रविवार, 31 जुलाई 2011

बिट्टो

बीना स्टेशन। स्वर्णजयंती एक्सपे्रस। २७ जुलाई २०११। सार्थक ग्वालियर से भोपाल जा रहा था। उसकी भोपाल में पोस्टिंग हो गई थी। वह वहां एक अखबार में काम करता है। बीना स्टेशन पर ट्रेन को रुके हुए १५ मिनट से ज्यादा वक्त बीत गया था। सभी यात्री गर्मी और उमस से बेहाल थे। महीना तो सावन का था, लेकिन भीषण गर्मी और पसीने से तरबतर शरीर से चैत्र मास का अहसास हो रहा था। कई लोग उमस से परेशान हो कर डिब्बे से उतरकर प्लेटफार्म पर खड़े हो गए थे। जिसके हाथ जो था वह उसी से हवा करने की कोशिश में था। सब की एक ही चाह थी कि जल्द ही ट्रेन चल दे तो थोड़ी राहत मिले।
'अहा! ट्रेन चल दी।' एक हल्के से झटके से सार्थक को यह अहसास हुआ। उसने सुकून की लम्बी सांस खींची और सीट से अपनी पीठ टिका दी। ट्रेन ने हल्की गति भी पकड़ ली।
लेकिन तभी, 'उफ! यह क्या हुआ?'  प्लेटफार्म पर बदहवास चीखते-चिल्लाते ट्रेन के बराबर में एक महिला को भागते देखकर अनायस सार्थक के मुंह से निकला। वह जोर-जोर से बिट्टो-बिट्टो पुकार रही थी। बिट्टो शायद उसकी बेटी का नाम था। जो ट्रेन में अपने पिता के साथ सफर कर रही थी। हां, बिट्टो उसी की बेटी है। कोई १०-११ साल की लड़की। सार्थक को याद आया कि थोड़ी देर पहले ही तो वह मेरी खिड़की के पास खड़ी थी। वह अपने पति और बेटी को छोडऩे स्टेशन आई थी। उस समय गर्मी से परेशान सार्थक के कानों में भी उनकी बातें घुल रहीं थीं। वह अपने पति से कह रही थी-  'मुझे भी साथ चलना है।'
'हां बाबा। मैं जल्द ही तुम्हें ले जाऊंगा।' पति लाड़ से उसे समझाते हुए कह रहा था।
'जल्द ही मतलब जल्द ही मुझे ले जाना और हां ट्रेन में बिट्टो का ध्यान रखना। पानी की बोटल रख ली या नहीं। गर्मी बहुत है।' - महिला ने अपने पति को हिदायत देते हुए कहा।
इसके बाद सार्थक खुद अपने सुबह में खो गया। सुबह जब वह तैयार हो रहा था तो उसकी पत्नी के भी लगभग यही वाक्य थे। भारतीय नारियों के हृदय में कितना साम्य होता है। अगर वह पश्चिमी जीवन शैली की चपेट में न आई हो तो। खैर...
फिर अचानक इसे क्या हुआ? ये इस तरह क्यों चीख रही है? तरह-तरह के उलझे हुए सवाल सार्थक के दिमाग में दस्तक देने लगे। अच्छा खुद ही उनके तरह-तरह जवाब भी तलाश रहा था। ट्रेन जब तक रुकी थी बेटी और पति उसके पास थे, लेकिन जैसे ही गाड़ी ने चलना शुरू किया होगा उसकी ममता जाग उठी होगी। उसकी छाती बेटी से बिछडऩे के भय से बैठने लगी होगी। मां आखिर मां होती है। हां यही कारण तो मौजूं दिखता है। उसके इस तरह बेसुध होकर बिट्टो-बिट्टो पुकारते हुए भागने के लिए। बेटी से बिछडऩे की पीढ़ा उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। पति से दूर रहने का गम एक बारगी भारतीय स्त्री सह सकती है, लेकिन अपने बच्चों से दूर उससे नहीं रहा जाता। हां, यही सच है।
गाड़ी तेज होती जा रही थी। वह अब भी और जोर लगाकर दौड़ रही थी। आंखों से आंसुओं की नदी बह रही थी। वह बिट्टो के अलावा और कुछ बोल भी नहीं पा रही थी। उस क्षण सार्थक के मन में एक ही बात ने जोर मारा। जल्दी से चेन खींचकर गाड़ी को रोका जाए। यह सोचते हुए सार्थक ने चेन पुलिंग के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि गाड़ी से कूदता हुआ उसका पति उसे दिखा। गाड़ी से इस तरह उतरते समय वह गिरते-गिरते बचा था।
'क्या हुआ? क्या बात है?' उसने अपनी पत्नी का चेहरा दोनों हाथों में भरकर उससे पूछा। ऐसी किसी स्थिति में पुरुष अक्सर क्रोधित हो जाते हैं। उसने विस्मय और परेशानी के लहजे में यह पूछा था। लेकिन, अब भी महिला के मुंह से सिवाय बिट्टो के कुछ नहीं निकला। वह और कुछ नहीं कह पाई। इस पर भागते हुए उस युवक ने गाड़ी से अपनी बेटी को उतारा। प्लेटफार्म पर तीनों मां-पिता और बेटी एक दूसरे से लिपटकर खड़े हो गए। महिला अभी भी सिसक-सिसक कर रो रही थी। उसके पति की भी आंखे नम हो गई थी। उसने पत्नी और बेटी को अपने कलेजे से ऐसे चिपका लिया जैसे सालों बाद उनसे मिला हो। सार्थक भी नम पलकों से उन्हें तब तक निहारता रहा। जब तक वे उसे नजर आए। इसके बाद भोपाल तक रास्ते भर वे उसके जेहन में बने रहे।

दो शब्द : यह एक सत्य घटना है। जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। इसे मैंने एक लघुकथा का रूप देने की कोशिश की है। पता नहीं सफल रहा या असफल। इतना तो पता है कि मैं उस मां निश्चल प्रेम और अपनी बेटी के लिए उसकी तड़प अंकित करने में असफल रहा।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

धमाके होते रहेंगे

 मुं बई में बुधवार (१३ जुलाई २०११) को तीन जगह बम विस्फोट हुए। मुम्बा देवी मंदिर के सामने झवेरी बाजार में। दूसरा ओपेरा हाउस के पास चेंबर प्रसाद में और तीसरा दादर में। तीनों विस्फोट १० मिनट में हुए। इनमें अब ३१ लोगों की मौत हो चुकी है १२० से अधिक गंभीर हालत में अस्पताल में मौत से संघर्ष कर रहे हैं।
          भारत में यह आश्चर्यजनक घटना नहीं है। इसलिए चौकने की जरूरत नहीं। शर्मनाक जरूर है। दु:खद है। देशवासियों को ऐसे धमाकों की आदत डाल लेनी होगी, क्योंकि जब तक देश की राजनैतिक इच्छाशक्ति गीदड़ों जैसी रहेगी तब तक धमाके यूं ही होते रहेंगे। हमारे (?) नेता गीदड़ भभकियां फुल सीना फुलाकर देते हैं। करते कुछ नहीं। एक तरफ अन्य देश हैं जो करके दिखाते हैं फिर कहते हैं। अमरीका को ही ले लीजिए। उसने देश के नंबर वन दुश्मन को एड़ीचोटी का जोर लगाकर ढूंढ़ा और उसे उसके बिल में घुसकर मार गिराया। इस घटना के वक्त भी हमारे (?) नेताओं ने आतंकियों को अमरीका अंदाज में मारने की गीदड़ भभकी दी थी। लेकिन, हुआ क्या? मुंबई में ये धमाके। हमारे खुफिया तंत्र को इनकी खबर ही नहीं थी। इसके अलावा देश के शीर्ष विभागों में क्या गजब का तालमेल है यह भी धमाकों के बाद उजागर हो गया। मृतकों की संख्या को लेकर मुंबई पुलिस कमिश्नर कुछ जवाब दे रहे थे, मुख्यमंत्री के पास कुछ दूसरे ही आंकड़े थे और गृहमंत्री अपना ही सुर आलाप रहे थे। किसी के पास कोई ठोस जानकारी नहीं। देश की जनता किसकी बात पर भरोसा करे। 
        भारत की राजनीति भयंकर दूषित हो चुकी है। वोट बैंक की घृणित राजनीति के चलते देशधर्म दोयम दर्जे पर खिसका दिया गया है। इसी वोट बैंक की राजनीति के चलते भारत की 'आत्मा' (संसद) और मुंबई के 'ताज' होटल पर हमला करने वाले आतंकियों को अब तक फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। कांग्रेस उन्हें मुस्लिम वोट बैंक के 'महाप्रबंधक' के रूप में देखती है। उनकी सुरक्षा व्यवस्था पर सरकार करोड़ों रुपए फूंक रही है। पिछले साल ही उजागर हुआ था कि अफजल और कसाब को जेल में 'रोटी और बोटी' की शानदार व्यवस्था है। बम फोड़कर निर्दोष लोगों की हत्या कर उन्हें जिस 'जन्नत' के ख्वाब दिखाए गए थे वह उन्हें भारतीय जेलों में ही नसीब हो गई। कितनी शर्मनाक स्थिति है कि देश ही नहीं वरन् मानवता के दो बड़े अपराधी इस देश में वोटों की तराजू पर तोले जाते हैं। नेता उनकी फांसी को ऐन केन प्रकारेण टालने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। जहां हत्यारों को इतनी सहूलियत और इज्जत बख्शी जाए वहां कौन मूर्ख बम नहीं फोडऩा चाहेगा। देश के वरिष्ठ नेता मानवता के दुश्मनों की मौत का मातम मनाते हैं। उन्हें 'जी' और 'आप' लगाकर संबोधित करते हैं। उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर देश के शहीदों का अपमान करते हैं। निरे बेवकूफ हैं जो चेन झपटते हैं, छोटी-मोटी लूट मार कर रहे हैं। उन्हें इस देश में इज्जत और शोहरत चाहिए तो बम फोडऩे होंगे। हो सकता है देश की राजनीति का यही हाल रहा तो देर सबेरे इन्हें अक्ल आ ही जाएगी। फिर ये भी हमारे माथे बम फोड़ेंगे। इसलिए इस देश में बम धमाके होते रहेंगे।
       धमाके वाकई रोकने हैं तो दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। आतंकियों के दिलों में खौफ पैदा करने की जरूरत है। आतंकियों और उनके मनसूबों को कुचलना ही है तो वोट बैंक की राजनीति का त्याग करना होगा। राजनीति में देशधर्म और जनता के हित सर्वोपरि रखने होंगे। अब भी यदि आतंकियों से कैसे निपटना है देश के कर्णधारों को नहीं सूझ रहा हो। उनकी बुद्धि पर ताला पड़ गया हो तो ब्रिटेन और अमरीका से सीख ली जा सकती है। जिन्होंने अपने देश में आतंक की एक-दो घटनाओं के बाद उसे फिर सिर नहीं उठाने दिया। कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी धरती पर पनप रहे आतंक के भ्रूण की ही हत्या कर दी। उसे सपोला तक नहीं बनने दिया। इजराइल से भी प्रेरणा ली जा सकती है। जो चारों ओर से दुश्मनों से घिरा है। फिर भी मजाल है किसी की, इजराइल की तरफ आंख उठाकर भी देख ले। यहां आतंक इसलिए नहीं फनफना सका, क्योंकि यहां राष्टधर्म और राष्ट्रहित प्राथमिक हैं। यहां वोट बैंक की घृणित राजनीति नहीं। चंद वोटों की खातिर देश को बारूद के मुहाने खड़ा करने की सोच यहां की राजनीति में नहीं है। अपने नागरिकों को बेवजह मरने से बचाने के लिए बिखर रहा ब्रिटेन भी शेर हो गया। नतीजा आज उसके नागरिक बेफिक्र सोते हैं। अमरीका तो एक घटना के बाद से आज तक आतंकियों के पीछे 'तीर-कमान' लेकर पड़ गया है। वह अपने देश के नंबर एक दुश्मन का सफाया तो कर ही चुका है, उसके बाद भी शांत नहीं है। आतंक को पस्त करने की उसने ठान रखी है। वह अब भी आतंकियों को ओसामा बिन लादेन के पास भेज रहा है। इसके लिए उसने पाकिस्तान से भी बिगाड़ कर ली है। 
     ऐसा भी नहीं है कि भारत यह सब करने में समर्थ नहीं है। उसके पास आतंकियों से निपटने के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं है। ये सब है उसके पास। बस नहीं है तो राजनैतिक इच्छाशक्ति। इसी राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते आतंकियों के हौसले बुलंद हैं। वे बार-बार देश के किसी न किसी हिस्से में धमाके करते रहते हैं। देश की सुरक्षा इंतजामों का हाल तो यह है कि हम मुंबई की सुरक्षा व्यवस्था ही पुख्ता नहीं रख पा रहे हैं। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में यह पहला धमाका नहीं है। मुंबई में पहली बार सिलसिलेबार धमाके १९९३ में हुए थे। उसके बाद २००२, २००३, २००६ और २००८ में भी धमाके होते रहे। १९९३ से अब तक मुंबई में ही करीब ७०० लोगों की जान हम गवां चुके हैं। इसके बाद भी हम सबक लेने को तैयार नहीं। बयानबाजी और वोट बैंक की परवाह छोड़कर हमें कुछ अमरीका और ब्रिटेन की नीति को अपनाना होगा। हमारी सेना में वो कुव्वत है। वे आतंक के सफाए के लिए अपनी मंशा भी जता चुके हैं। देश के कर्णधारों को आतंक को मिटाने के लिए कुछ ठोस नीति बनानी होगी। वरना तो यूं ही धमाके होते रहेंगे और हम अपने प्रियजनों को खोते रहेंगे।