मंगलवार, 25 जून 2019

बेटी के लिए कविता-7

मैं भी जाऊंगी स्कूल

इक स्वप्न था
तुम्हारी आँखों में उस रात
सोते समय
कहानी नहीं सुनी तुमने
कंधे पर टिका कर सिर
सोने की ज़िद भी नहीं की तुमने
प्यार से बालों में
अंगुलियां फिराने की चाह भी
कहाँ की तुमने।
उस रात, उस समय
नींद की गोद में जाने से पहले
इक भरोसा, इक वायदा
चाहती थी तुम।
रख कर मेरी बड़ी हथेली पर
अपना नन्हा-सा हाथ
आश्वस्त होकर
कही अपने मन की बात
ख्वाब को कर दिया बयां
पिताजी,
मैं भी जाऊंगी स्कूल।
तैर गई
एक हल्की मुस्कान
मेरे चेहरे पर
हौले से थपकी दी मैंने
और तुम समझ गईं
अगली भोर में
इक नयी सुबह
इक नया सूरज आएगा।

- लोकेन्द्र सिंह 

सोमवार, 17 जून 2019

संत कबीर की तपस्थली 'कबीर चबूतरा'

अमरकंटक की पहली पहचान माँ नर्मदा नदी के उद्गम और वन्यप्रदेश के रूप में है। लेकिन, यह सामाजिक आंदोलन के प्रख्यात संत कबीर महाराज की तपस्थली भी है। अमरकंटक में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित कबीर चबूतरा वह स्थान है, जहाँ कबीर की उपस्थिति को आज भी अनुभव किया जा सकता है। कबीर ऐसे संत हैं जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर बिना किसी भेदभाव के चोट कर समाज को बेहतर बनाने का प्रयास किया। कबीर आज के विद्वानों की तरह संप्रदाय और जाति के आधार पर घटनाओं/परंपराओं/समस्याओं को चीन्ह-चीन्ह कर आलोचना नहीं करते थे। जब वह मूर्तिपूजक हिंदुओं की आलोचना में कहते हैं कि 'पाथर पूजे हरि मिलें तो मैं पूजू पहाड़, याते चाकी भली पीस खाये संसार' तब वह निराकार को पूजने वाले मुस्लिम समाज को भी आड़े हाथ लेते हुए कहने से चूकते नहीं हैं- 'कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय, ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।' सबको समान दृष्टि से देखने वाले ऐसे संत कबीर की तपस्थली होने के कारण कबीर चबूतरा का अपना महत्त्व है। यह केवल धार्मिक पर्यटन का प्रमुख स्थल मात्र नहीं है, बल्कि कबीर के नजदीक जाने की भी जगह है। यहाँ प्रकृति भी हमें कबीर के अहसास से मिलाने में भरपूर सहयोग करती है। कबीर चबूचरे पर आच्छादित घने साल के वृक्षों की सरसराहट, पक्षियों की आवाजें और कबीर कुण्ड से प्रवाहित जल धार, मानो सब के सब सुबह-सबरे कबीर के दोहे गुनगुनाते हैं। इसलिए यहाँ आने पर हमें कबीरत्व को आत्मसात करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। अगर हम सफल हो गए तो निश्चय जानिए कि हमारे जीवन को एक नई दिशा मिलेगी- समाज जीवन की दिशा। आप सुंदर समाज बनाने की प्रक्रिया का उपकरण बनने के लिए लालायित हो उठेंगे।
           प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध इस स्थान पर महान गुरुओं की वाणी की सुवास भी हम महसूस कर सकते हैं। यह मिलन का अद्भुत स्थान है। यहाँ दो प्रदेशों का मिलन होता है। प्रकृति और दर्शन भी यहाँ एकसाथ उपस्थित होते हैं। लौकिक और अलौकिक विमर्श का स्थान भी यही है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दो पंथों (कबीरपंथ और सिख पंथ) के प्रणेताओं संत कबीरदास और गुरु नानकदेव महाराज का मिलन भी सात्विक ऊर्जा से सम्पन्न इसी स्थान पर हुआ। लगभग 500 वर्ष पूर्व न केवल दो दिव्य आत्माओं का मिलन हुआ, बल्कि उन्होंने समाज की उन्नति के लिए यहाँ एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर विमर्श भी किया। निश्चित ही दोनों भविष्यद्रताओं ने समानतामूलक समाज के निर्माण पर विमर्श किया होगा। चूँकि दोनों ही गुरु ऐसे समाज का सपना लेकर आजीवन चले, जिसमें धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरता, कटुता, वैमनस्य, जात-पांत का भेद, ऊंच-नीच, असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है। दोनों महापुरुषों की चिंतन के साक्षी के तौर पर वह वटवृक्ष अब भी यहाँ उपस्थित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बूढ़ा वटवृक्ष दोनों महान संतों का संदेश सुनाने के लिए अब तक यहाँ खड़ा है।  
कबीर वटवृक्ष : कबीर महाराज और गुरु नानकदेव के मिलन एवं सत्संग का स्थल
          वर्ष 1569 में जब सदगुरु कबीरदास जी महाराज जगन्ननाथ पुरी के लिए जा रहे थे, तब वह अमरकंटक में इस स्थान पर रुके। परंतु, उन्हें यह स्थान इतना अधिक अच्छा लगा कि कुछ समय के लिए यहीं ठहर गए। यहाँ ध्यान-साधना की और अपने शिष्यों को उपदेश दिया था। कबीर साहेब के मुख्य शिष्य धर्मदास महाराज नित्य यहीं अपने सद्गुरु के सम्मुख बैठकर उनसे पाथेय प्राप्त करते थे। सद्गुरु कबीर महाराज के सत्यलोक गमन के बाद कबीरपंथ के प्रचार की जिम्मेदारी धर्मदास महाराज ने ही संभाली थी। धर्मदास जी मध्यप्रदेश के ही बांधवगढ़ के निवासी थे। प्रारंभ से ही संत-संगति में उनका मन लगता था। सद्गुरु कबीर महाराज से उनकी पहली भेंट मथुरा में हुई थी। उसके बाद संत कबीरदास जी से दूसरा साक्षात्कार मोक्ष की नगरी काशी में हुआ। धर्मदास जी शुरुआत में कट्टर मूर्तिपूजक थे, लेकिन सद्गुरु कबीरदास जी के प्रवचन सुनकर उन्होंने निर्गुण भक्ति को अपना लिया। बहरहाल, कबीर चबूतरा में स्थित कबीर कुटी सद्गुरु कबीर धरमदास साहब वंशावली प्रतिनिधि सभा दामाखेड़ा जिला बलौदा बाजार के अधीनस्थ लगभग 500 साल पुराना आश्रम है। यहां की व्यवस्था कबीर के वंशज और गद्दी दामाखेड़ा के आचार्य द्वारा नियुक्त महंत ही करते हैं। कबीरपंथियों के लिए इस स्थान का विशेष महत्त्व है।
          नर्मदा उद्गम स्थल से कबीर चबूतरा की दूरी तकरीबन पाँच किलोमीटर है। अमरकंटक आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु और पर्यटक कबीर चबूतरा जरूर आते हैं। यहाँ प्रमुख स्थल हैं- कबीर कुटी, कबीर कुण्ड, कबीर चबूतरा और कबीर वटवृक्ष। कबीर कुटी अब एक तरह से कबीर मंदिर है। कबीर चबूतरा वही स्थान है, जहाँ सद्गुरु अपने शिष्यों को उपदेश देते थे। कबीर चबूतरा के पास ही कबीर वटवृक्ष है, जहाँ संत कबीरदास और गुरु नानकदेव महाराज के बीच अध्यात्म पर चर्चा हुई। यहाँ एक कुण्ड भी है। इस कबीर कुण्ड की विशेषता यह है कि प्रात:काल इसका पानी दूधिया हो जाता है। कुण्ड में दूधिया पानी की महीन धाराएं निकलती हैं, जिसके कारण कुण्ड का पूरा जल दूधिया हो जाता है। इन धाराओं को देखने के लिए सुबह छह बजे के आसपास हमें यहाँ पहुँचना होता है। आश्रम में रहने वालों के लिए यह कुण्ड ही मुख्य जलस्रोत है।
          अपने अमरकंटक प्रवास के दौरान 1 जून 2017 को पहली बार मैं यहाँ पहुँचा। पहले ही अनुभव में प्राकृतिक-नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर इस स्थान ने अमिट छाप मन पर छोड़ दी। अच्छी बात यह है कि यहाँ अभी तक बाजार की पहुँच नहीं हुई है। इसलिए यह तीर्थ-स्थल अपने मूल को बचाए हुए है। यहाँ के वातावरण में अब तक गूँज रहे कबीर के संदेश को अनुभूत करने के लिए लगभग तीन-चार घंटे तक यहाँ रहा। यकीन मानिये, माँ नर्मदा के तट पर बैठना और यहाँ कबीरीय वातावरण में बैठना, अमरकंटक प्रवास के सबसे सुखकर अनुभव रहे। उस समय आश्रम में रह रहे कंबीरपंथी संन्यासी रुद्रदास के पास बैठकर कबीर वाणी सुनी-
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥
अर्थात् कबीर कहते हैं- 'प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पड़ा, जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस-पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया, खुश हाल हो गया, यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है। हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते।' यकीनन, कबीर की वाणी हमारी अंतरात्मा को भिगो देती है। कबीर चबूतरा से जब लौटे तो लगा कि कबीर प्रेम गहरे पैठ गया है। अंतर्मन एक अल्हदा अहसास में डूबा हुआ है।
कबीर चबूतरा : कबीर की तपस्थली, इसी स्थान पर उन्होंने धर्मदास महाराज को उपदेश दिए थे

रविवार, 16 जून 2019

पिता का साथ

पिता का साथ
दम भर देता है
सीने में
पकड़कर उसका हाथ
कोई मुश्किल नहीं होती
जीने में।

पिता के कंधे चढ़कर
सूरज को भींच सकता हूं
मुट्ठी में
उसकी मौजूदगी संबल देती है
पहाड़ों से भी टकरा सकता हूं
रास्तों में।

पिता पेड़ है बरगद का
सुकून मिलता है उसकी
छांव में
मुसीबत की भले बारिश हो
कोई डर नहीं, वो छत है
घर में।
- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)


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शुक्रवार, 14 जून 2019

अभिव्यक्ति की सीमाएं याद दिलाने का समय


'अभिव्यक्ति की आजादी' पर एक बार फिर देशभर में विमर्श प्रारंभ हो गया है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर विवादित टिप्पणी करने और वीडियो शेयर करने के मामले में एक स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी से यह बहस प्रारंभ हुई है। इस बहस में एक जरूरी पक्ष 'अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं एवं मर्यादा' पर तथाकथित प्रगतिशीलों को छोड़कर हर कोई बात कर रहा है। प्रशांत 'द वायर' जैसी प्रोपोगंडा वेबसाइट के लिए काम कर चुके हैं। जब पत्रकारों ने प्रशांत के फेसबुक और ट्वीटर पेज देखे, तब ज्यादातर की राय यही थी कि वह एक पत्रकार की भूमिका में काम नहीं कर रहा। उसकी ज्यादातर टिप्पणियां आपत्तिजनक और पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। पत्रकार की भूमिका निष्पक्ष होकर सत्य को समाज के सामने लाने की होती है, न कि अफवाहों को फैलाना। प्रशांत अकसर मोदी सरकार, हिंदू समाज एवं हिंदू संगठनों के संबंध में भ्रामक जानकारियां अपने सोशल मीडिया मंचों से जारी करता रहा है। यह सब जानने के बाद भी उदारता दिखाते हुए पत्रकारों ने कहा कि प्रशांत की टिप्पणियां सही नहीं हैं, लेकिन उत्तरप्रदेश पुलिस को उसे गिरफ्तार नहीं करना चाहिए था। जब सर्वोच्च न्यायालय में यह प्रकरण पहुँचा तब वहाँ भी माननीय न्यायमूर्तियों ने इसी तरह की टिप्पणी की- 'हम पत्रकार के ट्वीट की सराहना नहीं करते लेकिन उनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकती।'
            सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की याद दिलाई और कहा कि लोगों की आजादी से कोई समझौता संभव नहीं है। यह संविधान की ओर से दिया गया अधिकार है जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। अब यहाँ एक संकट खड़ा हो जाता है कि क्या संविधान किसी को अभिव्यक्ति की इतनी अधिक आजादी देता है कि वह किसी के चरित्र की हत्या कर दे? क्या किसी का मान-मर्दन करना अभिव्यक्ति की आजादी है? हम भूल जाते हैं कि संविधान के जिस अनुच्छेद 19(1) में हमें अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार दिया गया है, उसी संविधान के अनुच्छेद 19(2) में उस पर युक्ति-युक्त प्रतिबंध लगाया गया है। संविधान निर्माता जानते थे कि मनुष्य अधिकार पाकर अमर्यादित व्यवहार कर सकता है, जो राष्ट्रीय और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। किसी व्यक्ति की गरिमा का हनन करने की स्वतंत्रता भारतीय संविधान नहीं देता है। इसलिए ही संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 19(2) में इस बात की व्यवस्था कर दी कि वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहाँ तक है। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय को इस बात का समाधान भी देना चाहिए कि आखिर अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग कैसे रोका जाए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपने विरोधी की प्रतिष्ठा और उसकी छवि को बिगाडऩे वाले लोगों को कैसे सबक सिखाया जाए?
            यह आश्चर्यजनक नहीं है, बल्कि स्वाभाविक ही है कि एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्था प्रशांत के समर्थन में खड़ी हो गई है। क्या सिर्फ इसलिए किसी का पक्ष लेना चाहिए कि वह हमपेशे से जुड़ा हुआ है? इस तरह फिर 'गलत को गलत कहने' के पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत का क्या होगा? क्या एडिटर्स गिल्ड को एक खुला पत्र प्रशांत कनौजिया जैसे पत्रकारों के नाम नहीं लिखना चाहिए, जो पत्रकारिता के सिद्धांतों को तार-तार कर रहे हैं? एडिटर्स गिल्ड को इस समय पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं बतानी चाहिए थीं, जो उसने नहीं किया।
            यह भी देखने में आया है कि विशेष प्रकरणों में ही इस प्रकार की संस्थाएं और तथाकथित बुद्धिजीवी सक्रिय दिखाई देते हैं। चूँकि मामला भाजपा शासित राज्य और भाजपा के मुख्यमंत्री से जुड़ा हुआ है, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर बहस हो रही है। जबकि केरल में कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पिनरई विजयन और एलडीएफ के दूसरे नेताओं के खिलाफ टिप्पणी के चलते लगभग 138 प्रकरण दर्ज किए गए हैं। किंतु, अभी तक एक भी प्रकरण पर आपत्ति या राष्ट्रव्यापी विरोध दर्ज नहीं कराया गया है। एक ही प्रकार के मामलों में यह अलग-अलग रवैया भी आपत्तिजनक है। एक प्रकार के विरोध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित और अनियंत्रित चाहिए और दूसरे प्रकार के विरोध में यह मर्यादित होनी चाहिए। यह दोहरी व्यवस्था क्यों हो? वास्तव में होना यह चाहिए कि संविधान के अनुरूप ही अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग हो। यह उपयुक्त समय है कि प्रशांत कनौजिया के प्रकरण से शुरू हुई बहस में जिम्मेदार संस्थाएं और व्यक्ति अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं तय करें। अन्यथा यह मौलिक अधिकार विद्रूप हो जाएगा।

गुरुवार, 6 जून 2019

समाजवादी चिन्तक श्री रघु ठाकुर से भेंट


डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात किए हुए प्रख्यात गांधीवादी एवं समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर जी का सान्निध्य (संत संगति) लंबे अरसे बाद प्राप्त हुआ। इस अवसर पर उनसे "समाजवाद और डॉ. लोहिया के विचारों" पर महत्वपूर्ण साहित्य प्राप्त किया। अपनी पुस्तक 'हम असहिष्णु लोग भी उन्हें भेंट दी। मेरी एक पुस्तक 'देश कठपुतलियों के हाथ में' का विमोचन आप ही के हाथों हुआ था।
            श्री रघु ठाकुर देश में समतामूलक समाज की संरचना हेतु समर्पित हैं। उनको मैं राजनीति का संत मानता हूं। अपने लक्ष्य के लिए वे लगातार प्रवास करते रहते हैं। समाज से सतत संवाद।जीवन एकदम सरल सादगी से भरपूर और प्रेरक है। उनके साथ बैठ जाओ तो समय का पता ही नहीं चलता। उनसे ढेर सारी बातें करना यानी खुद को अपडेट करना, जैसे किसी महत्वपूर्ण पुस्तक का अध्ययन करना। इस मुलाकात में उनसे वर्तमान राजनीतिक प्रसंग, सन्दर्भ और परिदृश्य पर चर्चा हुई। समाज में समानता का भाव और आत्मीय भाव कैसे लाया जा सकते हैं, इस बारे में भी विमर्श हुआ। 
            वे सदैव लिखते-पढ़ते रहते हैं। राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में विचारोत्तेजक लेखों के रूप में उनकी सक्रिय उपस्थिति रहती है। श्री ठाकुर "दुखियावाणी" मासिक पत्र का संपादन कर रहे हैं। वे डॉ. लोहिया द्वारा प्रकाशित 'जन' एवं 'मैन काइंड' में लेखन कार्य तथा श्री जार्ज फर्नाडिज के द्वारा प्रकाशित 'प्रतिपक्ष' एवं 'द अदर साइड' के संपादन से भी जुड़े रहे हैं। आप दक्षेस महासंघ के अध्यक्ष तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक हैं।