- लोकेन्द्र सिंह -
एक उम्र होती है, जब अपने भविष्य को लेकर चिंता अधिक सताने लगती है। चिकित्सक बनें, अभियंत्री बनें या फिर शिक्षक हो जाएं। आखिर कौन-सा कर्मक्षेत्र चुना जाए, जो अपने पिण्ड के अनुकूल हो। वह क्या काम है, जिसे करने में आनंद आएगा और घर-परिवार भी अच्छे से चल जाएगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर अंतर्मन में तो खोजे ही जाते हैं, अपने मित्रों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भी मार्गदर्शन प्राप्त किया जाता है। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण वह उम्र मेरे सामने समय से थोड़ा पहले आ गई थी। पिताजी का हाथ बँटाने के लिए तय किया कि अपन भी पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करेंगे। शुभचिंतकों ने कहा कि नौकरी के सौ तनाव हैं, जिनके कारण पढ़ाई पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन, मेरे सामने भी कोई विकल्प नहीं था। प्रारंभ से ही मेरी रुचि पढऩे-लिखने में रही है। अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखना और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित निबंध/लेख प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर पत्र-पुष्प भी प्राप्त करता रहा। मेरा मार्गदर्शन करने वाले लोग मेरे इस स्वभाव से भली प्रकार परिचित थे। तब उन्होंने ही सुझाव दिया कि मुझे पत्रकारिता को अपना कर्मक्षेत्र बनाना चाहिए। हालाँकि उस समय अपने को पत्रकारिता का 'क-ख-ग' भी नहीं मालूम था। तब तय हुआ कि इसके लिए स्वदेश में प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। वहाँ पत्रकारिता का ककहरा सीखने के साथ-साथ बिना तनाव के जेबखर्च भी कमाया जा सकता है। इस संबंध में स्वदेश, ग्वालियर के संपादक लोकेन्द्र पाराशर जी और मार्गदर्शक यशवंत इंदापुरकर जी से मेरा परिचय कराया गया। उन्होंने मेरे मन को खूब टटोला और स्वदेश में तीन माह तक बिना वेतन के प्रशिक्षु पत्रकार रखने का प्रस्ताव दिया। तय हुआ कि काम सीख जाने पर तीन माह बाद मानदेय मिलना प्रारंभ हो सकेगा। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।