मंगलवार, 19 अगस्त 2025

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति कम्युनिस्टों की ओछी सोच

क्या अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस? केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने बच्चों को यही पढ़ाने की तैयारी कर रखी थी

कम्युनिस्ट सरकार केरल के विद्यालयों में बच्चों को पढ़ा रही थी कि स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ‘अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे’। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब इस मामले को उठाया और डटकर सरकार का विरोध किया, तब कम्युनिस्ट सरकार को अपने कदम वापस खींचने को मजबूर होना पड़ा है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) की चौथी कक्षा की एक हैंडबुक में सुभाष चंद्र बोस के बारे में यह दावा किया गया है। यह सिर्फ एक तथ्यात्मक गलती नहीं है, बल्कि भारत के एक महानतम स्वतंत्रता सेनानी के शौर्य और बलिदान को जानबूझकर विकृत करने का एक निंदनीय प्रयास है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस डर से नहीं, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने और एक सशक्त सैन्य मोर्चा बनाने के दृढ़ संकल्प के साथ भारत से बाहर गए थे। उनकी आजाद हिंद फौज (आईएनए) ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ी चुनौती थी और आज भी यह लोगों को प्रेरणा देती है। हालांकि केरल सरकार कह रही है कि यह गलती है, हम इसे सुधार रहे हैं और भविष्य में ध्यान रखेंगे। यह गलती है या कम्युनिस्टों की नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति वास्तविक सोच है, इसका विश्लेषण करने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। क्योंकि यह अकेली या आकस्मिक घटना नहीं है, यह कम्युनिज्म विचारधारा के उस ओछी मानसिकता को प्रदर्शित करती है, जो नेताजी के प्रति उनके मन में शुरू से रही है। 

यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस प्रारंभ से ही कम्युनिस्टों की आँख की किरकिरी रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के लिए ‘आजाद हिन्दी फौज’ का निर्माण और उसमें जर्मनी एवं जापान का सहयोग लेने के समय से ही कम्युनिस्ट नेताजी का अपमान करते आ रहे हैं। कम्युनिस्टों का यह घृणास्पद दृष्टिकोण द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ की स्थिति पर आधारित है। जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया, तो कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व युद्ध को एक ‘जन युद्ध’ घोषित कर दिया था। उनका मानना था कि ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत संघ मिलकर फासीवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं, और इस युद्ध में अंग्रेजों का विरोध करना एक तरह से फासीवाद का समर्थन करना होगा। याद रहे कि कम्युनिस्ट 1942 में भी ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान में अंग्रेजों के साथ खड़े थे।

केरल सरकार के स्कूल की हैंडबुक (चित्र साभार - केरल कौमुदी)

कम्युनिस्टों की दिक्कत है कि इन्होंने कभी भारत के दृष्टिकोण से सोचा ही नहीं है। भारत के कम्युनिस्ट कभी सोवियत संघ तो कभी चीन के नजरिए से चलते हैं। दरअसल, भारत में कम्युनिज्म एक आयातित विचार है, जिसकी प्रेरणा की जड़ें भारत के बाहर ही रही हैं। इसलिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी, डॉ. अंबेडकर से लेकर वीर सावरकर तक को ओछी मानसिकता से देखते हैं। अभी हाल में, कम्युनिस्ट इतिहासकार इरफान हबीब ने बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का अपमान किया। उन्होंने कहा कि “उस समय, अंबेडकर का कोई सम्मान नहीं करता था। उन्हें अब जाकर पहचान मिल रही है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का नहीं, बल्कि अंग्रेजों का साथ दिया था”। 

दरअसल, नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए जर्मनी और जापान का सहयोग लिया, इसलिए कम्युनिस्टों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में नेताजी के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां एवं कार्टून प्रकाशित किए। नेताजी को फासीवादी ताकतों का एजेंट बताया गया। इतिहासकार सीताराम गोयल जैसे विद्वानों के अनुसार, कम्युनिस्टों ने 1940 के दशक में अपने मुखपत्रों में नेताजी के लिए अत्यंत अपमानजनक और हिंसक शब्दों का प्रयोग किया। उन्हें ‘अंधा मसीहा’ से लेकर ‘गद्दार बोस’, ‘दुश्मन के जरखरीद एजेंट’, और ‘सड़ा हुआ अंग जिसे काटकर फेंकना है’ जैसे अपमानजनक विशेषणों से संबोधित किया गया। उनके बनाए गए कार्टूनों में नेताजी को जापानी और जर्मन फासिस्टों के ‘कुत्ते या बिल्ली’ के रूप में दिखाया गया, उन्हें ‘तोजो का कुत्ता’ कहा गया, जो कम्युनिस्टों की मानसिकता की घोर संकीर्णता को दर्शाता है। यह एक ऐसा इतिहास है जिसे आज की पीढ़ी को समझना आवश्यक है। 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति इस संकीर्ण दृष्टिकोण को कम्युनिस्ट अब तक त्याग नहीं पाए हैं। यही कारण रहा होगा कि केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने बच्चों को नेताजी के बारे में उल्टा-पुल्टा इतिहास पढ़ाने की योजना बनायी होगी। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि एनसीईआरटी ने जो सम्यक बदलाव किए हैं, उन पर तो कांग्रेस से लेकर समूची सेकुलर बिरादरी हो-हल्ला मचा रही है लेकिन कम्युनिस्ट सरकार के इस कृत्य पर सब चुप्पी साधकर बैठे हैं। यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को कम करके आंका जा रहा है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जीवन और उनका संघर्ष हमें राष्ट्रभक्ति, साहस और त्याग का संदेश देता है। उनके सम्मान की रक्षा करना और युवाओं को उनके सही इतिहास से परिचित कराना, हम सब की जिम्मेदारी है। 

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को साधुवाद कि उसकी सजगता एवं सक्रियता से केरल की कम्युनिस्ट सरकार को अपना यह कुपाठ वापस लेने को मजबूर होना पड़ा है।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share