भा रत में उसकी मूल और सबसे पुरानी भाषा संस्कृत तुच्छ राजनीति की भेंट चढ़ गई। भाषाई राजनीति के घटिया खेल ने उसे अभिजात्य वर्ग की भाषा करार देकर सामान्य वर्ग को उससे दूर कर दिया। अंग्रेजी की महिमा गाकर संस्कृत की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर दिए। सरल, सरस और समृद्ध संस्कृत को कठिन भाषा बताकर उसके अध्ययन को कर्मकाण्डी ब्राह्मणों तक सीमित कर दिया। सुनियोजित षड्यंत्र के तहत संस्कृत को स्कूली अध्ययन से बाहर कर दिया। लेकिन सूरज पर कितना भी मैला फेंका जाए वह गंदला नहीं होता। एक ओर जब संस्कृत के खिलाफ षड्यंत्र रचे जा रहे हैं दूसरी ओर उसे लोकप्रिय बनाने के लिए 'संस्कृत भारती' जी-जान से जुटी है। संस्था के प्रयासों से भारत की संस्कृति की आधार भाषा संस्कृत की चमक देश की भौगोलिक सीमाओं से भी बाहर पहुंच गई।
शिक्षा के व्यवसायीकरण के बाद से भारत में जहां अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है, वहीं विदेश में संस्कृत का झंडा बुलंद हो रहा है। देश-विदेश में समय-समय पर हुए तमाम शोधों ने भी स्पष्ट किया कि संस्कृत वैज्ञानिक सम्मत भाषा है। रिसर्च के बाद सिद्ध हुआ है कि कम्प्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा भी संस्कृत ही है। विश्व की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था नासा भी लंबे समय से संस्कृत को लेकर रिसर्च कर रही है। दुनिया के कई देशों में संस्कृत का अध्ययन कराया जा रहा है। इसके अलावा कई विदेशी संस्कृत सीखने के लिए भारत का रुख कर रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं पोलैंड की अन्ना रुचींस्की, जिनका पूरा परिवार ही अब संस्कृतमय हो गया है। रुचींस्की के परिवार में आपस में बातचीत भी संस्कृत में की जाती है। संस्कृत में रुचींस्की की रुचि २० साल पहले जगी थी। अन्ना रुचींस्की अपने पति तामष रुचींस्की के साथ घूमने के लिए भारत आईं थीं। वे बनारस के घाट पहुंचीं। यहां गूंज रहे वेदमंत्रों से प्रभावित होकर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय पहुंचीं। विश्वविद्यालय में रुचींस्की ने संस्कृत भाषा और भारत की संस्कृति को पहली बार करीब से जाना। अंतत: देवभाषा से प्रेरित होकर अन्ना ने संस्कृत विश्वविद्यालय से डॉ. पुरुषोत्तम प्रसाद पाठक के निर्देशन में वर्ष २००६ में पीएचडी किया। इसके पूर्व वे पोलैंड में भारतीय विज्ञान से एमए कर चुकी थीं। इसी बीच उनके सबसे छोटे पुत्र स्कर्बीमीर रुचींस्की (योगानंद शास्त्री) के मन में भी संस्कृत के प्रति अलख जगी और वह वाराणसी आ गए। उन्होंने संस्कृत विश्वविद्यालय से विदेशी छात्रों के लिए चलाए जा रहे संस्कृत के प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रम में वर्ष १९९९ में दाखिला लिया और द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। २००४ में शास्त्री (स्नातक) और २००६ में आचार्य (स्नातकोत्तर) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद योगानंद ने वर्ष २०१० में योगतंत्रागम विभाग में उपाचार्य डॉ. शीतला प्रसाद उपाध्याय के निर्देशन में उन्होंने 'मंत्रदेव प्रकाशिका तंत्र ग्रंथस्य समालोचनात्मक' विषय पर पीएचडी के लिए पंजीयन कराया। उनकी शोध साधना अभी जारी है। उन्होंने बताया कि उनके पिता ने पोलैंड में ही भारतीय दर्शन पर पीएचडी की है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जो संस्कृत के प्रति विदेशियों के मन में जगे प्रेम को प्रकट करते हैं।
'संस्कृत भारती' ने संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने का अभियान २५ साल पहले शुरू किया था। संस्था की ओर से देश-विदेश में संस्कृत सिखाने के लिए दस-दस दिन के शिविरों से लेकर कुछ सर्टीफेकेट कोर्स भी कराए जाते हैं। संस्था के प्रयासों की बदौलत देश में कई क्षेत्र संस्कृतमय हो गए हैं। कर्नाटक में २०० परिवारों का गांव मत्तूर वैदिक काल का गांव लगता है। यहां घरों की दीवारों पर संस्कृत में मंत्र लिखे हैं। सुबह-शाम मत्तूर मंत्रोच्चार से गूंजता है। यहां सब आपस में संस्कृत में ही बातचीत करते हैं। वर्तमान पीढ़ी से आगामी पीढ़ी की ओर संस्कृत ज्ञान की गंगा बहती रहे, इसकी व्यवस्था भी है। मत्तूर में गुरुकुल परंपरा का पालन भी किया जा रहा है। भारतीय विद्या भवन के पूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय पद्यश्री डॉ. मत्तूर कृष्णमूर्ति का संबंध इसी गांव से है। मत्तूर का लगभग हर व्यक्ति संस्कृत का प्रकांड विद्वान है। इतना ही नहीं इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली है। इनमें से कई विद्वान तो हिन्दू संस्कृति के प्रचार-प्रसार में भी लगे हुए हैं। मध्यप्रदेश में झिरी गांव भी मत्तूर की तरह संस्कृतनिष्ठ गांव है। संस्कृत भारती के अथक प्रयासों से यहां भी बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े संस्कृत की अच्छी समझ रखते हैं। यहां आप पहुंचेंगे तो संस्कृत अभिभावन से ही आपका स्वागत होगा। खास बात यह है कि यहां इससे पहले संस्कृत का कोई माहौल नहीं था। यहां पहुंचने पर प्रतीत होता है कि यह कोई रामायण काल का गांव है। संभवत: ये लोग दुनिया की नजर से बचे रह गए होंगे। लेकिन, यह सच नहीं। सब आधुनिक सुविधाओं के बीच भी गांव में संस्कृत का प्रचलन है। उन्हें अपनी भाषा पर गर्व है।
संस्कृत विश्व की ज्ञात भाषाओं में सबसे पुरानी भाषा है। लैटिन और ग्रीक सहित अन्य भाषाओं की तरह समय के साथ इसकी मृत्यु नहीं हुई। कारण भारत का वैभव तो संस्कृत में ही रचा बसा है। भारत की अन्य भाषाओं हिन्दी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, बंगला, उडिय़ा आदि का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। हिन्दू धर्म के लगभग सभी ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे गए हैं। बौद्ध व जैन संप्रदाय के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में ही हैं। हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों के नाम भी संस्कृत भाषा पर आधारित होते हैं। अब तो संस्कृत नाम रखने का फैशन भी चल पड़ा है। प्राचीनकाल से अब तक भारत में यज्ञ और देव पूजा संस्कृत भाषा में ही होते हैं। यही कारण रहा कि तमाम षड्यंत्रों के बाद भी संस्कृत को भारत से दूर नहीं किया जा सका। यह दैनिक जीवन में नित्य उपयोग होती रही, भले ही कुछ समय के लिए पूजा-पाठ तक सिमटकर रह गई थी। लेकिन, समय के साथ अब फिर इसकी स्वीकार्यता बढ़ रही है। आज भी पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है। इसके लिए क्षेत्रीयता और वोट बैंक की कुटिल राजनीति छोडक़र आगे आना होगा। सार्थक प्रयासों से संस्कृत को फिर से जन-जन की भाषा बनाया जा सकता है।