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शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों और उनसे जुड़े ऐतिहासिक प्रसंगों का रोचक वर्णन ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’

- प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी

लेखक लोकेन्द्र सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कवि, कहानीकार, स्तम्भलेखक होने के साथ ही यात्रा लेखन में भी उनका दखल है। घुमक्कड़ी उनका स्वभाव है। वे जहाँ भी जाते हैं, उस स्थान के अपने अनुभवों के साथ ही उसके ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व से सबको परिचित कराने का प्रयत्न भी वे अपने यात्रा संस्मरणों से करते हैं। अभी हाल ही उनकी एक पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ मंजुल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, जो छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों के भ्रमण पर आधारित है। हालांकि, यह एक यात्रा वृत्तांत है लेकिन मेरी दृष्टि में इसे केवल यात्रा वृत्तांत तक सीमित करना उचित नहीं होगा। यह पुस्तक शिवाजी महाराज के किलों की यात्रा से तो परिचित कराती ही है, उससे कहीं अधिक यह उनके द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ या ‘हिन्दू साम्राज्य’ के दर्शन से भी परिचित कराती है। स्वयं लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “इस यात्रा के कारण शिवाजी महाराज के दुर्गों का ही दर्शन नहीं किया अपितु अपने गौरवशाली इतिहास से जुड़े, जो हमारी पाठ्यपुस्तकों और राष्ट्रीय विमर्श में शामिल ही नहीं रहा। इस यात्रा ने ‘स्वराज्य’ की कल्पना को उस समय में मन में गहरे उतार दिया, जब हम भारत की स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। ‘स्वराज्य’ कैसा होना चाहिए, शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व के अध्ययन से इसको भली प्रकार समझा जा सकता है। हम कह सकत हैं कि श्री शिवछत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा ने हमें ‘स्व’ की अनुभूति करायी और ‘स्व’ की समझ भी बढ़ायी। यह यात्रा अविस्मरणीय है”। उल्लेखनीय है कि शिवाजी महाराज के जीवन में किलों का बहुत महत्व है। हिन्दवी स्वराज्य में लगभग 300 दुर्ग थे। इन दुर्गों को ‘स्वराज्य के प्रतीक’ भी कहा जाता है। स्वराज्य के मजबूत प्रहरी के तौर पर किलों के महत्व को समझकर छत्रपति शिवाजी महाराज नये दुर्गों का निर्माण करने में और पुराने दुर्गों को दुरुस्त करने में महाराज मुक्त हस्त से खर्च करते थे। यही कारण है कि महाराष्ट्र में मुहिम निकालने की परंपरा है, जिसमें यात्रियों के बड़े-बड़े जत्थे शिवाजी महाराज के किलों का दर्शन करने के लिए जाते हैं। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में दुर्गों का महत्व बताते हुए लिखा है- 

“एक: शतं योधयति दुर्गस्थ: अस्त्रधरो यदि।

शतं दशसहस्त्राणि तस्माद् दुर्गं समाश्रयेत्।।”

अर्थात् दुर्ग की सहायता से एक सशस्त्र मनुष्य भी सौ शत्रुओं से लोहा ले सकता है और सौ वीर दस हजार शत्रुओं से लड़ सकते हैं। इसलिए राजा ने दुर्ग का आश्रय लेना चाहिए।

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हम सब जानते हैं कि जिस वक्त शिवाजी महाराज ने स्वराज्य का स्वप्न देखा था, उस समय भारत के अधिकांश भाग पर मुगलिया सल्तनत की छाया थी। गाय, गंगा और गीता, कुछ भी सुरक्षित नहीं था। चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ था। उस दौर में पराक्रमी राजाओं ने भी स्वतंत्र हिन्दू राज्य की कल्पना करना छोड़ दिया था। तब एक वीर किशोर ने अपने आठ-नौ साथियों के साथ महादेव को साक्षी मानकर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की प्रतिज्ञा ली। अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में हिन्दवी स्वराज्य के मावलों का जिस प्रकार का संघर्ष, समर्पण और बलिदान रहा, उसे आज की पीढ़ी को बताना बहुत आवश्यक है। लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक इस उद्देश्य में भी बहुत हद तक सफल होती है। जिस स्थान पर हिन्दवी स्वराज्य की प्रतिज्ञा ली गई, उस स्थान का रोचक वर्णन लेखन ने अपनी पुस्तक में किया है। 

छत्रपति शिवाजी महाराज ने भारत के ‘स्व’ के आधार पर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी। हिन्दवी स्वराज्य में राज व्यवस्था से लेकर न्याय व्यवस्था तक का चिंतन ‘स्व’ के आधार पर किया गया। भाषा का प्रश्न हो या फिर प्रकृति संरक्षण का, सबका आधार ‘स्व’ रहा। इसलिए हिंदवी स्वराज्य के मूल्य एवं व्यवस्थाएं आज भी प्रासंगिक हैं। पुस्तक में विस्तार से इसका वर्णन आया है कि कैसे शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना करने के साथ ही शासन व्यवस्था से अरबी-फारसी के शब्दों को बाहर करके स्वभाषा को बढ़ावा दिया। जल एवं वन संरक्षण की क्या अद्भुत संरचनाएं खड़ी कीं। मुगलों की मुद्रा को बेदखल करके स्वराज्य की अपनी मुद्राएं चलाईं। तोपखाने का महत्व समझकर स्वराज्य की व्यवस्था के अनुकूल तोपों के निर्माण का कार्य आरंभ कराया। समुद्री सीमाओं का महत्व जानकर, नौसेना खड़ी की। पुर्तगालियों एवं फ्रांसिसियों पर निर्भर न रहकर नौसेना के लिए जहाजों एवं नौकाओं के निर्माण के कारखाने स्थापित किए। किसानों की व्यवहारिक आवश्यकताएं एवं मजबूरियों को समझकर कृषि नीति बनायी। इन सब विषयों पर भी लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ में बात की है। 

‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ की यह यात्रा ‘सिंहगढ़’ के रोमांचक वर्णन के साथ शुरू होती है। वैसे तो शिवाजी महाराज का अध्ययन करनेवाले स्वराज्य में सिंहगढ़ दुर्ग के महत्व को जानते हैं लेकिन ‘तानाजी : द अनसंग वॉरियर’ फिल्म के माध्यम से इसका लोकव्यापीकरण हो गया। आज देश में बड़ी संख्या में लोग जानते हैं कि सिंहगढ़ किले पर विजय के लिए स्वराज्य की सेना और मुगलिया सल्तनत के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ। स्वराज्य की ओर से तानाजी मालुसरे और मुगलों की ओर से उदयभान ने लड़ाई का नेतृत्व किया। रणनीतिक रूप से महत्व के इस युद्ध में नरवीर तानाजी का बलिदान हुआ लेकिन स्वराज्य के हिस्से विजय आई। फिल्म के कारण कुछ अस्पष्टताएं लोगों के मन में बनी, जिन्हें लेखक ने अपनी पुस्तक में दूर किया है। जैसे, तानाजी के बलिदान के बाद इस किले का नामकरण सिंहगढ़ नहीं किया गया, बल्कि पूर्व से ही इसका नाम सिंहगढ़ था। इसे कोंढाना दुर्ग के नाम से भी पहचाना जाता था। इसी तरह ‘यशवंती’ नाम की गोह के माध्यम से किले पर चढ़ने की बात, कोरी कल्पना ही है। फिल्म में जिस ‘नागिन’ नाम की तोप को प्रमुखता से दिखाया गया है, वैसी कोई तोप सिंहगढ़ पर नहीं लाई गई थी और उसके कारण यह युद्ध भी नहीं हुआ था। सिंहगढ़ दुर्ग का रणनीतिक महत्व बहुत है। इसलिए शिवाजी महाराज ने इसे पुन: अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की योजना बनायी थी। 

'नरवीर' तानाजी मालुसरे की प्रतिमा, सिंहगढ़ दुर्ग

यात्रा का दूसरा पड़ाव- शनिवारवाड़ा और लालमहल है। इस अध्याय में हमारे सामने लाल महल में शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब के मामा शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का वर्णन है। यहाँ लेखक ने स्थापित किया है कि शिवाजी महाराज किसी भी मुहिम की सूक्ष्म योजना करते थे। किसी भी हमले से पूर्व उसके सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाता था। दिन, समय और स्थान चुनने में बहुत सावधानी बरती जाती थी। इस अध्याय को पढ़ते समय पाठकों को अफजल खान के वध का स्मरण भी हो जाएगा। शिवाजी महाराज की युद्ध रणनीति और उनकी इन विजयों को सैनिकों को पढ़ाया जाना चाहिए। एक नेता को कैसा होना चाहिए, उसका बखूबी दर्शन इस अध्याय में होता है। जब शिवाजी महाराज अपनी माँ जिजाऊ साहेब और दादा कोंडदेव के साथ पुणे आए थे, तब यह नगर पूरी तरह उजड़ा हुआ था। आक्रांताओं ने यहाँ की भूमि को गधों से जुतवाकर जमीन को ही शापित कर दिया था। नदी किनारे की उपजाऊ भूमि होने के बाद भी खेती नहीं होती थी। शिवाजी महाराज और जिजाऊ माँ साहेब ने पुणेवासियों को अंधविश्वास से बाहर निकालने के लिए सोने के फाल से स्वयं खेत जोते। किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि हितैषी नीति को तैयार किया। परिणामस्वरूप, जो नगर कभी खस्ताहाल हो गया था, अब वह वैभव की ओर बढ़ने लगा था। यह प्रसंग आज भी प्रासंगिक है। यह अध्याय आज की शासन व्यवस्था को भी संकेत देता है कि कृषि क्षेत्र के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिनसे राज्य व्यवस्था पर भी भार न आए और किसानों को भी अत्यधिक लाभ पहुँचे। 

पुस्तक का अगला अध्याय शौर्य और दर्द की कहानी को एकसाथ पाठकों के सामने प्रस्तुत करता है। यह यात्रा हमें ‘छत्रपति शंभूराज’ (छत्रपति संभाजी राजे) के समाधि स्थल पर लेकर जाती है, जहाँ से यह शंभूराजे की धर्मनिष्ठा एवं पराक्रम की कहानी सुनाती है। लेखक लोकेंद्र सिंह लिखते हैं- “औरंगजेब ने शंभूराजे को कैद करके अकल्पनीय और अमानवीय यातनाएं दीं। औरंगजेब ने जिस प्रकार की क्रूरता दिखाई, उसकी अपेक्षा एक मनुष्य से नहीं की जा सकती। कोई राक्षस ही उतना नृशंस हो सकता था। इतिहासकारों ने दर्ज किया है कि शंभूराजे की जुबान काट दी गई, उनके शरीर की खाल उतार ली गई, आँखें फोड़ दी थी। औरंगजेब इतने पर ही नहीं रुका, उसने शंभूराजे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाकर नदी में फिंकवा दिए थे”। यह अध्याय हमें बताता है कि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हमारे पुरुखों ने अकल्पनीय दर्द सहा है और अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। छत्रपति शंभूराजे, गुरु तेगबहादुर से लेकर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती तक अनेक कहानियां है, जो अत्याचार, धर्मांधता एवं कट्टरता के विरुद्ध न्याय, सत्य और शौर्य की गौरव गाथाएं हैं। 

अब यात्रा हमें मल्हारगढ़ लेकर पहुँचती है, जिसे हिन्दवी स्वराज्य की आर्टलरी कहा जाता है। मराठों का तोपखाना होने के साथ ही इस दुर्ग का उपयोग पुणे-सासवड मार्ग और दिवे घाट की निगरानी के लिए किया जाता था। माना जाता है कि मराठों द्वारा बनवाया गया यह आखिरी दुर्ग है। इसका निर्माणकाल 1757 से 1760 तक बताया जाता है। मल्हारगढ़ से उतरकर यात्रा आगे सासवड़ की ओर बढ़ती है। ऐतिहासिक पुरंदर दुर्ग पर पहुँच कर हिन्दवी स्वराज्य दर्शन की यात्रा हमें शिवाजी महाराज की कूटनीति से परिचित कराती है। हम सब जानते हैं कि पुरंदर की लड़ाई में शिवाजी महाराज को औरंगजेब को 23 किले सौंपने पड़े थे और आगरा जाकर बादशाह से भेंट के लिए तैयार होना पड़ा। यह माना जा सकता है कि पुरंदर की लड़ाई में मराठा सेना की हार हुई लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरंदर की संधि में छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरदर्शिता, कूटनीति एवं राजपुरुष के व्यक्तित्व की छाप दिखाई पड़ती है। लेखक ने पुरंदर की लड़ाई का बखूबी वर्णन किया है। इस युद्ध में पराक्रमी योद्धा मुरारबाजी देशपांडे का बलिदान हुआ, जिन्होंने केवल 500 मावलों की टुकड़ी के साथ 5000 की मुगल सेना को छठी का दूध याद दिला दिया। 

स्वदेश, भोपाल में प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा

हम कह सकते हैं कि ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अपने पाठकों को छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों के दर्शन कराने के साथ ही स्वराज्य की अवधारणा एवं उसके लिए हुए संघर्ष–बलिदान से परिचित कराती है। पुस्तक में सिंहगढ़ दुर्ग पर नरवीर तानाजी मालूसरे के बलिदान की कहानी, पुरंदर किले में मिर्जाराजा जयसिंह के साथ हुए ऐतिहासिक युद्ध एवं संधि, पुणे के लाल महल में शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का रोचक वर्णन लेखक लोकेन्द्र सिंह ने किया है। इसके साथ ही शिवाजी महाराज की राजधानी दुर्ग दुर्गेश्वर रायगढ़ का सौंदर्यपूर्ण वर्णन लेखक ने किया है। पुस्तक का यह सबसे अधिक विस्तारित अध्याय है। छत्रपति के राज्याभिषेक का तो आँखों देखा हाल सुनाने का लेखकीय कर्म का बखूबी निर्वहन किया गया है। पाठक जब राज्याभिषेक के वर्णन को पढ़ते हैं, तो स्वाभाविक ही वे स्वयं को छत्रपति के राज्याभिषेक समारोह में खड़ा हुआ पाते हैं। राज्याभिषेक का एक-एक दृश्य पाठक की आँखों में उतर आता है। उल्लेखनीय है कि ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत 1731, तदनुसार ग्रेगोरियन कैलेंडर की दिनांक 6 जून 1674, बुधवार को छत्रपति शिवाजी महाराज का, स्वराज्य की राजधानी रायगढ़ में राज्याभिषेक हुआ था। आमतौर पर महापुरुषों की जन्म जयंती को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है लेकिन शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की यह घटना इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी कि संपूर्ण देश में शिवाजी जयंती से अधिक उत्साह के साथ आज भी ‘हिन्द साम्राज्य दिवस’ को मनाया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी जब छह उत्सवों का चयन किया, तो उसमें हिन्दू साम्राज्य दिवस को शामिल किया है। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक ने भारत के स्वाभिमान को एक बार फिर से जगाया था। यह घटना हिन्दुओं को आत्मदैन्य की स्थित से बाहर निकालकर लायी थी। हिन्दू साम्राज्य दिवस को उत्सव के रूप में स्मरण करना इसलिए भी प्रासंगिक है ताकि हमें याद आता रहे कि भारत की शासन व्यवस्था किन मूल्यों पर संचालित होनी चाहिए।

सुनिए- 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' के विमोचन अवसर पर अतिथि विद्वानों के विचार

यह संयोग ही है कि यह वर्ष हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना 350वां वर्ष है। इस निमित्त देशभर में हिन्दवी स्वराज्य की संकल्पना एवं उसकी प्रासंगिकता को जानने-समझने के प्रयत्न हो रहे हैं। ऐसे में लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को पढ़ना सुखद है। लेखक श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा के बहाने इतिहास के गौरवशाली पृष्ठ हमारे सामने खोलकर रख दिए हैं। लेखनी का प्रवाह मैदानी नदी की तरह सहज-सरल है। जो पहले पृष्ठ से आखिरी पृष्ठ तक पाठक को अपने साथ सहज ही लेकर चलती है। ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ हमें छत्रपति शिवाजी महाराज के पुस्तक मंष स्थल दुर्ग, गिरिदुर्ग के साथ ही जलदुर्गों का भ्रमण भी कराती है। कोलाबा दुर्ग के साथ ही खांदेरी-उंदेरी दुर्ग की यात्रा में समुद्र में हुए रोमांचक युद्ध का वर्णन भी पुस्तक में किया गया है। हिन्दवी स्वराज्य की नौसेना ने बड़े-बड़े जहाजों से सुसज्जित अंग्रेजों की सेना को भी समुद्र में डुबकी लगवा दी थी। बहरहाल, पुस्तक में कुल 16 अध्याय एवं 3 परिशिष्ट हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी लेखन शैली से बखूबी ‘गागर में सागर’ को समेटने का कार्य किया है। 128 पृष्ठों की यह पुस्तक आपको हिन्दवी स्वराज्य की बड़ी कहानी को रोचक ढंग से सुनाने में सफल होती है। यदि आपकी यात्राओं में रुचि है और इतिहास एवं संस्कृति को जानने की ललक है, तब यह पुस्तक अवश्य पढ़िए। लेखक ने वर्तमान स्थित और ऐतिहासिक प्रसंगों को सुंदर संयोजन किया है। ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अमेजन पर उपलब्ध है। अमेजन पर यह पुस्तक यात्रा लेखन श्रेणी के अंतर्गत काफी पसंद की जा रही है। पुस्तक का प्रकाशन ‘मंजुल प्रकाशन’, भोपाल ने किया है।

(समीक्षक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नईदिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)


पुस्तक : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक : सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

मासिक पत्रिका 'इंडियन व्यू' में प्रकाशित पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा

जनजातीय गौरव को बढ़ावा देने में अग्रणी मध्यप्रदेश

 

(जनजातीय गौरव दिवस के प्रसंग पर आलेख)

मध्यप्रदेश वह राज्य है, जिसकी पहल पर देश को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मिला है। यह बात तो हर कोई मानता है कि मध्यप्रदेश की सरकार ने जनजातीय नायकों का गौरव बढ़ाने के लिए उनसे जुड़े स्मारकों का आगे बढ़कर विकास किया है। राजा शंकरशाह और रघुनाथ शाह, रानी कमलापति, रानी दुर्गावती, टंट्या मामा और भीमा नायक से लेकर कई नायकों के योगदान से लोगों को परिचित कराने के उल्लेखनीय कार्य किए हैं। मंडला के मेडिकल कॉलेज का नाम बलिदानी हृदयशाह के नाम पर किया गया। वहीं, छिंडवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम ‘राजा शंकरशाह विश्वविद्यालय’ किया। हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर ‘रानी कमलापति रेलवे स्टेशन’ किया गया। जबलपुर में 100 करोड़ की लागत से ‘रानी दुर्गावती स्मारक’ को विकसित किया जा रहा है। जनजातीय गौरव को बढ़ाने के साथ ही जनजातीय समुदाय के उत्थान के लिए भी मध्यप्रदेश सरकार ने उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। विगत 20 वर्षों में जनजातीय योजनाओं का बजट 1000 प्रतिशत बढ़ा है। मध्यप्रदेश पहला राज्य है, जहाँ जनजातीय समुदाय के आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए पेसा कानून को लागू किया गया है। जनजातीय समुदाय से आनेवाली पहली महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की गरिमामयी उपस्थिति में 15 नवंबर, 2022 को मध्यप्रदेश के 20 जिलों के 89 विकासखंडों को पेसा कानून की सौगात मिली।

जबलपुर में 100 करोड़ की लागत से बननेवाले ‘रानी दुर्गावती स्मारक’ का उद्घाटन करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

मध्यप्रदेश के बजट का अध्ययन करें तो ध्यान आएगा कि 2003-04 में जनजातीय कार्य विभाग का बजट 746.60 करोड़ रुपये था। जनजातीय समुदाय के उत्थान के लिए संचालित योजनाओं को बजट की कमी का सामना न करना पड़े, इसके लिए भाजपा सरकार ने सबसे पहला काम यही किया कि जनजातीय कार्य विभाग के बजट में लगातार बढ़ोतरी की। वर्ष 2003-04 के मुकाबले वर्ष 2023-24 में जनजातीय कार्य विभाग का बजट 1000 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 11,768 करोड़ रुपये का हो गया है। इस बजट का उपयोग जनजातीय वर्गों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रोजगार एवं अन्य बुनियादी व्यवस्थाओं के साथ ही विकास कार्यों को गति देने में किया गया है। विद्यार्थियों को शिक्षा के समुचित अवसर एवं आर्थिक सहयोग के साथ ही सरकार की ओर से रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण भी दिलाया जा रहा है। कम्प्युटर कौशल सिखाने के साथ जनजातीय युवाओं को पुलिस और सेना में भर्ती का प्रशिक्षण देने का काम भी मध्यप्रदेश में किया जा रहा है। जनजातीय वर्गों के उत्थान एवं सशक्तिकरण के लिए आहार अनुदान योजना, सिकल सेल उन्मूलन मिशन, मुख्यमंत्री राशन आपके द्वार ग्राम, देवारण्य , अनुसूचित जनजाति ऋण विमुक्ति अधिनियम-2020, मिलेट मिशन, प्रधानमंत्री वन-धन योजना, आकांक्षा योजना, प्रतिभा योजना, आवास सहायता योजना, विदेश अध्ययन छात्रवृत्ति, प्री एवं पोस्ट मेट्रिक छात्रवृत्ति, अखिल भारतीय सेवाओं के लिए कोचिंग एवं प्रोत्साहन तथा जनजातीय लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों की जीआई टैगिंग जैसे कदम मध्यप्रदेश में उठाए गए हैं। 

जनजातीय गौरव दिवस पर यह अवश्य याद रखना चाहिए कि अभारतीय ताकतों ने अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत जनजातीय समुदाय को भ्रमित करने के लिए 9 अगस्त को ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ को ‘आदिवासी दिवस’ कहकर भारत में बढ़ावा दिया गया, जबकि इस दिन का भारत और जनजातीय गौरव के साथ कोई संबंध नहीं है। वास्तव में यह तो दु:खद त्रासदी की शुरुआत का दिन है। ब्रिटिस सेना ने अमेरिका के मूल निवासियों का नरसंहार किया। बाद में, उसके अपराध बोध से मुक्त होने के लिए ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ (International Day of the World's Indigenous Peoples) के रूप में 9 अगस्त को चुना गया। यहाँ यह भी ध्यान रखें कि वैश्विक षड्यंत्र के अंतर्गत ही ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ का अनुवाद ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में किया गया है। वास्तविकता यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने अब तक ‘इंडिजिनियस पीपल’ (indigenous people) की स्पष्ट परिभाषा तक नहीं की है। यही कारण है कि जब 1989 में विश्व मजदूर संगठन द्वारा ‘राइट्स ऑफ इंडिजिनस पीपल’ कन्वेन्शन क्रमांक-169 घोषित किया गया, तब उसे विश्व के 189 में से केवल 22 देशों ने ही स्वीकार किया। इसका मुख्य कारण ‘इंडिजिनस पीपल’ शब्द की परिभाषा को स्पष्ट नहीं करना ही था।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने भारत माता के महान बेटे बिरसा मुंडा की जयंती (15 नवंबर) को ‘जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में मान्यता देकर प्रशंसनीय कार्य किया है। जनजाति वर्ग के इस बेटे ने भारत की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक स्वतंत्रता के लिए महान संघर्ष किया और बलिदान दिया। अपनी धरती की रक्षा के लिए उन्होंने विदेशी ताकतों के साथ जिस ढंग से संघर्ष किया, उसके कारण समूचा जनजाति समाज उन्हें अपना भगवान मानने लगा। उन्हें ‘धरती आबा’ कहा गया। भगवान बिरसा मुंडा न केवल भारतीय जनजाति समुदाय के प्रेरणास्रोत हैं बल्कि उनका व्यक्तित्व सबको गौरव की अनुभूति कराता है। इसलिए उनकी जयंती सही मायने में ‘गौरव दिवस’ है। जिस प्रकार भगवान बिरसा मुंडा ने विदेशी ताकतों के षड्यंत्रों से भारत को बचाया, उसी प्रकार उनकी स्मृति में मनाया जानेवाला जनजातीय गौरव दिवस भी हमें वर्तमान में चल रही साजिशों से बचाएगा और भारत के ‘स्व’ की स्थापना की प्रेरणा देगा। 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

रविवार, 27 अक्तूबर 2024

महापुरुषों को स्मरण करने का वर्ष

भारत को महान बनाने में महापुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हमारे समाज को जब जिस प्रकार के विचारों की आवश्यकता रही, तब उसका प्रबोधन करने के लिए वैसे महापुरुषों का आगमन होता रहा है। हमारे महापुरुषों ने अपना संपूर्ण जीवन समाज जीवन को दिशा देने के लिए समर्पित किया है। उनके विचार और उनका व्यवहार आज भी हमें सद् मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। इसलिए अपने महापुरुषों का सतत् स्मरण आवश्यक है। इस संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कथन उल्लेखनीय है। उन्होंने विजयादशमी के उत्सव (12 अक्टूबर, 2024) पर महापुरुषों के जीवन को स्मरण करते हुए कहा था कि "प्रामाणिकता और नि:स्वार्थ भावना से देश, धर्म, संस्कृति व समाज के हित में जीवन लगा देने वाली विभूतियों को हम इसलिए स्मरण करते हैं क्योंकि उन्होंने हम सबके हित में कार्य किया है तथा अपने स्वयं के जीवन से अनुकरणीय जीवन व्यवहार का उत्तम उदाहरण उपस्थित किया है। अलग-अलग कालखंडों, कार्यक्षेत्रों में कार्य करने वाले इन सबके जीवन व्यवहार की कुछ समान बातें थीं। निस्पृहता, निर्वैरता व निर्भयता उनका स्वभाव था। संघर्ष का कर्तव्य जब-जब उपस्थित हुआ, तब-तब पूर्ण शक्ति के साथ, आवश्यक कठोरता बरतते हुए उसे निभाया। वे कभी भी द्वेष या शत्रुता पालने वाले नहीं बने। उनकी उपस्थिति दुर्जनों के लिए धाक व सज्जनों को आश्वस्त करने वाली थी। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की ऐसी दृढ़ता ही मांगल्य व सज्जनता की विजय के लिए शक्ति का आधार बनती है"।

यह कितना सुखद संयोग है कि वर्ष 2024 में एक साथ कई महापुरुषों के स्मरण का प्रसंग बन रहा है। आइए जानते हैं कि 2024 में किन विभूतियों की विशेष जन्म जयंतियां पड़ रही हैं....

गुरुवार, 28 मार्च 2024

छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्थापित किया 'स्वदेशी' का महत्व

 छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती पर विशेष

छत्रपति शिवाजी महाराज समाधि स्थल, रायगड दुर्ग / फोटो- लोकेन्द्र सिंह

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म शिवनेरी दुर्ग में फाल्गुन मास (अमावस्यांत) कृष्ण पक्ष तृतीया को संवत्सर 1551 में हुआ। ग्रेगोरियन कैलेंडर में यह दिनांक 19 फरवरी, 1630 होती है। चूँकि छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन ‘स्व’ की स्थापना को समर्पित रहा, इसलिए सही अर्थों में उनकी जयंती भारतीय पंचाग के अनुसार मनायी जानी चाहिए। स्मरण रहे कि चारों ओर जब पराधीनता का गहन अंधकार छाया था, तब छत्रपति शिवाजी महाराज प्रखर सूर्य की भाँति हिन्दुस्तान के आसमान पर चमके थे। ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना करके उन्होंने वह करके दिखा दिया, जिसकी कल्पना करना भी उस समय कठिन था। शिवाजी महाराज ऐसे नायक हैं, जिन्होंने मुगलों और पुर्तगीज से लेकर अंग्रेजों तक, स्वराज्य के लिए युद्ध किया। भारत के बड़े भू-भाग को आक्रांताओं के चंगुल से मुक्त कराकर, वहाँ ‘स्वराज्य’ का विस्तार किया। जन-जन के मन में ‘स्वराज्य’ का भाव जगाकर शिवाजी महाराज ने समाज को आत्मदैन्य की परिस्थिति से बाहर निकाला। ‘स्वराज्य’ के प्रति समाज को जागृत करने के साथ ही उन्होंने ऐसे राज्य की नींव रखी, जो भारतीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत था। शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की व्यवस्थाएं खड़ी करते समय ‘स्व’ को उनके मूल में रखा। ‘स्व’ पर आधारित व्यवस्थाओं से वास्तविक ‘स्वराज्य’ को स्थापित किया जा सकता है।

सुनिए, छत्रपति शिवाजी महाराज पर बुद्धिजीवियों के विचार

शनिवार, 13 जनवरी 2024

शंकराचार्यों का आशीर्वाद


यह देखना भी अपने आप में आश्चर्यजनक है कि जिन्हें धर्म में ही विश्वास नहीं, वे रामलला के नये विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा उत्सव में प्रमुख चार पीठों के शंकराचार्यों की उपस्थिति को लेकर चिंतित हो रहे हैं। उन्हें इस बात की चिंता हो रही है कि प्राण प्रतिष्ठा में हिन्दू धर्म शास्त्रों का अनुपालन किया जा रहा है या नहीं? दरअसल, यह उनकी चिंता नहीं अपितु रामकाज में अड़ंगे लगाने की प्रवृत्ति है। किसी को यह बात नहीं भूलना चाहिए कि देश में एक वर्ग ऐसा रहा है, जिसने अपने समूचे राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक सामर्थ्य का उपयोग श्रीराम मंदिर के मार्ग में बाधाएं उत्पन्न करने के लिए किया है। उनकी ओर से यहाँ तक कहा गया कि यह कौन सत्यापित करेगा कि राम इसी भूमि पर पैदा हुए? यहाँ कभी राम मंदिर था ही नहीं, यह कुतर्क भी आया ही। जबकि श्रीराम मंदिर को ध्वस्त करनेवाली नापाक ताकतों ने गर्वोन्मति के साथ यह स्वीकार किया है कि उन्होंने हिन्दुओं की आस्था को ध्वस्त करके उसी के अवशेषों पर मस्जिद तामीर करायी। सर्वोच्च न्यायालय तक में यह हलफनामा दायर किया गया कि राम काल्पनिक हैं। श्रीराम मंदिर का निर्णय समय पर नहीं आए इसके लिए वकीलों ऐसी फौज उतारी गई, जो न्यायालय में मामले को अटकाती-भटकाती रही। अब जरा सोचिए कि श्रीराम मंदिर को लेकर इस प्रकार के विचार रखनेवाली ताकतें भला क्यों मंदिर से जुड़ा महत्वपूर्ण उत्सव निर्विघ्न सम्पन्न होने देंगी।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

हिन्दवी स्वराज्य की आधार स्तम्भ - जिजाऊ माँ साहेब

जिजाऊ मां साहेब की जयंती पौष मास की पूर्णिमा को आती है , ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 12 जनवरी को जिजाऊ मां साहेब की जयंती मनायी जाती है

जिजाऊ माँ साहेब समाधि स्थल, पाचाड़ में श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा

हिन्दवी स्वराज्य के जो आधार स्तम्भ हैं, उनमें से एक है- राजमाता जिजाऊ माँ साहेब। उनके बिना हिन्दवी स्वराज्य के महान विचार का साकार होना संभव नहीं था। बाल शिवा के मन में स्वराज्य का बीज उन्होंने ही रोपा। उस बीज को उचित खाद-पानी एवं वातावरण मिले, इसकी भी चिंता उन्होंने की। रामायण-महाभारत और भारतीय आख्यानों की कहानियां सुनाकर माँ जिजाऊ ने शिवाजी के व्यक्तित्व को गढ़ा। वे ही शिवाजी महाराज की प्रथम गुरु भी थीं। प्रतिकूल परिस्थितियों में और अनेक प्रकार के झंझावातों का सामना करते हुए तेजस्विनी माता ने शिवाजी महाराज को वीरता, साहस, निर्भय, धर्मनिष्ठा, दयालुता, संवेदनशीलता और स्वतंत्रता के संस्कार दिए। जिजाऊ माँ साहेब के वात्सल की छांव का ही आशीष था कि कंटकाकीर्ण मार्ग पर भी शिवाजी महाराज मुर्झाये नहीं अपितु हीरे की तरह चमक उठे।

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

अटारी बॉर्डर : झंडा ऊंचा रहे हमारा

Bharat's Tallest National Flag Tiranga Unfurled at Attari-Wagah Border 

भारत-पाकिस्तान सीमा ‘अटारी बॉर्डर’ (पूर्व में वाघा बॉर्डर) पर अब पाकिस्तान के झंडे से भी ऊंचा भारत का तिरंगा लहरा रहा है। विशेष सर्विलांस तकनीक से सुसज्जित यह ध्वज सरहद पर निगरानी में हमारे जवानों की सहायता करेगा। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 19 अक्टूबर को अटारी बॉर्डर पर ‘स्वर्ण जयंती द्वार’ के सामने देश का सबसे ऊंचा तिरंगा फहराया। पहले भी यहाँ 360 फीट ऊंचे ध्वज स्तम्भ पर विशाल तिरंगा फहराता था, जिसे वर्ष 2017 में स्थापित किया गया था। प्रत्येक युद्ध में पराजय का सामना करनेवाले पाकिस्तान ने भारत को नीचा दिखाने के लिए 400 फीट ऊंचे पोल पर अपना झंडा फहरा दिया। ऐसा करके पाकिस्तान ने सोचा होगा कि अब भारत का झंडा सदैव पाकिस्तान के झंडे से नीचे रहेगा। परंतु पाकिस्तान भूल गया कि यह नया भारत है। पाकिस्तान को इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में भी विजय नहीं मिलनी थी। भारत का ध्वज, पाकिस्तान के झंडे से नीचे लहराए, यह किसे बर्दाश्त होता। अंतत: केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की पहल पर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने 3.5 करोड़ रुपए में अटारी बॉर्डर पर 418 फीट के नये ध्वज स्तंभ को स्थापित किया है। जिस पर फहरा रहा हमारा प्यारा तिरंगा अब बहुत दूर से ही, सबसे ऊपर, नीले गगन में शान से लहराता हुआ दिखायी देता है। उल्लेखनीय है कि अटारी पर फहरा रहा तिरंगा, अब देश में सबसे ऊंचा तिरंगा हो गया है। इससे पहले कर्नाटक के बेलगाम में देश का सबसे ऊंचा झंडा 360.8 फीट पर फहरा रहा था।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

‘एकात्मता की प्रतिमा’ से दुनिया में जाएगा अद्वैत एवं हिन्दुत्व का संदेश

ओंकारेश्वर में शङ्करावतरणम्


मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में सुखदायिनी नर्मदा नदी के किनारे मांधाता पर्वत पर जिस समय संत-महात्मा एवं अन्य महानुभाव वैदिक यज्ञ के बाद आदि शंकराचार्य की प्रतिमा का पूजन करने आगे बढ़ रहे थे, ठीक उसी समय मेघदूतों ने आकर कुछ क्षण के लिए वर्षा की। दृश्य ऐसा था कि मानो स्वयं देवता भी आचार्य शंकर का अभिषेक करने से स्वयं को रोक नहीं पाए....

‘शङ्करावतरणम्’ समारोह के अंतर्गत स्वामी अवधेशानंद जी गिरी महाराज, परमात्मानंद जी, स्वामी स्वरूपानंद जी और स्वामी तीर्थानंद जी महाराज सहित 13 प्रमुख अखाड़ों के प्रतिनिधियों और देशभर से आए हजारों साधु-संतों की उपस्थिति में भाद्रपद, शुक्ल पक्ष षष्टी (21 सितंबर) को संस्कृतिमयी वातावरण में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आदि शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची दिव्य एवं मोहक प्रतिमा का अनावरण किया। समारोह के दौरान ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो मांधाता पर्वत पर स्वर्ग उतर आया है और आचार्य शंकर का एक बार फिर से अवतरण हो रहा है। केरल, आसाम, ओडीसा, राजस्थान, मध्यप्रदेश इत्यादि राज्यों के कलाकारों ने अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से समारोह को अलौकिक स्वरूप प्रदान किया। वेद मंत्रों के उच्चारण ने वातावरण में वैदिक ऊर्जा का संचार किया, जिसे सहज अनुभव किया जा रहा था। सभी संतों एवं महानुभावों ने समवेत स्वर में कहा कि आदि शंकराचार्य की यह प्रतिमा देश-दुनिया में हिन्दू संस्कृति, अद्वैत के सिद्धांत, एकता और शांति के संदेश को पहुँचाएगी।

गुरुवार, 22 जून 2023

‘गीता प्रेस’ के सम्मान का विरोध करके क्या प्राप्त होगा?

Gita Press Controversy को Exposed करनेवाला यह वीडियो देखिए-


भारत सरकार की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्वसम्मति से गीता प्रेस, गोरखपुर को प्रतिष्ठित ‘गांधी शांति पुरस्कार’ देने का निर्णय करके बहुत अच्छा काम किया है। इसी वर्ष गीता प्रेस ने अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण किये हैं। अपनी इस 100 वर्ष की यात्रा में इस प्रकाशन ने भारतीय संस्कृति की खूब सेवा की है। भारतीयता के विचार को जन-जन तक पहुँचाने में गीता प्रेस का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। वर्ष 1923 में स्थापित गीता प्रेस आज विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक मानी जाती है। इस प्रेस ने अब तक 14 भाषाओं में 41.7 करोड़ पुस्तकें प्रकाशित कर नया कीर्तिमान बनाया है। इनमें से श्रीमद्भगवद्गीता की 16.21 करोड़ प्रतियां शामिल हैं। गीता प्रेस की नीति के कारण श्रीमद्भगवतगीता, श्री रामायण, श्री महाभारत सहित अनेक भारतीय ग्रंथ घर-घर तक पहुँच सके।

सोमवार, 29 मई 2023

नये भारत की नयी संसद

भारत की नयी संसद की पहली झलक / First Look of New Parliament Building

स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भारत को अमृतकाल में उसका नया और स्वदेशी संसद भवन मिल गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब धर्मदंड ‘सेंगोल’ को नवीन संसद के लोकसभा में अध्यक्ष की आसंदी के समीप स्थापित किया तब भारत के इतिहास में दिनांक 28 मई, 2023 सदैव के लिए अंकित हो गई है। लोकसभा की आसंदी के समीप स्थापित यह सेंगोल हमारे राजनेताओं को प्रेरणा देगा। महान चोल साम्राज्य में सेंगोल को कर्तव्यपथ, सेवापथ और राष्ट्रपथ का प्रतीक माना जाता था। राजादी और आदीनम के संतों के मार्गदर्शन में यही सेंगोल सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक था। यह सेंगोल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था लेकिन उस समय इसे यथोचित सम्मान और स्थान नहीं दिया गया। बल्कि सिंगोल की प्रतिष्ठा गिराते हुए उसे आनंद भवन में बनाए गए संग्रहालय में ‘चलने में सहायक छड़ी’ के रूप में प्रदर्शित किया गया। माना कि पंडित जवाहरलाल नेहरू भारतीय परंपराओं एवं धर्म से दूरी बनाकर चलते थे, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं होना चाहिए था कि धार्मिक, सांस्कृतिक एवं भावनात्मक महत्व के ‘सेंगोल’ की उपेक्षा इस तरह की जानी चाहिए थी।

बुधवार, 24 मई 2023

प्रधानमंत्री मोदी का सम्मान, भारत का अभिमान

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विदेश दौरे से आए एक दृश्य ने समूचे भारत को गौरव का अवसर दे दिया। प्रधानमंत्री मोदी एफआईपीआईसी के तीसरे अधिवेशन में शामिल होने के लिए ‘पापुआ न्यू गिनी’ पहुँचे थे। यहाँ प्रधानमंत्री मोदी का सभी शासकीय प्रोटोकॉल तोड़कर स्वागत-अभिनंदन किया गया। इस देश में सूर्यास्त के बाद शासकीय स्वागत नहीं किया जाता। परंतु जब प्रधानमंत्री मोदी यहाँ पहुँचे तब न केवल शाही स्वागत किया गया अपितु पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री जेम्स मारापे ने तो दो कदम आगे बढ़कर प्रधानमंत्री मोदी के पैर ही छू लिए। यह अभूतपूर्व और अद्भुत घटना है, जब विश्व इतिहास में किसी राष्ट्र प्रमुख का सम्मान दूसरे देश के राष्ट्र प्रमुख ने पैर छूकर किया। इस दृश्य से जहाँ प्रत्येक भारतीय का मन गदगद है, वहीं भारत के विचार की पताका भी विश्व पटल पर थोड़ी और ऊंची हुई है। यह सम्मान केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नहीं है, अपितु उनके नेतृत्व में भारत का विचार जिस तरह प्रखर होकर विश्व के सम्मुख आ रहा है, यह उस भारतीय विचार का भी सम्मान है।

रविवार, 21 मई 2023

चंदेरी सिल्क की साड़ियों के लिए ही नहीं, प्राकृतिक सौंदर्य एवं ऐतिहासिक विरासत के लिए भी प्रसिद्ध है

चंदेरी का प्रमुख पर्यटन स्थल-बादल महल / फोटो- लोकेन्द्र सिंह

मध्यप्रदेश के जिले अशोकनगर में बेतवा (बेत्रवती) एवं ओर (उर्वसी) नदियों के मध्य विंध्याचल की सुरम्य वादियों से घिरा ऐतिहासिक नगर चंदेरी और उसका दुर्ग हमारी धरोहर है। यह नगर महाभारत काल से लेकर बुंदेलों तक की विरासत को संभालकर रखे हुए है। चंदेरी न केवल अपनी समृद्धि की कहानियां सुनाता है अपितु अपनी सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत, त्याग, प्रेम और शौर्य, समर्पण, वीरता एवं बलिदान की गाथाओं से भी पर्यटकों को गौरव की अनुभूति कराता है। वैसे तो यह छोटा-सा सुंदर शहर अपनी रेशमी साड़ियों (चंदेरी की साड़ियों) के लिए विश्व प्रसिद्ध है परंतु यहाँ का रमणीक वातावरण और स्थापत्य आपका मन मोह लेगा। सघन वन, ऊंची-नीची पहाड़ियां, तालाब, झील, झरने अविश्वसनीय रूप से चंदेरी के सौंदर्य को कई गुना बढ़ा देते हैं। चंदेरी उन सबको आमंत्रित करती है- जो प्रकृति प्रेमी हैं, जिनका मन अध्यात्म में रमता है, जो प्राचीन भवनों की दीवारों से कान लगाकर गौरव की गाथाएं सुनने में आनंदित होते हैं। चंदेरी उनको भी लुभाती है, जिन्हें कला और संस्कृति के रंग सुहाते हैं। चंदेरी किसी को निराश नहीं करती है। चैत्र-वैशाख की चटक गर्मी में भी चंदेरी ने मेरे घुमक्कड़ मन को शरद ऋतु की ठंडक-सा अहसाह कराया।

शुक्रवार, 10 मार्च 2023

‘हिन्दवी स्वराज्य’ की संकल्पना का आधार 'स्व'

 स्वराज्य 350श्रीछत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती (चैत्र कृष्ण पक्ष तृतीया, 10 मार्च, 2023) प्रसंग पर विशेष

हिन्दवी स्वराज्य की राजधानी दुर्गदुर्गेश्वर श्री रायगढ़ पर राजदरबार में महाराजाधिराज श्रीशिव छत्रपति की सिंहासनारूढ़ प्रतिमा / Photo : Lokendra Singh

भारतवर्ष जब दासता के मकड़जाल में फंसकर आत्मगौरव से दूर हो गया था, तब शिवाजी महाराज ने ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की घोषणा करके भारतीय प्रजा की आत्मचेतना को जगाया। आक्रांताओं के साथ ही तालमेल बिठाकर राजा-महाराज अपनी रियासतें चला रहे थे, तब शिवाजी महाराज ने केवल शासन के सूत्र मुगलों से अपने हाथ में लेने के लिए बिगुल नहीं फूंका था अपितु उन्होंने वास्तविक अर्थों में स्वराज्य की प्रेरणा जगायी। अकसर हम आर्तस्वर में कहते हैं कि 1947 में हमने सत्ता तो प्राप्त कर ली थी लेकिन तत्काल बाद स्वराज्य की ओर कदम नहीं बढ़ाये थे। अंग्रेजों की बनायी व्यवस्थाओं को ही हम ढोते रहे। यहाँ तक कि हम अपनी भाषा को प्रधानता नहीं दे सके। पिछले कुछ वर्षों में अवश्य ही हमने स्वराज्य की ओर कुछ कदम बढ़ाये हैं। जबकि शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के साथ ही सब प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्थाएं ‘स्व’ के आधार पर बनायी। उन्होंने जिस राज्य की स्थापना की, उसे भोंसले राज्य, कोंकण राज्य या मराठी राज्य नहीं कहा अपितु उसे उन्होंने नाम दिया ‘हिन्दवी स्वराज्य’ और जिस साम्राज्यपीठ की स्थापना की, उसे कहा- ‘हिन्दू पदपादशाही’। यानी उन्होंने स्वराज्य को स्वयं की निजी पहचान से नहीं अपितु भारत की संस्कृति से जोड़ा। इसी तरह उन्होंने कभी नहीं कहा कि हिन्दवी स्वराज्य की उनकी अपनी संकल्पना है अपितु श्रीशिव ने तो जन-जन में स्वराज्य के भाव की जाग्रति के लिए कहा- “हिन्दवी स्वराज्य ही श्रींची इच्छा”। अर्थात् यह हिन्दवी स्वराज्य की इच्छा ईश्वर की इच्छा है।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2022

स्वाधीनता आंदोलन में त्याग, बलिदान और साहस की प्रतीक बन गई थी मातृशक्ति

स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका | Role of women in freedom movement


प्रत्येक कालखंड में मातृशक्ति ने भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चली है अपितु अनेक अवसर पर अग्रणी भूमिका में भी रही है। आज जबकि समूचा देश भारत के स्वाधीनता आंदोलन का अमृत महोत्सव मना रहा है तब मातृशक्ति के योगदान/बलिदान का स्मरण अवश्य करना चाहिए। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पृष्ठ पलटेंगे और मातृशक्ति की भूमिका को देखेंगे तो निश्चित ही हमारे मन गौरव की अनुभूति से भर जाएंगे। भारत के प्रत्येक हिस्से और सभी वर्गों से, महिलाओं ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा लिया। अध्यात्म, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ ही क्रांतिकारी गतिविधियों में भी महिलाएं शामिल रहीं। यानी उन्होंने ब्रिटिश शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और ‘स्व’ तंत्र की स्थापना के लिए प्रत्येक क्षेत्र से भारत के स्वर एवं उसके संघर्ष को बुलंद किया। आंदोलन के कुछ उपक्रम तो ऐसे रहे, जिनके संचालन की पूरी बागडोर मातृशक्ति के हाथ में रही। भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक भी अध्याय ऐसा नहीं है, जिस पर मातृशक्ति के त्याग, बलिदान और साहस की गाथाएं अंकित न हो।

बुधवार, 14 सितंबर 2022

भारतीय भाषाओं के प्रति संघ का दृष्टिकोण


तुर्की जब स्वतंत्र हुआ, तब आधुनिक तुर्की के संस्थापक कमालपाशा ने जिन बातों पर गंभीरता से ध्यान दिया, उनमें से एक भाषा भी थी। कमालपाशा ने विरोध के बाद भी बिना समय गंवाए शिक्षा से विदेशी भाषा को हटा कर तुर्की को अनिवार्य कर दिया। क्योंकि, वह तुर्की के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार करना चाहते थे, इसके लिए उन्हें अपनी भाषा की आवश्यकता थी। चूँकि उस समय तुर्की अरबी लिपि में लिखी जाती थी, इसलिए उन्होंने एक घोषणा और की जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे लोग सरकारी नौकरी से वंचित कर दिए जाएंगे, जिन्हें लैटिन लिपि का ज्ञान नहीं होगा। इसी प्रकार दुनिया भर में बिखरे यहूदियों को जब उनकी भूमि प्राप्त हुई, तो उन्होंने भी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ को ही अपनाया। सोचिए, भूमिहीन यहूदियों की भाषा कहीं लिखत-पढ़त के व्यवहार में नहीं थी। इसके बाद भी जब यहूदियों ने इजराइल का नवनिर्माण किया तो राख के ढेर में दबी अपनी भाषा हिब्रू को जिंदा किया। आज जिस अंग्रेजी की अनिवार्यता भारत में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है, उसके स्वयं के देश ब्रिटेन में वह एक जमाने में फ्रेंच की दासी थी। बाद में ब्रिटेन के लोगों ने आंदोलन कर अपनी भाषा ‘अंग्रेजी’ को उसका स्थान दिलाया। अपनी भाषा में समस्त व्यवहार करने वाले यह देश आज अग्रणी पंक्ति में खड़े हैं। अपनी भाषा में शिक्षा-दीक्षा के कारण ही यहाँ के नागरिक अपने देश की उन्नति में अधिक योगदान दे सके। अपनी भाषा का महत्व दुनिया के लगभग सभी देश समझते हैं। इसलिए उनकी आधिकारिक भाषा उनकी अपनी मातृभाषा है। किंतु, हम अभागे लोग जब स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी मानसिक दासिता से मुक्ति नहीं पा सके। महात्मा गांधी के आग्रह के बाद भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ सके।

रविवार, 4 सितंबर 2022

गुलामी के चिह्न मिटाकर ‘स्व’ की स्थापना

नया भारत विश्व क्षितिज पर अपनी उपस्थिति को मजबूत करने के साथ ही अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है। अपनी जड़ों से जुड़कर ही भारत अनंत आकाश को नाप सकेगा। स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद जब भारतीय नौसेना को अपना प्रथम स्वदेशी विमान वाहक पोत मिला तब नया भारत एक नया इतिहास लिख रहा था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उसे कुछ इस तरह अभिव्यक्ति दी- ‘‘केरल के समुद्री तट पर पूरा भारत एक नए भविष्य के सूर्योदय का साक्षी बन रहा है। आईएनएस विक्रांत पर हो रहा यह आयोजन, विश्व क्षितिज पर भारत के बुलंद होते हौसलों की हुंकार है’’। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में विश्वास की गूंज है, जो अब दूर-दूर तक सुनाई दे रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को सक्षम बनाने के लिए ‘आत्मनिर्भर भारत’ का जो सपना देखा और दिखाया, अब हम उसकी ओर तेजी से बढ़ रहे हैं।

सोमवार, 15 अगस्त 2022

राष्ट्रध्वज तिरंगे की प्रतिष्ठा में संघ ने दिया है बलिदान

आरएसएस और तिरंगा : भाग-3

26 जनवरी 1963 को राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के समक्ष गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 3500 स्वयंसेवक.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के मन में राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर किसी प्रकार का भ्रम नहीं है। राष्ट्रीय गौरव के मानबिन्दुओं के लिए संघ के कार्यकर्ताओं ने अपना बलिदान तक दिया है। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भी ऐसा ही एक राष्ट्रीय प्रतीक है। चूंकि संघ ‘प्रसिद्धी पराङ्मुख’ के सिद्धांत पर चला है। जो मातृभूमि के लिए अनिवार्यरूप से करणीय कार्य हैं, उसका यश क्यों लेना? संघ का कार्यकर्ता इसलिए कोई काम नहीं करता है कि उसका नाम दस्तावेजों में लिखा जाये और उसको यश मिले। अपना स्वाभाविक कर्तव्य मानकर ही वह सारा कार्य करता है। अपने योगदान के दस्तावेजीकरण के प्रति संघ की उदासीनता का लाभ संघ के विरुद्ध दुष्प्रचार करनेवाले समूहों ने उठाया और उन्होंने संघ के सन्दर्भ में नाना प्रकार के भ्रम उत्पन्न करने के प्रयास किये। इस सबके बीच, जो निश्छल लोग हैं, उन्होंने संघ की वास्तविक प्रतिमा के दर्शन किये हैं किन्तु कुछ लोग राजनीतिक दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह के कारण संघ को लेकर भ्रमित रहते हैं। ऐसा ही एक भ्रम है कि संघ के स्वयंसेवक राष्ट्रध्वज को मान नहीं देते हैं और तिरंगा नहीं फहराते हैं। इसी भ्रम में पड़कर कांग्रेस को भी संघ के दर्शन हो गए। वर्ष 2016 में जेएनयू में देशविरोधी नारे लगने के बाद यह बात निकलकर आई कि युवा पीढ़ी में देशभक्ति का भाव जगाने के लिए सभी शिक्षा संस्थानों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लगाया जाना चाहिए। यह आग्रह कुछ लोगों को इतना चुभ गया कि वे आरएसएस और तिरंगे के संबंधों पर मिथ्याप्रचार करने लगे। इस मिथ्याप्रचार में फंसकर कांग्रेस ने 22 फरवरी, 2016 को मध्यप्रदेश के संघ कार्यालयों पर तिरंगा फहराने की योजना बनाई थी। कांग्रेस ने सोचा होगा कि संघ के कार्यकर्ता कार्यालय पर तिरंगा फहराने का विरोध करेंगे। तिरंगा फहराना था शिक्षा संस्थानों में लेकिन कांग्रेस निकल पड़ी संघ कार्यालयों की ओर।

रविवार, 14 अगस्त 2022

आरएसएस में तिरंगे के प्रति पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा और सम्मान

आरएसएस और तिरंगा : भाग-2

#HarGharTiranga हर घर तिरंगा अभियान के अंतर्गत नागपुर की जिलाधिकारी आर. विमला जी ने सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत से भेंटकर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा प्रदान किया।

राष्ट्रीय विचारधारा का विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर एक झूठ को समवेत स्वर में दोहराता रहता है– आरएसएस ने राष्ट्रध्वज तिरंगा का विरोध किया। संघ भगवा झंडे को तिरंगे से ऊपर मानता है। आरएसएस ने कभी अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराया। इस तरह के और भी मिथ्यारोप यह समूह लगाता है। हालांकि, इस संदर्भ में उनके पास कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं है। वे एक–दो बयानों और घटनाओं के आधार पर अपने झूठ को सच के रंग से रंगने की कोशिशें करते हैं। जबकि जो भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से परिचित है, वह जानता है कि इन खोखले झूठों का कोई आधार नहीं। संघ के लिए राष्ट्रध्वज तिरंगा ही नहीं अपितु सभी राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान सर्वोपरि है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ‘भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ शीर्षक से दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में पहले ही दिन यानी 17 सितम्बर, 2018 को कहा- “स्वतंत्रता के जितने सारे प्रतीक हैं, उन सबके प्रति संघ का स्वयंसेवक अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ समर्पित रहा है। इससे दूसरी बात संघ में नहीं चल सकती”। इस अवसर पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रसंग भी सुनाया। फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन में 80 फीट ऊँचा ध्वज स्तंभ पर कांग्रेस अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा झंडा (चरखा युक्त) फहराया। जब उन्होंने झंडा फहराया तो यह बीच में अटक गया। ऊंचे पोल पर चढ़कर उसे सुलझाने का साहस किसी का नहीं था। किशन सिंह राजपूत नाम का तरुण स्वयंसेवक भीड़ में से दौड़ा, वह सर-सर उस खंभे पर चढ़ गया, उसने रस्सियों की गुत्थी सुलझाई। ध्वज को ऊपर पहुंचाकर नीचे आ गया। स्वाभाविक ही लोगों ने उसको कंधे पर लिया और नेहरू जी के पास ले गये। नेहरू जी ने उसकी पीठ थपथपाई और कहा कि तुम आओ शाम को खुले अधिवेशन में तुम्हारा अभिनंदन करेंगे। लेकिन फिर कुछ नेता आए और कहा कि उसको मत बुलाओ वह शाखा में जाता है। बाद में जब संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी को पता चला तो उन्होंने उस स्वयंसेवक का अभिनंदन किया। यह एक घटनाक्रम बताता है कि तिरंगे के जन्म के साथ ही संघ का स्वयंसेवक उसके सम्मान के साथ जुड़ गया था।

‘संघ और तिरंगे’ के सन्दर्भ में जो भी मिथ्याप्रचार किया गया है, उसके मूल में वे कम्युनिस्ट हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद सात दशक बाद तक अपने पार्टी कार्यालयों पर राष्ट्रध्वज नहीं फहराया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 2021 में पहली बार स्वतंत्रता दिवस मनाने और पार्टी कार्यालय में तिरंगा फहराने का निर्णय लिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत की स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हुए नारा दिया था- ‘ये आजादी झूठी है’। जरा सोचिये, किन लोगों ने अपनी सच्चाई छिपाने के लिए राष्ट्रभक्त संगठन के सन्दर्भ में दुष्प्रचार किया?

शनिवार, 13 अगस्त 2022

ध्वज समिति की अनुशंसा, भगवा रंग का हो राष्ट्र ध्वज

आरएसएस और तिरंगा : भाग-1

#HarGharTiranga #LokendraSingh

ध्वज किसी भी राष्ट्र के चिंतन और ध्येय का प्रतीक तथा स्फूर्ति का केंद्र होता है। ध्वज, आक्रमण के समय में पराक्रम का, संघर्ष के समय में धैर्य का और अनुकूल समय में उद्यम की प्रेरणा देता है। इसलिए सदियों से ध्वज हमारे साथ रहा है। इतिहास में जाकर देखते हैं तो हमें ध्यान आता है कि लोगों को गौरव की अनुभूति कराने के लिए कोई न कोई ध्वज हमेशा रहा है। भारत के सन्दर्भ में देखें तो यहाँ की सांस्कृतिक पहचान ‘भगवा’ रंग का ध्वज रहा है। आज भी दुनिया में भगवा रंग भारत की संस्कृति का प्रतीक है। अर्थात सांस्कृतिक पताका भगवा ध्वज है। वहीं, राजनीतिक रूप से विश्व पटल पर राष्ट्र ध्वज ‘तिरंगा’ भारत की पहचान है।

भारत के ‘स्व’ से कटे हुए कुछ लोगों एवं विचार समूहों को ‘भगवा’ से दिक्कत होती है। इसलिए वे भगवा ध्वज को नकारते हैं। परन्तु उनके नकारने से भारत की सांस्कृतिक पहचान को भुलाया तो नहीं जा सकता है। राष्ट्रध्वज के रूप में ‘तिरंगा’ को संविधान द्वारा 22 जुलाई, 1947 को स्वीकार किया गया। उससे पहले विश्व में भारत की पहचान का प्रतीक ‘भगवा’ ही था। स्वहतंत्रता संग्राम के बीच एक राजनैतिक ध्व ज की आवश्यकता अनुभव होने लगी। क्रांतिकारियों से लेकर अन्य स्वतंत्रतासेनानियों एवं राजनेताओं ने 1906 से 1929 तक अपनी-अपनी कल्पना एवं दृष्टि के अनुसार समय-समय पर अनेक झंडों को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में प्रस्तुत किया गया। इन्हीं में वर्तमान राष्ट्र ध्वज तिरंगे आविर्भाव हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन का साझा मंच बन चुकी कांग्रेस ने 2 अप्रैल, 1931 को करांची में आयोजित कार्यसमिति की बैठक में राष्ट्रीय ध्वज के विषय में समग्र रूप से विचार करने, तीन रंग के ध्वज को लेकर की गईं आपत्तियों पर विचार करने और सर्वस्वीकार्य ध्वज के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए सात सदस्यों की एक समिति बनाई। समिति के सदस्य थे- सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डा. पट्टाभि सीतारमैया, डा. ना.सु. हर्डीकर, आचार्य काका कालेलकर, मास्टर तारा सिंह और मौलाना आजाद।

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

देशाभिमान जगायेगा ‘हर घर तिरंगा’

भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर देश में ‘स्वाधीनता का अमृत महोत्सव’ का वातावरण है। सभी देशवासी इस अवसर पर स्वाधीनता के अपने नायकों को याद कर रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों को गौरव की अनुभूति कराने और राष्ट्रभक्ति से जोड़ने के लिए ‘हर घर तिरंगा’ अभियान का आह्वान कर दिया है। अमृत महोत्सव के तहत 11 अगस्त से ‘हर घर तिरंगा’ अभियान की शुरुआत की जा रही है, जिसमें सभी लोग अपने घर पर तिरंगा लगाएंगे। निश्चित ही यह अभियान हमारे मन में देशाभिमान जगायेगा। इस तरह के आह्वान और अभियान का परिणाम यह होता है कि लोग अपने इतिहास, गौरव और राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ते हैं। जैसे अमृत महोत्सव के कारण बहुत से गुमनाम नायकों की कीर्ति गाथाएं हमारे सामने आयीं, ऐसे ही हर घर तिरंगा के कारण हम राष्ट्रध्वज के इतिहास से जुड़ रहे हैं।