हा ल के दिनों में भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल, नए अध्याय, नए समीकरण और कई विघटन देखे गए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग/एनडीए) का टूटना 2014 के आम चुनाव के नजरिए से काफी अहम माना जा रहा है। राजग का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी करती है। भाजपा की 17 साल पुरानी सहयोगी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड)/जदयू गठबंधन से अलग हो गई है। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जदयू के अलग होने से राजग कमजोर हो गया है। कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है। तीसरे मोर्चे को ऑक्सीजन मिलने की उम्मीद है। चर्चा में यह भी है कि भाजपा और जदयू को अलग-अलग राहें चुनने से क्या मिलेगा? 2014 में गद्दी। नफा या नुकसान। मजबूती या कमजोरी।
जदयू ने जैसे ही एनडीए से अलग होने की घोषणा की तो इंदप्रस्थ (दिल्ली) से पाटलीपुत्र (पटना) तक दोनों ही पार्टियों के कार्यालयों में ढोल (फटे) बजाए गए। आतिशबाजी हुई। लड्डू भी बांटे गए। यानी दोनों खुश हैं। बेहद खुश हैं। मानो लोकसभा के चुनाव ही जीत लिया हो। इस जश्न को मनाने में दोनों पार्टियों ने इतना वक्त क्यों लिया? जाहिर तौर पर तो राजग परिवार में इस 'ब्रेकअप पार्टी' के कारण हैं गुजरात के शक्तिशाली मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनको भाजपा के गोवा अधिवेशन में और ताकत मिलना। हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि मोदी को लोकसभा के चुनाव तक प्रचार की कमान मिलते ही गोवा से दिल्ली तक कैसा भूचाल आया था, कहीं यह भूचाल दिल्ली वाया बिहार तो नहीं पहुंचा? संभव है कि भाजपा के महारथी के इशारे पर काफी दिन से किनारे पर बैठे नीतीश कुमार नदी में कूद गए। राजनीति है, इसमें किसी भी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। खासकर, तब जबकि पार्टी विद डिफरेंस का तमगा लेकर घूमने वाली भाजपा में लोगों की महत्वाकांक्षाएं पार्टी और सिद्धांत से ऊपर हो गई हों। तमाम प्रयास और हथकंडों के बाद भी आडवाणी जब नरेन्द्र मोदी को पीछे नहीं धकेल सके तो संभव है उन्होंने मोदी पर दबाव बनाने के लिए यह खेल रचा हो। जदयू के राजग छोडऩे के बाद सबसे पहले नाराजगी जाहिर करने वाले नेता लालकृष्ण आडवाणी ही हैं। बाकीके भाजपा नेताओं ने तो इसे सकारात्मक नजरिए से लेना शुरू कर दिया है। आखिर अब नरेन्द्र मोदी के नाम पर राजग में रोज की चिल्ला-तौबा तो खत्म होगी।
राजग-जदयू तलाक को समझने के लिए मोदी प्रकरण से जुड़े सभी पहलुओं को टटोलना जरूरी है। क्योंकि जदयू के महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी की 'कट्टर' छवि से कोई समस्या नहीं है। वे तो दंगों के तुरंत बाद ही नरेन्द्र मोदी के समर्थन में थे और कई मौकों पर उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना भी जता चुके हैं। उन्हें अपनी सेक्यूलर छवि चमकानी होती तो तब ही राजग से अलग हो लिए होते, जब नरेन्द्र मोदी को सब दंगों का दोषी बता रहे थे। लेकिन, तब उन्हें बिहार में लालू से लोहा लेना था और प्रदेश की सत्ता हासिल करनी थी। ताकत बटोरनी थी। उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा ने भी जन्म नहीं लिया था। अब स्थितियां उलट गईं हैं। नीतीश कुमार की राजनीति जम गई है। उन्होंने ताकत भी इतनी बटोर ली है कि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव भी उनके खिलाफ नहीं जा सकते। जार्ज फर्नाडीज की भी उन्हें अब कोई फिक्र नहीं हैं, जिन्होंने अटल-आडवाणी के साथ इस गठबंधन की नींव रखी थी। जदयू पर अब पूरी तरह नीतीश कुमार का कब्जा हो गया है। ऊपर से प्रधानमंत्री बनने का सपना भी पाल लिया है। राजग में रहते तो यह संभव नहीं था। तीसरे मोर्चे के रूप में उन्हें कुछ संभावना नजर आई है। लेकिन, तीसरे मोर्चे में शामिल होने के लिए जिन पार्टियों के नाम सामने आ रहे हैं, उनकी विचारधारा आपस में कतई मेल नहीं खाती। पिछले ढाई दशक के उदाहरण सामने है जो जाहिर तौर पर स्पष्ट करते हैं कि जब विचार समान न हों तो किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक साथ मिलकर नहीं चला जा सकता। भारतीय राजनीति में यूपीए और राजग गठबंधन इसके सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं। राजग तो पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी के सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद लगातार टूट ही रहा है।
राजनीति में कई घटनाक्रम बड़ी सीख देने वाले होते हैं। लेकिन, अहंकार और स्वार्थ की पट्टी आंखों पर चढ़ाए राजपुरुष कभी सीख नहीं लेते वरन एक और नजीर बन जाते हैं। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी का बड़ा दबदबा कायम था। वे पार्टी की सींचने वाले वरिष्ठ नेता हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री बनने की उनकी आकांक्षा ने मेनका बनकर वर्षों की तपस्या भंग कर दी। इसके बाद पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा देकर रही-सही इज्जत और गंवा दी। इस घटनाक्रम का नुकसान लम्बे समय तक पार्टी को उठाना पड़ेगा। कुछ इसी तरह जदयू की किरकिरी कराने पर नीतीश कुमार आमादा हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव अच्छे से जानते हैं कि राजग या कहें भाजपा से अलग होना निश्चित तौर पर घाटे का सौदा है। लेकिन, अब उनके हाथ में बहुत कुछ नहीं है। यही कारण है कि वे चाहकर भी इस विघटन को रोक नहीं सके। भले ही जदयू ने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया हो लेकिन बिहार की राजनीति उसके अकेले के बस की बात नहीं हैं। नीतीश कुमार डबल होकर भी लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान से अधिक मुस्लिम परस्त नहीं हो सकते। अभी हाल ही में आए नतीजे भी साफ जाहिर करते हैं कि लालू प्रसाद यादव फिर से ताकत हासिल कर रहे हैं। भाजपा और जदयू के अलग होने से कम से कम बिहार की राजनीतिक तस्वीर तो धुंधली हो गई है। भविष्य में सत्ता किसके हाथ लगेगी कहा नहीं जा सकता। बिहार में पहली बार भाजपा 40 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। भाजपा निश्चित ही यह प्रचारित करने से नहीं चूकेगी कि उनके पास दूसरी पंक्ति के ज्यादातर बड़े नेता ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री पद के संभावित प्रबल दावेदार नरेंद्र मोदी भी गुजरात की पिछड़ी जाति से आते हैं। भाजपा के पाले में पिछड़े वर्ग का वोट बैंक नरेन्द्र मोदी के नाम पर और बढ़ सकता है। अपने परंपरागत वोट बैंक के साथ अगर भाजपा को ओबीसी वोट मिलता है तो बिहार में उसका और मजबूत होना तय माना जा रहा है। अगर यह तस्वीर बनी तो जदयू यानी नीतीश कुमार के हाथ में सिर्फ कूची रह जाएगी, रंग कहीं ओर सज रहे होंगे। वहीं 2014 के आमचुनाव में नरेन्द्र मोदी अपनी दम पर 230 से अधिक सीट एनडीए को दिलाने में कामयाब हो जाते हैं तो राष्ट्रीय राजनीति से भी जयदू यानी नीतीश कुमार का पत्ता साफ होना तय है। ऐसी स्थिति में जदयू वापस राजग में आकर भी अप्रासंगिक रहेगी। राजनीतिक संकेत बताते हैं कि इस बार नरेन्द्र मोदी एनडीए को 200 से अधिक सीट दिलाने में कामयाब रहेंगे। नीतीश का विकल्प भी मोदी ने ढूंढ़ लिया है। जाहिर तौर पर मोदी को जयललिता का समर्थन है। ऐसे में भाजपा को जदयू का राजग से जाना बहुत हद तक अखरेगा नहीं। कसक रहेगी तो शरद यादव के मन में। वैसे भी बड़े पेड़ से टहनी टूटती है तो अमूमन टहनी ही सूखती है पेड़ तो हरा-भरा रहता है।
आगे की तस्वीर - भाजपा के राष्ट्रीय फलक पर मोदी के सक्रिय होने के बाद जल्द ही एक और बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। अब तक एकला चलो की राह अपनाने वाले धुरंधर हिंदूवादी नेता और अर्थशास्त्री सुब्रह्मण्यम स्वामी मिशन- 2014 में भाजपा के लिए अहम रणनीतिकार के रूप में सामने आ सकते हैं। दक्षिण में भाजपा के लिए सहयोगी जोडऩे के लिए वे 1998 में भी गठबंधन को मजबूत करने में अपनी योग्यता दिखा चुके हैं।