शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

संतों से परहेज क्यों?

 अ क्सर कहा जाता है कि साधु-सन्यासियों को राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए। उनका काम धर्म-अध्यात्म के प्रचार तक ही सीमित रहे तो ठीक है, राजनीति में उनके द्वारा  अतिक्रमण अच्छा नहीं। इस तरह की चर्चा अक्सर किसी भगवाधारी साधु/साध्वी के राजनीति में आने पर या आने की आहट पर जोर पकड़ती है। साध्वी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती, योगी आदित्यनाथ आदि के राजनीति में भाग लेने पर नेताओं और कुछ विचारकों की ओर से अक्सर ये बातें कही जाती रही हैं। इसमें एक नाम और जुड़ा है स्वामी अग्निवेश का जो अन्य भगवाधारी साधुओं से जुदा हैं। हालांकि इनके राजनीति में दखल देने पर कभी किसी ने आपत्ति नहीं जताई। वैसे अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में ये अग्रणी भूमिका निभाते हैं, इस बात से कोई अनजान नहीं है। पूर्व में इन्होंने सक्रिय राजनीति में जमने का प्रयास किया जो विफल हो गया था।
    अन्ना हजारे के अनशन से पहले से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रखी है। उन्होंने कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए अलग से भारत स्वाभिमान मंच बनाया है। वे सार्वजनिक सभा और योग साधकों को संबोधित करते हुए कई बार कहते हैं यदि कालाधन देश में वापस नहीं लाया गया तो लोकसभा की हर सीट पर हम अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। उसे संसद तक पहुंचाएंगे। फिर कालाधन वापस लाने के लिए कानून बनाएंगे। उनके इस उद्घोष से कुछ राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़बोले नेताओं के पेट में दर्द होता है। इस पर वे बयानों की उल्टी करने लगते हैं। आल तू जलाल तू आई बला को टाल तू का जाप करने लगते हैं। ऐसे ही एक बयानवीर कांग्रेस नेता हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा। वे अन्ना हजारे को तो चुनौती देते हैं यदि राजनीतिक सिस्टम में बदलाव लाने की इतनी ही इच्छा है तो आ जाओ चुनावी मैदान में। लेकिन, महाशय बाबा रामदेव को यह चुनौती देने से बचते हैं। वे बाबा को योग कराने और राजनीति से दूर रहने की ही सलाह देते हैं। चार-पांच दिन से दिग्गी खामोश हैं। सुना है कि वे खुद ही एक बड़े घोटाले में फंस गए हैं। उनके खिलाफ जांच एजेंसी के पास पुख्ता सबूत हैं।
    खैर, अपुन तो अपने मूल विषय पर आते हैं। साधु-संतों को राजनीति में दखल देना चाहिए या नहीं? जब भी कोई यह मामला उछालता है कि भगवाधारियों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। तब मेरा सिर्फ एक ही सवाल होता है क्यों उन्हें राजनीति से दूर रहना चाहिए? इस सवाल का वाजिब जवाब मुझे किसी से नहीं मिलता। मेरा मानना है कि आमजन राजनीति को दूषित मानने लगे हैं। यही कारण है कि वे अच्छे लोगों को राजनीति में देखना नहीं चाहते। वहीं भ्रष्ट नेता इसलिए विरोध करते हैं, क्योंकि अगर अच्छे लोग राजनीति में आ गए तो उनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी। उनकी छुट्टी हो जाएगी। राजनीति का उपयोग राज्य की सुख शांति के लिए हो इसके लिए आवश्यक है कि संत समाज (अच्छे लोग) प्रत्यक्ष राजनीति में आएं। चाहे वे साधु-संत ही क्यों न हो। वर्षों से परंपरा रही है राजा और राजनीति पर लगाम लगाने के लिए धार्मिक गुरु मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं। वे राजनीति में शामिल रहे। विश्व इतिहास बताता है कि इस व्यवस्था का पालन अनेक देशों की राज सत्ताएं भी करती थीं। भारत में इस परिपाटी का बखूबी पालन किया जाता रहा। चाहे भारत का स्वर्णकाल गुप्त काल रहा हो या मौर्य काल हो या फिर उससे भी पीछे के पन्ने पलट लें। आचार्य चाणक्य हालांकि साधु नहीं थे, लेकिन उनकी गिनती संत समाज में तो होती ही है। इन्हीं महान चाणक्य ने राजनीति के महाग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की। प्रत्यक्ष राजनीति करते हुए साधारण बालक चंद्रगुप्त को सम्राट चंद्रगुप्त बनवाया और अत्याचारी घनानंद को उसकी गति तक पहुंचाया। वे सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज व्यवस्था में महामात्य (प्रधानमंत्री) के पद पर जीवनपर्यंत तक बने रहे। छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
    रावण के अत्याचार से दशों दिशाएं आतंकित थीं। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े शूरवीर राजा-महाराजा दुम दबाए बैठे थे। विश्वामित्र ने बालक राम को दशरथ से मांगा और अपने आश्रम में उदण्डता कर रहे राक्षसों का अंत करवाकर रावण को चुनौती दिलवाई। इसके लिए उन्होंने जो भी संभव प्रयास थे सब करे। यहां तक कि राम के पिता दशरथ की अनुमति लिए बिना राम का विवाह सीता से करवाया। महाभारत के कालखण्ड में तो कितने ही ऋषि पुरुषों ने राजपाठ से लेकर युद्ध के मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।  महात्मा गांधी भी संत ही थे। उन्होंने भी राजनीति को अपना हथियार बनाया। उन्होंने विशेष रूप से कहा भी है कि 'धर्म बिना राजनीति मृत प्राय है'। धर्म की लगाम राजनीति से खींच ली जाए तो यह राज और उसमें निवास करने वाले जन समुदाय के लिए घातक सिद्ध होती है। यह तो कुछेक उदाहरण हैं, जिनसे हम सब परिचित हैं। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
    मेरा मानना है कि संत समाज का काम सिर्फ धर्म-आध्यात्म का प्रचार करना ही नहीं है। समाज ठीक रास्ते पर चले इसकी व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी है। अगर इसके लिए उन्हें प्रत्यक्ष राजनीति में आना पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है? साधु-संतों को राजनीति में क्यों नहीं आना चाहिए? इसका ठीक-ठीक उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला। यदि आप बता सकें तो आपका स्वागत है।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

'बयान वापस लिए' कहानी जारी है...

अन्ना हजारे ने समेटे नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ के चंद लफ्ज, केन्द्र की यूपीए नीत सरकार के सामने भी समझौतावादी मुद्रा में
 लौ ह-सा दिखता वो वृद्ध पुरुष धीमे-धीमे पिघलने लगा है। आलोचना की गर्मी से या किन्ही और कारणों से... निश्चिततौर पर आलोचना की गर्मी से यह संभव नहीं। महाराष्ट्र के एक गांव रालेगन सिद्धि का यह जनयोद्धा दिल्ली आकर महान से महामानव, अन्ना हजारे से छोटा गांधी और भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए आमजन का सूरज बन गया था। जब अन्ना ने दिल्ली का रण संभाला था, उसी दिन मैंने सोचा था कुछ न कुछ तो जरूर होगा, क्योंकि यह आदमी विजयपथ पर निकलता है तो न रुकता है, न थकता है और न झुकता है। हुआ भी यही, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ इस जंग में जंतर-मंतर के रणक्षेत्र से सचिवालय में हुई संयुक्त कमेटी की पहली बैठक तक जो हुआ उससे मैं अचरज में हूं। चट्टान सा दिखने वाला पुरुष लगातार समझौतावादी होता जा रहा है। धीमे-धीमे  वे उन बातों को पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं जिन पर जनता का समर्थन उन्हें मिला था। पहले कमेटी के अध्यक्ष पद पर समझौता, फिर शनिवार को बैठक में मसौदे पर समझौता। रविवार को तो हद हो गई उन्होंने संसद को सर्वोपरि बताते हुए कह दिया कि यदि प्रस्तावित बिल को संसद रिजेक्ट भी कर दे तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं। हालांकि मैं भी संसद को ही सर्वोपरि मानता हूं, लेकिन संसद के हिसाब से ही चलना था तो फिर इतना तामझाम क्यों फैलाया, क्यों लोगों की भावनाओं को उद्वेलित किया? क्यों लोगों का मजमा लगवाया? क्यों फोकट में अग्निवेश जैसे माओवादी और नक्सलियों के समर्थक को मंच साझा करने दिया? क्यों बेवजह प्रोफेसनल एनजीओ संचालकों को हीरो बनवा दिया? सबसे बड़ा सवाल आखिर क्यों भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव के आंदोलन को छोटा साबित करने की कोशिश की गई? क्यों घोटालों के आरोपों से घिरी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार से लोगों का ध्यान भटकाया? बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब भी अन्ना हजारे को ही देने पड़ेंगे। वे इन सवालों के जवाब दिए बिना अपने गांव रालेगन सिद्धि वापस नहीं लौट सकते।
    खैर, इसी दौरान अन्ना ने गुजरात के विकास प्रतीक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार को जातिगत राजनीति से उबारने वाले नीतीश कुमार की तारीफ में चंद लफ्ज बयां किए थे। एक तो अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंक कर भ्रष्ट नेताओं  ने निशाने पर पहले ही चढ़ गए थे। ऊपर से मोदी और नीतीश की तारीफ कर बर के छत्ते में हाथ दे मारा। नेताओं के साथ-साथ तथाकथित सेक्यूलरों की जमात भी उनके पीछे पड़ गई। उनके अपने भी विरोधियों जैसे बयान जारी करने लगे। नरेन्द्र मोदी ने इस पर चिट्ठी लिखते हुए अन्ना को आगाह किया कि अब आपका का तीव्र विरोध होगा, क्योंकि आपने मेरी तारीफ कर दी है। मेरे धुर विरोधी और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाले सेक्यूलर आपका कुर्ता खीचेंगे। आखिर में मोदी की शंका सत्य सिद्ध हुई। अन्ना हजारे पर लगातार भड़ास निकाली जाने लगी। आखिर उन्होंने अकरणीय कार्य (मोदी की तारीफ) जो कर दिया था। इसके बाद चर्चाओं का केन्द्र बिन्दु बदल गया। भ्रष्टाचार के खिलाफ और जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिए अन्ना की आगे की रणनीति क्या होगी? इस पर बहुत ही कम बात होने लगी। बात हो रही थी तो इस पर कि क्या अन्ना हिन्दूवादी मानसिकता के हैं? क्या हजारे की विचारधारा हिन्दूवादी है? क्या अन्ना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता हैं या फिर उसके किसी अनुसांगिक संगठन के। इन चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया। यह सब चल ही रहा था कि इसी बीच फिर वही कहानी दोहराई गई। कहानी गुजरात के प्रतीक पुरुष नरेन्द्र मोदी के बारे में जो भी शब्द कहे उन्हें वापस लेने की। मोदी की तारीफ से आलोचना के शिकार बने अन्ना ने मोदी की तारीफ में कहे तमाम लफ्जों को समेटना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि मोदी के आलोचकों के द्वारा मोदी पर लगाए गए आरोपों में सच्चाई है तो मैं अपना बयान वापस लेता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि  मोदी और गुजरात के अच्छे कामों की तारीफ के बाद मुझे कई ई-मेल और पत्र आए। उनमें कहा गया कि गुजरात में कोई विकास नहीं हुआ है। मुझे नहीं मालूम कि इसमें सच्चाई क्या है, लेकिन अगर सच्चाई है तो मैं अपने बयान वापस लेता हूं। सामान्यतौर पर कोई भी साधारण आदमी अन्ना की इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि उन्हें इस बात का इल्म न होगा कि गुजरात और बिहार में विकास कार्य हुए हैं या नहीं। इस बात पर भी कोई यकीन नहीं करेगा कि अन्ना बिना जानकारी के कोई बयान दे सकते हैं। तो क्या इसके पीछे विरोधियों का लगातार विरोधी प्रचार-प्रसार एक कारण हो सकता है? जो भी हो एक बार फिर नरेन्द्र मोदी की तारीफ में प्रस्तुत फिल्म का दि एण्ड वही निकला... मैं अपने बयान वापस लेता हूं।
    नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी कई लोग उनकी तारीफ करने के बाद अपने बयान वापस ले चुके हैं। प्रसिद्ध इस्लामिक संस्था दारुल उलूम देवबंद के नवनियुक्त कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी ने भी पहले तो नरेन्द्र मोदी की उनके द्वारा गुजरात में कराए गए विकास कार्यों के लिए तारीफ की। इसके बाद तो कट्टरपंथी मुल्ला और सेक्यूलर जमात हाथ-पैर धोकर उनके पीछे ही पड़ गई। आखिर में मौलाना वस्तानवी को पीछे हटना पड़ा और उन्होंने भी मोदी की तारीफ में कहे शब्द वापस ले लिए। फिर कहानी में नया किरदार आया, भारतीय सेना में मेजर जनरल आईएस सिंघा। मेजर जनरल सिंघा ने अहमदाबाद में 'सेना को जानो' प्रदशनी के उद्घाटन भाषण के दौरान मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि मोदी में सेना का कमाण्डर बनने के सभी गुण हैं। मोदी की प्रशंसा मेजर जनरल साहब को महंगी पड़ गई। सेना के उच्चाधिकारियों ने उन्हें तलब कर लिया। वहीं माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एपी अब्दुला कुट्टी को तो मोदी की प्रशंसा करने पर पार्टी से निष्कासन झेलना पड़ा। यह तो होना ही था, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए तो नरेन्द्र मोदी वैसे भी राजनीतिक अछूत हैं। उनकी तारीफ करने पर निश्चित ही अब्दुला कुट्टी साहब अशुद्ध हो गए होंगे, तभी तो पार्टी ने उनसे कुट्टी कर ली, उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। गुजरात का ब्रांड एंबेसेडर बनने पर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की भी खूब किरकिरी हुई। दशों दिशाओं से एक ही आवाज आ रही थी अमिताभ को गुजरात का ब्रांड एंबेसेडर  नहीं बनना चाहिए। लेकिन अमिताभ बच्चन ने अपने कदम वापस नहीं लिए, पैसा इसके पीछे का एक कारण हो सकता है। खैर जो भी हुआ, इस मुद्दे पर अमिताभ पर कीचड़ तो खूब उछाली ही गई थी। 
         हाल ही 'बयान वापस लिए' नामक कहानी में नए किरदार की एंट्री हुई है। लेखन के क्षेत्र में खासा नाम कमाने वाले चेतन भगत ने उनकी प्रशंसा करने की जुर्रत की है। चेतन ने कहा कि नरेन्द्र मोदी को राजनीति के राष्ट्रीय मंच पर आकर कमान सम्भालनी चाहिए। वे अच्छे वक्ता हैं, अच्छे नेता हैं। मोदी ने चेतन को भी चेता दिया है कि सावधान रहना, अब तुम पर मेरे विरोधी निशाना साधेंगे। अब देखना बाकी है कि इस कहानी का अंत किस तरफ जाता है...

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

लकड़ी की टाल से लक्कड़खाना

लक्कड़खाना स्थित नकलेराम शाक्य का मकान.
लक्कड़खाना, लश्कर का बहुत पुराना स्थान है। रियासत काल में यह लकड़ी की बिक्री का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। इसी कारण इसका नाम लक्कड़खाना पड़ा। उस समय शरीरिक रूप से अक्षम और असहाय लोगों को यहां खाना बांटा जाता था। खाना बनाने के लिए लकड़ी की सप्लाई भी लक्कड़खाने से ही होती थी। लक्कड़खाना पुल पर नकलेराम शाक्य का पुराना भवन है। यह स्थापत्य और विरासत की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। भवन पर बेजोड़ शिल्पकला देखने को मिलती है। कहा जाता है कि इन्हीं नकलेराम शाक्य ने लक्कड़खाना बस्ती बसाई थी।

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

आने है भ्रामक आंकड़े

 भा रत की १५वीं जनगणना के प्रथम और द्वितीय चरण के आंकड़े गुरुवार को जारी हो गए। आंकड़ों के मुताबिक हमारे कुनबे का विस्तार हो गया है। देश की राजधानी दिल्ली में ३१ मार्च को जनगणना आयुक्त सी. चन्द्रमौली ने बताया कि जनगणना के प्रारंभिक आंकड़ो के मुताबिक भारतीय एक अरब २१ करोड़ हो गए हैं।
    खैर अभी धीरे-धीरे और भी आंकड़े समाचार पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों के माध्यम से हमारे सामने आएंगे। इसमें कई आंकड़े बहुत ही भ्रामक होंगे। उन्हें झूठे आंकड़े भी कहा जा सकता है। इन्हीं भ्रामक और झूठे आंकड़ों के सहारे भारत की जनता के लिए भविष्य में कल्याणकारी (?) योजनाएं बनाईं जाएंगी। आप समझ सकते हैं जब आंकड़े ही गलत होंगे तो योजनाएं कैसे कल्याण कर सकती हैं। चलिए मेरी शंका क्यों बलवती हो रही है, इस पर चर्चा कर लेते हैं। दरअसल ग्वालियर और भोपाल सहित मध्यप्रदेश के अन्य जिलों में जनगणना कर रहे कुछेक कर्मचारी मेरे परिचित थे। जनगणना के दौरान उन्हें जो अनुभव आए उनमें से कुछ उन्होंने मुझसे बातचीत के दौरान साझा किए। अधिकांश ने दो आंकड़ों पर गहरी चिंता व्यक्त की। प्रथम तो भाषा और दूसरा धर्म। उनका कहना था कि भाषा का आंकड़ा निश्चिततौर पर भ्रामक आने वाला है। क्योंकि अधिकांश लोगों ने झूठी शान में भाषा विकल्प में अंग्रेजी को चुना है, जबकि उनका अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान भी ठीक नहीं होगा। दो भाषाएं जानते हो क्या? इस प्रश्न का जवाब न में नहीं देकर हां दिया। हां चुना तो अंग्रेजी भाषा। जबकि वे अपनी मातृभाषा (यथा संस्कृत, मराठी, पंजाबी व अन्य) भी जानते ही होंगे, लेकिन उसे बताना वे अपनी शान न मानते हों। जनगणनाकर्मी के सामने रुतबा दिखाने के लिए अंग्रेजी को दूसरी भाषा बताने वाले बहुत से थे। इससे निश्चित ही यह आंकड़ा तो गलत आने वाला है। इसका खामियाजा हिन्दी के पैरोकारों का उठाना पड़ेगा। हिन्दी के लिए आंदोलनरत् कार्यकर्ताओं को अंग्रेजीदां सीधे जवाब देंगे जनगणना के आंकड़े नहीं देखे क्या? अंगे्रजी जानने वालों का प्रतिशत बढ़ गया है। इसलिए हिन्दी के लिए दम न भरो अब भारत का अधिसंख्य लोग अंग्रेजी पर अपनी पकड़ रखता है।  निश्चित ही इससे हिन्दी आंदोलनों की धार कुंद हो जाएगी।
    वहीं धर्म के आंकड़े भी इसी तरह गड़बड़ आने है। इसके लिए तो जनगणना करा रही समिति ही जिम्मेदार है। हिन्दू धर्म को तो हिन्दू, जैन, सिख व अन्य में बांटा गया है। लेकिन, इस्लाम और ईसाई को इस तरह नहीं बांटा गया है। जबकि उनमें भी कम से कम दो-दो शाखाएं हैं। इस तरह हिन्दू धर्म की संख्या बंटकर आने वाली है और अन्य दोनों धर्मों की संख्या एक साथ। धर्म के आंकड़े इस तरह जुटाने पर कई हिन्दू नेताओं को साजिश की शंका है। जनगणनाकर्मी क्या कहते हैं यह जान लेते हैं। उनका कहना है कि हिन्दुओं के आंकड़े बहुत ही भ्रामक आने वाले हैं। उन्होंने बताया कि कई जैन और सिखों ने समझदारी का परिचय देते हुए धर्म में हिन्दू ही लिखवाया है। धर्म में जैन या सिख न लिखवाने पर उनका कहना था कि हमारा मूल धर्म हिन्दू ही है जैन या सिख तो हमारी पूजा पद्धति है। वहीं यह नहीं मानने वाले लोगों ने जैन और सिख ही लिखवाया। जबकि इस्लाम को शिया-सुन्नी व अन्य और ईसाई को कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स में नहीं बांटा गया। इससे साफ जाहिर होता है कि या तो हिन्दू धर्म के आंकड़े गलत आने वाले हैं या फिर इस्लाम और ईसाई धर्म के। हिन्दू धर्म के आंकड़े गलत आने है यह स्पष्ट होता है। इस तरह के गलत आंकड़ों का सरकार क्या करेगी वह ही जाने। 

  1951 :  आजाद भारत की पहली जनगणना का एक फोटो
आजादी के बाद देश की पहली जनगणना 1951 में की गई। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद अपनी जानकारी देते हुए।