बुधवार, 24 जुलाई 2024

न्यायालयों में पहले ही अपने घुटने छिलवा चुका था लोकतंत्र विरोधी प्रतिबंध

सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर लगे प्रतिबंध को मोदी सरकार ने हटाया, सरकार ने की सरकारी कर्मचारियों के मौलिक अधिकार की रक्षा

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में कर्मचारियों के शामिल होने पर लगे प्रतिबंध को हटाकर नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा की है। अब कर्मचारी संघ की गतिविधियों में सामान्य नागरिकों की भाँति शामिल हो सकेंगे। नि:संदेह, सरकार का यह निर्णय लोकतंत्र और संविधान की भावना को मजबूत करनेवाला है। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह विविध सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक संगठनों में शामिल हो सके। एक सामान्य नागरिक की भाँति यह अधिकार कर्मचारियों को भी प्राप्त है कि अपने कार्यालयीन समय के बाद सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा हो सकते हैं। परंतु, लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना को कमजोर करते हुए तत्कालीन सरकार ने 58 वर्ष पहले 1966 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इतना ही नहीं, सरकारी कर्मचारी के आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने पर उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई का विधान भी रखा गया था। यह एक प्रकार से राष्ट्रीय विचार के प्रति झुकाव रखनेवाले लोगों को हतोत्साहित करने का प्रयास ही था।

देखिए यह वीडियो- RSS के कार्यक्रमों में शामिल हो सकते हैं सरकारी कर्मचारी, मोदी सरकार ने हटाया प्रतिबंध

इस तानाशाही एवं द्वेषपूर्ण निर्णय का उत्तर संघ ने तो कभी नहीं दिया लेकिन समाज ने अवश्य ही आईना दिखाने का कार्य किया। संघ को दबाने एवं समाप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न किए हैं। इस आदेश के अतिरिक्त तीन बार पूर्ण प्रतिबंध भी लगाया। संघ की छवि खराब करने के लिए बड़े-बड़े नेताओं की ओर से मिथ्या प्रचार भी किया गया। अपने समर्थक बुद्धिजीवियों से पुस्तकें भी लिखवायी गईं। लेकिन संघ विरोधियों के ये सब प्रयास विफल ही रहे। निस्वार्थ भाव से देश और समाज के लिए कार्य करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कोई रोक नहीं सका। अपनी 99 वर्ष की यात्रा में संघ ने लगातार प्रगति एवं विस्तार ही किया है। अपने विचार, आचरण एवं सेवाकार्यों से संघ ने समाज का विश्वास जीता, जिसके कारण समाज सदैव संघ के साथ खड़ा रहा। 

कई ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें संघ गतिविधि में शामिल होने पर सरकारों ने सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की। लेकिन वे सभी मामले न्यायालय में टिक नहीं सके। संघ के स्वयंसेवक न्यायालय से जीतकर आए। उनकी छोटी-छोटी जीतों की शृंखला ने भी यह साबित किया कि संघ की गतिविधियों में शामिल होने से रोकने के लिए लगाया गया तत्कालीन सरकार का आदेश संविधान एवं मौलिक अधिकारों की मूल भावना के विरुद्ध था। इस प्रतिबंध को 1966 के बाद से ही चुनौती मिलने लगी थी। क्योंकि संघकार्य को बाधित करने और स्वयंसेवकों को प्रताड़ित करने की जिस मंशा से सरकार ने यह प्रतिबंध लगाया था, उसे अंजाम देने का कार्य देशभर में शुरू किया गया। इस प्रतिबंध को हथियार बनाकर सरकारों ने देश के विभिन्न राज्यों में संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की नौकरी छीनना शुरू कर दिया। सरकार की मनमानी को स्वयंसेवकों ने न्यायालयों में चुनौती दी, जहाँ सरकारों को मुंह की खानी पड़ी। मैसूर उच्च न्यायालय ने वर्ष 1966 में रंगनाथचार अग्निहोत्री की याचिका पर निर्णय देते हुए कहा था कि प्रथम दृष्ट्या आरएसएस एक गैर-राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठन है जो कि गैर-हिंदुओं के प्रति किसी भी द्वेष अथवा घृणा की भावना से मुक्त है। इसी क्रम मे न्यायालय ने आगे कहा कि संघ ने भारत में लोकतान्त्रिक पद्धति को स्वीकार किया है। अतः राज्य सरकार द्वारा याची को सेवा से हटाने का निर्णय गलत है। इसके साथ ही न्यायालय ने उक्त कर्मचारी को सेवा में बहाल करने का निर्णय सुनाया। 

इसी प्रकार, वर्ष 1967 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के कर्मचारी रामपाल को पद से हटाने संबंधी आदेश को रद्द करते हुए कहा कि संघ कोई राजनैतिक संगठन नहीं है, अतः इसकी गतिविधियों में भागीदारी करना कानूनी रूप से गलत नहीं है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकार द्वारा रामपाल को पद से इस आधार पर हटाया गया था कि वे आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेते हैं एवं राज्य की दृष्टि में आरएसएस एक राजनैतिक संगठन है। ‘भारत प्रसाद त्रिपाठी बनाम मध्यप्रदेश सरकार तथा अन्य’ प्रकरण में तो 1973 में मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय ने यहाँ तक कह दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के आधार पर किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त नहीं की जा सकती। किसी अंतरस्थ हेतु जारी किया गया (इस आशय का) कोई आदेश वैध नहीं ठहराया जा सकता”। यानी न्यायालय ने संघ की गतिविधि में शामिल होने से रोकने के लिए लगाए गए किसी भी प्रतिबंध/आदेश को अवैध करार दिया। 

इसके अलावा ‘मध्यप्रदेश राज्य बनाम राम शंकर रघुवंशी तथा अन्य (1983)’, मामले में उच्च न्यायालय,  ‘श्रीमती थाट्टुमकर बनाम महाप्रबंधक टेलीकम्यूनिकेशन्स, केरल मंडल (1982)’ मामले में अर्नाकुलम स्थित केरल उच्च न्यायालय और ‘डीबी गोहल बनाम जिला न्यायाधीश, भावनगर तथा अन्य (1970)’ मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने यही निर्णय दिए कि संघ से जुड़े होने या उसके कार्यक्रमों में शामिल होने के आधार पर किसी कर्मचारी पर न तो कार्रवाई की जा सकती है और न ही उन्हें सेवा से हटाया जा सकता है।

कुछ प्रकरण ऐसे भी हैं, जिनमें संघ के कार्यकर्ताओं को इस प्रतिबंध के लागू होने से पहले ही निशाना बनाया गया। इन मामलों से स्पष्ट है कि तत्कालीन सरकारें शुरू से ही चाहती थीं कि संघ के कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों के मन में भय उत्पन्न किया जाए। ताकि हिन्दुओं के संगठन के कार्य को रोका जा सके। परंतु, न्यायपालिका से लेकर आमजन की कसौटी पर राष्ट्रीय विचार को कमजोर करने के सभी प्रयास विफल रहे। ‘कृष्ण लाल बनाम मध्यभारत राज्य (1955)’ में इंदौर स्थित मध्यभारत उच्च न्यायालय, ‘चिंतामणि नुरगांवकर बनाम पोस्ट मास्टर जनरल, कें.मं., नागपुर (1962)’ में बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर न्यायपीठ, ‘जयकिशन महरोत्रा बनाम महालेखाकार (1963)’ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय, ‘केदारलाल अग्रवाल बनाम राजस्थान राज्य तथा अन्य (1964)’ मामले में जोधपुर स्थित राजस्थान उच्च न्यायालय और ‘मनोहर अंबोकर बनाम भारत संघ तथा अन्य (1965)’ प्रकरण में दिल्ली स्थित पंजाब उच्च न्यायालय ने यही कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गैरकानूनी संगठन नहीं है। सरकारी कर्मचारी को संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने के आधार पर दंडित नहीं किया जा सकता। यदि कोई सरकारी कर्मचारी संघ का सदस्य है तब भी उसे इस आधार पर अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त नहीं किया जा सकता।

स्मरण रखें कि वर्ष 1932 में अंग्रेजों ने भी सरकारी कर्मचारियों के संघ से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अंग्रेजी हुकुमत की ओर से जारी परिपत्र में आदेश दिया गया कि “सरकार ने निर्णय लिया है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य बनने अथवा उसके कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति नहीं रहेगी”। कहा जा सकता है कि सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने से रोकने के लिए जिस प्रकार का प्रतिबंध कांग्रेस सरकार ने लगाया, वह औपनिवेशिक काल की अंग्रेजों की नीति को ही आगे बढ़ाने का कार्य था।

बाद के वर्षों में जब राज्यों में राष्ट्रीय विचार का पोषण करनेवाली सरकारें आईं तो उन्होंने लोकतंत्र एवं मौलिक अधिकार विरोधी इस प्रतिबंध को राज्यों में समाप्त कर दिया। संघ ने इस प्रतिबंध की कभी चिंता नहीं की क्योंकि न्यायालयों में इस तुगलकी फरमान के घुटने इतने अधिक छिल गए थे कि यह स्वत: ही निष्प्रभावी हो गया था। फिर भी, वर्ष 2000 में जब संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ से पूछा गया कि संघ इस प्रतिबंध को लेकर क्या सोचता है? तब उन्होंने कहा था कि संघ की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगाने अथवा हटाने की कार्यवाही में हम कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे, इसके निर्णय का अधिकार सरकारों के पास है। उल्लेखनीय है कि गुजरात सरकार ने इस दिशा में सबसे पहला कदम उठाया। बाद में उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों ने भी प्रतिबंध को हटा लिया। यह प्रतिबंध केवल केंद्र सरकार में रह गया था, उसे भी वर्तमान केंद्र सरकार ने संघ के हस्तक्षेप के बिना, स्वत: ही मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में आयी एक याचिका के बाद हटा लिया है। केंद्र सरकार के निर्णय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से भी संतुलित टिप्पणी की गई है।

सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस में शामिल होने संबंधी सरकार के निर्णय पर आधारित यह आलेख स्वदेश, भोपाल में 24 जुलाई, 2024 को प्रकाशित

अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा- “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 99 वर्षों से सतत राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में संलग्न है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय में समाज को साथ लेकर संघ के योगदान के चलते समय-समय पर देश के विभिन्न प्रकार के नेतृत्व ने संघ की भूमिका की प्रशंसा भी की है। अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते तत्कालीन सरकार द्वारा शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए निराधार ही प्रतिबंधित किया गया था। शासन का वर्तमान निर्णय समुचित है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है”। 

कहना होगा कि वैसे तो इस प्रतिबंध का कोई औचित्य नहीं रह गया था लेकिन फिर भी केंद्र सरकार ने इसे हटाकर अच्छा ही किया। इससे आमजन के ध्यान में यह भी आया कि पूर्ववर्ती सरकारों ने किस प्रकार राष्ट्रीय विचारधारा के दबाने का प्रयास किया। आज जब संविधान और लोकतंत्र की रक्षा की बहस चल रही है, तब भी उन्हें ध्यान आएगा कि किन सरकारों ने संविधान की मूलभावना के विरुद्ध कार्य किया। 

मोदी सरकार के आदेश की प्रति

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

जनांदोलन बना प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान- ‘एक पेड़ माँ के नाम’

मध्यप्रदेश के इंदौर ने स्वच्छता के बाद अब पौधरोपण में बनाया विश्व कीर्तिमान, एक दिन में लगाए 12 लाख 65 हजार पौधे

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के आवासीय परिसर 'माखनपुरम' में हमने भी 'एक पेड़ माँ के नाम' अभियान के अंतर्गत पौधरोपण किया

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह ताकत है कि जब भी वे नागरिकों से किसी प्रकार का आह्वान करते हैं तो वह जनांदोलन में परिवर्तित हो जाता है। एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी के ‘एक पेड़ माँ के नाम’ का आह्वान करते ही देशभर में लोग उत्साहित होकर पौधरोपण कर रहे हैं। पौधरोपण के मामले में मध्यप्रदेश ने एक बार फिर सर्वाधिक पौधे रोपने का कीर्तिमान रचा है। स्वच्छता के मामले में देश में प्रथम स्थान पर रहकर मध्यप्रदेश का मान बढ़ानेवाले इंदौर ने 12 लाख 65 हजार पौधे रोपकर बड़ा संदेश अन्य शहरों को दिया है। इंदौर में जनसंख्या घनत्व अत्यधिक शहर है। इसे व्यावसायिक दृष्टि से ‘मिनी मुम्बई’ भी कहा जाता है। इसलिए जब यह प्रश्न आया कि इंदौर जैसे शहर में 51 लाख पौधे कहाँ लगाए जा सकेंगे, तब प्रदेश सरकार में मंत्री एवं इंदौर के लोकप्रिय राजनेता कैलाश विजयवर्गीय ने शहरवासियों के नाम एक सार्वजनिक पत्र लिखा और आग्रह किया कि संकल्प में शक्ति हो तो कुछ भी संभव है। इंदौरवासियों ने अपने संकल्प को सिद्ध करने के लिए गृहमंत्री अमित शाह की उपस्थिति में 24 घंटे में 12 लाख 65 हजार पौधे रोपकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में कीर्तिमान दर्ज करा दिया। इससे पहले एक दिन में सबसे अधिक पेड़ लगाने की उपलब्धि असम के पास थी। असम में एक दिन में 9 लाख 21 हजार पौधे एक दिन में रोपे थे। 

गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड के साथ मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, नगरीय विकास एवं आवास मंत्री कैलाश विजयवर्गीय, इंदौर के महापौर पुष्यमित्र, सांसद शंकर लालवानी एवं अन्य

मध्यप्रदेश देश का दिल ही नहीं है अपितु ‘भारत के फेफड़े’ के रूप में भी सुप्रसिद्ध है। देश का 12 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में ही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान के बाद 11 जुलाई को मध्यप्रदेश की राजधानी में विशेष सशस्त्र बल की ओर से आयोजित ‘एक पेड़ माँ के नाम’ अभियान के अंतर्गत 1 लाख 25 हजार पौधे रोपे गए थे। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इस अवसर पर कहा भी कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति सामाजिक चेतना जगाने के साथ ही प्रदेश में 5 करोड़ 51 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य है। यहाँ उल्लेखनीय होगा कि पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी पौधरोपण को लेकर संकल्पबद्ध हैं। उन्होंने प्रतिदिन एक पौधा लगाने का संकल्प तीन वर्ष पूर्व सदानीरा माँ नर्मदा जयंती के प्रसंग पर लिया था, जिसे आज तक अनवरत निभा रहे हैं। उनसे प्रेरणा लेकर प्रदेश में बड़ी संख्या में पौधा रोपण किया गया है। इसके अतिरिक्त उनके प्रयासों से वर्ष 2017 में संपूर्ण प्रदेश में 6 करोड़ 63 लाख पौधे रोपकर कीर्तिमान रचा जा चुका है।

यह सब बताता है कि भाजपा के राजनेता एवं सरकारें सामाजिक मुद्दों को लेकर भी बहुत संवेदनशील एवं समर्पित रहती हैं। यह ध्यान नहीं आता है कि इससे पहले किसी नेता ने पर्यावरण संरक्षण को लेकर इस प्रकार का आह्वान और अभियान चलाया हो। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान के बाद से भारतीय जनता पार्टी के नेता एवं कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त समाज में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन हेतु पौधरोपण को लेकर एक जागृति की लहर दौड़ गई है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर समाज में भाव जागरण करने के मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कोई जवाब नहीं है। जब किसी मुद्दे के साथ व्यक्ति का भावनात्मक संबंध जुड़ जाता है, तब वह उसको लेकर अधिक समर्पण, निष्ठा और सक्रियता के साथ कार्य करता है। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से हमारे पुरखों के प्रकृति के सभी तत्वों के साथ मनुष्य का एक भावनात्मक संबंध विकसित किया है। हिन्दू संस्कृति के अलावा कहीं भी प्रकृति के साथ आत्मीय एवं मानवीय संबंधों की परंपरा दिखायी नहीं देती है। भारत में ही पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को माँ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। 

हिन्दू संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण हिन्दू स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाता है। सम्राट विक्रमादित्य और अशोक के शासनकाल में वन की रक्षा सर्वोपरि थी। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है। हमारे महर्षि यह भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। हिन्दू दर्शन में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है- 

'दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:।

दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।'

स्मरण रखें कि यह पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री मोदी ने पर्यावरण संरक्षण को लेकर बड़ी पहल की है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर उनकी संजीदगी साफ दिखायी देती है। विभिन्न वैश्विक मंचों से समय-समय पर प्रधानमंत्री मोदी ने पर्यावरण संरक्षण को जनांदोलन बनाने का आह्वान किया है। पर्यावरण सरंक्षण के प्रति उनकी संवेदनशीलता अनुकरणीय है। पर्यावरण संवर्धन के इस पवित्र आह्वान में सबको दलीय एवं वैचारिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर शामिल होना चाहिए। ‘एक पेड़ माँ के नाम’ का प्रधानमंत्री मोदी का यह आह्वान जनांदोलन में परिवर्तित तो हो गया है। अब आवश्यक है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति समाज में आई यह लहर स्थायी तौर पर रहे। अपने पूर्वजों की भाँति हमें भी पर्यावरण संरक्षण को अपनी आदत बना लेना चाहिए।

पढ़िए- ग्वालियर में अल्मोड़ा की कहानी। संकल्प की शक्ति और पर्यावरण संरक्षण का अनूठा उदाहरण

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

कन्वर्जन पर उच्च न्यायालय की चिंता

“उत्तरप्रदेश में भोले-भाले गरीबों को गुमराह कर ईसाई बनाया जा रहा। अगर ऐसे ही धर्मांतरण (कन्वर्जन) जारी रहा तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या अल्पसंख्यक हो जाएगी”। - इलाहाबाद उच्च न्यायालय

भारत में अभारतीय ताकतें हिन्दू समाज को लक्षित करके कन्वर्जन का बड़ा रैकेट चला रही हैं। ईसाई मिशनरीज हों या फिर कट्टरपंथी इस्लामिक संस्थाएं, अपने-अपने मत का प्रसार करने के लिए कन्वर्जन की प्रक्रिया को अपनाती हैं। इनके निशाने पर हिन्दू समाज के भोले-भाले समुदाय रहते हैं। ये संस्थाएं हिन्दुओं को विभिन्न प्रकार के बरगलाकर या धोखे में रखकर कन्वर्जन को अंजाम देते हैं। लंबे समय से राष्ट्रीय विचार के संगठन कन्वर्जन के गंभीर खतरे की ओर समाज और सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करते आए हैं। अभी तक उनकी चिंता का उपहास उड़ाया जाता था। यह भी सुनियोजित ढंग से किया जाता है ताकि कन्वर्जन के मुद्दे पर समाज में गंभीर विमर्श खड़ा न हो जाए। लेकिन अब तो कन्वर्जन के गंभीर खतरे को लेकर न्यायालय ने भी अपनी चिंता जाहिर कर दी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कन्वर्जन पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है- “उत्तरप्रदेश में भोले-भाले गरीबों को गुमराह कर ईसाई बनाया जा रहा। अगर ऐसे ही धर्मांतरण (कन्वर्जन) जारी रहा तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या अल्पसंख्यक हो जाएगी”।

गुरुवार, 20 जून 2024

नियती से भेंट का दिन ‘हिन्दू साम्राज्य दिवस’

श्री रायगड दुर्ग पर छत्रपति शिवाजी महाराज की मानवंदना करते सूर्या फाउंडेशन के युवा

आज का दिन बहुत पावन है। आज से ठीक 350 वर्ष पूर्व ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, विक्रम संवत 1731 को (तद्नुसार 6 जून, 1674) छत्रपति शिवाजी महाराज ने ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी। स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। कहते हैं कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म न होता और उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तब भारत अंधकार की दिशा में बहुत आगे चला जाता। महान विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद भारतीय समाज का आत्मविश्वास निचले तल पर चला गया। अपने ही देश में फिर कभी हमारा अपना शासन होगा, जो भारतीय मूल्यों से संचालित हो, लोगों ने यह कल्पना करना ही छोड़ दिया। तब शिवाजी महाराज ने कुछ पराक्रमी मित्रों के साथ ‘स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया और अपने कृतित्व एवं विचारों से जनमानस के भीतर भी आत्मविश्वास जगाया। गोविन्द सखाराम सरदेसाई ‘द हिस्ट्री ऑफ द मराठाज-शिवाजी एंड हिज टाइम’ में लिखते हैं कि “मुस्लिम शासन में घोर अन्धकार व्याप्त था। कोई पूछताछ नहीं, कोई न्याय नहीं। अधिकारी जो मर्जी करते थे। महिलाओं के सम्मान का उल्लंघन, हिंदुओं की हत्याएं और धर्मांतरण, उनके मंदिरों को तोड़ना, गोहत्या और इसी तरह के घृणित अत्याचार उस सरकार के अधीन हो रहे थे। निज़ाम शाह ने जिजाऊ माँ साहेब के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की खुलेआम हत्या कर दी। बजाजी निंबालकर को जबरन इस्लाम कबूल कराया गया। अनगिनत उदाहरण उद्धृत किए जा सकते हैं। हिन्दू सम्मानित जीवन नहीं जी सकते थे”। ऐसे दौर में मुगलों के अत्याचारी शासन के विरुद्ध शिवाजी महाराज ने ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जो भारत के ‘स्व’ पर आधारित था। उनके शासन में प्रजा सुखी और समृद्ध हुई। धर्म-संस्कृति फिर से पुलकित हो उठी।

रविवार, 14 अप्रैल 2024

भाषा के प्रति अंबेडकर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनकी पत्रकारिता

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए भाषा का प्रश्न भी राष्ट्रीय महत्व का था। उनकी मातृभाषा मराठी थी। अपनी मातृभाषा पर उनका जितना अधिकार था, वैसा ही अधिकार अंग्रेजी पर भी था। इसके अलावा बाबा साहेब संस्कृत, हिंदी, पर्शियन, पाली, गुजराती, जर्मन, फारसी और फ्रेंच भाषाओं के भी विद्वान थे। मराठी भाषी होने के बाद भी बाबा साहेब जब राष्ट्रीय भाषा के संबंध में विचार करते थे, तब वे सहज ही हिन्दी और संस्कृत के समर्थन में खड़े हो जाते थे। महाराष्ट्र के अस्पृश्य बंधुओं से संवाद करना था, तब उन्होंने मराठी भाषा में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया। जबकि उस समय के ज्यादातर बड़े नेता अपने समाचारपत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर रहे थे। बाबा साहेब भी अंग्रेजी में समाचारपत्र प्रकाशित कर सकते थे, अंग्रेजी में उनकी अद्भुत दक्षता थी। परंतु, भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान और अपने लोगों से अपनी भाषा में संवाद करने के विचार ने उन्हें मराठी में समाचारपत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया होगा। यदि बाबा साहेब ने अंग्रेजी में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया होता, तब संभव है कि वे वर्षों से ‘मूक’ समाज के ‘नायक’ न बन पाते और न ही उनके हृदय में स्वाभिमान का भाव जगा पाते। वहीं, जब उनके सामने राष्ट्रभाषा का प्रश्न आया, तब उन्होंने अपनी मातृभाषा की ओर नहीं देखा, वे भाषा के प्रश्न पर भावुक नहीं हुए, बल्कि तार्किकता के साथ उन्होंने हिन्दी और संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा

राष्ट्रीय उद्देश्य और आध्यात्मिक अधिष्ठान पर केंद्रित है छत्रपति शिवाजी महाराज का 'हिन्दवी स्वराज्य' : हेमंत मुक्तिबोध

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता श्री हेमंत मुक्तिबोध ने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ रामदास ने उस समय के हिंदू समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। याद रखें कि यह सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं था। यह भारत के ‘स्व’ को स्थापित करने के लिए किया गया राष्ट्रीय संघर्ष था। उनके संघर्ष का राष्ट्रीय उद्देश्य था और अध्यात्म उसका अधिष्ठान था। इसलिए उस समय के समाज में विश्वास जगा कि यह राजा साधारण नहीं है। ‘हे हिंदवी स्वराज्य व्हावे, ही तर श्रींची इच्छा यात’ शिवाजी महाराज का यह वाक्य विश्व के महान भाषणों से भी बढ़कर है। पुस्तक चर्चा का यह कार्यक्रम विश्व संवाद केंद्र के मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी सभागार में हुआ। इस अवसर पर साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य भारत प्रांत के संघचालक श्री अशोक पांडेय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है-

हिन्दवी स्वराज्य दर्शन पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है। चित्र पर क्लिक करके पुस्तक खरीदें

श्री मुक्तिबोध ने कहा कि लोकेंद्र सिंह ने इस जीवंतता के साथ पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को लिखा है कि हम भी पढ़ते–पढ़ते छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों का भ्रमण करते हैं। एक–एक प्रसंग और घटना का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। यात्रा वृत्तांत में दर्शन की दृष्टि, मन की आंखों और विवेक–बुद्धि के साथ देखते हैं तो कुछ प्रेरणा देनेवाला और सकारात्मक साहित्य का सृजन होता है। लोकेंद्र सिंह ने शिवाजी महाराज के किलों को केवल सामान्य पर्यटक के तौर पर नहीं देखा है, उन्होंने विवेक बुद्धि के साथ दुर्गों का दर्शन किया हैं। उन्होंने कहा कि किलों का महत्व इतना नहीं है, जितना उनमें रहने वालों का महत्व है। शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना में किलों को जीता, संधि में किले हारे और फिर किलों को प्राप्त करने के लिए संधि तोड़ी। पुस्तक में सिंहगढ़ की कथा भी आती है। जिस किले को प्राप्त करने में तानाजी मालूसरे का बलिदान हुआ। अपने साथी के बलिदान पर छत्रपति ने कहा था– “गढ़ आला लेकिन सिंह गेला”।

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ को साकार करने में सफल रहे रणदीप हुड्डा

स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर रणदीप हुड्डा ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। सच कहूं तो यह फिल्म से कहीं अधिक है। सिनेमा का पर्दा जब रोशन होता है तो आपको इतिहास के उस हिस्से में ले जाता है, जिसको साजिश के तहत अंधकार में रखा गया। भारत की स्वतंत्रता के लिए हमारे नायकों ने क्या कीमत चुकाई है, यह आपको फिल्म के पहले फ्रेम से लेकर आखिरी फ्रेम तक में दिखेगा। अच्छी बात यह है कि रणदीप हुड्डा ने उन सब प्रश्नों पर भी बेबाकी से बात की है, जिनको लेकर कम्युनिस्ट तानाशाह लेनिन–स्टालिन की औलादें भारत माता के सच्चे सपूत की छवि पर आघात करती हैं। कथित माफीनामे से लेकर 60 रुपए पेंशन तक, प्रत्येक प्रश्न का उत्तर फिल्म में दिया गया है। वीर सावरकर जन्मजात देशभक्त थे। चाफेकर बंधुओं के बलिदान पर किशोरवय में ही वीर सावरकर ने अपनी कुलदेवी अष्टभुजा भवानी के सामने भारत की स्वतंत्रता का संकल्प लिया। अपने संकल्प को साकार करने के लिए किशोरवय में ही ‘मित्र मेला’ जैसा संगठन प्रारंभ किया। क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत’ की नींव रखी। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में उत्तर देने के लिए लंदन जाकर वकालत की पढ़ाई की। हालांकि क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें डिग्री नहीं दी। ब्रिटिश शासन के घर ‘लंदन’ में किस प्रकार वीर सावरकर ने अंग्रेजों को चुनौती दी, इसकी झलक भी फिल्म में दिखाई देती है। नि:संदेह, वीर सावरकर के महान व्यक्तित्व के संबंध में फिल्म न्याय करने में सफल हुई है।