गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

बांग्लादेश में कट्टरपंथ का आतंक

बांग्लादेश आज एक ऐसे अंधेरे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ मानवता और कानून का शासन कट्टरपंथ एवं भीड़ तंत्र के सामने आत्मसमर्पण कर चुका है। अल्पसंख्यक हिंदू युवक दीपू चंद्र दास की जघन्य हत्या ने न केवल पड़ोसी देश की अंतरिम सरकार की स्थिरता पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि भारत के धैर्य की भी परीक्षा ली है। दीपू दास को उग्र भीड़ द्वारा जिंदा जला दिया जाना सभ्य समाज के माथे पर कलंक है, लेकिन इससे भी अधिक भयावह वे वीडियो साक्ष्य हैं जो बताते हैं कि मारे जाने से पहले दास स्थानीय पुलिस की हिरासत में था। यह संदेह गहराना स्वाभाविक है कि क्या रक्षकों ने ही उसे कट्टरपंथियों के हवाले कर दिया? दीपू चंद्र दास की नृशंस हत्या करते समय भीड़ ने जिस प्रकार की नारेबाजी की, उससे साफ पता चलता है कि इस्लामिक चरमपंथी, मुस्लिम बाहुल्य राज्य या देश में गैर-मुस्लिमों को स्वीकार ही नहीं कर सकते हैं। सबसे अधिक खतरनाक और डराने वाली बात यह है कि दीपू की सुनियोजित हत्या में उसके मुस्लिम मित्र भी शामिल रहे हैं। यह जेहादी सोच या तो गैर-मुस्लिमों को इस्लाम में कन्वर्ट कर लेना चाहती है या फिर उन्हें वहाँ से खदेड़ देती है। 

वर्ष 1971 में जिस बांग्लादेश का जन्म एक भाषाई और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई से हुआ था, वहां आज मजहबी कट्टरता इस कदर हावी हो गई है कि हिंदुओं की जनसंख्या 30 प्रतिशत से घटकर महज 7-8 प्रतिशत रह गई है। 80 के दशक में जिया उर रहमान और जनरल इरशाद जैसे शासकों ने सत्ता में बने रहने के लिए इस्लाम को राजधर्म बनाया और कट्टरपंथ के बीज बोए। आज वही बीज एक ऐसे विषवृक्ष में बदल चुके हैं जहाँ मदरसों में होने वाला ‘ब्रेनवॉश’ युवाओं को जिहाद और घृणा की ओर धकेल रहा है। बांग्लादेश की मोहम्मद यूनुस सरकार की चुप्पी और भारतीय मिशनों पर हमलों की निंदा न करना, यह दर्शाता है कि सत्ता का नियंत्रण शायद उनके हाथों में नहीं, बल्कि उन गलियों में है जहाँ जिहादी भीड़ फैसले ले रही है। लेखिका तस्लीमा नसरीन के शब्द आज कड़वी हकीकत बनकर उभर रहे हैं कि राजनीति और कट्टरपंथ के गठजोड़ ने हिंदुओं का जीना दूभर कर दिया है।

भारत ने चट्टोग्राम में वीजा सेवाएं निलंबित कर अपना कड़ा रुख साफ कर दिया है। अब समय आ गया है कि ढाका यह समझे कि भारत के साथ उसके संबंध केवल इतिहास की दुहाई पर नहीं, बल्कि वर्तमान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और वियना कन्वेंशन के पालन पर टिके होंगे। भारतीय विदेश मंत्रालय का इस मुद्दे पर आया पहला आधिकारिक बयान केवल चिंता नहीं, बल्कि एक कड़ा कूटनीतिक संदेश है। भारत ने स्पष्ट रूप से अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने की मांग की है। विडंबना यह है कि जब दिल्ली में मुट्ठी भर युवा शांतिपूर्ण तरीके से इस हत्या का विरोध करते हैं, तो बांग्लादेशी मीडिया उसे ‘उच्चायोग पर हमला’ बताकर भ्रामक प्रोपगंडा फैलाता है। जबकि सच यह है कि ढाका और चट्टोग्राम में भारतीय मिशनों पर हो रहे हिंसक हमले और ‘भारत-विरोधी’ नारे वहां की अंतरिम सरकार की मौन सहमति का परिणाम प्रतीत होते हैं। भारत सरकार को चाहिए कि वह बांग्लादेश पर कूटनीतिक दबाव बनाए क्योंकि वहाँ इस्लामिक हिंसा का सामना कर रहे हिन्दुओं के लिए भारत के अलावा अन्य कोई देश उम्मीद नहीं है। विश्वास है कि भारत कोई न कोई राह निकाल ही लेगा।

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