संघ शताब्दी वर्ष शृंखला : संघ की स्थापना की कहानी
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किस उद्देश्य को लेकर हुई थी? यह प्रश्न संघ की 100 वर्ष की यात्रा को देखने और समझने में हमारी सहायता करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज’ में इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना स्वतंत्रता के सब प्रयास अधूरे रहेंगे। बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं। हेडगेवार जी ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे। 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा”। यानी संघ की स्थापना का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखनेवाले समाज को सुसंगठित करना और उसके मन में राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना को प्रज्वल्लित करना है। यही कार्य संघ पिछले 100 वर्षों से कर रहा है, जिसमें उसे बहुत हद तक सफलता भी मिली है।
स्मरण रहे कि जब डॉक्टर हेडगेवार जी संघ की स्थापना कर रहे थे, तब देश में अंग्रेजों का प्रभुत्व था। स्वराज्य के लिए हम संघर्ष कर रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार जी भी स्वराज्य के सब प्रकार के आंदोलन में शामिल थे। क्रांतिकारियों के साथ भी उन्होंने काम किया, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी कार्य का अनुभव उनके पास था। वर्ष 1915 से 1924 तक अपने विविध अनुभवों के आधार पर डॉक्टर साहब ने विचार किया कि इन मार्गों से देश स्वतंत्र नहीं होगा और देश स्वतंत्र हो जाएगा तब उस स्वतंत्रता को अक्षुण्य कैसे रख सकेंगे? उन्होंने उन कारणों की पड़ताल की, जिनके कारण भारत पर बार-बार बाहर से आक्रमण हो रहे थे। बहुत विचार करने के बाद डॉ. हेडगेवार इस परिणाम पर पहुँचे कि भारतीय समाज में राष्ट्रभक्ति और आत्मगौरव की भावनाओं को जगाए बिना देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता है। इसके लिए हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। देश की सर्वांगीण स्वतंत्रता प्राप्त करने एवं उसका संरक्षण करने के लिए हिन्दू समाज को संगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता से पूर्व जो प्रतिज्ञा करायी जाती थी, उसमें स्वयंसेवक ईश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेते थे कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”।
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नागपुर स्थित डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के घर के इसी कक्ष में आरएसएस की स्थापना की पहली बैठक आयोजित की गई थी। |
अपने मन में आए संघ के विचार को समाज के मन में बोने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने विजयदशमी के पावन प्रसंग (27 सितंबर 1925) पर अपने घर पर एक बैठक बुलाई, जिसमें 17 लोग शामिल हुए। देश-काल की परिस्थितियों पर चिंतन करने के बाद तय हुआ कि हम एक संगठन शुरू करते हैं। तब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सबके बीच कहा- “हम सब मिलकर संघ प्रारंभ कर रहे हैं”। संघ की स्थापना की यह कहानी कितनी अनूठी है कि जिस दिन संघ शुरू हुआ, उस दिन उसका नाम, संविधान, पदाधिकारी, कार्यशाला, सूचना पट्ट, समाचार-पत्रों में प्रचार, चन्दा, सदस्यता आदि पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। दूसरे दिन भी किसी भी समाचार पत्र में संघ की स्थापना का समाचार प्रकाशित नहीं हुआ। जबकि कोई भी संगठन शुरू होता है, तब जोर-शोर से उसका प्रचार-प्रसार होता है। संघ की शुरुआत ठीक उसी प्रकार हुई, जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री रायरेश्वर महादेव को साक्षी मानकर अपने 9 मित्रों के साथ ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया था। कहते हैं जब संकल्प शुभ हों, तो ईश्वर उन्हें साकार करने में स्वयं सहायता करते हैं। अपनी अनुभूतियों के आधार पर संघ के स्वयंसेवक अपने संघकार्य को ईश्वरीय कार्य कहते हैं।
संघ स्थापना की इस बैठक में विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, डा.ल.वा. परांजपे, रघुनाथराव बांडे, भय्याजी दाणी, बापूराव भेदी, अण्णा वैद्य, कृष्णराव मोहरील, नरहर पालेकर, दादाराव परमार्थ, अण्णाजी गायकवाड, देवघरे, बाबूराव तेलंग, तात्या तेलंग, बालासाहब आठल्ये, बालाजी हुद्दार और अण्णा साहोनी ने विचार-विमर्श के बाद नए संगठन तथा नई कार्य पद्धति का श्रीगणेश किया। डॉक्टर साहब ने सबके सामने प्रश्न रखा कि “संघ में प्रत्यक्ष क्या कार्यक्रम किए जाएं, जिससे हम कह सकें कि संघ शुरू हो गया?” यह प्रश्न उचित ही था। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। सबके विचार सुनने के बाद में डॉक्टर साहब ने कहा कि संघ शुरू करने का अर्थ है कि “हम सभी को शारीरिक, बौद्धिक और हर तरह से खुद को ऐसा तैयार करना चाहिए कि अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें”।
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की पहली बैठक में शामिल होनेवाले कार्यकर्ताओं के नाम। डॉ. हेडगेवार के घर पर आयोजित इस बैठक में 17 लोग शामिल हुए थे। |
रोचक तथ्य है कि 6 महीने तक संघ का नामकरण ही नहीं हुआ था। दरअसल, डॉक्टर हेडगेवार ने प्रारंभ से ही संघ में सामूहिक निर्णय की परंपरा डाली। संघ प्रारंभ किया, तब भी अकेले घोषणा नहीं की। संघ का नाम भी स्वयं नहीं सुझाया। लगभग 6 माह बाद 17 अप्रैल 1926 को एक बार फिर 26 कार्यकर्ता डॉक्टर साहब के घर पर बैठे। उस बैठक में अपने संगठन के लिए इन प्रमुख नामों का सुझाव आया- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरिपटका संघ, भारतीद्धारव मंडल और हिन्दू स्वयंसेवक संघ इत्यादि। इनमें से सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम स्वीकार किया गया। रामटेक के रामनवमी मेले में यात्रियों के सहयोग के लिए प्रथम बार स्वयंसेवकों ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के नाम से सहभाग किया।
इस प्रकार संघ की विशिष्ट कार्यपद्धति का विकास एवं विस्तान धीरे-धीरे होता गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। अपने संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”।
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संघ शताब्दी वर्ष पर 'स्वदेश ज्योति' में प्रकाशित 'नियमित कॉलम' का पहला आलेख। यह 19 अक्टूबर, 2025 को छोटी दीपावली के पावन प्रसंग से शुरू हुआ। |
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