मं दिर, मठ या अन्य पूजा स्थल महज धार्मिक महत्व के स्थल नहीं होते हैं। ये अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था के गवाह होते हैं। अपने में एक इतिहास समेटकर खड़े रहते हैं। उनको समझने वाले लोगों से वे संवाद भी करते हैं। ग्वालियर से करीब ७० किलोमीटर दूर मुरैना जिले के सिहोनिया गांव में स्थित ककनमठ मंदिर इतिहास और वर्तमान के बीच ऐसी ही एक कड़ी है। मंदिर का निर्माण ११वीं शताब्दी में कछवाह (कच्छपघात) राजा कीर्तिराज ने कराया था। उनकी रानी का नाम था ककनावती। रानी ककनावती शिवभक्त थीं। उन्होंने राजा के समक्ष एक विशाल शिव मंदिर बनवाने की इच्छा जाहिर की। विशाल परिसर में शिव मंदिर का निर्माण किया गया। चूंकि शिव मंदिर को मठ भी कहा जाता है और रानी ककनावती के कहने पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया था, इसलिए मंदिर का नाम ककनमठ रखा गया। वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद् श्री जयंत तोमर बताते हैं कि सिहोनिया कभी सिंह-पानी नगर था। बाद में अपभ्रंश होकर यह सिहोनिया हो गया। यह ग्वालियर अंचल का प्राचीन और समृद्ध नगर था। यह नगर कछवाह वंश के राजाओं की राजधानी था। इसकी उन्नति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ग्वालियर अंचल के संग्रहालयों में संरक्षित अवशेष सबसे अधिक सिहोनिया से प्राप्त किए गए हैं। श्री तोमर बताते हैं कि तोमर वंश के राजा महिपाल ने ग्वालियर किले पर सहस्त्रबाहु मंदिर का निर्माण कराया था। सहस्त्रबाहु मंदिर के परिसर में लगाए गए शिलालेख में अंकित है कि सिंह-पानी नगर (अब सिहोनिया) अद्भुत है।
रविवार, 22 दिसंबर 2013
सोमवार, 9 दिसंबर 2013
शिवराज को मिला जनआशीर्वाद
म ध्यप्रदेश की जनता ने शिवराज सरकार में भरोसा दिखाया है। भारी बहुमत से जनता ने भाजपा को राज्य की कुर्सी सौंपी है। भाजपा को 165 सीटों पर विजय मिली है। पिछले चुनाव से 22 सीट अधिक। कांग्रेस 58 सीट पर सिमट गई। उसे इस चुनाव में फायदा होने की जगह पिछले चुनाव के मुकाबले 13 सीट का नुकसान हो गया। यह जीत चौंकाने वाली है, भाजपा के लिए भी और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी। दरअसल, 'महाराज' ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश में चुनाव प्रचार की कमान सौंपकर कांग्रेस ने मुकाबला पेचीदा बना दिया था। बेहद कमजोर दिख रही कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जान फूंक दी थी। कांग्रेस पूरी ताकत के साथ भाजपा से मुकाबला करने खड़ी हो गई। माना जा रहा था कि कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी और भाजपा पूरी ताकत लगाने के बाद बमुश्किल 120 सीट जीत सकेगी। एक अनुमान यह भी था कि कांग्रेस भी सत्ता हासिल कर सकती है। दो बार से प्रदेश की राजगद्दी से नीचे खड़ी कांग्रेस एक बार फिर सरकार में वापसी करना चाहती थी, इसके लिए तमाम गुटों ने एकजुटता दिखाने की भी कोशिश की। 'युवराज' राहुल गांधी ने भी खास फोकस किया मध्यप्रदेश के चुनाव पर, टिकट वितरण पर भी। यानी कांग्रेस की सारी कवायद देखकर अचानक से यह लगा था कि भाजपा के लिए आसान दिख रहा मुकाबला काफी कड़ा होगा। नतीजा शिवराज सिंह चौहान सहित पूरा भाजपा संगठन जबर्दस्त प्रचार अभियान पर निकल लिया। आखिरकार 'फिर भाजपा-फिर शिवराज' का नारा लेकर चुनावी रण में उतरी भाजपा और शिवराज सिंह चौहान को जनआशीर्वाद मिल गया है।
मौटेतौर पर देखा जाए तो मध्यप्रदेश में भाजपा की जीत शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रिय छवि की जीत है। सरकार की लोककल्याणकारी और लोक लुभावन योजनाओं की जीत है। भाजपा की विचारधारा की जीत है। नरेन्द्र मोदी फैक्टर का भी असर है। भाजपा इसे सुशासन की भी जीत मान रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कई सरकारी योजनाओं से लोगों के दिलों में घर कर लिया है। लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान योजना और बेटी बचाओ अभियान से जहां उन्होंने महिला वर्ग में खुद का महिला हितैषी ब्रांड बनाया वहीं बुजुर्गों को मुफ्त में तीर्थदर्शन करवाकर उनके वोट अपनी झोली में डाल लिए। अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए शिवराज सिंह चौहान जनआशीर्वाद मांगने के लिए प्रदेश के शहर-शहर और गांव-गांव तक पहुंचे। इस दौरान उन्होंने स्वयं की और सरकार की जमकर ब्रांडिंग की। हालांकि सरकार की तरफ से जनता के बीच सब अच्छा-अच्छा था, ऐसा भी नहीं था। प्रदेश सरकार के बहुतेरे मंत्रियों और विधायकों को लेकर जनता में भारी आक्रोश था। यही कारण है कि जनआशीर्वाद यात्रा और चुनाव प्रचार के दौरान शिवराज सिंह चौहान ने प्रत्याशी के लिए वोट न मांगकर अपने नाम पर मतदान करने की अपील जनता से की। चुनाव से पूर्व टिकट वितरण में भाजपा ने काफी हद तक सावधानी बरतकर इस जीत की राह बनाई थी। करीब ५० टिकट काटकर नए चेहरों को मौका दिया गया। ज्यादातर नए चेहरे जीते हैं जबकि पांच-छह मंत्री, जिनके टिकट कट जाने चाहिए थे लेकिन किसी कारणवश कट नहीं सके, वे चुनाव हार गए। शिवराज सिंह चौहान ने इस चुनावी लड़ाई को आम आदमी बनाम महाराज भी बना दिया था। निश्चित यह तरकीब शिवराज सिंह चौहान के पक्ष में काम कर गई। शिवराज समझ रहे थे कि लोगों को अब राजनीति में अपने बीच का नेता ही चाहिए, राजवंश या खास परिवार की राजनीति के दिन लद गए हैं। नतीजों में यह दिखा भी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने ही गढ़ में कांग्रेस को बहुत अधिक सीट नहीं जितवा सके। यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया का नया चेहरा, ईमानदार छवि और महाराज वाला असर कांग्रेस के किसी काम नहीं आया। हां, यह बात अलग है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को और पहले काम करने का मौका कांग्रेस ने दिया होता तो शायद कुछ संभावना बनती, कांग्रेस के मजबूत होने की। संभवत: कांग्रेस की रणनीति रही होगी कि नवमतदाता यानी यूथ वोटर को सिंधिया के ग्लैमर से आकर्षित कर लिया जाए। लेकिन, नवमतदाताओं में तो नरेन्द्र मोदी का असर था। केन्द्र के चुनाव के लिए मोदी की तैयारी को मजबूत करने के लिए भी युवाओं ने अभी भाजपा को वोट दिया। केन्द्र में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए भाजपा को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत की दरकार थी। यही कारण था कि मोदी ने चारों राज्यों में अथक चुनाव प्रचार किया। कई सभाएं लीं। एक ही दिन में अलग-अलग राज्यों में जनता को संबोधित किया। नतीजों में इसका असर भी दिखा है। मध्यप्रदेश में भी जहां-जहां नरेन्द्र मोदी ने सभा को संबोधित किया किया, वहां-वहां भाजपा के हित में नतीजे आए।
मध्यप्रदेश के विकास को भी शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव के दौरान बड़ा मुद्दा बनाया। शिवराज सिंह चौहान ने अपने भाषणों में जनता को दिग्विजय सिंह के शासन काल की याद दिलाई। कांग्रेस के ६० साल के विकास से अपने १० साल के विकास की तुलना कराई। उन्होंने जनता से वादा भी किया कि भाजपा को फिर सरकार में आई तो विकास की रफ्तार और तेज होगी। इस बात में कोई शंका नहीं कि पिछले १० साल में मध्यप्रदेश में काफी काम हुए हैं। यह जनता को दिख भी रहा था। यानी यह भी कहा जा सकता है कि सरकार ने विकास ने नाम पर जीत हासिल की है। अब देखना है कि भाजपा और उनके लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जनता की भावनाओं को कैसे संभालकर रखते हैं। जनआशीर्वाद का कितना सम्मान करेंगे। जनादेश का कितना पालन करेंगे। इस बार शिवराज सिंह चौहान और भाजपा संगठन को इस बात पर सख्त होना पड़ेगा कि सरकार में भ्रष्टाचार न पनपे। साथ ही नेता जीत के बाद लापता न हो जाएं, जनता के बीच रहें, जनता के बीच दिखें, जनता के सुख-दु:ख में शामिल हों, जनता की समस्याएं सुनें और उनकी परेशानियों को दूर करने की दिशा में पहल करते दिखें। लगातार तीसरी बार जीत है, बड़ी जीत है, तो भाजपा गुरूर न करे। अदब से जनादेश को स्वीकार करें और विकास की पार्टी के रूप में बनी अपनी छवि को साबित करे।
इधर, भोपाल में शिवराज सिंह चौहान ने मीडिया से बात करते हुए भारी बहुमत के लिए जनता को धन्यवाद दिया। कार्यकर्ताओं की मेहनत को स्वीकार किया। प्रदेश से लेकर केन्द्रीय नेताओं का सहयोग के लिए आभार जताया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि जनता ने जिस उम्मीद और भरोसे के साथ भाजपा को फिर से सरकार बनाने का मौका दिया है, हम उस उम्मीद और भरोसे के लिए दिन-रात काम करेंगे। मध्यप्रदेश की जनता की सेवा के लिए रात-दिन एक कर देंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि आम चुनाव में केन्द्र में सरकार बनाने के लिए मध्यप्रदेश अन्य राज्यों के अनुपात में अधिक सीटें देगा। बहरहाल, भाजपा के हौंसले बुलंद हैं, इस जीत से। दिल्ली में हुई प्रेसवार्ता में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा है कि शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश में तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालेंगे। बड़ी जीत और तीसरी पारी से शिवराज सिंह चौहान की केन्द्र में स्थिति मजबूत होगी और भूमिका भी बढ़ेगी।
शनिवार, 7 दिसंबर 2013
पेड न्यूज बनाम विश्वसनीयता
भा रत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। लोकतांत्रिक सरकार के चुनाव में देश का प्रत्येक व्यक्ति हिस्सेदार होता है। इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका होती है। अखबार और न्यूज चैनल्स लगातार सत्य और तथ्यात्मक खबरें प्रकाशित कर अपनी साख आम आदमी के बीच बनाते हैं। यही कारण है कि मीडिया की खबरों से पाठकों का मानस बनता और बदलता है। समाचार-पत्र और न्यूज चैनल्स लगातार सत्तारूढ़ दल और अन्य राजनीतिक दलों के संबंध में नीर-क्षीर रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। मौके पर जनता अपने मताधिकार का उपयोग सही नेताओं और सरकार को चुनने में करे, इसके लिए एक तस्वीर मीडिया की इन खबरों से बनती है। लेकिन, कुछ वर्षों से पेड न्यूज का चलन बढ़ गया है। पेड न्यूज यानी ऐसी खबर जिसे प्रकाशित करने के लिए रुपए या अन्य किसी प्रकार का आर्थिक सौदा किया गया हो। पेड न्यूज यानी नोट के बदले खबर छापना। पेड न्यूज का ही असर है कि जिस सामग्री को विज्ञापन के रूप में प्रकाशित/प्रसारित होना चाहिए था वो समाचार के रूप में लोगों के पास पहुंच रही है। यानी पाठक/दर्शक को सीधे तौर पर भ्रमित किया जा रहा है। अखबार या न्यूज चैनल के प्रति जो पाठक/दर्शक का विश्वास है उसका मजाक बनाया जा रहा है। चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान, जब मीडिया को तथ्यात्मक और निष्पक्ष समाचार प्रकाशित करने चाहिए थे, तब पेड न्यूज का बाजार गर्म है। महसूस होता है कि पेड न्यूज के सिन्ड्रोम में अब मीडिया का नीर-क्षीर वाला विवेक कहीं खो गया लगता है। वैसे भी जबसे पत्रकारिता के संस्थानों में कॉर्पोरेट कल्चर बढ़ा है, आर्थिक लाभ विश्वास की पूंजी कमाने से अधिक प्राथमिक हो गया है।
वर्ष २००९ में लोकसभा के चुनाव के दौरान पेड न्यूज के कई मामले सामने आए थे। पहली बार पेड न्यूज एक बड़ी बीमारी के रूप में सामने आई थी। अखबारों और न्यूज चैनल्स ने बकायदा राजनीतिक पार्टी और नेताओं की खबरें प्रकाशित/प्रसारित करने के लिए पैकेज लांच किए थे। यानी राजनीति से जुड़ी खबरें वास्तविक नहीं थीं। जिसने ज्यादा पैसे खर्च किए उस पार्टी/नेता के समर्थन में उतना बढिय़ा कवरेज। जिसने पैसा खर्च नहीं किया उसके लिए कोई जगह नहीं थी। इस दौरान कई राजनेताओं ने सबूत के साथ मीडिया पर आरोप लगाए कि उनके समर्थन में खबरें छापने के लिए पैसा वसूला गया है या वसूला जा रहा है। कई मीडिया संस्थान तो चुनाव लडऩे वाले नेताओं पर न्यूज कवरेज के पैकेज लेने के लिए दबाव भी बना रहे थे। जिन नेताओं ने ये पैकेज नहीं लिए उनके खिलाफ नकारात्मक खबरें प्रकाशित कर उन पर दबाव बनाया गया। यही नहीं कई नेता तो तगड़ा धन खर्च कर विरोधी नेता के खिलाफ नकारात्मक खबरें तक प्लांट कराने में सफल रहे। आंध्रप्रदेश की लोकसत्ता पार्टी के उम्मीदवार पी. कोडंडा रामा राव ने तो प्रेस काउंसिल को जो चुनाव खर्च का ब्योरा दिया, उसमें साफ बताया कि उन्होंने कितना पैसा मीडिया कवरेज पाने के लिए खर्च किया। पेड न्यूज सिन्ड्रोम पर इसके बाद जो बहस का दौर चला, उसमें मीडिया संस्थानों की काफी किरकिरी हुई। उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए।
भारतीय प्रेस परिषद, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन, एडिटर गिल्ड ऑफ इंडिया, संसद की स्थायी समिति, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, प्रसार भारती और भारतीय निर्वाचन आयोग सहित मीडिया के क्षेत्र में काम कर रहे अन्य संगठनों, बुद्धिजीवियों ने पेड न्यूज सिन्ड्रोम पर चिंता जाहिर की। इससे उपजने वाले खतरों से आगाह किया। पेड न्यूज पर रोक लगाने के लिए उपाय करने पर विचार किया। इसके लिए देश के प्रतिष्ठित और क्षेत्रीय समाचार माध्यमों से अपेक्षा कि वे स्वत: ही इस दिशा में कुछ करें। आखिर यह उनकी भी विश्वसनीयता का सवाल है। लेकिन, जैसा कि हम समझ सकते हैं कि आसानी के साथ धन बनाने के माध्यम को इतनी आसानी से कोई नहीं छोड़ सकता। खासकर उसका इस्तेमाल कर चुके लोग/संस्थान। पेड न्यूज पर मचे हो-हल्ले के कारण अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखना और साबित करना देश के नामचीन मीडिया घरानों के सामने चुनौती बन गया। देश के छोटे से बड़े सभी मीडिया संस्थानों ने इस बात की घोषणा तो की कि वे पेड न्यूज परंपरा का विरोध करते हैं और अपने समाचार-पत्र और पत्रिका में पेड न्यूज नहीं छापेंगे। न्यूज चैनल पर पेड न्यूज नहीं दिखाएंगे। लेकिन चुनावी समय में इन मीडिया संस्थानों की सब घोषणाएं और विरोध धरा रह जाता है। वे पेड न्यूज को लेकर पहले से काफी सतर्क हो जाते हैं। एक ओर तो तमाम संस्थान अपने समाचार-पत्र में बकायदा पेड न्यूज के खिलाफ अभियान चलाते हैं, पेड न्यूज के खिलाफ विज्ञापन छापते हैं और लोगों को पेड न्यूज की शिकायत करने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन दूसरी ओर पेड न्यूज का तरीका बदलकर समाचार बेचने का व्यापार किया जाता है। पेड न्यूज के लिए नए तरीके खोज लिए गए हैं। अब पैसा लेकर किसी पार्टी/नेता समर्थन में कैंपेनिंग करने और विज्ञापन को समाचार की शक्ल में प्रकाशित/प्रसारित करने से कुछ हद तक मीडिया संस्थान बच रहे हैं। अब मीडिया घरानों के द्वारा राजनीतिक दल/नेता से वादा किया जाता है कि आप धन दीजिए, आपके खिलाफ कोई खबर प्रकाशित/प्रसारित नहीं की जाएगी। आपकी गलतियों, भ्रष्टाचार और कमजोरियों को जनता के सामने नहीं रखा जाएगा। आपके खिलाफ आ रही नकारात्मक खबरों को हम अपने समाचार-पत्र/न्यूज चैनल में जगह नहीं देंगे। मतलब साफ है मीडिया संस्थानों में पेड न्यूज का चलन जारी है। पहले खुला खेल फर्रूखावादी था अब वे कंबल ओढ़कर घी पी रहे हैं। दरअसल, पत्रकारिता की आड़ में धन कमाने की लोलुपता इतनी अधिक बढ़ गई है कि पत्रकारिता की जिम्मेदारी, सिद्धांत और मूल्य चूल्हे में चले गए हैं।
अगर पेड न्यूज को सिर्फ राजनीतिक खबरों तक नहीं बांधा जाए तो मीडिया संस्थान सालभर इस गोरखधंधे में लगे रहते हैं। व्यापारिक और कई सामाजिक संगठनों से पैसे लेकर उनके समर्थन में खबरें प्रकाशित/प्रसारित करना भी तो पेड न्यूज के दायरे में आता है। पेड न्यूज का ही असर है कि कोई संस्था भले ही कितना अच्छा काम कर रही हो लेकिन उससे संबंधित समाचारों को समाचार-पत्र और न्यूज चैनल्स में जगह नहीं मिलती। दरअसल, होता यह है कि उसी तरह की अन्य संस्थाएं मीडिया को मैनेज करके चलती हैं। कार्यक्रम कवरेज करने के लिए संस्थानों को विज्ञापन के रूप में धन दिया जाता है। जो संस्था विज्ञापन नहीं देती, उसके समाचार प्रकाशित नहीं किए जाते। जो संस्था विज्ञापन देती है, उसके किसी कार्यक्रम के आयोजन का समाचार चार दिन बाद भी प्रकाशित किया जा सकता है। इस तरह के समाचारों से भी मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं।
पैसा लेकर खबर छापना/दिखाना एक सामान्य अपराध नहीं है बल्कि यह नैतिक अपराध है। यह पाठक और दर्शक की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। आम दिनों की अपेक्षा चुनाव के नजदीक या चुनाव के दौरान पेड न्यूज के जरिए आम जनता से धोखाधड़ी अधिक गंभीर होती है। मीडिया लोकतंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मीडिया के प्रति जनमानस में यह विश्वास है कि मीडिया आम आदमी की आवाज बनकर उसकी समस्याएं तो उठाता ही है साथ ही देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति पर भी नजर रखता है। चूंकि आम आदमी अपना मानस समाचार-पत्र में प्रकाशित रिपोर्ट पढ़कर और न्यूज चैनल्स पर प्रसारित खबरें देखकर बना रहा है। उसे भरोसा होता है कि समाचार माध्यम पुख्ता और सही जानकारी उस तक पहुंचा रहे हैं। लोगों तक सच पहुंचाना ही तो मीडिया की जिम्मेदारी है। मीडिया को सच का प्रहरी ही तो माना जाता है। मीडिया खुद भी स्वयं को लोकतंत्र का चौथा खंबा मानता है। लोकतंत्र में खुद को वॉच डॉग की भूमिका में मानता है। ऐसे में चुनाव के समय में पेड न्यूज कहीं न कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विपरीत असर डालती हैं। संभवत: यही कारण है कि सालभर चलने वाली पेड न्यूज की अपेक्षा चुनाव के वक्त राजनीतिक खबरों की खरीद-फरोख्त पर अधिक चिंता जताई जाती है। पेड न्यूज सिन्ड्रोम भारतीय पत्रकारिता के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। एक तरफ पैसा है और दूसरी तरफ विश्वसनीयता। स्वस्थ लोकतंत्र और विश्वसनीय पत्रकाारिता के लिए पेड न्यूज की बीमारी पर जल्द काबू पाना होगा। बीमारी और अधिक बढ़ी तो बहुत नुकसान करेगी। समय रहते इसका इलाज जरूरी है। पेड न्यूज के दायरे और उसकी परिभाषा को जानकर तो लगता है कि किसी कानून की मदद से उस पर रोक लगा पाना मुश्किल है। इसके लिए स्वार्थ और धन लोलुपता छोड़कर मीडिया संस्थानों को ही आगे आना पड़ेगा। आखिर सबसे बड़ा सवाल मीडिया की विश्वसनीयता का है। यदि पेड न्यूज को दूर नहीं किया तो भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता जाती रहेगी, फिर उसकी किसी बात पर कोई आसानी से भरोसा नहीं करेगा। जब लोगों को ही मीडिया पर भरोसा नहीं रहेगा तो राजनीतिक दल/नेता क्यों अपनी खबरें छपवाने/दिखवाने के लिए पैसा खर्चा करेंगे। तब मीडिया के पास न धन आएगा और न ही विश्वसनीयता बची रहेगी। इसलिए अच्छा होगा पेड न्यूज के चलन को खत्म करने के लिए अभी कुछ ठोस उपाय किए जाएं।
- मीडिया विमर्श में प्रकाशित आलेख
सदस्यता लें
संदेश (Atom)