रविवार, 14 अप्रैल 2024

भाषा के प्रति अंबेडकर का राष्ट्रीय दृष्टिकोण

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और उनकी पत्रकारिता

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए भाषा का प्रश्न भी राष्ट्रीय महत्व का था। उनकी मातृभाषा मराठी थी। अपनी मातृभाषा पर उनका जितना अधिकार था, वैसा ही अधिकार अंग्रेजी पर भी था। इसके अलावा बाबा साहेब संस्कृत, हिंदी, पर्शियन, पाली, गुजराती, जर्मन, फारसी और फ्रेंच भाषाओं के भी विद्वान थे। मराठी भाषी होने के बाद भी बाबा साहेब जब राष्ट्रीय भाषा के संबंध में विचार करते थे, तब वे सहज ही हिन्दी और संस्कृत के समर्थन में खड़े हो जाते थे। महाराष्ट्र के अस्पृश्य बंधुओं से संवाद करना था, तब उन्होंने मराठी भाषा में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया। जबकि उस समय के ज्यादातर बड़े नेता अपने समाचारपत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर रहे थे। बाबा साहेब भी अंग्रेजी में समाचारपत्र प्रकाशित कर सकते थे, अंग्रेजी में उनकी अद्भुत दक्षता थी। परंतु, भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान और अपने लोगों से अपनी भाषा में संवाद करने के विचार ने उन्हें मराठी में समाचारपत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया होगा। यदि बाबा साहेब ने अंग्रेजी में समाचारपत्रों का प्रकाशन किया होता, तब संभव है कि वे वर्षों से ‘मूक’ समाज के ‘नायक’ न बन पाते और न ही उनके हृदय में स्वाभिमान का भाव जगा पाते। वहीं, जब उनके सामने राष्ट्रभाषा का प्रश्न आया, तब उन्होंने अपनी मातृभाषा की ओर नहीं देखा, वे भाषा के प्रश्न पर भावुक नहीं हुए, बल्कि तार्किकता के साथ उन्होंने हिन्दी और संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा।   

संविधान निर्माण के समय जब राष्ट्रभाषा और राज्य व्यवहार की अधिकृत भाषा का विषय आया, तब संविधान सभा में बाबा साहेब ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस प्रस्ताव के समर्थन में लक्ष्मीकान्त मैत्र, टी. टी. कृष्णमाचारी, डॉ. बालकृष्ण केसकर (तत्कालीन विदेश उपमन्त्री), प्रा. नजीरुद्दीन अहमद, डॉ. अम्बेडकर तथा मद्रास-त्रिपुरा-मणिपुर-कुर्ग प्रान्तों के सदस्य थे। प्रा. नजीरुद्दीन अहमद ने संस्कृत का समर्थन करते हुए इस प्रस्ताव को सदन के पटल पर रखा और कहा कि एक ऐसे देश में जहां ढेरों भाषाएं बोली जाती हैं, वहां यदि एक भाषा को पूरे देश की भाषा बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि वह निष्पक्ष हो। उन्होंने पश्चिमी विद्वानों के उद्धरण देकर भी संस्कृत भाषा की अतुलनीय समृद्धि एवं शुद्धता को भी प्रमाणित किया। संस्कृत प्रा. शाहिदुल्ला ने तो यहाँ तक कहा कि व्यक्ति किसी भी वंश का हो, संस्कृत प्रत्येक की भाषा है। लक्ष्मीकान्त मैत्र ने कहा कि संस्कृत को मान्यता देकर जग को यह बता सकेंगे कि हम अपने प्राचीन वैभव का कितना आदर करते हैं। संस्कृत को स्वीकार कर हम भावी पीढ़ी का उज्ज्वल भविष्य निर्माण कर सकते हैं। परंतु, दुर्भाग्य यह कि डॉ. अम्बेडकर द्वारा संस्कृत भाषा के विषय में सुझाये गये संशोधन को स्वीकार नहीं किया गया। संविधान की आठवीं अनुसूची में उसे मात्र एक भारतीय भाषा का स्थान दिया गया। 

इस सन्दर्भ में एक ओर प्रसंग है। राष्ट्रभाषा पर केन्द्रीय कक्ष में विविध समूहों में चर्चा चल रही थी, तब लोगों को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि चर्चा के समय डॉ. अम्बेडकर एवं लक्ष्मीकान्त मैत्र आपस में त्रुटिहीन संस्कृत में चर्चा कर रहे थे। डॉ. अम्बेडकर की इच्छा थी कि संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में शे. का. फेडरेशन के कार्यकारी मण्डल में 10 सितम्बर, 1949 को प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए, परन्तु बी. पी. मौर्य जैसे कुछ तरुण सदस्यों के विरोध के कारण वह सम्भव न हो सका। राष्ट्रभाषा के संबंध में पत्रकारों ने बाबा साहेब से पूछा कि आप संस्कृत का समर्थन क्यों कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा- “संस्कृत में क्या दोष है?” 

संस्कृत के अलावा बाबा साहेब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राज्य के व्यवहार की भाषा बनाने के लिए प्रयास किया। इस संबंध में 2 जून, 1956 को प्रकाशित ‘जनता’ के अंक में उनके विचारों को प्रकाशित किया गया है। बाबा साहेब को चिंता थी कि कहीं भाषा के आधार पर बने राज्य एक-दूसरे के विरुद्ध न खड़े हो जाएं? आधुनिक भारत के निर्माण की जगह कहीं मध्ययुगीन भारत न बन जाए? इस स्थिति से बचने के लिए बाबा साहेब ने हिन्दी को राज्य भाषा बनाने का सुझाव दिया। बाबा साहेब लिखते हैं- “संविधान में यह व्यवस्था रखी जाए कि क्षेत्रीय भाषा किसी भी राज्य की राजभाषा नहीं होगी। राज्य की राजभाषा हिन्दी रहेगी”। भाषा को देश की एकजुटता का साधन बताते हुए बाबा साहेब आगे लिखते हैं- “एक भाषा जनता को एकसूत्र में बांध सकती है। दो भाषाएं निश्चित ही जनता में फूट डाल देंगी। यह एक अटल नियम है। भाषा, संस्कृति की संजीवनी होती है। चूँकि भारतवासी एकता चाहते हैं और एक समान संस्कृति विकसित करने के इच्छुक हैं, इसलिए सभी भारतीयों का यह भारी कर्तव्य है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा के रूप में अपनाएं”। 

पुनरुत्थान विद्यापीठ से प्रकाशित लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘डॉ. भीमराव अम्बेडकर : पत्रकारिता एवं विचार’

यह तथ्य आज भी प्रमाणित है कि भारत में भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय एकात्मता हिन्दी द्वारा ही संभव है। बाबा साहेब ने तो यहाँ तक कर दिया था कि जो भी भाषा पर मेरे इस प्रस्ताव को नहीं स्वीकार करता, उसे भारतीय कहलाने का अधिकार नहीं। वह शत-प्रतिशत महाराष्ट्रीयन, शत-प्रतिशत तमिल या शत-प्रतिशत गुजराती तो हो सकता है, किंतु वह सही अर्थ में भारतीय नहीं हो सकता, चाहे भौगोलिक अर्थ में भारतीय हो। जब संविधान सभा में राष्ट्रभाषा के लिए हिन्दी का प्रस्ताव आया तो कांग्रेस पार्टी के नेता दो समूहों में बँट गए। एक, हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्ष में था वहीं दूसरा समूह हिन्दी का विरोध कर रहा था। भाषा के विषय को लेकर संविधान सभा में सर्वाधिक विमर्श हुआ।

बाबा साहेब भाषा के प्रश्न को केवल भावुकता की दृष्टि से नहीं देखते थे। बल्कि उनके लिए भाषा को देखने का राष्ट्रीय दृष्टिकोण था। संस्कृत हो या फिर हिन्दी, दोनों भाषाओं के प्रति उनकी धारणा थी कि ये भाषाएं भारत को एकसूत्र में बांध कर संगठित रख सकती हैं और किसी भी प्रकार के भाषायी विवाद से बचा सकती हैं।

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा

राष्ट्रीय उद्देश्य और आध्यात्मिक अधिष्ठान पर केंद्रित है छत्रपति शिवाजी महाराज का 'हिन्दवी स्वराज्य' : हेमंत मुक्तिबोध

लेखक लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ की चर्चा कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता श्री हेमंत मुक्तिबोध ने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ रामदास ने उस समय के हिंदू समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। याद रखें कि यह सत्ता प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं था। यह भारत के ‘स्व’ को स्थापित करने के लिए किया गया राष्ट्रीय संघर्ष था। उनके संघर्ष का राष्ट्रीय उद्देश्य था और अध्यात्म उसका अधिष्ठान था। इसलिए उस समय के समाज में विश्वास जगा कि यह राजा साधारण नहीं है। ‘हे हिंदवी स्वराज्य व्हावे, ही तर श्रींची इच्छा यात’ शिवाजी महाराज का यह वाक्य विश्व के महान भाषणों से भी बढ़कर है। पुस्तक चर्चा का यह कार्यक्रम विश्व संवाद केंद्र के मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी सभागार में हुआ। इस अवसर पर साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य भारत प्रांत के संघचालक श्री अशोक पांडेय ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

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श्री मुक्तिबोध ने कहा कि लोकेंद्र सिंह ने इस जीवंतता के साथ पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को लिखा है कि हम भी पढ़ते–पढ़ते छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों का भ्रमण करते हैं। एक–एक प्रसंग और घटना का जीवंत वर्णन उन्होंने किया है। यात्रा वृत्तांत में दर्शन की दृष्टि, मन की आंखों और विवेक–बुद्धि के साथ देखते हैं तो कुछ प्रेरणा देनेवाला और सकारात्मक साहित्य का सृजन होता है। लोकेंद्र सिंह ने शिवाजी महाराज के किलों को केवल सामान्य पर्यटक के तौर पर नहीं देखा है, उन्होंने विवेक बुद्धि के साथ दुर्गों का दर्शन किया हैं। उन्होंने कहा कि किलों का महत्व इतना नहीं है, जितना उनमें रहने वालों का महत्व है। शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना में किलों को जीता, संधि में किले हारे और फिर किलों को प्राप्त करने के लिए संधि तोड़ी। पुस्तक में सिंहगढ़ की कथा भी आती है। जिस किले को प्राप्त करने में तानाजी मालूसरे का बलिदान हुआ। अपने साथी के बलिदान पर छत्रपति ने कहा था– “गढ़ आला लेकिन सिंह गेला”।