मीडिया के सफल संचालन के लिए अर्थ की व्यवस्था के लिए भी एक आर्थिक मॉडल विकसित करने की बात रखी गई। कॉपीराइट और वेबपोर्टल के पंजीयन की बात भी आई। साथ ही वेब पत्रकारों को भी अधिमान्यता देने की मांग की गई। सोशल मीडिया पर तेजी से फैल रही अश्लीलता और भाषाई गंदगी को रोकने के लिए सभी ने एकमत से आचार संहिता बनाने की राय जाहिर की। सोशल मीडिया फोरम से जुड़े वेब संचारकों को इस आचार संहिता का पालन करना अनिवार्य होगा। आचार संहिता का उल्लंघन करने की स्थिति में उक्त वेब संचारक को फोरम से निकाल दिया जाएगा। उम्मीद जताई गई कि ऐसी स्थिति में भाषाई मर्यादा और तथ्यों की पवित्रता बनाई रखी जा सकती है। इंटरनेट की ताकत को राष्ट्र विरोधी ताकतों ने भी तौल लिया है। देश और समाज को तोडऩे, नागरिकों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने और विदेशी ताकतों को मदद पहुंचाने के लिए कई राष्ट्रविरोधी व्यक्ति व संस्थाएं काम कर रही हैं। इनसे निपटने की भी रणनीति बनाने की बात चौपाल में रखी गई। एक सर्वे के मुताबिक भारत में करीब १२ करोड़ इंटरनेट यूजर हैं। यह संख्या भारत की एक प्रतिशत आबादी से भी कम है। लेकिन, यह वर्ग प्रभावी है। यही नहीं उत्तरोत्तर इंटरनेट यूजर की संख्या बढऩी है। तकनीकि का जमाना है, हर कोई अपडेट रहना चाहता है। शिक्षा और तकनीक के प्रसार के साथ सोशल मीडिया का दायरा भी बढ़ रहा है। इसलिए इंटरनेट पर प्रसारित संदेश, चर्चा और मुद्दों को समाज के बीच ले जाने में और माहौल बनाने में ये १२ करोड़ लोग सक्षम हैं। उक्त मुद्दे और प्रस्ताव क्रांति की मशाल के ईंधन की तरह हैं। इसलिए कहता हूं भोपाल में आयोजित मीडिया चौपाल में सच की लड़ाई लडऩे के लिए सोशल मीडिया की अगस्त क्रांति का सूत्रपात हो चुका है। यह लड़ाई कहां तक जाएगी यह देखना शेष है।