शनिवार, 15 अगस्त 2020

आओ, भारत को उत्साहित करें

भारत के स्वरूप पर यह कविता भी सुनें

आज भारत अपना 74वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। कोरोना महामारी ने हम सबको बांध कर रखा हुआ है। इस महामारी के कारण अनेक चिंताएं और चुनौतियां हमारे सामने हैं। लेकिन, अच्छी बात यह है कि हम हारे नहीं हैं। हमने इस महामारी के सामने घुटने नहीं टेके हैं। हम पहले दिन से संघर्ष कर रहे हैं। हम ठीक उसी तरह अपनी पूरी जान लगा कर बीमारी से लड़ रहे हैं, जैसे हम विदेशी दासता से लड़े। हमने कभी भी विदेशी शासन के सामने घुटने नहीं टेके थे। हमारा संघर्ष पहले दिन से शुरू हो गया था। चाहे फिर वे मुगल हों, पुर्तगीज हों या फिर ब्रिटिश। हमने बाहर से आए आक्रांताओं एवं लुटेरों के विरुद्ध सतत् संघर्ष किया। कभी हार नहीं मानी। हमारे संघर्ष, हौसले और हमारी विजिगीषा का परिणाम था कि 1947 में शासन के सूत्र हमारे हाथ में थे। यह दीगर बात है कि पूर्ण स्वतंत्रता और स्वराज्य के लिए संघर्ष अब भी जारी है। हमें विश्वास है कि अपने इन्हीं अद्भुत गुणों के कारण हम कोविड-19 वायरस को भी भारत से बाहर खदेड़ सकेंगे। इस दिशा में कुछ उत्साहजनक समाचारों की आहट मिलना शुरू हुई है। भारत में बन रही देसी वैक्सीन अपने पहले चरण के परीक्षण में सब प्रकार से सफल रही है। उम्मीद है कि भारत की मेधा वैक्सीन के शेष चरणों का परीक्षण भी जल्द पूरा करेगी। 

भारत के नागरिकों का यह चरित्र इसलिए है क्योंकि उसके शास्त्र यही सीख देते हैं कि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी धैर्य और उत्साह को क्षीण नहीं होने देना चाहिए। जिजीविषा बनाए रखना ही पराक्रमी और विजेता लोगों की पहचान है। रामायण में माता सीता के अपहरण के बाद एक स्थान पर प्रसंग आता है कि वियोग में श्रीराम गहरे दु:ख से घिर गए हैं। उनका उत्साह बिल्कुल ठंडा पड़ गया है। तब उनके अनुज लक्ष्मण उन्हें कहते हैं- 

“उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात् परं बलम्।

सोत्साहस्य हि लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्।।” (१२१ किष्किन्धाकाण्ड, प्रथम सर्ग) 

“भैया, उत्साह ही बलवान होता है। उत्साह से बढ़कर दूसरा कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिए संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।” सुमित्रानंदन आगे कहते हैं कि जिनके हृदय में उत्साह होता है, वे पुरुष कठिन-से-कठिन कार्य आ पडऩे पर हिम्मत नहीं हारते। आप जैसे महात्मा एवं कृतात्मा पुरुष को शोक शोभा नहीं देता। इसी तरह महाभारत का प्रसंग हमको ध्यान में आता है, जब युद्ध भूमि में वीर अजुर्न के हाथ से गांडिव छूट जाता है। रणभूमि में संगे-संबंधियों को अपने सामने देखकर अपराजेय अर्जुन का उत्साह ठंडा पड़ जाता है। वे घनघोर निराशा में डूब जाते हैं। तब योगेश्वर श्रीकृष्ण उनके भीतर उत्साह का संचार करते हैं। 

वर्तमान समय में अनेक प्रकार से अनेक महात्मा एवं राजपुरुष लोग ‘भारत’ के उत्साह को बनाए हुए हैं। इसी महान उत्साह के बल पर हमारा संघर्ष जारी है। इसी उत्साह के बल पर हम जीतेंगे। आईए, इस स्वतंत्रता दिवस पर हम संकल्प लें कि भारत को मजबूत करेंगे। भारत को श्रेष्ठ बनाने में अपना ‘गिलहारी’ (हर संभव) योगदान देंगे। हम आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को साकार करने के लिए आगे आएंगे। जयतु भारत....

इस अवसर पर यह कविता सुनें.... 

माझा भारत | मेरा भारत | भारत का आध्यात्मिक काव्य चित्रण/वर्णन


शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

बेंगलुरू में सांप्रदायिक दंगों के पीछे की मानसिकता


बेंगलुरू का दंगा यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि वास्तव में असहिष्णुता, सांप्रदायिकता और कट्टरता क्या है? एक फेसबुक पोस्ट पर इतना आतंक? जबकि उसका विरोध करने के और भी तरीके थे। मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस विधायक एवं दलित नेता श्रीनिवास मूर्ति के भतीजे नवीन की आपत्तिजनक टिप्पणी की शिकायत पुलिस में करनी चाहिए थी। पुलिस अपना काम करती लेकिन चिंता की बात तो यह है कि पुलिस में शिकायत करने की जगह यहाँ तो पुलिस पर ही हमला कर दिया गया। अब तक सामने आई जानकारी के मुताबिक 60 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हैं। दिल्ली के दंगों में भी हमने देखा कि आईबी के अधिकारी तक को कई बार चाकू घोंप कर मार दिया गया था। यह किस तरह की कट्टरता पनप रही है। इस ओर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को और शासन-प्रशासन को गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। 

बेंगलुरू दंगा पहला उदाहरण नहीं है इसलिए इस बात पर संदेह है कि इसके बाद भी हम कोई सबक लेंगे? क्योंकि देश में कथित बुद्धिजीवियों एवं पत्रकारों का एक वर्ग ऐसा है जिसकी पूरी कोशिश यह रहती है कि इस प्रकार के सांप्रदायिक दंगों की अनदेखी करने या इन्हें जायज ठहराने के लिए हिंदू समाज को ही असहिष्णु और सांप्रदायिक ठहरा दिया जाए। पिछले कुछ वर्षों में यह तीव्र गति से हुआ है। बाकायदा प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्र्ग ने हिंदू समाज को बदनाम करने के लिए संगठित आंदोलन चलाया। लेकिन, इस तरह के आंदोलनों से न तो झूठ को सच बनाया जा सकता है और न ही सच को छिपाया जा सकता है। हकीकत तो दिल्ली-बेंगलुरू और शाहीन बाग की तरह बार-बार हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। 

बेंगलुरू दंगा पर चल रही बहस में यह तथ्य कहीं खो गया है कि कांग्रेस विधायक के भतीजे ने आपत्तिजनक पोस्ट लिखी थी या फिर ‘नेक और आहत बंदे’ की हिंदुओं के खिलाफ लिखी गई आपत्तिजनक पोस्ट पर आक्रोश में आकर प्रतिक्रिया दी थी। यह कैसी भावनाएं हैं कि आप दूसरों के मानबिंदुओं का अपमान करो लेकिन अपने लिए वैसा लिखे या कहे जाने पर खून-खराबा करो? मध्यप्रदेश की हालिया घटना का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमें मुस्लिम भीड़ ने पीट-पीट कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता राजेश फूलमाली की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि उसने माता सीता पर किए गए अपमानजनक टिप्पणी की शिकायत पुलिस में की थी। इसी तरह उत्तरप्रदेश के हिंदू नेता कमलेश तिवारी के प्रकरण को भी देखिए, जिन्होंने आपत्तिजनक बयान के कारण पहले जेल में सजा काटी उसके बाद भी उन्हें उनके ऑफिस में घुस कर मार दिया गया। इस प्रकरण में भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कमलेश तिवारी ने जो आपत्तिजनक बयान दिया था, वह भी मुस्लिम नेता आजम खान के आपत्तिजनक बयान से उपजा आक्रोश था। क्या मुस्लिम समाज और नेता खुलकर हिंदू धर्म को अपशब्द कहने की स्वतंत्रता चाहते हैं? क्या वे यह चाहते हैं कि न तो उनका विरोध किया जाए और न ही शिकायत की जाए? इस अंतर को भी समझिए कि हिंदू समाज आपत्तिजनक पोस्ट या बयान पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए कानून के पास जाता है, वह लाठी-डंडे और पेट्रोल बम लेकर सड़क पर नहीं निकलता।

हैदराबाद के मुस्लिम नेता ओवैसी के भाई ने श्रीराम, माता सीता, कौशल्या और दशरथ के प्रति कितनी अभद्र बातें सार्वजनिक मंच से कहीं थीं, लेकिन इसके बाद भी हिंदू समाज ने जो धैर्य दिखाया, उससे मुस्लिम समाज को सीखने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य की बात है कि मुस्लिम समाज के झंडाबरदार कभी इन सब बातों के विरोध में सड़क पर नहीं उतरते। सड़क पर छोडि़ए, एक बयान भी जारी नहीं करते हैं। मुस्लिम समाज को अपनी धार्मिक कट्टरता से बाहर आना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात उन्हें सीखनी चाहिए कि जैसा व्यवहार वह अपने लिए चाहते हैं, वैसा आचरण उन्हें दूसरों के प्रति भी रखना होगा। 

श्रीराम मंदिर के भूमिपूजन के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मुस्लिम समाज से आईं हैं, उसकी ही परिणति है बेंगलुरू दंगा। मुसलमानों के बड़े नेताओं, यहाँ तक कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड और आल इंडिया इमाम संघ जैसे संगठन खुलेआम कट्टरता फैलाते हैं, दंगे जैसी स्थितियां बनाते हैं। श्रीराम मंदिर के संदर्भ में हागिया सोफिया का उदाहरण देना और यह कहना कि एक दिन राम मंदिर को तोड़ कर वहाँ मस्जिद बना देंगे, क्या इससे मुस्लिम समाज में भाईचारे की भावना पैदा होगी? क्या इससे भारत के कानून के प्रति सम्मान पैदा होगा? जिन संगठनों को अमन-चैन कायम करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, वे ही लोगों को भड़का रहे हैं। ऐसी संस्थाओं पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। 

बेंगलुरू का दंगा कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है। बल्कि यह उस मानसिकता का प्रकटीकरण है, जिसे धीरे-धीरे समाज में बोया जाता है। जरा सोचिए कि कैसे अचानक से हजारों की हिंसक भीड़ इकट्ठी हो जाती है? भीड़ की तैयारी देखकर तो यही लग रहा है कि दंगे की तैयारी पहले से थी, बस कारण की प्रतीक्षा थी। वह अवसर मिला कांग्रेस के दलित नेता के भतीजे नवीन द्वारा सोशल मीडिया पर पैगम्बर मुहम्मद को लेकर कथित अपमानजनक पोस्ट शेयर करने पर। जरा उन ठेकेदारों को भी विचार करना चाहिए जो हिंदू समाज को बांटने के लिए ‘भीम-मीम’ का नारा बुलंद करते हैं। इस घटना पर कांग्रेस, वामपंथी और दलितों की राजनीति करने वाले राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठनों ने बहुत ही धीरे स्वर में प्रतिक्रिया दी है। 

हमारा यह जो दोहरा आचरण है, यह ही इस सांप्रदायिकता के मजबूत होने के लिए जिम्मेदार है। इस तरह की कोई भी घटना हो, किसी भी समुदाय की ओर से की गई हो, उसका एक ही मजबूत स्वर में विरोध होना चाहिए। कर्नाटक सरकार को दंगाईयों के विरोध कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। उत्तरप्रदेश सरकार की नीति का पालन करते हुए सार्वजनिक नुकसान की भरपाई दंगाईयों की संपत्ति कुर्क करके की जाए। इस सांप्रदायिकता को रोकने के लिए एक ओर सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर समाज को भी जागरूक होकर सांप्रदायिकता के प्रति एकजुट होना होगा।

यह वीडियो जरूर सुनिए... 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

बंधुत्व का प्रतीक श्रीराम मंदिर

श्रीराम जन्मभूमि, अयोध्या मंदिर में विराजे रामलला के दर्शन

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का जीवन भारतीय विचार की अभिव्यक्ति है। श्रीराम ने अपने जीवन से सामाजिक समरसता, एकात्म एवं बंधुत्व का संदेश दिया है। आज से हजारों वर्षों पूर्व त्रेतायुग में उन्होंने भारत को एक छोर से दूसरे छोर तक एकसूत्र में पिरोया। प्रभु श्रीराम ने सामाजिक समरसता को न केवल अपने शासन की आधारशिला बनाया, बल्कि उनके जीवन का सार भी यही है। इसलिए समूचा समाज राम का है और राम सबके हैं। आज के युग में उनके संदेश का केंद्र बनेगा अयोध्या में बनने जा रहा श्रीराम मंदिर। भारत का यह मंदिर बंधुत्व का प्रतीक होगा। पाँच अगस्त को श्रीराम की जन्मभूमि पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने भूमिपूजन के बाद अपने उद्बोधनों से यही संदेश दिया। 

श्रीराम मंदिर के संघर्ष को रेखांकित करते हुए दोनों महानुभावों ने कहना यही था कि श्रीराम मंदिर भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का द्योतक होगा, अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देगा और मार्गदर्शन करता रहेगा। यह भारत को जोडऩे का काम करेगा। श्रीराम मंदिर ने यह कार्य अपने निर्माण से बहुत पहले, आंदोलन के दौरान ही प्रारंभ कर दिया था। श्रीराम मंदिर आंदोलन में समूचे भारत से सभी वर्गों के लोग शामिल हुए। सबको स्मरण है कि अशोक सिंघल जी के नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद के प्रयासों से 1989 में श्रीराम जन्मभूमि के शिलान्यास का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ था, जिसका श्रेय अचानक से भगवा रंग में रंगी कांग्रेस लूटने का प्रयास कर रही है। शिलान्यास का वह कार्यक्रम शुद्ध तौर पर विश्व हिंदू परिषद का कार्यक्रम था, जिसमें अनेक पूज्य संत शामिल हुए थे। उस दिन भी सामाजिक समरसता का उदाहरण सबने देखा था, जब अनुसूचित जाति के कामेश्वर चौपाल के कर कमलों से शिलान्यास पूजन हुआ। 

भगवान श्रीराम के दरबार में दंडवत प्रणाम करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

           5 अगस्त, 2020 को जब श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण कार्य का शुभारंभ हो रहा था, तब भी कार्यक्रम में लगभग 36 परंपराओं, पंथ-संप्रदायों के संत उपस्थित थे, जिनमें प्रमुख हैं- दशनामी सन्यासी परंपरा, रामानुज, निंबार्क, वल्लभ, कृष्ण प्रणामी आदि संप्रदाय निर्मले संत, लिंगायत, रविदासी संत, जैन, सिख, मत पंथ, स्वामीनारायण, चिन्मय मिशन, रामकृष्ण मिशन, एकनाथी, वनवासी संत, सिंधी संत, रामानंदी वैष्णव, माधवाचार्य, रामस्नेही, उदासीन, कबीरपंथी, वाल्मीकि संत, आर्य समाजी, बौद्ध, नाथ परंपरा, गुरु परंपरा, आचार्य सभा के प्रतिनिधि, संत कैवल्य ज्ञान, इस्कॉन, वारकरी, बंजारा संत, आदिवासी गौण, भारत सेवाश्रम संघ, संत समिति एवं अखाड़ा परिषद। इसके अतिरिक्त भी अन्य मत-संप्रदाय के प्रतिनिधि लोग वहाँ उपस्थित रहे। 

मंदिर निर्माण के लिए देश की विभिन्न नदियों से जल एवं प्रमुख स्थानों से मिट्टी लाई गई, जिनमें संत रविदास जन्मस्थली, सीतामढ़ी उत्तर प्रदेश से महर्षि वाल्मीकि आश्रम, मध्यप्रदेश के टंट्या भील की पुण्य भूमि, श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर पंजाब, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मस्थान महू की, दिल्ली के जैन लाल मंदिर, वाल्मीकि मंदिर (जहां महात्मा गांधी 72 दिन रहे थे) इत्यादि स्थान प्रमुख हैं। इसलिए बार-बार यह कहा जा रहा है कि यह मंदिर साधारण नहीं है, यह भारत की पहचान बनेगा। निश्चित ही श्रीराम मंदिर विश्व-बंधुत्व का संदेश देने वाला सबसे बड़ा केंद्र बनेगा।


गुरुवार, 6 अगस्त 2020

रामत्व का उद्घोष

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में जब भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत की उपस्थिति में मंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ करने के लिए पूजन किया जा रहा था, तब चहुँ ओर हर्ष व्याप्त था। रामनाम का प्रभाव और हिंदू समाज की सांगठनिक शक्ति का प्रताप है कि राम को काल्पनिक सिद्ध करने की भरसक चेष्टा करने वाले भी राम-नाम जाप कर रहे हैं। यह अद्भुद दृश्य भारत में ही नहीं, अपितु समूची दुनिया में देखे गए। लगभग पाँच सदियों बाद साकार हो रहे स्वप्न को देखने के लिए सारा देश टेलीविजन के सामने बैठा रहा। उसका मन आल्हादित था। प्रत्येक रामभक्त की भौतिक उपस्थिति तो अपने ही घर में टेलीविजन के सामने थी, लेेकिन मन अयोध्या में विचर रहा था। प्रत्येक भारतीय मन की यही स्थिति थी। वह बीती रात से ही दीपोत्सव मना रहा था। मानो उसके राम वनवास पूरा करके अयोध्या लौट रहे हों। अयोध्या भी वैसे ही सजी-धजी थी। 

निस्संदेह यदि कारोनो संक्रमण ने लोगों के पैर न थामे होते तो पाँच अगस्त को अयोध्या में पग रखने की भी जगह न होती। महाकुंभ का आयोजन होता। अभी बेशक लोग इस महत्वपूर्ण और गर्व से भरे हुए पल के साक्षी न बन पाए हैं लेकिन राम अनादि से अनन्त तक हैं और समस्त विश्व के राम भक्त राम में ही समाये हुए हैं इसलिए जो जहाँ थे वहीं से मन ही मन तो अयोध्या में उपस्थित हुए। पूर्ण विश्वास है कि तीन वर्ष बाद उन सबको सशरीर राम के प्रांगण में उपस्थित होने का ऐसा ही अवसर मिलेगा। लगभग तीन वर्ष बाद जब श्रीराम का भव्य मंदिर बनकर तैयार हो जाएगा, तब निश्चित ही उसका उद्घाटन कार्यक्रम आयोजित होगा, तब निश्चित ही भारतीय समाज अपनी इस अभिलाषा को पूर्ण कर सकेगा और भव्य मंदिर में दिव्य रामलला के दर्शन करेगा। उस क्षण की भी तो प्रतीक्षा समाज को है, जब भव्य मंदिर के ऊंचे शिखर आसमान को छू रहे होंगे। मंदिर पर लहरा रही विजय पताकाएं भारत की पहचान को प्रकट कर रही होंगी। 

पाँच अगस्त की तिथि इतिहास में दर्ज हो गई है। यह रामत्व के उद्घोष का दिन था। भारतीय स्वाभिमान के हिमालय-सा ऊंचा उठने का अवसर था। यह भी शुभ संयोग है कि राम के मंदिर के निर्माण कार्य का शुभारंभ करने का अवसर उन महानुभावों/विचार को मिला, जिसने देशवासियों के मन में रामत्व को जगाया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो व्रत लिया था कि अयोध्या में प्रभु श्रीराम के दर्शन को तभी जाएंगे जब वहाँ मंदिर निर्माण के अपने संकल्प को पूरा करेंगे। यह उनका अकेले का संकल्प नहीं था, असंख्य देशवासियों का संकल्प था, जो अब जाकर फलित हुआ है। कहते हैं कि यदि आपका संकल्प शुभ है तो उसको पूर्ण करने में प्रकृति भी भरपूर सहयोग देती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत वहाँ उन लाखों स्वयंसेवकों के प्रतिनिधि के रूप में दिखे, जिन्होंने राममंदिर आंदोलन में संघर्ष और बलिदान किया। अयोध्या में बनने जा रहा यह श्रीराम मंदिर कोई साधारण मंदिर नहीं होगा, विश्वास है कि यह भारत की पहचान बनेगा।


बुधवार, 5 अगस्त 2020

‘भारत की नियति से भेंट’ का दिन

श्रीराम जन्मभूमि, अयोध्या में प्रस्तावित भव्य श्रीराम मंदिर

लगभग 500 वर्षों के संघर्ष और लंबी प्रतीक्षा के पश्चात अब जाकर वह क्षण आया है, जिसका स्वप्र हिंदू समाज देख रहा था। अयोध्या जी में भारत की श्रद्धा के केंद्र भगवान श्रीरामचंद्र जी के मंदिर निर्माण के शुभारंभ के साथ अब जाकर हिन्दू समाज के आत्मगौरव का वनवास भी खत्म हो रहा है। यह कोई साधारण मंदिर नहीं है, भारत के स्वाभिमान का प्रतीक है। इसलिए यह क्षण सामान्य नहीं है, ऐतिहासिक अवसर है। गौरव की अनुभूति से भर जाने का समय है। इस अवसर के मर्म को समझना है तो वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भारतीय समाज के अंतर्मन में झांकना चाहिए। इस समय कोरोना महामारी के कारण समाज एक गहरे संकट का सामना कर रहा है लेकिन इस सबके बाद भी जब से मंदिर निर्माण की तिथि घोषित हुई है, उसका अंतर्मन प्रफुल्लित है। उसकी आँखों में एक चमक है। हर्षित होकर वह आज के दिन की प्रतीक्षा कर रहा है। भारत में ही नहीं, अपितु विश्व में जहाँ कहीं भारतीय मन बसता है, वहाँ पाँच अगस्त की प्रतीक्षा है। सब अपने अंदाज से इस तिथि को विशेष बनाने का प्रबंध कर रहे हैं। मानो, समूचा विश्व इस समय राममय हो गया है। उत्साह ऐसा है कि मानो आज ही श्रीरामचंद्र अपने वनवास से लौट रहे हैं। यह वनवास ही तो था कि करोड़ों हृदय में बसने वाले श्रीराम अपनी ही जन्मभूमि पर टाट में विराजे थे। अब समय आ गया है कि राक्षसी प्रवृत्तियों के पराभव के बाद भव्य मंदिर में अपने रामजी ठाठ से विराजेंगे। 
आज जब यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत मंदिर निर्माण के कार्य हेतु भूमिपूजन करेंगे, तो एक सपना साकार होगा। इस तरह का उदाहरण पूरे विश्व में कहीं नहीं मिलेगा कि बहुसंख्यक समाज ने अपने ही आराध्य के मंदिर के लिए पाँच शतक का संघर्ष किया। अन्यत्र तो यही देखने को मिलता है कि जैसे ही मूल समाज के हाथ में सत्ता आती है, वह अपने प्रतीकों को स्थापित करने में देरी नहीं करता। औपनिवेशिकता एवं कलंक के प्रतीकों को ढहाने में वह कोई संकोच नहीं करता। लेकिन, हिन्दू समाज वैसा नहीं है। वह बदले की भावना से भरा हुआ नहीं है। अन्यथा अयोध्या में कब का श्रीराम मंदिर बन गया होता। हिन्दू समाज तो सत्य की पुनस्र्थापना के लिए संघर्ष कर रहा था। उसको यह भी साबित करना था कि उसका पक्ष सत्य का है। वह सही मायनों में राम का उत्तराधिकारी समाज है, जो कंटकों पर चल कर भी स्वयं को प्रमाणित करता है। 

आज जिस क्षण के हम सब साक्षी होने जा रहे हैं, उसको उपस्थित कराने में सहस्त्रों रामभक्तों का बलिदान शामिल है। यह क्षण उन सब बलिदानी रामभक्तों के प्रति भी श्रद्धा से नतमस्तक होने का अवसर है। यह स्वीकार करना चाहिए कि वर्षों से चले आ रहे बिखरे संघर्ष एवं प्रयासों को विश्व हिंदू परिषद एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एकजुट किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के कारण हिन्दू समाज की हुंकार को न केवल सबने सुना अपित सब हिन्दुओं के सामुहिक आने से समाज का जो विराट स्वरूप दिखाई दिया, उसके कारण सबने गंभीरता से ध्यान भी दिया। यह भी स्वीकार करना चाहिए कि यदि 2014 में राजनीतिक परिवर्तन नहीं होता, भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में नहीं आती, तब संभव है कि आज भी यह मामला न्यायालय में अटका होता। भाजपानीत सरकार ने न्यायालयीन प्रक्रिया में आगे बढ़कर सहयोग किया है। जबकि पूर्ववर्ती सरकारों ने न्यायालय प्रक्रिया में उदासीनता ही दिखाई। बहरहाल, आज उस कड़वे अनुभव को स्मरण करने का दिन नहीं है। आज तो उत्साह और उल्लास का दिन है। शुभ दिन है। सही मायने में आज ‘भारत की नियति से भेंट’ का दिन है, जब भारत नव प्रभात में, नयी रोशनी में, जगमग उजाले में, स्वाभिमान के साथ सुशोभित होगा। सकल जगत इस क्षण का साक्षी बनेगा।

यह भी देखें -