रविवार, 27 मार्च 2011

प्रकृति की गोद में बसा है मध्यप्रदेश का 'मिनी कश्मीर'

किले से दिखाई देता कस्बे के मध्य स्थित तालाब...
 न रसिंहगढ़ मध्यप्रदेश का मिनी कश्मीर कहलाता है। इस उपमा ने मेरे मन में नरसिंहगढ़ के लिए खास आकर्षण बनाए रखा। 2006 में मैंने पहली बार नरसिंहगढ़ के सौंदर्य के बारे सुना था। तभी से वहां जाकर उसे करीब से देखने का लोभ मन में था। मेरी यह इच्छा इस माह (मार्च 2011) की शुरुआत में पूरी हो सकी। जिस सुकून की आस से में नरसिंहगढ़ में पहुंचा था, उससे कहीं अधिक पाया। वैसे कहते हैं कि नरसिंहगढ़ बरसात के मौसम में अलौकिक रूप धर लेता है। यहां के पहाड़ हरी चुनरी ओढ़ लेते हैं। धरती तो फूली नहीं समाती है। नरसिंहगढ़ का अप्रतिम सौंदर्य देखकर बादलों से भी नहीं रहा जाता, वे भी उसे करीब से देखने के मोह में बहुत नीचे चले आते हैं। सावन में वह कैसा रूप धरता होगा, मैं इसकी सहज कल्पना कर सकता हूं। क्योंकि मार्च में भी वह अद्वितीय लग रहा था।
किले पर स्थित मंदिर..
    शाम के वक्त मैं और मेरे दो दोस्त किले पर थे। किले से कस्बे के बीचोंबीच स्थित तालाब में बीचोंबीच स्थित मंदिर बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। इस तालाब की वजह से निश्चित ही कभी नरसिंहगढ़ में भू-जलस्तर नीचे जाने की समस्या नहीं होती होगी। तालाब की खूबसूरती के लिए स्थानीय शासन-प्रशासन के प्रयास जारी हैं। एक बात का क्षोभ हुआ कि खूबसूरत किले का बचाने का प्रयास होता कहीं नहीं दिखा। नरसिंहगढ़ का किला बेहद खूबसूरत है। फिलहाल बदहाली के दिन काट रहा है। एक समय निश्चित ही यह वैभवशाली रहा होगा। तब यह आकाश की ओर सीना ताने अकड़ में रहता होगा। संभवत: उसकी वर्तमान दुर्दशा के लिए स्थानीय लोग ही जिम्मेदार रहे होंगे। खिड़की-दरवाजे की चौखट गायब हैं। कई भवनों से लोग पत्थर निकाल ले गए हैं। पूरे परिसर में झाड़ खड़े हैं। एक बात उल्लेखनीय है कि इस पर ध्यान न देने के कारण यह अपराधियों की शरणस्थली भी रहा है। दो-तीन बार यहां से सिमी के मोस्ट वांटेड आतंकी पकड़े गए हैं। किले में आधुनिक स्नानागार (स्विमिंग पुल) भी है।
    नरसिंहगढ़ की एक खास बात यह भी है कि यहां अधिकांश स्थापत्य दो हैं। जैसे बड़े महादेव-छोटे महादेव, बड़ा ताल-छोटा ताल, बड़ी हनुमान गढ़ी-छोटी हनुमान गढ़ी आदि। नरसिंहगढ़ के समीप ही वन्यजीव अभयारण्य है। जिसे मोर के लिए स्वर्ग कहा जाता है। सर्दियों में प्रतिवर्ष नरसिंहगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जाता है। यह भी आकर्षण का केन्द्र है।

    नरसिंहगढ़ फिलहाल पर्यटन के मानचित्र पर धुंधला है। मेरा मानना है कि नरसिंहगढ़ को पर्यटन की दृष्टि से और अधिक विकसित किया जा सकता है। इसकी काफी संभावनाएं हैं। इससे स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर तो बढ़ेंगे ही, साथ ही निश्चित तौर पर मध्यप्रदेश के कोष में भी बढ़ोतरी होगी। बरसात में नरसिंहगढ़ के हुस्न का दीदार करने की इच्छा प्रबल हो उठी है। कोशिश रहेगी कि इसी सीजन के दौरान मैं मिनी कश्मीर की वादियों का लुत्फ उठा सकूं।

नरसिंहगढ़ किले पर डबरा निवासी मित्र हेमंत सोनी के साथ...
नरसिंहगढ़ किले से डूबते सूरज का नजारा...
 
बदहाल नरसिंहगढ़ का खूबसूरत किला...

बुधवार, 23 मार्च 2011

नियोजित ढंग से बसा है लश्कर

 "पत्रिका के ग्वालियर संस्करण ने १२ मार्च माह से एक नया प्रयोग किया है। नगर संस्करण के छह पेजों में से आधा पेज प्रतिदिन शहर के दो उपनगरों लश्कर और मुरार की खबरों के लिए समर्पित किया है। सप्ताह के तीन दिन यह स्थान लश्कर के लिए आरक्षित है और बाकी के तीन दिन मुरार के लिए। चूंकि मैं उपनगर लश्कर में रहता हूं तो इसके लिए गठित टीम में मैं भी शामिल हूं। लश्कर पत्रिका के नाम से पहली बार आधा पेज १४ मार्च को प्रकाशित हुआ था। उस अवसर पर मैंने लश्कर के संदर्भ में निम्न आलेख लिखा था। वह अब आप लोगों को समर्पित है।" - लोकेन्द्र सिंह राजपूत

लश्कर स्थित महाराज बाड़ा ऐतिहासिक और व्यावसायिक द्रष्टि से महत्त्वपूर्ण है
 व र्तमान में ग्वालियर तीन उपनगरों से मिलकर बना है, उपनगर ग्वालियर, लश्कर और मुरार। लश्कर, ग्वालियर का मुख्य उपनगर है। लश्कर में प्रमुख व्यापारिक, राजनीतिक संगठनों के साथ ही प्रशासनिक दफ्तर हैं। बड़े और प्रमुख बाजारों से भी लश्कर समृद्ध है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लश्कर योजनाबद्ध ढंग से बसने वाला जयपुर के बाद दूसरा शहर है। हालांकि इससे पहले ग्वालियर विद्यमान था। जो किले की तलहटी और स्वर्ण रेखा नदी के आसपास बसा था। इसमें तंग, छोटी और पतली गलियां हुआ करती थीं। शायद कोई नियोजित बस्ती या बाजार की बसाहट नहीं थी। १८१० में दौलतराव सिंधिया ने अपनी राजधानी उज्जैन से हटाकर ग्वाल्हेर स्थापित की। उस समय यहां चारों तरफ पहाड़ और जंगल ही थे। नदी बहती थी। जंगली जानवर विचरण करते थे। तब दौलतराव सिंधिया ने अपने लाव लश्कर के साथ वर्तमान महाराज बाड़े के निकट तंबू लगाकर पड़ाव डाला। सन् १८१८ तक यह लगभग सैनिक छावनी जैसा ही रहा। सिंधिया के लाव-लश्कर के पड़ाव स्थापित होने के कारण ही इस स्थान का नाम 'लश्कर' पड़ गया। दौलतराव से पूर्व लश्कर का यह क्षेत्र अम्बाजी इंगले के पास था।
    दौलतराव सिंधिया ने अपनी रानी गोरखी के नाम पर सबसे पहले १८१० में गोरखी महल का निर्माण करवाया। राजा की सुरक्षा सुदृढ़ रहे, इसलिए उनके सरदारों को गोरखी महल के आसपास ही बसाया गया। गोरखी के आसपास सरदार शितोले, सरदार जाधव, सरदार फालके और सरदार आंग्रे की हवेलियां बनीं। इसके बाद दौलतराव सिंधिया ने बाजारों के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने सबसे पहले सराफा बाजार का निर्माण करवाया, यहां बसने के लिए राजस्थान के जोहरियों को बुलावा भेजा गया। लश्कर में सबसे पहली सड़क भी सराफा बाजार में ही बनी थी। यह काफी चौड़ी थी। दोनों ओर नगरसेठों की नयनाविराम हवेलियां थीं। दशहरे के लिए इसी सड़क से सिंधिया की शोभायात्रा निकलती थी। सड़क के दोनों ओर हवेलियों के नीचे बने चबूतरों पर खड़े होकर प्रजा पुष्पवर्षा कर शोभायात्रा का स्वागत करती थी। समय के साथ इस बाजार की राजशाही रौनक अतिक्रमण की मार से धुंधली पड़ गर्ई थी। जो शायद अब फिर से देखने को मिले। सराफा बसने के बाद लश्कर का विस्तार होना शुरू हो गया। इसके बाद दौलतराव सिंधिया के नाम पर ही दौलतगंज बसा। इसके बाद ही कम्पू कोठी (महल) और जयविलास पैलेस बने।
    माधौराव सिंधिया (१८८५-१९२५) को ग्वालियर का आधुनिक निर्माता कहा जाता है। उन्होंने भी अनेक बाजारों का योजनाबद्ध ढंग से निर्माण कराया। उनमें लश्कर के दाल बाजार, लोहिया बाजार, नया बाजार आदि प्रमुख हैं।  इन बाजारों में भी नगर के तत्कालीन कारीगरों की हुनरमंदी आज भी देखने को मिलती है। अनेक झरोखे, पत्थरों की कलात्मक जालियां, दरवाजों पर उकेरी गईं मूर्तियां और बेलबूटे आज भी बरबस ही ध्यान आकर्षित कर लेते हैं।
    वर्तमान में लश्कर के प्रमुख स्थापत्य
१. महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय ।
२. महाराज बाड़ा।
३. शासकीय गजराराजा कन्या विद्यालय।
४. जयारोग्य अस्पताल समूह।
५. केआरजी कालेज और पद्मा कन्या विद्यालय।
६. जलविहार, फूलबाग।
७. डरफिन सराय।
८. मोती महल।
९. आरटीओ कार्यालय।
१०. गोपाचल पर्वत।

शनिवार, 19 मार्च 2011

फागवाला चौक

फागवाला चौक : यूं तो यह स्थल सामान्य दिख रहा है। सामान्य है भी।   एक पिछड़ी बस्ती का चौक है यह, लेकिन इसका बड़ा ऐतिहासिक महत्व है।
 अं तरराष्ट्रीय पटल पर ग्वालियर की पहचान संगीत से है। कहते हैं कि अकबर के ३६ श्रेष्ठ संगीतज्ञों में से १५ ग्वालियर के ही थे। शहर की नस-नस में संगीत रचा बसा है। यत्र-तत्र यह आपको बिखरा मिल ही जाएगा। ग्वालियर के शिन्दे छावनी स्थित खल्लासी पुरा बस्ती का एक चौक है फागवाला चौक। फाग से तात्पर्य फाल्गुन मास और होली पर गाए जाने वाले गीतों से है। रियासत काल में यहां एक महीने तक फाग गाईं जाती थीं। परंपरा आज भी जीवित है। बस समय कम हो गया। अब यहां होली के अवसर पर ही फाग गाईं जाती हैं।
शुभकामनाएं
रंगो के त्योहार होली पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। यह होली सभी के लिए मंगलकारी हो, समृद्धि और विकास की नई राहें खोले। चहुं ओर शांति बढ़े। अरिदल का नाश हो। भ्रष्टाचार का और भ्रष्टाचारियों का पतन हो। पुन: होली की शुभकामनाएं।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

होली को बदरंग होने से बचाएं

इंदौर की होली
  भा रत एक उत्सवप्रिय देश है। यहां उत्सव मनाने के लिए दिन कम पड़ जाते हैं, अब तो और भी मुसीबत है। बाजारवाद के प्रभाव से कुछ विदेशी त्योहार भी इस देश में घुस आए हैं। खैर अपन ने तो इनका विरोध करने का शौक नहीं पाला है, अपन राम तो पहले अपनी ही चिंता कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा। अक्सर लोगों के श्रीमुख से सुनता हूं कि अरे यार अब त्योहारों में वो मजा नहीं रहा। लगता ही नहीं दीपावली है, होली है। बहुत दु:ख होता है यह सुनकर। अब तो कुछेक मीडिया संस्थान और सामाजिक संगठन भी भारतीय त्योहारों का मजा खराब करने पर तुल गए हैं। पता नहीं इन्हें क्या मजा आता है। नवदुर्गा और गणेशजी नहीं बिठाओ, क्योंकि इन्हें विसर्जित करने पर नदी-तालाब गंदे हो जाते हैं। दीपावली न मनाओ, क्योंकि कई तरह का प्रदूषण फैलता है। तेल और घी खाने की जगह , जला दिया जाता है। अब फागुन आ गया है, होली नजदीक है। मन फागुनी रंग में सराबोर होता, लोग रंग और पिचकारी तैयार करते कि इससे पहले कुछेक मीडिया घरानों और संगठनों ने मोर्चा संभाल लिया है, लोगों को बरगलाना शुरू कर दिया। सिर्फ टीका लगाकर होली खेलना है, जल बचाना है। पर्यावरण को संवारना है। जैसे होली खेलने वाले तो प्रकृति के दुश्मन हैं। जबकि लोग सब नफा-नुकसान जानते हैं। उनके पुरखे वर्षों से होलिका जला रहे हैं और होली खेल रहे हैं। उन्हें पता है कि होली में बुराई जलाना है और होली खेल कर आपसी बैर भुलाना है। वैसे भी हमारे बुजुर्गों ने त्योहारों की व्यवस्था बहुत ही सोच-समझकर और वैज्ञानिक तरीके से की है। जाड़े में घर में बहुत कुछ फालतू सामान जमा हो जाता है। सूखी और खराब लकड़ी जो अलाव के लिए एकत्र की थी वह भी घर में पड़ी होती है। इन सबकी साफ-सफाई की दृष्टि से फागुन में होलिका दहन की व्यवस्था की गई है। होलिका दहन से सात-आठ दिन पहले डाड़ी लगाई जाती है। उस दिन से गांववासी या नगरवासी उस स्थान पर अपने घर का कचरा डालना शुरू करते हैं, बाद में उसी कचरे की होलिका जलाई जाती है। हमारे पुरखों ने हमसे ये कभी नहीं कहा कि होली जलाने के लिए हरे-भरे पेड़ काटो। 
    लाल-पीले गाल किए बिना भी भला होली का कोई मजा है। जरा सोचो तिलक लगाकर भी भला होली खेली जा सकती है, तिलक तो हम रोज ही लगाते हैं। फाग और होली का असली मजा तो रंग से सराबोर होने के बाद ही है। जब तक पिचकारी की धार आके न छू जाए होली का आनंद ही नहीं। वैसे भी हमारे मध्यप्रदेश और सीमा से लगे ब्रज व वृन्दावन की ख्याति तो होली से ही है। ब्रज में जब तक कान्हा की पिचकारी न चले गोपियों को चैन कहां, वहीं वृन्दावन में राधा की बाल्टी भर रंग से तर होने को सांवरिया वर्ष भर इंतजार करता है। ब्रज और वृन्दावन में होली खेलने के लिए देशभर से ही नहीं सुदूर मुल्कों से भी लोग आते हैं। उन्हें खींचकर लाता है हवा में उड़ता गुलाल और इधर-उधर से पिचकारियों से निकली रंगीन धार। सूखी होली उन्हें क्या लुभाएगी। इधर, मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर की होली भी लाजवाब होती है। इंदौर की होली भी ब्रज और बरसाने से उन्नीस नहीं पड़ती। राजवाड़ा में खूब हुजूम उमड़ता है। इंदौर की होली की खास बात है गुलाल की तोप। गुलाल की तोप जब चलती है तो नीला अंबर इंद्रधनुषी हो जाता है। बड़े-बड़े पानी के टैंकरों में रंग भरा रहता है। जिसे पाइप से होली के मस्तानों की टोली पर छोड़ा जाता है। इस होली के आनंद की अनुभूति इस आलेख को पढ़कर नहीं की जा सकती, इसके लिए तो मैदान में आना ही पड़ेगा। दोस्तों त्योहार को बदरंग होने से बचाना है तो फिर किसी के बरगलाने में न आना। धूम से होली खेलना। और हां पानी बचाने के कई उपाय हैं हमें उन पर ध्यान देना होगा, क्योंकि जल ही जीवन है और यह संकट में है। लेकिन, हम अपने त्योहारों को बदरंग नहीं होने देंगे यह संकल्प करना होगा।

मंगलवार, 8 मार्च 2011

नरसिंहगढ़ का फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता'

हर्ष गुप्ता
 खू बसूरत और व्यवस्थित खेती का उदाहरण है नरसिंहगढ़ के हर्ष गुप्ता का फार्म। वह खेती के लिए अत्याधुनिक, लेकिन कम लागत की तकनीक का उपयोग करता है। जैविक खाद इस्तेमाल करता है। इसे तैयार करने की व्यवस्था उसने अपने फार्म पर ही कर रखी है। किस पौधे को किस मौसम में लगाना है। पौधों के बीच कितना अंतर होना चाहिए। किस पेड़ से कम समय में अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है। किस पौधे को कितना और किस पद्धति से पानी देना है। इस तरह की हर छोटी-बड़ी, लेकिन महत्वपूर्ण जानकारी उसके दिमाग में है। जब वह पौधों के पास खड़ा होकर सारी जानकारी देता है तो लगता है कि उसने जरूर एग्रीकल्चर में पढ़ाई की होगी, लेकिन नहीं। हर्ष गुप्ता इंदौर के एक प्राइवेट कॉलेज से फस्र्ट क्लास टैक्सटाइल इंजीनियर है। उसने इंजीनियरिंग जरूर की थी, लेकिन रुझान बिल्कुल भी न था।
        सन् २००४ में वह पढ़ाई खत्म करके घर वापस आया। उसने फावड़ा-तसल्ल उठाए और पहुंच गया अपने खेतों पर। यह देख स्थानीय लोग उसका उपहास उड़ाने लगे। लो भैया अब इंजीनियर भी खेती करेंगे। नौकरी नहीं मिल रही इसलिए बैल हाकेंगे। वहीं इससे बेफिक्र हर्ष ने अपने खेतों को व्यवस्थित करना शुरू कर दिया। इसमें उसके पिता का भरपूर सहयोग मिला। पिता के सहयोग ने हर्ष के उत्साह को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया। बेटे की लगन देख पिता का जोश भी जागा। खेतीबाड़ी से संबंधित जरूरी ज्ञान इंटरनेट, पुराने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग से जुटाया। नतीजा थोड़ी-बहुत मुश्किलों के बाद सफलता के रूप में सामने आया। उसके फार्म पर आंवला, आम, करौंदा, शहतूत, गुलाब सहित शीशम, सागौन, बांस और भी विभिन्न किस्म के पेड़-पौधे २१ बीघा जमीन पर लगे हैं। हर्ष की कड़ी मेहनत ने उन सबके सुर बदल दिए जो कभी उसका उपहास उड़ाते थे। उसके फार्म को जिले में जैव विविधता संवर्धन के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है। इतना ही नहीं कृषि पर शोध और अध्ययन कर रहे विद्यार्थियों को फार्म से सीखने के लिए संबंधित संस्थान भेजते हैं।
        हर्ष का कहना है कि मेहनत तो सभी किसान करते हैं, लेकिन कई छोटी-छोटी बातों का ध्यान न रखने से उनकी मेहनत बेकार चली जाती है। मेहनत व्यवस्थित और सही दिशा में हो तो सफलता सौ फीसदी तय है। मैं इंजीनियर की अपेक्षा किसान कहलाने में अधिक गर्व महसूस करता हूं। हर्ष कहते हैं कि खेती के जिस मॉडल को मैं समाज के सामने रखना चाहता हूं उस तक पहुंचने में कुछ वक्त लगेगा.......
    हर्ष गुप्ता और उसके फार्म के बारे में बात करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना सा ही है कि कामयाबी के लिए जरूरी नहीं कि अच्छी पढ़ाई कर बड़ी कंपनी में मोटी तनख्वा पर काम करना है। लगन हो तो कामयाबी तो साला झक मारके आपके पीछे आएगी। यह कर दिखाया छोटे-से कस्बे नरसिंहगढ़ के फुन्सुक वांगडू 'हर्ष गुप्ता' ने।