बुधवार, 27 अगस्त 2025

झंडे की आड़ में रचे गए झूठ के षड्यंत्र की परते हटाई

 पुस्तक समीक्षा: ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’


- रोहन गिरी 

“एक ध्वज का मान रखना, दूसरे ध्वज का निरादर कतई नहीं है”। यही वाक्य, लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ का केंद्रीय भाव है, जो उस ऐतिहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक द्वंद्व का प्रकटीकरण करता है, जिसे दशकों से एक सोची-समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत के राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ के संबंध में गढ़ा गया। यह पुस्तक केवल तथ्यों का संकलन नहीं है, यह एक वैचारिक और ऐतिहासिक न्याय है उन झूठों और मिथकों के विरुद्ध जिन्हें स्थापित करने का काम वामपंथी बौद्धिक वर्ग ने स्वतंत्रता के बाद से किया है।

मिथक बनाम वास्तविकता: एक नरेटिव का विखंडन

आरएसएस और तिरंगे को लेकर सबसे बड़ा मिथक यही फैलाया गया कि संघ तिरंगे को सम्मान नहीं देता क्योंकि वह केवल भगवा ध्वज को ही पूजनीय मानता है। लेकिन लेखक ने इस भ्रांति को तथ्यों के दम पर चुनौती दी है और यह स्पष्ट किया है कि भगवा ध्वज भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि है, वहीं तिरंगा संवैधानिक राष्ट्रध्वज है और दोनों का स्थान अपनी-अपनी जगह सम्माननीय है।

पुस्तक इस महत्वपूर्ण बिंदु को उभारती है कि “प्रेम एक ध्वज से हो सकता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे से बैर है।” इस बात को सुदृढ़ करने के लिए लेखक उन संगठनों और दलों की पोल खोलते हैं जो स्वयं तिरंगे को अपने संगठनिक ध्वज से पृथक रखते आए हैं, लेकिन संघ पर तिरंगे का अनादर करने का झूठा आरोप लगाते हैं। विशेषकर कम्युनिस्ट पार्टियों का उल्लेख है जो दशकों तक अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराती है। यह उजागर करता है कि असल समस्या संघ नहीं, बल्कि उन संस्थाओं की है जिनका भारतीय राष्ट्रवाद से कोई भावनात्मक संबंध नहीं रहा।

ध्वज का इतिहास: खोया हुआ विमर्श

पुस्तक ध्वज-निर्माण के इतिहास में गहराई से उतरती है। लेखक बताते हैं कि पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक ध्वज लाल और हरे रंगों का था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक दबावों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया। ध्वज समिति द्वारा व्यापक सुझाव लेकर सर्वसम्मति से केसरिया ध्वज की अनुशंसा की गई, जिसमें नीले रंग का चरखा था। यह वह क्षण था जब भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों को एक सार्वभौमिक प्रतीक में ढालने का प्रयास हुआ था।

विडंबना यह रही कि यह ऐतिहासिक अवसर भी राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ गया। बंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने राष्ट्रध्वज समिति के निर्णय को नकारते हुए तिरंगे को ही ध्वज रूप में स्वीकार किया। यह निर्णय ऐतिहासिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था जिसका असर यह हुआ कि भगवा रंग, जो भारत के ऋषि-परंपरा का प्रतीक था, एक संगठन विशेष से जोड़कर विवादित कर दिया गया।

संघ और तिरंगा: सेवा, समर्पण और साहस

लेखक इस भ्रम को भी तोड़ते हैं कि संघ ने तिरंगे को कभी महत्व नहीं दिया। वे ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं – जैसे 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान तेजपुर (असम) में जब सरकारी तंत्र भी मैदान छोड़ चुका था, तब संघ के 16 स्वयंसेवकों ने तिरंगे को आयुक्त मुख्यालय पर फहराए रखा। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि गहरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण था। ऐसे ही गोवा, दमन और दादरा-नगर हवेली की मुक्ति में संघ की भूमिका, जहाँ तिरंगे के सामने पुर्तगाली झंडा चुनौती था। यह दर्शाता है कि संघ के लिए तिरंगा केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि भारतीय स्वाधीनता और संप्रभुता का प्रतीक रहा है।

संस्थागत दृष्टिकोण और विचारधारा

गुरुजी गोलवलकर का 1949 का पत्र पुस्तक में एक निर्णायक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसमें वे स्पष्ट करते हैं कि भगवा ध्वज का आरएसएस के संस्थागत प्रतीक के रूप में प्रयोग संविधान द्वारा मान्य तिरंगे से अलग है। कांग्रेस का भी अलग झंडा रहा है, फिर संघ का प्रतीक-ध्वज अस्वीकार्य क्यों? यह सवाल पाठक को मजबूर करता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर संघ की आलोचना करने वाले स्वयं किस पाखंड के तहत कार्य कर रहे हैं?

वैचारिक धोखे और मीडिया प्रपंच

पुस्तक का सबसे सशक्त भाग वह है जिसमें लेखक यह उजागर करते हैं कि संघ को तिरंगे विरोधी बताने की साजिश के पीछे वामपंथी विचारधारा से पोषित व्यक्ति और संस्थान रहे हैं। उन्होंने ही यह नैरेटिव गढ़ा कि तिरंगा आधुनिक, संवैधानिक भारत का प्रतीक है और संघ केवल पुरातनवाद का प्रतीक है। लेकिन क्या यह तथ्य नहीं कि जिन वामपंथियों ने “ये आज़ादी झूठी है” जैसा नारा दिया, जिन्होंने दशकों तक राष्ट्रीय पर्वों से दूरी बनाई, वे ही आज तिरंगे के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं?

पुस्तक इस विडंबना को रेखांकित करती है और यह बताती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सच्चा संबंध केवल दिखावे से नहीं, सेवा, समर्पण और निष्ठा से बनता है, जो संघ ने हर मौके पर साबित किया है।

निष्कर्ष: एक वैचारिक सर्जरी

“राष्ट्रध्वज और आरएसएस” केवल एक इतिहास की पुनर्पाठ नहीं है, यह एक वैचारिक सर्जरी है। यह पुस्तक उस प्रपंच को उजागर करती है जिसमें तिरंगे के नाम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपमानित किया गया। यह पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर झंडे का अपमान किसने किया? जिन्होंने उसे सहेजा और सेवा में जीवन समर्पित किया, या जिन्होंने दशकों तक उसे अपने दफ्तरों से गायब रखा? 

लेखक लोकेन्द्र सिंह की यह पुस्तक इतिहास के उस कोने को प्रकाश में लाती है जिसे जानबूझकर अंधकार में रखा गया। यह केवल संघ और तिरंगे की बात नहीं करती, यह भारतीय राष्ट्रवाद की उस लड़ाई का प्रतिनिधित्व करती है जो प्रतीकों, झंडों और विचारों के माध्यम से लड़ी जा रही है।

और अंततः यह पुस्तक पाठक के सामने एक सीधा प्रश्न रखती है, क्या राष्ट्रध्वज का मान केवल सरकारों का दायित्व है या समाज के प्रत्येक उस हिस्से का जिसने इसे अपने जीवन की आस्था बनाया है?

समीक्षा का सार बस यही है कि यदि आप तिरंगे से प्रेम करते हैं, तो उन हाथों को पहचानिए जिन्होंने इसे केवल फहराया नहीं, बल्कि हर तूफान में इसे संभाला भी है। यही संदेश है “राष्ट्रध्वज और आरएसएस” का जो मिथकों का ही नहीं, सच्चाई का ध्वजवाहक है।

(समीक्षक स्वतंत्र पत्रकार है।) 


पुस्तक : राष्ट्रध्वज और आरएसएस

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 70 रुपये

प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन, भोपाल

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