सोमवार, 26 मई 2014

सशक्त समाज के लिए जरूरी है स्वतंत्र पत्रकारिता


लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'देश कठपुतलियों के हाथ में' विमोचित 
ग्वालियर, २४ मई। पत्रकारिता सिर्फ सूचनाओं का संप्रेषण नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता में संवेदनशील लेखन होना चाहिए। आज देश में जिस प्रकार से पत्रकारिता और राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हो रही हैं, उनके मूल में विदेशी पूंजी निवेश है। इसलिए सशक्त समाज के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता बहुत आवश्यक है। वर्तमान में पत्रकार परतंत्र हो गए हैं, जब तक पत्रकारों को लिखने की आजादी प्राप्त नहीं होगी तब तक हम सशक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। यह बात गणेश शंकर विद्यार्थी मंच एवं जीवाजी विश्वविद्यालय दूरस्थ शिक्षण अध्ययनशाला के संयुक्त तत्वावधान में 'पत्रकारिता, राजनीति और देश' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में आमंत्रित वक्ताओं ने कही। गालव सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के प्रोडक्शन सहायक लोकेन्द्र सिंह राजपूत की पुस्तक 'देश कठपुतलियों के हाथ में' का विमोचन भी किया गया। 
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि गांधीवादी विचारक एवं चिंतक रघु ठाकुर थे। जबकि अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद सृजनपीठ उज्जैन के निदेशक जगदीश तोमर ने की। विशिष्ट अतिथियों के रूप में आईटीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रमाशंकर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष एवं राजनीतिक विश्लेषक संजय द्विवेदी उपस्थित थे। इस मौके पर स्वदेश के सम्पादक लोकेन्द्र पाराशर दूरस्थ शिक्षण अध्ययनशाला के उप निदेशक प्रो. हेमंत शर्मा एवं पुस्तक के लेखक लोकेन्द्र सिंह भी मंचासीन थे।

राजनीति और पत्रकारिता एक सिक्के के दो पहलू : रघु ठाकुर
गांधीवादी विचारक एवं चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि पत्रकारिता और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें धर्म के रास्ते पर चलाना चाहिए। धर्म का तात्पर्य यह है कि वह समाज की पीड़ा को समझें। उन्होंने पत्रकारिता की आजादी की बात करते हुए कहा कि आज देश में लिखने वाले परतंत्र हो गए हैं। जब तक पत्रकारों को लिखने की आजादी नहीं होगी तब तक हम सशक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। श्री ठाकुर ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज राजनीति और पूंजी में एक रिश्ता बन गया है। राजनीति और पूंजी के घालमेल के कारण आज समाज प्रभावित हो रहा है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को ऐसा लेखन करना चाहिए जिससे समाज सही दिशा पा सके। उन्होंने कहा कि मीडिया संस्थानों के मालिक निजी स्वार्थ देखते हैं। पत्रकारों के भले के लिए मालिक नहीं सोच रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अब तक देश के प्रमुख समाचार पत्रों ने मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू नहीं की हैं। मजीठिया से संबंधित कोई समाचार भी समाचार-पत्रों में भेजा जाए तो एक लाइन भी नहीं छपेगा। उन्होंने मीडिया के वर्तमान स्वरूप को रेखांकित करते हुए कहा कि आज के मीडिया के लिए खबर के मुख्य आधार हैं- क्राइम, कॉमेडी, क्रिकेट, सिनेमा और सेलेब्रिटी। सामाजिक सरोकार आज पत्रकारिता में कहीं पीछे छूट गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने चुनाव आयोग पर सवाल उठाते हुए कहा कि चुनाव आयोग ने आम चुनाव में खर्च की सीमा तय कर दी ७० लाख रुपए। ऐसे में क्या कोई आम आदमी चुनाव लड़ सकेगा। क्या आम आदमी चुनाव में खड़े होकर ७० लाख रुपए खर्च करने के क्षमता रखने वाले व्यक्ति से मुकाबला कर सकेगा। 

सवालों से मजबूत होता है लोकतंत्र : संजय द्विवेदी  
राजनीतिक विश्लेषक और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि हिन्दुस्तान को समझने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। उन्होंने कहा कि जनता को मीडिया और राजनेताओं से सवाल करते रहना चाहिए क्योंकि सवालों से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। निष्पक्ष होकर पत्रकार को अपनी कलम चलानी चाहिए। किसी पार्टी विशेष से जुड़कर लिखेंगे तो उस लेखन में वह धार नहीं होगी। किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर लेखन करना भी ठीक नहीं। चुनाव के दौरान कई लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी सुपारी लेकर कलम चला रहे थे कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। क्यों नहीं बनने देंगे, इसका किसी के पास वाजिब जवाब नहीं था। यह तरीका ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता, राजनीति और देश आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पत्रकारिता देश हित में होनी चाहिए। श्री द्विवेदी ने मुजफ्फरनगर के दंगों का जिक्र करते हुए बताया कि मुजफ्फरनगर के दंगों की रिपोर्टिंग गलत तरीके से की गई। इसका नतीजा यहा रहा कि स्थितियां और अधिक बिगड़ीं।  

स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है : रमाशंकर सिंह
कार्यक्रम के विशिष्ट आईटीएम विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रमाशंकर सिंह  ने कहा कि महात्मा गांधी भी मानते थे कि स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है। उन्होंने कहा कि आज मीडिया और राजनीति में गहरा रिश्ता हो गया है, जिसे समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि आज शेयर बाजार, सट्टा और सर्वे कई गलत तस्वीरें समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिससे समाज प्रभावित होता है। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान तभी आगे बढ़ेगा जब लोगों में सामाजिक न्याय के लिए भूख पैदा होगी। पत्रकारिता का यह दायित्व है कि लोगों में सामाजिक चेतना की भूख पैदा करे। 

कठपुतलियों की डोर अपने हाथ में ले जनता : लोकेन्द्र पाराशर
स्वदेश के सम्पादक लोकेन्द्र पाराशर ने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता में भिन्नता है लेकिन समाज को दोनों एक ही दिखाई देते हैं। उन्होंने कहा कि अगर मीडिया प्रबंधन हो रहा है तो उसमें पत्रकारिता नहीं है। उन्होंने कहा कि समाज का दर्द लिखने के लिए लेखक या पत्रकार के मन में आग होनी चाहिए। यह आग एक से दूसरे के मन में जलनी चाहिए। पुस्तक का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि देश कठपुतलियों के हाथ में नहीं होना चाहिए। अगर कठपुतलियों के हाथ में देश है भी तो इन कठपुतलियों की डोर हमारे हाथ में होनी चाहिए, किसी और के हाथ में डोर नहीं होनी चाहिए।

लोकेन्द्र ने देश के मानस को झकझोरा है : जगदीश तोमर
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रेमचंद सृजन पीठ के निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार जगदीश तोमर ने पत्रकारिता और पत्रकार को समाज का महत्वपूर्ण अंग बताया। उन्होंने कहा कि आजादी के समय भी हर पत्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका में था। पत्रकार अच्छे से काम कर सके, सकारात्मक पत्रकारिता कर सके इसके लिए समाज को उसका साथ देना चाहिए। पत्रकारिता के मूल्यों में समय के साथ कमी आई है लेकिन यह सही नहीं है कि पत्रकारिता में सब बुरा ही बुरा है। पत्रकारिता एकदम भ्रष्ट हो गई है। पत्रकारिता में अब भी अच्छे लोग हैं। उनका साथ देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता आज भी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और वह अपना धर्म आज भी निभा रही है। श्री तोमर ने 'देश कठपुतलियों के हाथ में' पुस्तक के लेखक एवं युवा साहित्यकार लोकेन्द्र सिंह को बधाई देते हुए कहा कि लोकेन्द्र ने अपने आलेखों के माध्यम से देश के मानस को झकझोरने की कोशिश की है। उनके लेखों में सकारात्मकता है। पत्रकारिता को सही मायने में एक विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए। लोकेन्द्र ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उसी विपक्ष की भूमिका निभाई है। उन्होंने कहा कि लोकेन्द्र सिंह के आलेख ही नहीं बल्कि उनकी कहानियां भी विचारोत्तेजक हैं। वे लेखक हैं, कहानीकार हैं, कवि हैं। लोकेन्द्र बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं।

प्रबुद्धजन रहे मौजूद : 
पुस्तक विमोचन समारोह और संगोष्ठी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत सहकार्यवाह यशवंत इंदापुरकर, दूरदर्शन केन्द्र ग्वालियर के निदेशक संतोष अवस्थी, वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र श्रीवास्तव, सुरेश सम्राट, राकेश अचल, देव श्रीमाली, जनसम्पर्क विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. एच.एल. चौधरी, सुभाष अरोरा, प्रो. ए.पी.एस. चौहान, डॉ. केशव ङ्क्षसह गुर्जर, प्रो. अयूब खान सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार एवं गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। इससे पूर्व कार्यक्रम का शुभारंभ अतिथियों द्वारा मां सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन कर किया गया। अतिथियों का स्वागत हरेकृष्ण दुबोलिया, विभोर शर्मा, गिरीश पाल, विवेक पाठक द्वारा किया गया। कार्यक्रम का संचालन जयंत तोमर ने एवं आभार दूरस्थ शिक्षण अध्ययन के उप निदेशक प्रो. हेमंत शर्मा ने व्यक्त किया।

शुक्रवार, 16 मई 2014

साठ महीने दिए, अब अच्छे दिन दो

 न तीजे साफ हैं। एकदम खुला खेल फर्रुखाबादी टाइप। नरेन्द्र मोदी सरकार बनाएंगे। जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत दिया है। जनता ने मोदी के लिए अपना दिल खोलकर रख दिया है। भाजपा सरकार बनाएगी, यह जानबूझकर नहीं लिखा है क्योंकि सारा कमाल मोदी ब्रांड का है। नरेन्द्र मोदी की रणनीति काबिलेतारीफ है। मोदी ने एक राज्य से निकलकर दिल्ली तक का रास्ता बेहद करीने से साफ किया। जबकि रास्ते में कांटे ही कांटे थे। बहुत-से नुकीले कांटे तो उनके अपनों ने ही बिखराए थे। लेकिन, शतरंज के सबसे चतुर खिलाड़ी की तरह नरेन्द्र मोदी ने सूझबूझ से राजनीति की बिसात पर अपनी चालें चलीं। अथक मेहनत के बाद खेल को अपने पाले में कर लिया।

रविवार, 11 मई 2014

मेरा आसमान

 पि ताजी बेहद सख्त हैं। नारियल की तरह कठोर। अंतर्मन से नरम हैं या नहीं, कह नहीं सकता, क्योंकि कभी पिताजी के भीतर झांककर नहीं देखा। लेकिन, मां का व्यवहार बेहद मुलायमियत भरा है। उसकी तुलना नहीं की जा सकती। मां सृष्टि का केन्द्र है। खुदा है। भगवान है। जब भी ऐसा लगता था कि अपने से कुछ गड़बड़ हो गई है और पिताजी की डांट पडऩा तय है। तब पिताजी के शब्द-बमों से बचने का एक ही सुरक्षित बंकर नजर आता था, मां का आंचल। असल में मां का आंचल मेरे हिस्से का सबसे सुंदर आसमान भी था। उसकी साड़ी में जड़े मोती और सितारे, मेरे अपने चंदा मामा और तारे हुआ करते थे। पिताजी की नजरों से बचना होता था तो इसी आसमान को ओढ़ लिया करता था। मां ने बहुत पोथी तो नहीं पढ़ीं, लेकिन वह मेरी आंखें अच्छे से पढ़ लिया करती है, तब भी और आज भी। मां दुनिया को अच्छे से समझती है। जब वह इस दुनिया में मुझे लेकर आई तो उसे हमेशा मेरी सुरक्षा की फिक्र रहने लगी थी। कहीं किसी की नजर न लग जाए। तब कुछ लोगों की काली नजर से बचाने के लिए मां अपने आंचल में मुझे छिपा लिया करती थी। फिर जब बड़ा हुआ तो तेज धूप, लपट, धूल-धक्कड़ से बचाने के लिए भी वह इसी आसमान को मेरे सिर पर रख दिया करती थी और मैं दुनियावी झंझटों से बेफिक्र अपने चांद-तारों में खो जाया करता था। 
         एक दिन का वाकया अच्छे से याद है मुझे। तब मैं करीब दस बरस का था। शाम को दोस्तों के साथ खेलने पुलिस ग्राउंड गया था। वहां लाल रंग से पुते लगभग गोल और चिकने कंकर सड़क के दोनों ओर डाले गए थे। मैं रोज एक गिलास दूध पीता था और मेरा दोस्त गिलास भरकर चाय। मां की धारणा है कि दूध पीने वाला बच्चा अंदर से ताकतवर और फुर्तीला होता है जबकि ज्यादा चाय पीने वाला अंदर से फुंका हुआ रहता है। मां के इसी दर्शन पर दोस्त से बहस हो गई। मां सही कहती है या गलत इसको साबित करने के लिए शर्त रखी गई कि मैं दौड़कर उसकी साइकिल से आगे निकलकर दिखाऊं। दौड़ शुरू हुई। मां को सच साबित करने के लिए पूरी जान लगाकर दौड़ा। लक्ष्य तक पहुंचने के चंद कदम पहले ही मेरा पैर उन गोल और चिकने कंकरों पर पड़ गया। मैं फिसलता हुआ तय स्थान तक पहुंच गया। कौन हारा-जीता, नहीं देख सका। मेरी कनपटी बुरी तरह छिल गई थी। अरबी की सब्जी बनाने से पहले जैसे मां उसे टाट पर छीला करती है, ठीक वैसे ही मेरे गाल की खाल निकल आई थी। इसी गाल पर तो मां स्कूल जाने से पहले मुझे प्यार किया करती थी। 
          मैं दर्द से तड़प रहा था। दोस्त ने किसी तरह मुझे घर पहुंचाया। मुझे डर था कि पिताजी आज सिर्फ डांटेंगे ही नहीं बल्कि पीट भी सकते हैं। डर के मारे मैं चादर ओढ़कर सो गया। बिना खाना खाए जल्दी सोने पर मां को शक हुआ। उसने चादर उठाकर देखा, मैं जख्मी कनपटी को छिपाकर सो रहा था। लेकिन, चेहरे पर दर्द के भाव को उसने पढ़ लिया। मां ने हाथ पकड़ा। मैं बुखार में तप रहा था। मेरी हालत देखकर उसकी आंखों से आंसू छलक आए। 
           उसने गुस्से से कहा- 'तूने बताया क्यों नहीं।' 
         मैंने रोते हुए कहा- 'पिताजी का डर था। वो मारते मुझे।' 
मैं कुछ और बता पता, तब तक पिताजी आ गए। मां ने हमेशा की तरह आज फिर मेरे चेहरे पर अपना आंचल डाल दिया। मेरे सारे दर्द और डर जाते रहे। मां ने पिताजी को मेरी चोट के बारे में बताया। पिताजी ने कुछ नहीं कहा। जल्दी से ऑटो बुलाई और दोनों मुझे डॉक्टर के पास ले गए। रास्ते भर मैं मेरे हिस्से के आसमान में खोया रहा। ऐसे कई वाकये हैं जब सारे दर्द, व्यथाएं और चिंताएं मां के आंचल में कहीं खो जाती थीं। अब जब बड़ा हो गया तो लगता है कि मेरे हिस्से का वह आसमान कहीं खो गया है। मां है, उसका आंचल भी है लेकिन मैं ही अब पहले जैसा नहीं रहा हूं।