बुधवार, 16 जुलाई 2025

अमर्यादित नहीं हो सकती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

जब हम विरोध, आलोचना और असहमति के वास्तविक स्वरूप को भूलते हैं तब हमारी अभिव्यक्ति घृणा और नफरत में बदल जाती है। मौजूदा समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय विचार के संगठनों एवं कार्यकर्ताओं पर टिप्पणी का स्वर ऐसा ही दिखायी पड़ रहा है, जो अमर्यादित है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही अमर्यादित अभिव्यक्ति के मामलों की सुनवाई के दौरान बहुत महत्वपूर्ण बातें कहीं है, जिन पर हमें गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ है। इस पर किसी प्रकार के बाहरी प्रतिबंध लगाना उचित नहीं होगा। लेकिन यदि इसी प्रकार अमर्यादित लिखा-पढ़ी, बयानबाजी और कार्टूनबाजी जारी रही तब समाज में वैमनस्य और सांप्रदायिक तनाव को फैलने से रोकने के लिए कुछ न कुछ युक्तियुक्त प्रबंध करने ही पड़ेंगे। सोशल मीडिया के इस दौर में किसी को भी अमर्यादित और असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। नागरिकों को भी समझना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक मर्यादा है, उसे लांघना किसी के भी हित में नहीं है। उचित होगा कि नागरिक समाज इस दिशा में गंभीरता से चिंतन करे। सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल समाज में नफरत और विघटन को जन्म दे सकता है। इसलिए नागरिकों को चाहिए कि वे जिम्मेदारी से बोलें, संयम रखें और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करें। 

हमारे यहाँ तो महापुरुषों ने भी कहा है कि जो व्यवहार हम अपने लिए अपेक्षित करते हैं, वही व्यवहार हमें सामनेवाले के साथ करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ के सामने आया वजाहत खान का मामला ऐसा ही है, जिसमें हिन्दू देवी पर तो आपत्तिजनक पोस्ट कर रहा है लेकिन इस्लाम के बारे में आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों के विरुद्ध शिकायत दर्ज करा है। जब पलटकर किसी ने हिन्दू धर्म का अपमान करने के आरोप में उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी, तो वह न्यायालय में पहुँच गया है। याद हो कि सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर शर्मिष्ठा पनौली ने ऑपरेशन सिंदूर के समय भावावेश में आकर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। हालांकि जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने बिना शर्त माफी भी माँग ली और अपना वह वीडियो भी हटा लिया था। लेकिन इसके बावजूद वजाहत खान ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी थी। हालांकि ऐसा करते समय वजाहत खान ने अपने गिरेबां में झांककर नहीं देखा कि वह क्या कर रहा है? जब आप अपनी आस्था पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी सुनना पसंद नहीं करते तब आपको दूसरों के देवी-देवताओं पर अभद्र टिप्पणियां करने का अधिकार किसने दे दिया है? अच्छा ही हुआ कि वजाहत खान जैसों को आईना दिखाने के लिए हिन्दू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने पर उनके विरुद्ध भी प्रकरण दर्ज करा दिया गया है। अब उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मोल समझ आएगा। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने कहा है कि “लोगों को हेट स्पीच क्यों अटपटे और गलत नहीं लगते हैं। ऐसे कंटेंट पर नियंत्रण होना चाहिए। साथ ही लोगों को भी ऐसे नफरत भरे कंटेंट को शेयर करने और लाइक करने से बचना चाहिए”। 

इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने इंदौर के कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय के बेहद आपत्तिजनक कार्टून को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सख्त टिप्पणी की है। न्यायालय ने कार्टूनिस्ट की मानसिकता पर प्रश्न उठाया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर बनाए गए इस आपत्तिजनक कार्टून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “आजकल कार्टूनिस्ट और स्टैंडअप कॉमेडियन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हैं। क्या ये लोग कुछ भी बनाने और बोलने से पहले सोचते नहीं है?” न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस प्रकार के घृणित व्यंग्य चित्रों को संरक्षण नहीं दिया जा सकता है। हेमंत मालवीय के कार्टून में कोई परिपक्वता नहीं है। ये वास्तव में भड़काऊ है”। याद हो कि इस कार्टूनिस्ट के मामले में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय भी फटकार लगा चुका है। उच्च न्यायालय ने जब कार्टूनिस्ट की जमानत याचिका खारिज की तो उसने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था लेकिन यहाँ भी उनके कृत्य पर कोई राहत नहीं मिली है। हेमंत मालवीय के कार्टून में कोई कलात्मक अभिव्यक्ति भी नहीं है। अपनी वैचारिक और राजनीतिक खुन्नस निकालने के लिए इस प्रकार के लोग कला को भी बदनाम करते हैं, जो अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम हैं। मजेदार तथ्य यह कि हेमंत मालवीय का बचाव कर रहे उनका भी वकील यह मानता है कि “हाँ, ये घटिया कार्टून है। लेकिन क्या ये अपराध है? नहीं, यह अपराध नहीं हो सकता। यह आपत्तिजनक हो सकता है लेकिन अपराध नहीं”। ("It may be unpalatable. Let me say it is in poor taste. Let me go to that extent. But is it an offence? My lords have said, it can be offensive but it is not an offence. I am simply on law. I am not trying to justify anything," Advocate Vrinda Grover said.) 

साभार : जनसत्ता

अब यह अपराध है या नहीं, यह तो न्यायालय तय करेगा लेकिन मालवीय का वकील कम से कम यह तो स्वीकार ही कर रहा है कि कार्टून घटिया है। आरोप यह हैं कि उनका कार्टून प्रधानमंत्री और एक राष्ट्रीय संगठन का अपमान ही नहीं करता है अपितु सांप्रदायिकता को भी भड़काता है। हेमंत मालवीय की शिकायत दर्ज करानेवाले सामाजिक कार्यकर्ता विनय जोशी आरोप लगाए हैं कि “मालवीय ने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री अपलोड करके हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ा”। उनकी ओर से दर्ज करायी गई एफआईआर में कई ‘आपत्तिजनक’ पोस्ट का उल्लेख किया गया है, जिनमें भगवान शिव पर कथित रूप से अनुचित टिप्पणियों के साथ-साथ मोदी, आरएसएस कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों के बारे में कार्टून, वीडियो, तस्वीरें और टिप्पणियाँ शामिल हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हेमंत मालवीय ने पहली बार आपत्तिजनक कार्टून नहीं बनाया था, बल्कि यह उनका नियमित अभ्यास है। न्यायालय के अनुसार, इस प्रकार की प्रवृत्तियों को रोका जाना अत्यंत आवश्यक है।

बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय की इस सलाह पर नागरिक समाज को न केवल चिंतन-मनन करना चाहिए अपितु उसका अनुकरण भी करना चाहिए- “नागरिकों को अपनी बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत समझनी चाहिए और इसके साथ-साथ स्व-नियंत्रण और संयम का पालन करना चाहिए”। सर्वोच्च न्यायालय ने तो यह भी कहा है कि सोशल मीडिया पर बढ़ती विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर रोक लगाई जानी चाहिए। न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को कहा है कि वे नफरत फैलाने वाले भाषणों को रोकें। हालांकि न्यायालय ने किसी भी प्रकार की सेंसरशिप की बात से इनकार किया। यानी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित नहीं होनी चाहिए। इसके लिए न्यायालय ने वकीलों एवं सरकारों से सुझाव भी माँगे हैं। हालांकि यह राह बहुत कठिन है कि सरकार किसी प्रकार का प्रतिबंध भी न लगाए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नफरती सोच पर लगाम भी लगा ले। इस दिशा में यदि कहीं कोई राह दिखायी देती है, तो वह जागरूक नागरिक समाज है। समाज को ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग को रोकने के लिए आगे आना होगा। जब नफरती भाषण करनेवालों को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित किया जाने लगेगा, तब बहुत हद तक इस पर नियंत्रण हो जाएगा। यहाँ राष्ट्रीय विचार के कार्यकर्ताओं के धैर्य की सराहना करनी होगी कि वे नफरत की बौछारों को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। जबकि अन्य विचार या संप्रदाय के प्रति अमर्यादित बयानबाजी होती है, तो तत्काल उग्र प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। शायद इसलिए ही सबने हिन्दू धर्म, हिन्दू संगठन और हिन्दू समाज को पंचिंग बैग समझ लिया है। इस पर लगाम लगनी ही चाहिए। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के इस आग्रह का पालन व्यापक स्तर पर हम सबको करना चाहिए, जिसमें न्यायालय ने कहा कि “लोग स्वयं से जिम्मेदारी निभाएं और अपनी बातों में संयम बरतें”।

भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्रिका 'सुबह सवेरे' में 16 जुलाई को प्रकाशित

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

चुनाव आयोग के काम में दखल नहीं देने का उच्चतम न्यायालय का सराहनीय निर्णय

फर्जी मतदाताओं के बल पर लोकतंत्र को लूटने का सपना देखनेवालों को सर्वोच्च न्यायालय ने ढंग से संविधान का पाठ पढ़ाया है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की सीख उनके दिल-दिमाग में उतरेगी, इसकी संभावना कम ही है। क्योंकि वास्तव में यह लोग जागे हुए हैं, सोने का केवल अभिनय कर रहे हैं। जो सोने का अभिनय करे, उसे भला कौन जगा सकता है। इसलिए कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी का आरोप लगाकर वितंडावाद खड़ा करते हैं तो कभी मतदाता सूची को व्यवस्थित किए जाने की प्रक्रिया का विरोध करते हैं। यह सब कवायद देश को गुमराह करने की है। अपने गिरेबां में झांकने की बजाय कभी चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर तो कभी ईवीएम पर तो कभी मतदाता सूची पर सवाल उठाना, अपरिपक्व राजनीति का प्रदर्शन है।

अपने कुतर्कों के आधार पर खड़े किए जाने वाले विमर्श के लिए विपक्षी दलों को हर बार मुंह की खानी पड़ी है। इस बार भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कह दिया कि मतदाता सूची के परीक्षण की चुनाव आयोग की प्रक्रिया को वह नहीं रोकेगा। बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण कांग्रेस की सरकार के समय में यानी वर्ष 2003 में भी कराया जा चुका है। आखिर इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित कर रहा है कि चुनाव में फर्जी मतदाता भाग न ले सकें? मतदाताओं के परीक्षण की प्रक्रिया का विरोध करनेवाले नेता एवं राजनीतिक दल क्या यह चाहते हैं कि चुनाव में फर्जी मतदान होना चाहिए? क्या उनकी मंशा है कि जिन घुसपैठियों ने चोरी-चालाकी से मतदाता सूची में नाम जुड़वा लिया है, उन्हें भारत के लोकतंत्र को प्रभावित करने का अवसर मिले?

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ से प्रदेश होगा जल-समृद्ध

जल संरक्षण को लेकर सामूहिक जिम्मेदारी का भाव जगाता है यह अभियान, निकट भविष्य में आएंगे प्रभावी परिणाम

जलाशय की सफाई करते मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अपने अभिनव प्रयोगों से अपनी विशेष पहचान बना रहे हैं। मध्यप्रदेश में जल संरक्षण के लिए प्रारंभ हुआ ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ मुख्यमंत्री डॉ. यादव की दूरदर्शी पहल है। निकट भविष्य में हमें इसके सुखद परिणाम दिखायी देंगे। शुभ प्रसंग पर शुभ संकल्प के साथ जब कोई कार्य प्रारंभ किया जाता है, तब उसकी सफलता के लिए प्रकृति एवं ईश्वर भी सहयोग करते हैं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल पर मध्यप्रदेश सरकार ने गुड़ी पड़वा (30 मार्च) से 30 जून तक प्रदेश स्तरीय ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ चलाकर जल संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, जो जनांदोलन में परिवर्तित हो गया। सरकार को भी विश्वास नहीं रहा होगा कि जल संरक्षण जैसे मुद्दे को जनता का इतना अधिक समर्थन मिलेगा कि सरकारी अभियान असरकारी बन जाएगा और समाज इस अभियान को अपनी जिम्मेदारी के तौर पर स्वीकार कर लेगा। ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ के अंतर्गत और इससे प्रेरित होकर प्रदेश में अनेक स्थानों पर जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया गया, उनको व्यवस्थिति किया गया और वर्षा जल को एकत्र करने की रचनाएं बनायी गईं। कहना होगा कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल और प्रतिबद्धता ने  जल संरक्षण के इस अभियान को एक जनांदोलन का रूप दे दिया है, जिससे जल संरक्षण में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।

जिहादियों के निशाने पर भारत और हिन्दू

 कन्वर्जन के नेटवर्क का एक छोटा-सा प्यादा है जमालुद्दीन उर्फ छांगुर

भारत को ‘गजवा-ए-हिंद’ बनाने और ‘लव जिहाद’ की साजिशें केवल गल्प नहीं है, बल्कि हिन्दू धर्म और भारत के लिए इन्हें बड़े खतरे के तौर पर देखा जाना चाहिए। ‘गजवा-ए-हिंद’ और ‘लव जिहाद’ की अवधारणाओं को नकारना एक प्रकार से सच्चाई से मुंह मोड़ना है। यह आत्मघाती प्रवृत्ति है। सच को स्वीकार करके उसका समाधान निकालने का प्रयत्न करना ही एक जागृत समाज की पहचान है। भारत में प्रतिदिन ही इस प्रकार के मामले सामने आ रहे हैं, जिससे यह स्थापित होता है कि लव जिहाद और गजवा-ए-हिंद के पीछे बड़े कट्टरपंथी गिरोह शामिल हैं। उत्तरप्रदेश में पकड़ा गया बहुस्तरीय कन्वर्जन का नेटवर्क चलानेवाला फेरीवाला जमालुद्दीन उर्फ छांगुर बाबा, इस व्यापक नेटवर्क का एक प्यादा भर है। अभी हाल ही में हिन्दू लड़कियों से लव जिहाद के लिए मुस्लिम लड़कों की फंडिंग करने के आरोप कांग्रेस के मुस्लिम नेता एवं पार्षद अनवर कादरी पर लगे हैं। जरा सोचकर देखिए कि भारत में हिन्दुओं को कर्न्वट करने का धंधा कितने बड़े पैमाने पर चल रहा है।

हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के इस खेल में केवल इस्लामिक संस्थाएं ही नहीं है अपितु चर्च भी शामिल है। पूर्वोत्तर के राज्यों में चर्च ने अपने पैर किस तरह फैलाए हैं, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। जनजातीय क्षेत्रों में चर्च व्यापक स्तर पर कन्वर्जन का धंधा चला रहा है। चर्च ने पंजाब को अपना हॉट स्पॉट बना रखा है। पंजाब के कितने ही गाँव ईसाई बन गए हैं। इसकी अनेक कहानियां बिखरी पड़ी हैं। हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के लिए इस्लामिक संस्थाओं और मिशनरीज को बड़े पैमाने पर विदेशों से फंडिंग होती है। छांगुर बाबा की गिरफ्तारी के बाद हो रहे खुलासों में यह सब सामने आ रहा है। केवल 5-6 साल में ही कन्वर्जन का धंधा फैलाकर साइकिल पर सामान बेचनेवाला फेरीवाला जमालुद्दीन ने छांगुर बाबा बनकर आलीशान कोठी, लग्जरी गाड़ियों और कई फर्जी संस्थाओं का मालिक बन गया है। जांच एजेंसियों के अनुसार, जमालुद्दीन खुद को हाजी पीर जलालुद्दीन बताता था। लड़कियों को बहला-फुसलाकर जबरन उनका धर्मांतरण करवाता।

सोमवार, 7 जुलाई 2025

हिन्दी-मराठी को लड़ाने की राजनीति

अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने के लिए नेता किस हद तक उतर आते हैं, यह देखना है तो महाराष्ट्र की राजनीति में चल रही हलचल पर नजर जमा लीजिए। मराठी अस्मिता के नाम पर हिन्दी का विरोध करते हुए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे दोनों 20 वर्ष बाद एक मंच पर आ गए हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव गुट) यह प्रयोग पहले भी कर चुकी है, उस समय भी हिन्दी प्रदेश के लोगों को परेशान करना और उनके साथ मारपीट करना, ठाकरे एंड कंपनी का धंधा हो गया था। लेकिन बाद में शिवसेना के शीर्ष नेताओं को समझ आया कि हिन्दी का विरोध करके उनकी राजनीति सिमट रही है क्योंकि महाराष्ट्र की जनता का स्वभाव इस प्रकार का नहीं है। कहना होगा कि हिन्दी के विस्तार में महाराष्ट्र की बड़ी भूमिका रही है। चाहे वह भारतीय फिल्म उद्योग हो, जिसने देश में ही नहीं अपितु दुनिया में हिन्दी का विस्तार किया या फिर साहित्य एवं राजनीतिक नेतृत्व रहा हो। महाराष्ट्र की जमीन ऐसी नहीं रही, जिसने भाषायी विवाद का पोषण किया हो। इस प्रकार की राजनीति के लिए वहाँ कतई जगह नहीं है। ठाकरे बंधु मराठी अस्मिता के नाम पर जितना अधिक हिन्दी भाषी बंधुओं को परेशान करेंगे, उतना ही अधिक वह और उनकी राजनीति अप्रासंगिक होती जाएगी।

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

हमारे आसपास की जरूरी कहानियां, जो जीवन सिखाती हैं

17 साल की लेखिका की 13 चुनी हुई कहानियां – वत्सला@2211


अपने पहले ही कहानी संग्रह ‘वत्सला @2211’ के माध्यम से 17 वर्षीय लेखिका वत्सला चौबे ने साहित्य जगत में एक जिम्मेदार साहित्यकार के रूप में अपनी कोमल उपस्थिति दर्ज करायी है। उनके इस कहानी संग्रह में 13 चुनी हुई कहानियां हैं, जो हमें कल्पना लोक के गोते लगवाती हुईं, कठोर यथार्थ से भी परिचित कराती हैं। सुधरने और संभलने का संदेश देती हैं। बाल कहानियों की अपनी दुनिया है, जिसमें बच्चे ही नहीं अपितु बड़े भी आनंद के साथ खो जाते हैं। यदि ये बाल कहानियां किसी बालमन ने ही बुनी हो, तब तो मिथुन दा के अंदाज में कहना ही पड़ेगा- क्या बात, क्या बात, क्या बात। बहुत दिनों बाद बाल कहानियां पढ़ने का अवसर मिला। एक से एक बेहतरीन कहानियां, जिनमें अपने समय के साथ संवाद है। अतीत की बुनियाद पर भविष्य के सुनहरे सपने भी आँखों में पल रहे हैं। एक किशोर वय की लेखिका ने अपने आस-पास की दुनिया से घटनाक्रमों को चुना और उन्हें कहानियों में ढालकर हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में मानवीय संवेदनाएं हैं। सामाजिक परिवेश के प्रति जागरूकता है। अपने कर्तव्यों के निर्वहन की ललक है। अपनी जिम्मेदारियों का भान है। संग्रह के प्राक्कथन में वरिष्ठ संपादक गिरीश उपाध्याय ने उचित ही लिखा है- “ये कहानियां भले ही एक बच्ची की हों, लेकिन इनमें बड़ों के लिए या बड़े-बड़ों के लिए बहुत सारे संदेश, बहुत सारी सीख छिपी हैं, बशर्ते हम उन्हें समझने की और महसूस करने की कोशिश करें”।

शनिवार, 28 जून 2025

किसने बदली संविधान की मूल प्रस्तावना? इस पर चर्चा होनी चाहिए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में जबरन जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘सेकुलर’ शब्दों के औचित्य को प्रश्नांकित करके महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा कि "आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए Secularism और Socialism शब्दों की समीक्षा होनी चाहिए। ये मूल प्रस्तावना में नहीं थे। अब इस पर विचार होना चाहिए कि इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं?" ध्यान दें कि सरकार्यवाह श्री दत्ताजी ने दोनों शब्दों को सीधे हटाने की बात नहीं की है अपितु उन्होंने इस संदर्भ में विचार करने का आग्रह किया है। लेकिन उनके विचार को गलत ढंग से कौन प्रस्तुत कर रहा है, वे लोग जिन्होंने लोकतंत्र का गला घोंटकर, अलोकतांत्रिक ढंग से, बिना किसी चर्चा के, चोरी से संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर और समाजवाद शब्द घुसेड़ दिए। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर और संविधान सभा द्वारा देश को सौंपी गई संविधान की प्रस्तावना को बदलने वाली ताकतों को वितंडावाद खड़ा करने से पहले अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। और, स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए कि "इस विषय में कुछ कहने का उन्हें नैतिक अधिकार भी है?" सत्य तो यह है कि संविधान की मूल प्रस्तावना को बदलने का अपराध करने के लिए उन्हें देश की जनता से क्षमा मांगनी चाहिए। बहरहाल, इस बहस के बहाने कम से कम देश की जनता को पुन: याद आएगा कि सही अर्थों में संविधान की हत्या किसने की है? किसने बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को बदलने का काम किया है। वास्तव में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जब देश में आपातकाल लगा था तब संसद में बिना किसी चर्चा के संविधान की प्रस्तावना में जबरन परिवर्तन करते हुए ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ शब्द क्यों जोड़े गए? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि संविधान की मूल प्रस्तावना से की गई छेड़छाड़ को ठीक किया जाए? संविधान को वापस वही प्रस्तावना मिले, जिसे बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर, संविधान सभा और देश की जनता ने आत्मार्पित किया था। याद रहे कि प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जाता है।