शनिवार, 8 नवंबर 2025

रील्स और शॉर्ट्स से बनाएं दूरी, पुस्तकों से करें दोस्ती

रील खा रही आपका कीमती समय, 
पुस्तकों की ओर लौटने का है समय

Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

रील्स और शॉर्ट वीडियो अब सामाजिक विमर्श का हिस्सा हो गए हैं। समाज का प्रबुद्ध वर्ग लघु वीडियो के बढ़ते उपभोग और उसके प्रभावों को लेकर चिंतित है। यह चिंता स्वभाविक भी है। जिनका बचपन और किशोरवय कहानी-कविताओं की किताबों के पन्ने पलटाते हुए बीता हो, वे जब देखते हैं कि नयी पीढ़ी की अंगुलियां किताब के पन्नों पर नहीं अपितु मोबाइल पर 10-15 सेकंड के वीडियो को स्क्रॉल करने में व्यस्त हैं, तब उनके मन में प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। लोगों का इस तरह किताबों से दूर होना अच्छी बात नहीं है। हमारे बुजुर्ग कहते थे कि जीवन में सबसे अच्छी दोस्त पुस्तकें होती हैं। उनका ऐसा कहने के पीछे बहुत से कारण थे। किताबें वास्तविक ज्ञान की स्रोत होने के साथ ही स्वस्थ मनोरंजन का साधन भी हैं। जब हम कहानियां या अन्य पाठ्य सामग्री पढ़ते हैं तब हमारा मस्तिष्क अधिक क्रियाशील होता है। पुस्तकें हमारी कल्पनाशीलता को बढ़ाती हैं। हमारी जिज्ञासा को जगाती हैं। एक पुस्तक या लेख पढ़ते समय हमारा मस्तिष्क पढ़ी गई सामग्री का विश्लेषण करता है और उसे मौजूदा ज्ञान से जोड़ता है। जबकि रील्स हमें सूचना को ‘उपभोग’ करने के लिए प्रेरित करती हैं, न कि ‘चिंतन’ करने के लिए। इससे हमारी अंतर्दृष्टि और गहन अनुभूति की क्षमता क्षीण होती जाती है। यह सच स्वीकार करना चाहिए कि 10-15 सेंकड के वीडियो हमें किसी भी विषय पर पर्याप्त जानकारी नहीं दे पाते। हमें सटीक और यथार्थ जानकारी चाहिए तब रील्स की आदत को छोड़कर पुन: किताबों से दोस्ती करनी होगी। हमें किताबों की गरिमा को वापस स्थापित करना होगा, क्योंकि किताबें हमें दुनिया को देखने के लिए आँखें नहीं, बल्कि उसे समझने के लिए विवेक और हृदय देती हैं। हमारे बुजुर्गों की कहावत आज भी प्रासंगिक है कि “पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र होती हैं”। 

आज की पीढ़ी में रील्स का उपभोग इसलिए भी अधिक बढ़ रहा है क्योंकि यह दर्शकों को क्षणिक खुशी का अवसर देती है। रील्स देखते समय खुशी का हार्मोन ‘डोपामाइन’ बार-बार हमारे मन-मस्तिष्क को छूता है। जो रील हमें पसंद नहीं आती, हम उसे छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं और जैसे ही हमारे पसंद की रील सामने आती है, हमारा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है और ‘डोपामाइन’ छोड़ता है। ऐसा करते-करते हमारे मस्तिष्क का प्रशिक्षण हो जाता है और वह डोपामाइन की तलाश में मोबाइल की स्क्रीन पर अंगुलियां चलाता रहता है। यही कारण है कि रील्स देखने में कब व्यक्ति के दो से तीन घंटे तक बीत जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता है। भले ही रील्स वीडियो का सबसे छोटा प्रारूप है लेकिन ध्यान में आता है कि यह दर्शकों का सबसे अधिक समय खाता है। रील्स देखनेवाले कई लोगों से मैंने बात की है, उनका कहना है कि डेढ़-दो घंटे बाद उन्हें अहसास होता है कि उन्होंने अपना कीमती समय व्यर्थ नष्ट कर दिया। इतनी देर में वे कोई एक अच्छी किताब पढ़ सकते थे या फिर कोई डॉक्यूमेंट्री या फीचर फिल्म देख सकते थे, जिसमें कम से कम एक कहानी तो होती। दो घंटे रील्स देखने के बाद दर्शक को मिलता क्या है? रील्स देखने की प्रवृत्ति हमें महत्वपूर्ण विषयों से दूर कर देती है। किताबें, लंबे लेख या वृत्तचित्र पढ़ने में जो धैर्य और बौद्धिक प्रयास लगता है, वह रील्स देखने की आदत में अनुपस्थित हो जाता है। साहित्य मानव अनुभव, भावनाओं और जटिल सामाजिक वास्तविकताओं को समझने का सबसे गहरा माध्यम है। उपन्यास, कविताएँ और नाटक हमें दूसरे के जीवन में झाँकने, सहानुभूति विकसित करने और भाषा की बारीकियों को समझने का अवसर देते हैं। रील्स की दुनिया में, साहित्य की अनदेखी होती है। भावनात्मक गहराई की जगह नाटकीय क्षण लेते हैं, और कलात्मक अभिव्यक्ति की जगह क्षणिक मनोरंजन ले लेता है।

रील्स की सबसे बड़ी समस्या इसकी अत्यधिक संक्षिप्त प्रकृति है। सूचना को 10 से 15 सेकंड के अंदर संप्रेषित करने की मजबूरी, गहनता को सतहीपन से बदल देती है। इस सतही ज्ञान में आलोचनात्मक चिंतन के लिए कोई जगह नहीं बचती। वास्तविक या तथ्यात्मक ज्ञान, जो स्रोतों की जाँच, संदर्भ की समझ और तर्क पर आधारित होता है, रील्स की दुनिया में सिर्फ एक क्लिक में खारिज हो जाता है। इस संदर्भ में किए गए शोध बताते हैं कि रील्स की तेज गति और लगातार बदलते विज़ुअल्स एकाग्रता की अवधि को छोटा कर देते हैं। इसका सीधा असर हमारी पढ़ने की आदतों पर पड़ता है। धैर्य और एकाग्रता नहीं होगी, तब पढ़ने में मन कैसे लग सकता है। रील्स ने एकाग्रता और धैर्य को इस कदर प्रभावित किया है कि वीडियो कंटेंट में ही रुचि रखनेवाले लोग अब लंबे वीडियो पर रुक नहीं पाते हैं। उन्हें कुछ सेकंड्स में ही सारी या महत्वपूर्ण जानकारी चाहिए। यही कारण है कि किसी भी मुद्दे पर आज की पीढ़ी का दृष्टिकोण पूर्ण नहीं होता है। कुछ शोध तो यह भी बताते हैं कि नयी पीढ़ी की एकाग्रता इतनी कम हो गई है कि उसे 3 सेकंड में कोई ‘हुक’ नहीं मिलता, तो वह उस रील्स या वीडियो को छोड़कर आगे बढ़ जाता है।

याद करें कि मोबाइल क्रांति से पहले किस प्रकार हम सब मनोरंजन प्राप्त करने के लिए समाचारपत्रों के परिशिष्ट, साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यिक पुस्तकों का सहारा लिया करते थे। बच्चों के साहित्य की दुनिया अलग थी, जिसमें चंदामामा, नंदन और देवपुत्र जैसे कितने ही रंग थे। इन पत्रिकाओं में कहानियां, कविताएं, रोचक-प्रेरक प्रसंग, पहेलियां, सामान्य जानकारी और ज्ञानवर्धक खेलों का खजाना पृष्ठ दर पृष्ठ हमें आकर्षित करता था। कॉमिक्स की एक दुनिया थी, जिसमें चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, सुपर कमांडो ध्रुव, नागार्जुन से लेकर डोगा तक कितने ही पात्र हमारे आसपास मायाजाल रचते थे। कॉमिक्स की हल्की-फुल्की कहानियों में भी नैतिकता, बुद्धिचातुर्य, नागरिक शिष्टाचार और पारिवारिक मूल्यों की सीख मिल जाया करती थी। रील्स में यह सब आनंद कहाँ है। अधिकांश रील्स में फूहड़ता है, दोहराव है, मसखरापन है। सीख देनेवाली रील्स बहुत कम बनायी जाती हैं। कंटेंट क्रियेटर की यह जवाबदेही बढ़ गई है कि जब लोगों को रील्स देखने की आदत लग ही गई है, तब उनके लिए सार्थक सामग्री का निर्माण करें। किताबों के पन्नों से चुनिंदा सामग्री लेकर रील्स में समाहित करें। ताकि किसी रूप में ही सही, लोगों के मस्तिष्क को अच्छा भोजन मिल जाए। हालांकि, यह हमेशा याद रखें कि पुस्तकों का स्थान वीडियो कंटेंट नहीं ले सकता, चाहे वह किसी भी प्रारूप में क्यों न हो। 

हिन्दी विवेक साप्ताहिक के 2-8 नवंबर, 2025 के अंक में प्रकाशित आलेख - रील्स से नहीं पुस्तकों से करें मित्रता


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