अ क्सर कहा जाता है कि साधु-सन्यासियों को राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए। उनका काम धर्म-अध्यात्म के प्रचार तक ही सीमित रहे तो ठीक है, राजनीति में उनके द्वारा अतिक्रमण अच्छा नहीं। इस तरह की चर्चा अक्सर किसी भगवाधारी साधु/साध्वी के राजनीति में आने पर या आने की आहट पर जोर पकड़ती है। साध्वी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती, योगी आदित्यनाथ आदि के राजनीति में भाग लेने पर नेताओं और कुछ विचारकों की ओर से अक्सर ये बातें कही जाती रही हैं। इसमें एक नाम और जुड़ा है स्वामी अग्निवेश का जो अन्य भगवाधारी साधुओं से जुदा हैं। हालांकि इनके राजनीति में दखल देने पर कभी किसी ने आपत्ति नहीं जताई। वैसे अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में ये अग्रणी भूमिका निभाते हैं, इस बात से कोई अनजान नहीं है। पूर्व में इन्होंने सक्रिय राजनीति में जमने का प्रयास किया जो विफल हो गया था।
अन्ना हजारे के अनशन से पहले से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रखी है। उन्होंने कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए अलग से भारत स्वाभिमान मंच बनाया है। वे सार्वजनिक सभा और योग साधकों को संबोधित करते हुए कई बार कहते हैं यदि कालाधन देश में वापस नहीं लाया गया तो लोकसभा की हर सीट पर हम अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। उसे संसद तक पहुंचाएंगे। फिर कालाधन वापस लाने के लिए कानून बनाएंगे। उनके इस उद्घोष से कुछ राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़बोले नेताओं के पेट में दर्द होता है। इस पर वे बयानों की उल्टी करने लगते हैं। आल तू जलाल तू आई बला को टाल तू का जाप करने लगते हैं। ऐसे ही एक बयानवीर कांग्रेस नेता हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा। वे अन्ना हजारे को तो चुनौती देते हैं यदि राजनीतिक सिस्टम में बदलाव लाने की इतनी ही इच्छा है तो आ जाओ चुनावी मैदान में। लेकिन, महाशय बाबा रामदेव को यह चुनौती देने से बचते हैं। वे बाबा को योग कराने और राजनीति से दूर रहने की ही सलाह देते हैं। चार-पांच दिन से दिग्गी खामोश हैं। सुना है कि वे खुद ही एक बड़े घोटाले में फंस गए हैं। उनके खिलाफ जांच एजेंसी के पास पुख्ता सबूत हैं।
खैर, अपुन तो अपने मूल विषय पर आते हैं। साधु-संतों को राजनीति में दखल देना चाहिए या नहीं? जब भी कोई यह मामला उछालता है कि भगवाधारियों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। तब मेरा सिर्फ एक ही सवाल होता है क्यों उन्हें राजनीति से दूर रहना चाहिए? इस सवाल का वाजिब जवाब मुझे किसी से नहीं मिलता। मेरा मानना है कि आमजन राजनीति को दूषित मानने लगे हैं। यही कारण है कि वे अच्छे लोगों को राजनीति में देखना नहीं चाहते। वहीं भ्रष्ट नेता इसलिए विरोध करते हैं, क्योंकि अगर अच्छे लोग राजनीति में आ गए तो उनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी। उनकी छुट्टी हो जाएगी। राजनीति का उपयोग राज्य की सुख शांति के लिए हो इसके लिए आवश्यक है कि संत समाज (अच्छे लोग) प्रत्यक्ष राजनीति में आएं। चाहे वे साधु-संत ही क्यों न हो। वर्षों से परंपरा रही है राजा और राजनीति पर लगाम लगाने के लिए धार्मिक गुरु मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं। वे राजनीति में शामिल रहे। विश्व इतिहास बताता है कि इस व्यवस्था का पालन अनेक देशों की राज सत्ताएं भी करती थीं। भारत में इस परिपाटी का बखूबी पालन किया जाता रहा। चाहे भारत का स्वर्णकाल गुप्त काल रहा हो या मौर्य काल हो या फिर उससे भी पीछे के पन्ने पलट लें। आचार्य चाणक्य हालांकि साधु नहीं थे, लेकिन उनकी गिनती संत समाज में तो होती ही है। इन्हीं महान चाणक्य ने राजनीति के महाग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की। प्रत्यक्ष राजनीति करते हुए साधारण बालक चंद्रगुप्त को सम्राट चंद्रगुप्त बनवाया और अत्याचारी घनानंद को उसकी गति तक पहुंचाया। वे सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज व्यवस्था में महामात्य (प्रधानमंत्री) के पद पर जीवनपर्यंत तक बने रहे। छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
रावण के अत्याचार से दशों दिशाएं आतंकित थीं। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े शूरवीर राजा-महाराजा दुम दबाए बैठे थे। विश्वामित्र ने बालक राम को दशरथ से मांगा और अपने आश्रम में उदण्डता कर रहे राक्षसों का अंत करवाकर रावण को चुनौती दिलवाई। इसके लिए उन्होंने जो भी संभव प्रयास थे सब करे। यहां तक कि राम के पिता दशरथ की अनुमति लिए बिना राम का विवाह सीता से करवाया। महाभारत के कालखण्ड में तो कितने ही ऋषि पुरुषों ने राजपाठ से लेकर युद्ध के मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। महात्मा गांधी भी संत ही थे। उन्होंने भी राजनीति को अपना हथियार बनाया। उन्होंने विशेष रूप से कहा भी है कि 'धर्म बिना राजनीति मृत प्राय है'। धर्म की लगाम राजनीति से खींच ली जाए तो यह राज और उसमें निवास करने वाले जन समुदाय के लिए घातक सिद्ध होती है। यह तो कुछेक उदाहरण हैं, जिनसे हम सब परिचित हैं। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
मेरा मानना है कि संत समाज का काम सिर्फ धर्म-आध्यात्म का प्रचार करना ही नहीं है। समाज ठीक रास्ते पर चले इसकी व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी है। अगर इसके लिए उन्हें प्रत्यक्ष राजनीति में आना पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है? साधु-संतों को राजनीति में क्यों नहीं आना चाहिए? इसका ठीक-ठीक उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला। यदि आप बता सकें तो आपका स्वागत है।
अन्ना हजारे के अनशन से पहले से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रखी है। उन्होंने कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए अलग से भारत स्वाभिमान मंच बनाया है। वे सार्वजनिक सभा और योग साधकों को संबोधित करते हुए कई बार कहते हैं यदि कालाधन देश में वापस नहीं लाया गया तो लोकसभा की हर सीट पर हम अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। उसे संसद तक पहुंचाएंगे। फिर कालाधन वापस लाने के लिए कानून बनाएंगे। उनके इस उद्घोष से कुछ राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़बोले नेताओं के पेट में दर्द होता है। इस पर वे बयानों की उल्टी करने लगते हैं। आल तू जलाल तू आई बला को टाल तू का जाप करने लगते हैं। ऐसे ही एक बयानवीर कांग्रेस नेता हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा। वे अन्ना हजारे को तो चुनौती देते हैं यदि राजनीतिक सिस्टम में बदलाव लाने की इतनी ही इच्छा है तो आ जाओ चुनावी मैदान में। लेकिन, महाशय बाबा रामदेव को यह चुनौती देने से बचते हैं। वे बाबा को योग कराने और राजनीति से दूर रहने की ही सलाह देते हैं। चार-पांच दिन से दिग्गी खामोश हैं। सुना है कि वे खुद ही एक बड़े घोटाले में फंस गए हैं। उनके खिलाफ जांच एजेंसी के पास पुख्ता सबूत हैं।
खैर, अपुन तो अपने मूल विषय पर आते हैं। साधु-संतों को राजनीति में दखल देना चाहिए या नहीं? जब भी कोई यह मामला उछालता है कि भगवाधारियों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। तब मेरा सिर्फ एक ही सवाल होता है क्यों उन्हें राजनीति से दूर रहना चाहिए? इस सवाल का वाजिब जवाब मुझे किसी से नहीं मिलता। मेरा मानना है कि आमजन राजनीति को दूषित मानने लगे हैं। यही कारण है कि वे अच्छे लोगों को राजनीति में देखना नहीं चाहते। वहीं भ्रष्ट नेता इसलिए विरोध करते हैं, क्योंकि अगर अच्छे लोग राजनीति में आ गए तो उनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी। उनकी छुट्टी हो जाएगी। राजनीति का उपयोग राज्य की सुख शांति के लिए हो इसके लिए आवश्यक है कि संत समाज (अच्छे लोग) प्रत्यक्ष राजनीति में आएं। चाहे वे साधु-संत ही क्यों न हो। वर्षों से परंपरा रही है राजा और राजनीति पर लगाम लगाने के लिए धार्मिक गुरु मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं। वे राजनीति में शामिल रहे। विश्व इतिहास बताता है कि इस व्यवस्था का पालन अनेक देशों की राज सत्ताएं भी करती थीं। भारत में इस परिपाटी का बखूबी पालन किया जाता रहा। चाहे भारत का स्वर्णकाल गुप्त काल रहा हो या मौर्य काल हो या फिर उससे भी पीछे के पन्ने पलट लें। आचार्य चाणक्य हालांकि साधु नहीं थे, लेकिन उनकी गिनती संत समाज में तो होती ही है। इन्हीं महान चाणक्य ने राजनीति के महाग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की। प्रत्यक्ष राजनीति करते हुए साधारण बालक चंद्रगुप्त को सम्राट चंद्रगुप्त बनवाया और अत्याचारी घनानंद को उसकी गति तक पहुंचाया। वे सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज व्यवस्था में महामात्य (प्रधानमंत्री) के पद पर जीवनपर्यंत तक बने रहे। छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
रावण के अत्याचार से दशों दिशाएं आतंकित थीं। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े शूरवीर राजा-महाराजा दुम दबाए बैठे थे। विश्वामित्र ने बालक राम को दशरथ से मांगा और अपने आश्रम में उदण्डता कर रहे राक्षसों का अंत करवाकर रावण को चुनौती दिलवाई। इसके लिए उन्होंने जो भी संभव प्रयास थे सब करे। यहां तक कि राम के पिता दशरथ की अनुमति लिए बिना राम का विवाह सीता से करवाया। महाभारत के कालखण्ड में तो कितने ही ऋषि पुरुषों ने राजपाठ से लेकर युद्ध के मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। महात्मा गांधी भी संत ही थे। उन्होंने भी राजनीति को अपना हथियार बनाया। उन्होंने विशेष रूप से कहा भी है कि 'धर्म बिना राजनीति मृत प्राय है'। धर्म की लगाम राजनीति से खींच ली जाए तो यह राज और उसमें निवास करने वाले जन समुदाय के लिए घातक सिद्ध होती है। यह तो कुछेक उदाहरण हैं, जिनसे हम सब परिचित हैं। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
मेरा मानना है कि संत समाज का काम सिर्फ धर्म-आध्यात्म का प्रचार करना ही नहीं है। समाज ठीक रास्ते पर चले इसकी व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी है। अगर इसके लिए उन्हें प्रत्यक्ष राजनीति में आना पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है? साधु-संतों को राजनीति में क्यों नहीं आना चाहिए? इसका ठीक-ठीक उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला। यदि आप बता सकें तो आपका स्वागत है।