शनिवार, 16 मार्च 2013

नक्सलियों को खुली चुनौती

 रा म-कृष्ण, बुद्ध और गांधी के देश में हिंसक संघर्ष बर्दाश्त नहीं है। ध्येय कितना भी ऊंचा, पवित्र और जनहित का हो लेकिन उसे पाने के लिए उचित माध्यम होना जरूरी है। बुलेट की ताकत पर बदलाव संभव नहीं होता। बदलाव तो स्वत: स्फूर्त होना चाहिए। बंदूक की नाल से तो डराया जाता है। जिसके हाथ में बंदूक होती है वह कब, किस तरफ उसे मोड़ दे, कोई नहीं जानता। यही नक्सलवाद और माओवाद के नाम पर किया जाता रहा है। व्यवस्था के खिलाफ शुरू हुआ संघर्ष अब निरीह जनता के खिलाफ हो गया है। लोग तंग आ गए हैं। नक्सलवाद भ्रष्ट हो गया है। उसका शिकार आदिवासी समाज ही बन रहा है। नक्सलियों के आतंक से तंग वनवासी समाज ने खुला पत्र लिख है। इस पत्र में बस्तर आदिवासी रक्षा समिति ने नक्सलियों से घोटपाल मड़ई विस्फोट में घायल हुए तीन ग्रामीणों को मुआवजा देने की मांग की है। समिति ने आदिवासी संस्कृति व परम्पराओं को भविष्य में आघात नहीं पहुंचाने की माओवादियों से लिखित गारंटी भी मांगी है। वनवासियों ने साफ कहा है कि यदि उनकी मांगें पूरी नहीं हुईं तो नक्सली कड़ी कार्रवाई के लिए तैयार रहें। संभवत: यह पहला मौका है जब वनवासियों ने नक्सलियों के खिलाफ इस तरह का खुला पत्र जारी किया है। हालात बदल रहे हैं। वनवासी अब और अधिक नक्सल आतंक सहन करने के मूड में नहीं दिख रहे। यह महज एक मांग पत्र नहीं है बल्कि नक्सलियों को खुली चुनौती है। आओ, अब देखते हैं तुम्हें। सचेत उन्हें भी हो जाना चाहिए जो गाए-बगाहे लाल हिंसा का समर्थन करते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों को वनवासी समुदाय की पीड़ा समझनी होगी और उनके हित में अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए। स्थितियां बिगड़े उससे पहले सरकार को भी चेतना होगा। आम नागरिकों के हित की रक्षा करना सरकार की ही जिम्मेदारी है। यह नौबत नहीं आनी चाहिए कि नक्सलवाद से लडऩे के लिए जनता को हथियार उठाने पड़ें। भारत सरकार के पास मौका है नक्सल आतंक को जड़ से उखाड़ फेंकने का। पीडि़त और शोषित वनवासी सरकार के साथ आने को तैयार हैं, यदि सरकार की नीयत साफ हो तो।
    वनवासी समाज की चिंता इस बात से भी बढ़ गई है कि नक्सलवाद के नाम पर धीमे-धीमे उनकी संस्कृति को भी निशाना बनाया जा रहा है। उनके लोगों का खून तो बह ही रहा है। नक्सलवाद भले ही वर्ष १९६७ में पश्चिम बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ हो लेकिन इसके नेताओं की वैचारिक प्रेरणा का केन्द्र विदेशी है। नक्सवाद के जन्म के साथ ही इसके प्रारंभिक नेताओं ने राष्ट्र विरोधी नारा लगाया था- 'चेयरमैन माओ ही हमारा चेयरमैन है।' माओ त्से तुंग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और चीनी क्रांति का नेता था। जगजाहिर है कि चीन की तथाकथित ग्रेट प्रोलेटोरियन कल्चरल रिवोल्यूशन यानी सांस्कृतिक क्रांति में लाखों लोगों की जान व्यर्थ चली गई थी। करीब २० लाख लोगों की मौत, ४० लाख लोगों को बंदी बनाया गया और चीनी जनता पर बंदूक-तोप की दम पर वामपंथी विचारधारा थोपी गई। स्टालिन (शासन काल १९२४-१९५३) के समय सोवियत संघ में और पॉल पॉट के शासनकाल १९७५-८० के बीच कंबोडिया में निर्दोष लोगों को विचारधारा के नाम पर कत्ल किया गया।   तथाकथित भारतीय नक्सलवाद का कनेक्शन भी अंतरराष्ट्रीय वामपंथी आंदोलनों से है। विदेशी प्रेरणा केन्द्र होने के कारण नक्सलवाद का भारतीय परंपराओं और संस्कृति से कोई सरोकार नहीं है। खासकर हिन्दुत्व के तो ये विरोधी ही हैं। दरअसल, हिन्दुत्व राष्ट्रवाद की सीख देता है और नक्सलवाद की इसमें कोई रुचि नहीं है। दंतेवाड़ा जिले के ग्राम घोटपाल में आंगा देव व ग्राम्य देवता पर श्रद्धा के चलते वार्षिक मड़ई मनाया जाता है। इसी मेले में नक्सलियों ने विस्फोट किया। जिससे दो आदिवासी युवतियों और एक ग्रामीण घायल हो गया है। चार पुलिस जवान भी घायल हुए। इस विस्फोट को वनवासियों ने अपने आराध्य आंगा देव का अपमान  माना है। तीखी प्रतिक्रिया करते हुए रक्षा समिति ने देवताओं का अपमान करने पर आंध्रप्रदेश के नक्सलियों को फांसी देने की भी मांग की है। हालांकि नक्सली पहले भी वनवासी लोगों को निशाना बनाते रहे हैं। मुखबिरी का आरोप लगाकर मासूम-कोमल बच्चों सहित पूरे परिवार को जला दिया जाता है। बेरहमी से उनका कत्ल कर दिया जाता रहा है। तथाकथित नक्सली आंदोलन में शामिल करने के लिए बच्चों को जबरन उठाकर ले जाया जाता है। जवान लड़कियों के साथ दुराचार के मामले भी सामने आने लगे हैं। अब तो इनकी हरकतें बेहद घृणित हो गईं हैं। सुरक्षा जवान की हत्या कर उसके मृत शरीर में बम लगाने की हरकत, नजीर है कि नक्सलवाद विचार का पतन कितना हो चुका है।
    दरअसल, भारत में सक्रिय नक्सली समूह वास्तव में देश के विरुद्ध परोक्ष युद्ध लड़ रहे हैं। पुलिस रक्षक दल पर आक्रमण करना, वनवासियों में दबदबा बनाने के लिए अबोध नागरिकों की निर्मम हत्या, राजनीति का संरक्षण पाने के लिए राजनेताओं की हत्या, धन उगाही के लिए व्यवसायियों को धमकाना, सरकार की विकासोन्मुखी योजनाओं के कार्यान्वयन को रोकना, स्कूल की इमारतों में बम विस्फोट और शिक्षकों का अपहरण कर हत्या करना ऐसी सभी घटनाएं यही संकेत करती हैं। नक्सलियों की लोकतंत्र में आस्था नहीं। वे लोकतंत्र को उखाड़कर अतिवादी व निरंकुश कम्युनिष्ट शासन स्थापित करना चाहते हैं।   अब तक लाल आतंक के नाम पर नक्सली लाखों लोगों का खून बहा चुके हैं। इनमें पुलिस के जवान, सरकारी अफसर, नेता, व्यवसायी, उद्योगपतियों सहित आम नागरिक भी शामिल हैं।
    भारत में ८ प्रतिशत से अधिक वनवासी आबादी है। नक्सलवाद इन्हीं के बीच केंद्रित है। अब तक की सरकारों को १५ प्रतिशत मुस्लिमों की तो चिंता है लेकिन वनांचल में रहने वाले अबोध वनवासियों की फिक्र नहीं। १५ प्रतिशत लोगों के लिए तो अरबों रुपए की योजनाएं चलाई जा रही हैं लेकिन वनवासियों के लिए सिर्फ दिखावा। ये भोले-भाले वनवासी अल्पसंख्यकों की तरह मुखिर नहीं हैं, ये अब तक की केन्द्र सरकारों के वोट बैंक भी नहीं है। क्या इसीलिए इनकी उपेक्षा की जाती है। नक्सलबाड़ी से निकलकर देश के ५० से अधिक जिलों में नक्सलवाद के फैलने के लिए अब तक की सरकारों की उदासीनता ही जिम्मेदार है। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के जनजातीय और पिछड़े क्षेत्रों में नक्सली गतिविधियां अधिक हैं।  इसे ही रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है यानी लाल आतंक का गढ़। हालांकि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भी इनकी हिंसक घटनाएं सामने आती हैं। नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकारी स्तर पर मजबूती के साथ प्रयास होने चाहिए। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भूमि सुधार, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा, स्वास्थ्य, खेलकूद और सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देकर वनवासियों का विश्वास जीतना होगा। वनवासी क्षेत्रों को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। सड़क, इमारतों और रेल की पटरियों को नुकसान पहुंचाने वाले नक्सलियों से भी कड़ाई से निपटना होगा। सरकार को चाहिए कि वह सेना की भी मदद ले क्योंकि नक्सलवाद अब नासूर बन गया है।  यही नहीं पुलिस का भी आधुनिकीकरण करना होगा। नक्सलियों के पास एके-४७ से लेकर अति आधुनिक हथियार हैं लेकिन पुलिस के पास पुरानी तकनीक की बंदूकें, ऐसे में पुलिस भी कैसे मुकाबले करे। हालांकि नक्सल आतंक से निपटने के नाम पर सरकार के पास नीति है लेकिन नीयत नहीं है। नक्सल प्रभावित इन क्षेत्रों को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारों को पुरजोर कोशिश करनी होगी। आधे-अधूरे मन के साथ बदलाव संभव नहीं। लाल आतंक के चगुंग में फंसे वनवासी सुकून चाहते हैं जो उनके नसीब में नहीं।

सोमवार, 11 मार्च 2013

समान अधिकार और सम्मान चाहिए, विशेषाधिकार नहीं

 बैं क में भारी भीड़ थी। लोग घंटों से लाइन में लगे अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। तभी कॉलेज की एक लड़की आती है। उम्र २०-२२ साल। तंग कपड़े पहने हुए और आंखों पर धूप का चश्मा चढ़ाए हुए थी। भीड़ देखकर परेशान थी। लेडीज फर्स्ट जुमले का फायदा उठाने के लिए लाइन खड़ी न होकर काउंटर पर आगे चली गई। तभी एक युवक ने उसे आवाज दी- ओ दोस्त लाइन में आ जाओ। हम भी बहुत देर से यहां खड़े हैं। क्या हो जाएगा? यदि मैं तुमसे पहले ड्राफ्ट बना लूंगी तो। अकेली ही तो हूं, बस पांच मिनट का ही तो अंतर आएगा। अब दूसरा दृश्य देखिए रेलवे स्टेशन टिकट के लिए लंबी कतार। ठीक बैंक वाली लड़की जैसी ही टिप-टॉप लड़की यहां भी आती है। आगे की ओर खड़े लोगों से अपना टिकट लेने का निवेदन करती है। इस पर एक युवक ने उससे कहा - अरे बहन, तुम खुद ही पहले टिकट ले लो। कहां लड़कों के साथ लाइन में फंसोगी। लकड़ी मुस्काती हुई आगे जाती है और टिकट ले लेती है। एक और दृश्य देखिए। मल्टीप्लेक्स सिनेमा का टिकट काउंटर। टिकट लेने के लिए लंबी लाइन लगी है। यहां भी महिलाओं की अलग से लाइन नहीं है। वह दो पल के लिए खड़ी होकर सोच ही रही थी कि टिकट ले या नहीं। इसके बाद वह लाइन में लगने लगी। लाइन में खड़े एक-दो लड़कों ने कहा- अरे आप कहां लाइन में लग रही हो। आप तो लड़की हो, आगे चली जाओ। वह पहले टिकट मिल जाएगा। यहां लड़की का जवाब गौर करने लायक था। उसने कहा- मुझे जरूरत नहीं। लड़की होने के कोई विशेषाधिकार नहीं चाहिए। जितने विशेषाधिकार देने थे, ऊपर वाले ने दे दिए हैं। धरती पर तो बस सम्मान और समान अधिकार चाहिए।
    तीनों लड़कियों में आखिरी वाली लड़की ने पते की बात कही। विशेषाधिकार तो कमजोर होने की निशानी है। स्त्रियां सदैव से यह सिद्ध करती आई हैं कि कम से कम वे पुरुषों के मुकाबले किसी काम में कमजोर तो नहीं ही है। बल्कि की आगे ही हैं। व्यक्तिगत गुणों के मुकाबले भी पुरुष उनके सामने कहीं नहीं टिकता। अब देखें तो नारी आंदोलन के नाम पर हो उल्टा रहा है।  स्त्री के लिए विशेषाधिकार की मांग की जा रही है। जिसकी उसे कतई जरूरत नहीं है। उसके जीवन में कमी है तो समान अधिकार की। सम्मान की। ये उसे मिल जाए तो फिर किसी विशेषाधिकार की उसे जरूरत नहीं रह जाती। बलात्कार के खिलाफ दिल्ली में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। कानून में भी फेरबदल किया गया। लेकिन, क्या इससे बलात्कार की घटनाओं में कमी आई। जवाब है नहीं। लड़कियों को उसी रफ्तार से रौंदा जा रहा है। महानगर से लेकर कस्बे तक एक जैसे हालात हैं। सवाल उठता है कि तो कैसे बदलाव आएगा? क्या कानूनों को कड़ा नहीं किया जाना चाहिए? जरूर आएगा बदलाव। कानून भी कड़े होने चाहिए सभी तरह के अपराधियों के लिए। यह अलग बात है कि बदलते दौर में कड़े कानून स्त्रियों के सहायक तो हो सकते हैं लेकिन उसके प्रति समाज की सोच नहीं बदल सकते। स्त्री को देखने, सोचने और समझने का नजरिया बदलना होगा। इसकी शुरुआत किसी कानून के बनने से नहीं हो सकती। मन बनाना होगा। समाज यानी स्त्री-पुरुष दोनों को खुद से करनी होगी शुरुआत। स्त्री को कदम-कदम पर क्षणिक लाभ लेने के लिए खुद को कमजोर साबित करने से बचना होगा। उसे लेडीज फर्स्ट के जुमले को छोडऩा होगा। मैं नारी हूं इसलिए मेरी मदद कीजिए, यह भी नहीं चलने देना होगा। पुरुष को भी यह खयाल दिल से निकालना होगा कि नारी को उसकी जरूरत है। देखने में आता है कि कोई लड़का गाड़ी धकेलकर ले जा रहा है तो कोई उससे नहीं पूछता कि क्या दिक्कत है? मैं क्या मदद कर सकता हूं? लेकिन, स्थिति इसके उलट हो यानी जब कोई लड़की गाड़ी धकेलकर ले जा रही हो तो राह चलते सौ लोग रुककर उससे पूछते हैं, क्या हुआ? कोई मदद तो नहीं चाहिए? पुरुषों को हर काम में लड़कियों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाने की मानसिकता से भी पीछा छुड़ाना होगा। इसकी शुरुआत अपने घर से करनी होगी। अपनी बहन-बेटी को स्कूल-कॉलेज छोडऩे जाने की बजाय उसे स्वयं जाने दिया जाए। घर में बेटे के समान ही बेटी को भी पढ़ाई का अवसर उपलब्ध कराना चाहिए। उसे सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ाना चाहिए कि ब्याह करने में दिक्कत न आए। उसे अच्छा नौकरीपेशा वर मिल सके। जिस तरह लड़के को अफसर बनाने के लिए पढ़ाई पर पैसा खर्च किया जाता है वैसी ही बिटिया को भी अफसर बनाने का सपना देखना चाहिए। घर की संपत्ति में भी पुत्र के बराबर पुत्री को हक देना चाहिए। इस मामले में अभी समाज बहुत रूढि़ है। घर की सबसे लाड़ली सदस्य से पिता, मां और भाई भी उस समय खपा हो जाते हैं, जब वह शादी के बाद पैतिृक संपत्ति में से अपना हिस्सा मांग ले। इस वक्त घरवालों का एक ही कहना होता है कि दहेज तो दे दिया, अब क्या भाइयों का हिस्सा भी चाहिए। खून के रिश्ते बिगडऩे से बचाने के लिए घर की बेटी छोटी-मोटी नौकरी करके गुजारा कर लेती है लेकिन किसी भी आपात स्थिति में वह पिता की संपत्ति में से हिस्सा नहीं मांगती। यहां समानता लाने के लिए काफी प्रयास करने होंगे। असमानता और विभेद की लकीर घर में बेटा और बेटी को दी जाने वाली अलग-अलग नैतिक शिक्षा से भी बनती है। बेटे के लिए भरपूर आजादी। बेटी को ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए, तमाम बंदिशें। जबकि नैतिकता और मर्यादा का पाठ लड़की के साथ-साथ लड़कों को भी पढ़ाया जाए तो ठीक बनेगा आने वाला समाज।
    दिक्कत कहां है? क्यों तमाम प्रयास के बावजूद हम वहीं के वहीं खड़े हैं? इसके लिए हम सबके साथ-साथ बहुत हद तक नारी को आधुनिक बनाने के नाम पर चल रहे तमाम नारी आंदोलन भी जिम्मेदार हैं। मशहूर नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर का कथन याद आता है कि नारीवादी आंदोलनों ने भारतीय नारी को बस तीन चीजें दी हैं- लिपस्टिक, हाईहील सैंडल और ब्रा। हम सबकी नजर में भी आधुनिक स्त्री की छवि लाली-पाउडर पोते, स्टाइलिश बाल कटवाए और जींस-टीशर्ट पहनने वाली लड़की की है। इतना ही नहीं नारीवादी आंदोलनों से जुड़े लोग नारी की आजादी के नाम पर सिर्फ यौनिक आजादी की ही प्रमुखता से चर्चा करते हैं। जिसका खामियाजा स्त्री को ही उठाना पड़ रहा है। यौनिक आजादी की आड़ में बाजार ने उसे अपना गुलाम बना लिया है। बाजार ने आधुनिक नारी का समूचा व्यक्तित्व उसके शरीर पर केन्द्रित कर दिया है। नारी देह दिखाकर साबुन से लेकर सीमेंट तक बेचा जा रहा है। बाजार अपने मतलब के लिए नारी देह से सारे लिबास नोंच लेना चाहता है।
    बाजार और नारीवादी आंदोलन के नाम पर आए भटकाव से तो स्वत: नारी को ही बचना होगा। उसे तय करना चाहिए कि उसकी पहचान कैसे हो? उसे जरूरत नहीं पुरुषों की नजरों में सुंदर दिखने की। उसे ही तय करना होगा कि बाजार की ओर से सुझाए कपड़े उसे पहनने हैं या फिर देह और देश-काल के अनुरूप। उसे जरूरत नहीं किसी का सामान बेचने के लिए अपना शरीर बेचने की। उसे घर से लेकर बाजार तक स्वयं को मजबूत साबित करना होगा। कहीं भी अगर पुरुष उसे कमजोर समझ कर आगे जाने का अवसर दे या दया भाव दिखाए तो स्त्री को ताकत के साथ उसका प्रतिरोध करना चाहिए। बराबर ताकत वाले का सब सम्मान करते हैं।

रविवार, 3 मार्च 2013

सोने के दांत वाले लोगों का देश

 सो वियत संघ यानी रूस। लम्बे समय तक अमरीका का सीधा प्रतिद्वंद्वी रहा। अभी भी है। महाशक्ति रूस। १९९० में सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ। कम्युनिस्ट विचारधारा के कमजोर होने की शुरुआत। कम्युनिस्ट शासन के दौर में रूस विकास की दौड़ में काफी पीछे छूट रहा था। लोग आर्थिक सुधारों के लिए लोकतंत्र सरकार के प्रति विश्वास जता रहे थे। रूसी जनता कम्युनिस्ट शासन की तानाशाही से तंग आ चुकी थी। कुछ साल पहले दैनिक समाचार-पत्र में किसी लेखिका का आलेख पढ़ा था कि रूस में जब कम्युनिज्म का परचम फहरा रहा था, तब लोगों को बोलने की पूरी आजादी नहीं थी। खासकर कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ तो कोई कुछ बोल भी नहीं सकता था। यहां तक कि कम्युनिस्ट सरकार की बुराई सुनना भी गुनाह था। लेखिका लिखती है कि ट्रेन में सफर करते समय एक विदेशी यात्री किन्हीं अव्यवस्थाओं को लेकर सरकार की बुराई कर रहा था। सामने की सीट पर बैठा रूसी नागरिक विदेशी यात्री को चुप रहने को कह रहा था। इतने में ट्रेन में सवार दो सुरक्षाकर्मियों ने विदेशी और सामने की सीट पर बैठे रूसी नागरिक दोनों को गिरफ्तार कर लिया। विदेशी यात्री को थाने ले जाकर कड़ी हिदायत दी गई कि इस देश में यहां की सरकार (कम्युनिस्ट) की निंदा करने की आजादी नहीं है। आप चूंकि बाहरी हो, हमारे मेहमान हो इसलिए जाने दे रहे हैं। विदेशी व्यक्ति ने पुलिस से पूछा कि सामने बैठे आदमी का क्या दोष था? उसे क्यों गिरफ्तार किया। पुलिस के अफसर ने कहा, उसने सरकार की निंदा सुनी। यह उसका बहुत बड़ा अपराध है, उसे कड़ी सजा दी गई है। अभिव्यक्ति पर कुछ इस तरह ताला लगा रखा था साम्यवादी सत्ता ने रूस में। सोवियत संघ के १९९० में विघटन के साथ ही वहां के लोगों को बोलने की आजादी मिल गई। हालात बदल गए। लोग सरकार की नीतियों और व्यवस्था के खिलाफ विचार कर सकते थे और बोलने भी लगे।
     सोवियत संघ के इस दौर का जिक्र पत्रकार और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट शिखा वार्ष्णेय ने अपनी किताब 'स्मृतियों में रूस' में किया है। हालांकि किताब में इसकी विस्तृत चर्चा नहीं है। उन्होंने १९९० से १९९६ तक रूस में रहकर पत्रकारिता की पढ़ाई की। इस दौरान शिखा वार्ष्णेय के अनुभवों का ही संकलन है स्मृतियों में रूस। सहज और सरल भाषा में यादों को उकेरने के खूबसूरत प्रयास के लिए वे बधाई की पात्र हैं। उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात अगस्त २०१२ में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुई। मीडिया एक्टिविस्ट और चरैवेति (भारतीय जनता पार्टी, मध्यप्रदेश की पत्रिका) के संपादक अनिल सौमित्र के प्रयासों से भोपाल में मीडिया चौपाल का आयोजन किया गया था। इसी में शामिल होने के लिए शिखा वाष्र्णेय आई थीं। हालांकि हमारी पहचान सोशल मीडया पर पहले ही हो चुकी थी। मीडिया चौपाल में ही उन्होंने 'स्मृतियों में रूस' मुझे भेंट की। सुखद आनंद की अनुभूति हुई क्योंकि पुस्तक की रोचकता के बारे में अलग-अगल ब्लॉग पर समीक्षाएं पढ़ चुका था और पुस्तक को पढऩे की तीव्र इच्छा थी। 
        रूस और भारत के बीच बेहद करीबी रिश्ते रहे हैं। अब भी दोनों देश दोस्त हैं। भारतीय जनता और रशियन आवाम में एक-दूसरे के लिए प्रेम और सम्मान है। रूस में भारत के सिनेमा को खूब पसंद किया जाता है। यह तो मालूम था लेकिन इतना नहीं पता कि रूस के अधिकतर घरों में 'मेरा जूता है जापानी' और 'आई एम ए डिस्को डांसर' बजा करता था। सिनेमा हॉल में मिथुन चक्रवर्ती और अमिताभ बच्चन की कोई न कोई फिल्म का प्रदर्शित होते रहना। शिखा किताब के आखिरी हिस्से में लिखती भी हैं कि न जाने कितनी बार सिर्फ भारतीय होने के कारण टैक्सी वालों ने उनसे किराया नहीं लिया।
         शिखा वार्ष्णेय की लेखन शैली इतनी धाराप्रवाह है कि किताब पढ़ते समय अंतरमन में एक-एक कर सारे दृश्य दीख पड़ते हैं। मास्को से वेरोनिश की ट्रेन यात्रा, वोरोनिश रेलवे स्टेशन,  मास्को यूनिवर्सिटी की भव्य इमारत, सड़कों पर जमी बर्फ, खूबसूरत मॉस्को मेट्रो स्टेशन, क्रेमलिन, मक्सिम गोर्की और पुश्किन का घर। पुस्तक में इनके चित्र भी प्रकाशित किए गए हैं। हालांकि किताब में इनका सतही वर्णन है। दरअसल, किताब पर्यटक के नजरिए से लिखी भी नहीं है। यह तो एक मस्तमौला विद्यार्थी के संघर्ष के सुहावने पलों का दस्तावेज है। रूस के खान-पान, रहन-सहन और लोगों के व्यवहार को समझने में किताब बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। ठंड का तो बड़ा ही रोचक वर्णन है। रूस में १० महीने ठंड पड़ती है। ठंड इतनी कि खिड़की के बाहर थैला लटकाकर उससे डीप फ्रीजर का काम लिया जा सकता है। झील, तालाब सब जम जाते हैं और सड़कों पर सफेद मखमली चादर की तरह बर्फ फैल जाती है। जिस पर रूसी बच्चे जमकर आइस स्केटिंग करते हैं। रूस की राजनीतिक और आर्थिक तस्वीर दिखाने के साथ-साथ शिखा वाष्र्णेय वहां के सामाजिक जीवन का भी शब्द चित्र खींचती हैं। रूस में परिवार व्यवस्था पुरुष प्रधान है। हालांकि वहां की औरतें मर्दों की तुलना में अधिक मेहनती हैं। जिस तरह भारत में लड़कियों के खिड़की और छज्जों पर बैठने पर घर की बुजुर्ग महिलाएं व पुरुष टोक दिया करते हैं वैसे ही रूस में लड़की को खिड़की के आसपास बैठा देख कोई न कोई महिला टोक दिया करती हैं। हिदायत दी जाती है कि लड़कियों को खिड़की पर नहीं बैठना चाहिए। लोग नियमों को स्वत: पालन करते हैं। सड़कें साफ-सुथरी हैं। चॉकलेट का रैपर भी रूसी नागरिक सड़क पर नहीं फेंकते हैं। अंधविश्वास भी बहुत है रूसियों में। आत्माएं बुलाने और उनसे अपना भविष्य जानने का बहुत प्रचलन है।
कुछ मजेदार और रोचक बातें :
- चाय को रूस में चाय ही कहते हैं। वहां जाओ और चाय मांगनी हो तो कहिएगा चाय दे दे मेरी मां/बाप!
- वहां कद्दू के आकार का पत्तागोभी और सेव मिलता है।
- रूस में स्कूलों के नाम नहीं नंबर होते हैं। खास और जरूरी बात है कि वहां बच्चे अपने ही इलाके के स्कूल में पढ़ते हैं।
- अधिकतर रूसियों की बत्तीसी में कम से कम एक दांत तो सोने या चांदी का होता ही है।
- क्रिसमस २५ दिसंबर को नहीं बल्कि ७ जनवरी को मनाया जाता है।
- अंधविश्वास : खाना बनाते समय चाकू गिर गया तो पति भन्नाया हुआ घर आएगा। काली बिल्ली का रास्ता काटना शुभ माना जाता है।
दो शब्द अलग से : जैसा कि मैंने बताया कि यह किताब मुझे अगस्त २०१२ में शिखा वार्ष्णेय ने भेंट की। इसको पढऩे की इच्छा पहले से थी। लेकिन, किताब हाथ आने के बाद से छह माह बाद मैं इसे पढ़ सका। शिखा जी का लेखन इतना रसदार है कि एक बैठक में ही 'स्मृतियों में रूस' को पढ़ गया। सलिल वर्मा, अनूप शुक्ल, संगीता स्वरूप, मनोज कुमार, वन्दना अवस्थी दुबे सहित कई वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी पुस्तक के विषय में बढिय़ा टिप्पणी की है।
मक्सिम गोर्की टाउन और शिखा वार्ष्णेय अपने दोस्तों के साथ रूस में
पुस्तक : स्मृतियों में रूस
मूल्य : ३०० रुपए (सजिल्द)
लेखक : शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स
एक्स-३०, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-२, नईदिल्ली-११००२०