दो साल पहले देश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'अच्छे दिनों' के वादे पर खूब भरोसा जताया। जनता जनार्दन के अभूतपूर्व समर्थन का निर्णय १६ मई, २०१४ को भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेन्द्र मोदी के पक्ष में सामने आया। जनता की आशाओं का आसमान सिर पर उठाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने ठीक आज से दो साल पहले यानी २६ मई, २०१४ को भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उन्हें अपने नेता के रूप में पाकर जनता की उम्मीदें उछाल मारकर दोगुनी हो गईं। एकदम से जनता के सपनों को साकार करना नरेन्द्र मोदी तो क्या किसी के लिए भी आसान नहीं था। प्रधानमंत्री ने जनता को भरोसा दिलाया कि थोड़ा समय जरूर लगेगा, लेकिन 'अच्छे दिन आएंगे'। भले ही भाजपा और नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक/वैचारिक आलोचक यह गीत गा रहे हों कि मोदी के सत्ता में आने से अच्छे दिन तो नहीं बल्कि सांप्रदायिकता और असहिष्णुता जरूर बढ़ गई है। महंगाई कम नहीं हुई है। विकास कहीं दिख नहीं रहा है। सब वैसे का वैसा ही है। आलोचना से कहीं अधिक राजनीतिक विरोध के इन गीतों का असर जनता पर हुआ नहीं है। देश के बड़े मीडिया संस्थान और प्रतिष्ठित सर्वे एजेंसी 'हंसा' ने केन्द्र सरकार के दो साल पूरे होने पर देशव्यापी सर्वेक्षण कराया है, जिसमें यह बात सामने निकलकर आती है कि जनता का भरोसा मोदी सरकार में बरकरार है। इससे ऐनपहले हुए सर्वे भी तकरीबन यही सच बयां करते हैं।
गुरुवार, 26 मई 2016
सोमवार, 23 मई 2016
जेएनयू के शिक्षकों और नक्सलियों के बीच क्या रिश्ता है?
एक बार फिर जेएनयू चर्चा में है। यह चर्चा फिर से 'देशद्रोह' से जुड़ी है। जेएनयू के प्रोफेसरों पर आरोप है कि उन्होंने बस्तर के कई गांवों में सभाएं लेकर ग्रामीणों को सरकार का विरोध और नक्सलियों का समर्थन करने के लिए धमकाया है। हालांकि, एक-दो समाचार वाहनियों (चैनलों) और समाचार-पत्रों को छोड़ दें तो यह चर्चा मुख्यधारा के मीडिया में कम ही है। 'देशद्रोह' के आरोपी छात्रों का साक्षात्कार लेने के लिए कतारबद्ध सूरमा पत्रकार भी इस खबर पर मुंह में दही जमाकर बैठे हैं। वह तो शुक्र है कि आज के दौर में सोशल मीडिया है। सोशल मीडिया के जरिए ही जेएनयू के प्रोफेसरों की 'देशद्रोही' करतूत उजागर हो रही है। हम सब जानते हैं कि जेएनयू की छवि वामपंथ के गढ़ के रूप में है। जेएनयू यानी लालगढ़, यह आम धारणा बन गई है। वामपंथी नक्सलियों के पोषक हैं, यह भी सच्चाई है। वामपंथी इस सच्चाई को छिपाने की भी कोशिश करें, तो छिपा नहीं पाएंगे। जेएनयू के शिक्षकों पर नक्सल समर्थक होने के आरोप पहली बार लगे हैं, ऐसा नहीं है। अनेक अवसर पर वहाँ के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर नक्सलवादी विचारधारा के प्रवर्तक और समर्थक होने के आरोप लगते रहे हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जेएनयू के शिक्षकों और विद्यार्थियों पर इस तरह के आरोप अकारण नहीं लगते हैं। इसके पीछे कुछ तो सच्चाई है। माना कि पूरा जेएनयू नक्सल/वाम का गढ़ नहीं है। यह इसलिए भी मानना चाहिए, क्योंकि समूचा जेएनयू वामपंथ की विचारधारा से ग्रसित होता तब उसकी चाहरदीवारी से सच लाँघकर हमारे सामने नहीं आ पाता। 'देशद्रोही नारेबाजी' को देश के सामने लाने का काम जेएनयू के ही देशभक्त छात्रों ने किया था। वहीं दूसरी ओर, जेएनयू की वामपंथी लॉबी किस हद तक नक्सलवादियों (आतंकवादियों) की समर्थक है, इसे वर्ष 2010 के एक घटनाक्रम से समझा जा सकता है। नक्सली आतंकवादियों ने जब दंतेवाड़ा में बेरहमी से 76 जवानों की हत्या की थी, तब जेएनयू में जश्न मनाया गया था। देश के 76 जवानों की मौत पर दु:खी होने की जगह पूरी निर्लज्जता के साथ नक्सलियों की कायराना जीत का उत्सव मनाया गया।
शनिवार, 21 मई 2016
क्या अपने नेताओं को सुनेगा कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद कोने में सिमट गई कांग्रेस में अब कलह और भगदड़ के हालात बन रहे हैं। पांच राज्यों के साथ ही मेघालय, तेलंगाना, गुजरात और उत्तरप्रदेश में हुए उपचुनाव के नतीजे भी कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहे हैं। मेघालय, तेलंगाना और गुजरात में कांग्रेस को अपनी सीटें खोनी पड़ गईं। उत्तरप्रदेश में दो सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई है। करारी हार ने कांग्रेस की बेचैनी बढ़ा दी है। कांग्रेस के बड़े नेता कह रहे हैं कि कांग्रेस के संगठन में सबकुछ ठीक नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और नेहरू-गांधी परिवार के नजदीकी दिग्विजय सिंह तक ने स्पष्ट कहा है कि पार्टी में बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने कड़े शब्दों में ट्वीट किया है कि आत्ममंथन बहुत हो चुका, अब बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने यह भी माना है कि कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम निराशाजनक है लेकिन अनपेक्षित नहीं। यानी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को पहले से ही इस बात की आशंका थी कि चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डूबेगी। निश्चित ही उनकी इस आशंका का कारण शीर्ष नेतृत्व की योग्यता, प्रभाव और रणनीति रही होगी। कांग्रेस के 'इंटलेक्चुअल' समझे जाने वाले वरिष्ठ नेता शशि थरूर भी दिग्विजय सिंह के विचार से सहमत हैं। उन्होंने भी एक टेलीविजन साक्षात्कार में कहा है कि आत्म मंथन और चिंतन पर्याप्त किया जा चुका है, क्या यह सही समय नहीं है कि हम एक्शन लें? लेकिन, एक्शन लेगा कौन, थरूर यह नहीं बता सके।
शुक्रवार, 20 मई 2016
कमल खिला, हाथ हुआ पस्त
चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश का चुनाव परिणाम देश के सामने आ गया है। जैसा कि माना जा रहा था कि यह चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए उदासी लेकर आएंगे, वहीं भाजपा को खुशी मनाने का अवसर देंगे। दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद अब असम में पहली बार कमल खिलाकर भारतीय जनता पार्टी ने उत्तरप्रदेश के चुनाव के लिए ताकत पा ली है। भाजपा की सरकार भले ही एक राज्य में आ रही है, लेकिन बाकि जगह जहाँ कभी उसका कोई वजूद नहीं था, वहाँ भी वह मजबूत हुई है। पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक उसे सीट भी मिलीं हैं और उसके वोट प्रतिशत में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है। वोट प्रतिशत बढऩा यानी भविष्य के लिए उम्मीदों का आसमान तैयार होना है।
शनिवार, 7 मई 2016
कन्हैया और विवाद, चोली-दामन का साथ
देशद्रोह के आरोपी कन्हैया कुमार और विवादों का चोली-दामन का साथ हो गया है। जहाँ-जहाँ कन्हैया कुमार जाता है, वहाँ-वहाँ विवाद उनके पीछे पहुंच जाते हैं। इन विवादों के पीछे कितनी हकीकत है और कितना फसाना, इसका आकलन लोग अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं। इस बात में कोई दोराय नहीं है कि जेएनयू में हुई देशद्रोही नारेबाजी के बाद कन्हैया कुमार और उनकी गैंग के खिलाफ आम समाज में गहरी नाराजगी है। कन्हैया कुमार के साथ मारपीट या फिर अन्य तरीकों से दर्ज कराए गए विरोध के पीछे आम आदमी का आक्रोश है। लेकिन, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन सबके पीछे 'पब्लिसिटी स्टंट' है। विमान में गला दबाने के प्रकरण में यह साबित भी हो चुका है। मुम्बई से पुणे जाते वक्त कन्हैया ने जिस सहयात्री पर गला दबाने का आरोप लगाया था, उसने पलटकर कहा था कि कन्हैया कुमार सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाह रहा है। पुलिस की जाँच में भी यह साबित हुआ था कि कन्हैया कुमार का आरोप निराधार है। आखिर इससे कोई कैसे इनकार कर सकता है कि देशद्रोह के आरोप में अंतरिम जमानत पर जेल से बाहर चल रहा कन्हैया कुमार लोगों की सहानुभूति पाने के लिए इस तरह के प्रोपोगंडा को हवा दे रहा हो। आखिर तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने में उनकी विचारधारा (वामपंथ) को खासा अनुभव हासिल है। इंच-इंच बात को बिलात भर बनाने में वामपंथी सिद्ध हैं। कन्हैया कुमार के खिलाफ होने वाला विरोध और विवाद महज राजनीतिक प्रोपोगंडा है और कुछ नहीं। इस बात पर यकीन करना इसलिए भी आसान हो जाता है क्योंकि देखने में आता है कि कन्हैया को काले झण्डे दिखाने वाला, उसका गला दबाने वाला या फिर उसकी ओर जूता उछालने वाला कोई भी हो, लेकिन कन्हैया गैंग भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ उसे नत्थी कर देती है। यानी बेतुके विरोध और विवाद को हथियार बनाकर राष्ट्रवादी ताकतों पर हमला किया जाता है। इसलिए यह शंका बलबती होती है कि यह विवाद और विरोध गढ़े तो नहीं जा रहे।
भगत सिंह क्रांतिकारी या आतंकवादी
यह बहुत ही दुखद है कि स्वतंत्रता के 68 साल बाद भी देश को आजाद कराने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों के लिए आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि भगत सिंह को फांसी पर लटकाने वाले अंग्रेजों ने भी अपने फैसले में उन्हें सच्चा क्रांतिकारी बताया है। भगत सिंह के लिए उन्होंने भी आतंकी या आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन, इसी देश की माटी में जन्मे इतिहासकार विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में बलिदानियों के लिए आतंकवादी जैसे घृणित और घोर आपत्तिजनक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। यह दुर्भाग्य इसलिए है क्योंकि इन इतिहासकारों का पोषण करने वाली विचारधारा वामपंथी है।
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