लेखक लोकेन्द्र सिंह द्वारा संपादित मीडिया प्राध्यापक डॉ. संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक 'लोगों का काम है कहना'
– सुदर्शन व्यास (समीक्षक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।)
‘लोगों का काम है कहना...’ पुस्तक का आखिरी पन्ना पलटते समय संयोग से महात्मा गांधी का एक ध्येय वाक्य मन–मस्तिष्क में गूंज उठा – ‘कर्म ही पूजा है’। जब मैं इस किताब को पढ़ रहा था तो बार–बार महात्मा गांधी का ये वाक्य सहसा अंतर्गन में सफर कर रहा था। ये कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बापू के इस विचार को चरितार्थ उस शख्सियत ने किया है जिनके जीवनवृत्त पर ये पुस्तक लिखी गई है। प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी भारतीय मीडिया जगत में सुपरिचित और सुविख्यात नाम हैं। वरिष्ठ पत्रकार और मीडियाकर्मियों के लिए ये नाम इसलिए जाना–पहचाना है क्योंकि संजय जी अनथक मीडिया के विभिन्न आयामों के जरिये सक्रिय रहते हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए यह नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता के विद्यार्थी संजय जी को मीडिया गुरु कहना ज्यादा पसंद करते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैंने देखा है कि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलसचिव तथा प्रभारी कुलपति की जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए भी विद्यार्थियों को बतौर शिक्षक पढ़ाना उनकी दैनंदिनी रही थी। इसीलिए प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी देशभर में पत्रकारिता के कुनबे की हर पीढ़ी में एक पत्रकार, एक शिक्षक, एक लेखक, एक विश्लेषक, एक विचारक और मीडिया गुरू के रूप में सम्मान के साथ याद किये जाते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय (26 अगस्त, 1960- 1 सितंबर, 2024)
श्रद्धेय उमेश उपाध्याय जी भारतीय पत्रकारिता के उजले सितारों में से एक थे। सभी माध्यमों की पत्रकारिता में उनका एक सम्मानित स्थान था। यही कारण है कि उनके असमय निधन पर विभिन्न क्षेत्रों के पत्रकार बंधु दुःखी मन से उनके साथ बिताए अविस्मरणीय एवं प्रेरणादायी प्रसंगों का स्मरण कर रहे हैं।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के साथ उनका गहरा और आत्मीय जुड़ाव था। विगत 14-15 वर्षों से विश्वविद्यालय को उनके अनुभव का लाभ मिल रहा था। वे विश्वविद्यालय की महापरिषद के सम्मानित सदस्य थे। विद्या परिषद एवं अन्य समितियों में भी उनके विजन का लाभ विश्वविद्यालय को मिला है। अनेक अवसरों पर विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का प्रबोधन उन्होंने किया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से दिए जानेवाला प्रतिष्ठित ‘गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ भी उन्हें प्रदान किया गया था।
बाल सुलभ मुस्कान उनके चेहरे पर सदैव खेलती रहती थी। मानो उनका ‘कमल मुख’ निश्छल हँसी का स्थायी घर हो। कई दिनों से माथे पर नाचनेवाला तनाव भी उनसे मिलने भर से न जाने कहाँ छिटक जाता था। उनका सान्निध्य जैसे किसी साधु की संगति। उनके लिए कहा जाता है कि वे पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। उनकी पाठशाला में व्यावसायिकता से कहीं बढ़कर मूल्यों की पत्रकारिता के पाठ थे। ‘व्यावहारिकता’ के शोर में जब ‘सिद्धांतों’ को अनसुना करने का सहूलियत भरी राह पकड़ी जा रही हो, तब मूल्यों की बात कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है। मूल्य, सिद्धांत एवं व्यवहार के ये पाठ प्रो. दीक्षित के लिए केवल सैद्धांतिक नहीं थे अपितु उन्होंने इन पाठों को स्वयं जीकर सिद्ध किया था। इसलिए जब वे मूल्यानुगत मीडिया के लिए आग्रह करते थे, तो उसे अनसुना नहीं किया जाता था। इसलिए जब वे पत्रकारिता में मूल्यों की पुनर्स्थापना के प्रयासों की नींव रखते हैं, तो उस पर अंधकार में राह दिखानेवाले ‘दीप स्तम्भ’ के निर्माण की संभावना स्पष्ट दिखाई देती थी।
22 जनवरी, 2024 को दैनिक समाचारपत्र स्वदेश, भोपाल समूह ने अपने संपादकीय में शब्दों के स्थान श्रीरामलला का चित्र प्रकाशित किया है
‘स्वदेश’ ने श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अपनी संपादकीय में प्रयोग करके इतिहास रच दिया। ‘स्वदेश’ ने 23 जनवरी, 2024 के संस्करण में संपादकीय के स्थान पर ‘रामलला’ का चित्र प्रकाशित किया है। यह अनूठा प्रयोग है। भारतीय पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ। यह पहली बार है, जब संपादकीय में शब्दों का स्थान एक चित्र ने ले लिया। वैसे भी कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है। परंतु, स्वदेश ने संपादकीय पर जो चित्र प्रकाशित किया, उसकी महिमा हजार शब्दों से कहीं अधिक है। यह कोई साधारण चित्र नहीं है। इस चित्र में तो समूची सृष्टि समाई हुई है। यह तो संसार का सार है।
रवींद्र भवन, भोपाल में आयोजित अंतरराष्ट्रीय साहित्य और सांस्कृतिक उत्सव ‘उत्कर्ष–उन्मेष’ में दैनिक भास्कर के लिए कवरेज किया। लगभग 13 वर्ष पुरानी स्मृतियां ताजा हो उठीं, जब मैं दैनिक भास्कर, ग्वालियर में उपसंपादक हुआ करता था।
कल एक और विशेष अवसर बना– ‘कविता : आत्मा की अभिव्यक्ति’ पर हो रहे विमर्श का कवरेज करते हुए अंग्रेजी में कविताएं सुनीं। पहले भी सुनीं हैं। मेरे कई विद्यार्थी अंग्रेजी में ही लिखते हैं। वे लिखते हैं तो मुझे पढ़ाते–सुनाते भी हैं। कभी–कभी एकाध गीत म्यूजिक एप पर भी सुनने की कोशिश की है। परंतु इस तरह आयोजन में सभी कवियों का अंग्रेजी में कविता पाठ सुनने का यह पहला अवसर था।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर का व्यक्तित्व बहुआयामी, व्यापक एवं विस्तृत है। उन्हें हम उच्च कोटि के अर्थशास्त्री, कानूनविद, संविधान निर्माता, ध्येय निष्ठ राजनेता और सामाजिक क्रांति एवं समरसता के अग्रदूत के रूप में जानते हैं। सामाजिक न्याय के लिए उनके संघर्ष से हम सब परिचित हैं। बाबा साहेब ने समाज में व्याप्त जातिभेद, ऊंच-नीच और छुआछूत को समाप्त कर समता और बंधुत्व का भाव लाने के लिए अपना जीवन लगा दिया। वंचितों, शोषितों एवं महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब ने अलग-अलग स्तर पर जागरूकता आंदोलन चलाए। अपने इन आंदोलनों एवं वंचित वर्ग की आवाज को बृहद् समाज तक पहुँचाने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को भी साधन के रूप में अपनाया। उनके ध्येय निष्ठ, वैचारिक और आदर्श पत्रकार-संपादक व्यक्तित्व की जानकारी अपेक्षाकृत बहुत कम लोगों को है। बाबा साहेब ने भारतीय पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान दिया है। पत्रकारिता के सामने कुछ लक्ष्य एवं ध्येय प्रस्तुत किए। पत्रकारिता कैसे वंचित समाज को सामाजिक न्याय दिला सकती है, यह यशस्वी भूमिका बाबा साहेब ने निभाई है। बाबा साहेब ने वर्षों से ‘मूक’ समाज को अपने समाचारपत्रों के माध्यम से आवाज देकर ‘मूकनायक’ होने का गौरव अर्जित किया है।
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राट्रीयता के जागरण एवं स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में जन-जागरण का माध्यम बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए स्वयं नागपुर से खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं- “इन दोनों महापुरुषों के मिलन ने न केवल महाकोशल, मध्यभारत, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड एवं विदर्भ को बल्कि सम्पूर्ण देश की हिंदी पत्रकारिता और हिंदी पाठकों को राष्ट्रीयता के रंग में रंग दिया।” दादा ने तीन समाचार पत्रों; प्रभा, कर्मवीर और प्रताप, का संपादन किया।
“खेल में दुनिया को बदलने की शक्ति है, प्रेरणा देने की शक्ति है, यह लोगों को एकजुट रखने की शक्ति रखता है, जो बहुत कम लोग करते हैं। यह युवाओं के लिए एक ऐसी भाषा में बात करता है, जिसे वे समझते हैं। खेल वहाँ भी आशा पैदा कर सकता है, जहाँ सिर्फ निराशा हो। यह नस्लीय बाधाओं को तोड़ने में सरकार की तुलना में अधिक शक्तिशाली है”। अफ्रीका के गांधी कहे जानेवाले प्रसिद्ध राजनेता नेल्सन मंडेला के इस लोकप्रिय कथन के साथ मीडिया गुरु डॉ. आशीष द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘खेल पत्रकारिता के आयाम’ की शुरुआत करते हैं। या कहें कि पुस्तक के पहले ही पृष्ठ पर इस कथन के साथ लेखक खेल की महत्ता को रेखांकित कर देते हैं और फिर विस्तार से खेल और पत्रकारिता के विविध पहलुओं पर बात करते हैं। डॉ. द्विवेदी की इस पुस्तक ने बहुत कम समय में अकादमिक क्षेत्र में अपना स्थान बना लिया है। दरअसल, इस पुस्तक से पहले हिन्दी की किसी अन्य पुस्तक में खेल पत्रकारिता पर समग्रता से बातचीत नहीं की गई।
आज हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के प्रकाशस्तंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) को स्मरण करने का दिन है। पिछले वर्ष अगस्त में वाराणसी प्रवास के दौरान संयोग से उनके घर के सामने से गुजरना हुआ।
काल भैरव के दर्शन करने के लिए तेज चाल से बनारस की प्रसिद्ध गलियों से हम बढ़ते जा रहे थे। बाबा विश्वनाथ और गंगा मईया के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे तो मन आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा हुआ था। रिमझिम बारिश हो रही थी तो भीगते–बचते हुए और इधर–उधर नजर दौड़ाते हुए, अपन चल रहे थे।
चलते–चलते जैसे ही एक दीवार पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का मोहक चित्र देखा, तो तेजी से बढ़ते कदम एकदम से ठिठक गए। मुझे कतई अंदाजा नहीं था कि यह भवन निज भाषा का अभिमान जगानेवाले साहित्यकार–पत्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का है। लेकिन जैसे ही चित्र के थोड़ा ऊपर देखा तो पट्टिका पर लिखा था– ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता गोलोकवासी भारतेंदु हरिश्चंद्र का निवास स्थान’। यह शिलालेख नागरी–प्रचारिणी सभा, काशी ने 1989 में लगवाया था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र श्रेष्ठ साहित्यकार होने के साथ ही उच्च कोटि के संपादक भी थे। उन्होंने हिन्दी की खूब सेवा की है। 35 वर्ष की अल्पायु में ही वे गोलोकवासी हो गए लेकिन उन्होंने जो सृजन किया, उसके कारण वे आज भी हमारे बीच प्रासंगिक हैं।
वे इतने प्रतिभाशाली थे कि 1868 में, केवल 18 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ का प्रकाशित किया। इसके बाद हिन्दी पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया। इसके साथ ही भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका के संपादन के माध्यम हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वाराणसी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के भवन पर उनका चित्र / फोटो : लोकेन्द्र सिंह
वाराणसी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का भवन / फोटो : लोकेन्द्र सिंह
"जिस तरह मनुष्य के जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए जीवन मूल्य आवश्यक हैं, उसी तरह मीडिया को भी दिशा देने और उसको लोकहितैषी बनाने के लिए मूल्यों की आवश्यकता रहती है"।
मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों की आवश्यकता है। मूल्यों का प्रकाश हमें प्रत्येक क्षेत्र में राह दिखता है। मूल्यों के अभाव में हमारे जीवन की यात्रा अँधेरी सुरंग से गुजरने जैसी होगी, जिसमें हम दीवारों से तो कभी राह में आई बाधाओं से टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। जीवन मूल्य हमें बताते हैं कि समाज जीवन कैसा होना चाहिए, परिवार एवं समाज में अन्य व्यक्तियों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, करणीय क्या है और अकरणीय क्या है? मूल्यों के अनुरूप आचरण करनेवाले व्यक्ति सज्जन पुरुषों की श्रेणी में आते हैं। वहीं, जो लोग मूल्यों की परवाह नहीं करते, उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है, ऐसे कई लोग समाजकंटक के रूप में सबके लिए परेशानी का कारण बन जाते हैं। अर्थात मूल्यों के अभाव में मानव समाज स्वाभाविक रूप से गतिशील नहीं हो सकता। मूल्यों के अभाव में सकारात्मकता का लोप होकर नकारात्मकता हावी हो जाती है।
पत्रकारिता के आचार्य एवं भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी की नयी पुस्तक ‘भारतबोध का नया समय’ शीर्षक से आई है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन्होंने पूर्ण मनोयोग से अपनी इस पुस्तक की रचना-योजना की है। वैसे तो प्रो. द्विवेदी सदैव ही आलेखों के चयन एवं संपादन से लेकर रूप-सज्जा तक सचेत रहते हैं क्योंकि उन्होंने काफी समय लोकप्रिय समाचारपत्रों के संपादक के रूप में बिताया है। परंतु अपनी इस पुस्तक को उन्होंने बहुत लाड़-दुलार से तैयार किया है। पुस्तक में शामिल 34 चुनिंदा आलेखों के शीर्षक और ले-आउट एवं डिजाइन (रूप-सज्जा), आपको यह अहसास करा देंगे। संभवत: पुस्तक को आकर्षक रूप देने के पीछे लेखक का मंतव्य, ‘भारतबोध’ के विमर्श को प्रबुद्ध वर्ग के साथ ही युवा पीढ़ी के मध्य पहुँचना रहा है। आकर्षक कलेवर आज की युवा पीढ़ी को अपनी ओर खींचता है। हालाँकि, पुस्तक के कथ्य और तथ्य की धार इतनी अधिक तीव्र है कि भारतबोध का विमर्श अपने गंतव्य तक पहुँच ही जाएगा। पहले संस्करण के प्रकाशन के साथ ही यह चर्चित पुस्तकों में शामिल हो चुकी है।
पत्रकारिता के संबंध में कुछ विद्वानों ने यह भ्रम पैदा कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वह विपक्ष है। जिस प्रकार विपक्ष ने हंगामा करने और प्रश्न उछालकर भाग खड़े होने को ही अपना कर्तव्य समझ लिया है, ठीक उसी प्रकार कुछ पत्रकारों ने भी सनसनी पैदा करना ही पत्रकारिता का धर्म समझ लिया है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विराट भूमिका से हटाकर न जाने क्यों पत्रकारिता को हंगामाखेज विपक्ष बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है? यह अवश्य है कि लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए चारों स्तम्भों को परस्पर एक-दूसरे की निगरानी करनी है। पत्रकारिता को भी सत्ता के कामकाज की समीक्षा करनी है और उसको आईना दिखाना है। हम पत्रकारिता की इस भूमिका को देखते हैं, तब हमें वह हंगामाखेज नहीं अपितु समाधानमूलक दिखाई देती है। भारतीय दृष्टिकोण से जब हम संचार की परंपरा को देखते हैं, तब प्रत्येक कालखंड में संचार का प्रत्येक स्वरूप लोकहितकारी दिखाई देता है। संचार का उद्देश्य समस्याओं का समाधान देना रहा है।
आपने देखा और पढ़ा होगा कि भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक विशेष वर्ग स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सरदार भगत सिंह को एक-दूसरे के सामने खड़ा करने का प्रयास करता है। ऐसा करते समय उसकी नीयत साफ नहीं होती। मन में बहुत मैल रहता है। दरअसल, वे स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को कमतर दिखाने और उनका अपमान करने की चेष्टा कर रहे होते हैं। लेकिन, सूरज से भी भला कोई आँखें मिला सकता है। दो महापुरुषों/क्रांतिकारियों की तुलना करके ऐसे लोग अपने ओछेपन को ही उजागर कर रहे होते हैं। ऐसा करते समय उन्हें पता ही नहीं होता कि दोनों क्रांतिवीर एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। आज हम वीर सावरकर और सरदार भगत सिंह के आपसी संबंधों को टटोलने का प्रयास करेंगे। हम जानेंगे कि कैसे भगत सिंह क्रांति की राह में सावरकर के प्रति आदर का भाव रखते थे और सावरकर के मन में भगत सिंह के प्रति कितनी आत्मीयता थी?
'द वीक' पत्रिका ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर लिखे गए झूठे और अपमानजनक लेख के लिए माफी मांगी है। ‘द वीक’ की यह माफ़ी राष्ट्रभक्त लोगों की जीत है और महापुरुषों का अपमान करने वाले संकीर्ण मानसिकता के लोगों की पराजय। निरंजन टाकले नाम के पत्रकार का एक लेख ‘द वीक’ ने 24 जनवरी, 2016 को प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक ‘लैंब लायोनाइज्ड’ था। वीर सावरकर की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के उद्देश्य से लिखे गए इस लेख में मनगढ़ंत और तथ्यहीन बातें लिखी गयीं। तथ्यों को तोड़-मरोड़कर कर भी प्रस्तुत किया गया। ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक’ ने इस आलेख को चुनौती दी। सबसे पहले 23 अप्रैल, 2016 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में इसकी लिखित शिकायत की गई। परन्तु प्रेस काउंसिल कहाँ, इस तरह के मामलों पर संज्ञान लेती है। राष्ट्रीय विचार से जुड़े विषयों पर उसकी उदासीनता सदैव ही देखने को मिली है, उसका कारण सब जानते ही हैं। उसके बाद स्मारक इस लेख के विरुद्ध याचिका लेकर न्यायालय पहुँच गया और हम देखते हैं कि न्यायालय में झूठ टिक नहीं सका। इससे पहले वीर सावरकर के सम्बन्ध में आपत्तिजनक कार्यक्रम के प्रसारण के लिए एबीपी माझा भी लिखित माफी मांग चुका है। सोचिये, इतिहास में इस तरह के लोगों ने कितना और किस प्रकार का झूठ परोसा होगा?
पाठकों के हाथों से दूर हुआ समाचारपत्र, क्या वापस आएगा?
कोविड-19 के कारण पूरी दुनिया में फैली महामारी की चपेट में आने से मीडिया भी नहीं बच सका है। विशेषकर प्रिंट मीडिया पर कोरोना महामारी का गहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। प्रिंट मीडिया पर कोरोना के प्रभाव को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। समाचारपत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रभावित हुआ है, उनकी प्रसार संख्या में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है, समाचारपत्रों के आकार घट गए हैं, पत्रकारों की नौकरी पर संकट आया है, संस्थानों के कार्यालयों में कार्य-संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। प्रिंट मीडिया के भविष्य को लेकर भी चर्चा बहुत तेजी से चल पड़ी है। ऐसा नहीं है कि कोरोना संक्रमण के कारण लागू हुए लॉकडाउन एवं आर्थिक मंदी का प्रभाव सिर्फ प्रिंट मीडिया पर ही हुआ है, इलेक्ट्रॉनिक एवं वेब मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा है। इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के सामने सिर्फ आर्थिक चुनौतियां हैं, जबकि प्रिंट मीडिया के सामने तो पाठकों का भी संकट खड़ा हो गया। लोगों ने डर कर समाचारपत्र-पत्रिकाएं मंगाना बंद कर दीं। लोगों ने समाचार और अन्य पठनीय सामग्री प्राप्त करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया का रुख किया है। इसलिए यह प्रश्न अधिक गंभीर हो जाता है कि क्या भविष्य में प्रिंट मीडिया का यह पाठक वर्ग उसके पास वापस लौटेगा?
कोरोना संक्रमण के कारण जब मार्च-2020 में पहला देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया, तब संक्रमण से डर कर बड़ी संख्या में लोगों ने अपने घर में समाचारपत्र-पत्रिकाओं के प्रवेश को भी प्रतिबंधित कर दिया। लोगों के बीच यह भय था कि समाचारपत्र के माध्यम से भी कोरोना संक्रमण फैल सकता है। ऐसा सोचने वाले लोग बड़ी संख्या में थे। स्थिति यहाँ तक बन गई कि कोरोना महामारी से भयग्रस्त एक याचिकाकर्ता ने चेन्नई के उच्च न्यायालय में याचिका लगाई थी कि समाचारपत्रों से कोरोना वायरस फैल सकता है, इसलिए इनका प्रकाशन रोका जाए। न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए समाचारपत्रों के प्रकाशन पर रोक से मना कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि “भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जीवंत मीडिया का बहुत महत्व है। जीवंत मीडिया भारत जैसे किसी भी लोकतांत्रिक देश की थाती है। अतीत में आजादी की लड़ाई के दौरान इसी मीडिया ने अंग्रेजों के शासन के खिलाफ जन-जागरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद आपातकाल के समय भी समाचारपत्रों की उल्लेखनीय भूमिका रही। समाचारपत्रों के प्रकाशन पर यदि रोक लगाई जाती है तो यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत न केवल प्रकाशक और संपादक, बल्कि पाठक के भी मौलिक अधिकारों के हनन के समान होगा”। लोगों के इस भय को दूर करने के लिए लगभग सभी समाचारपत्रों ने कई बार यह सूचना प्रकाशित की कि ‘समाचारपत्र से कोरोना नहीं फैलता है। दुनिया में एक भी प्रकरण ऐसा नहीं आया है, जो समाचारपत्र के माध्यम से संक्रमित हुआ हो। यहाँ तक कि कई शोध में यह बात सामने आई है कि समाचारपत्रों की छपाई तकनीक बिल्कुल स्वच्छ एवं सुरक्षित है। वितरक सैनिटाइजेशन के मानकों का पालन कर रहे हैं। समाचारपत्र छूना सुरक्षित है। इससे कोरोना के फैलने का कोई खतरा नहीं होता। बल्कि समाचारपत्र से कोरोना के संबंध में सही जानकारी पाठकों को मिलती है’। इस अपील/स्पष्टीकरण के प्रकाशन और इलेक्ट्रॉनिक एवं वेब मीडिया में प्रसारण के बाद भी लोगों ने समाचारपत्र से दूरी बना ली। इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के होने के बाद भी जो लोग समाचारों के लिए प्रिंट मीडिया पर निर्भर थे, उन्होंने भी समाचारपत्रों को छूना बंद कर दिया। वर्षों से सुबह उठकर चाय के साथ समाचारपत्र पढऩे की आदत को कोरोना संक्रमण के भय ने एक झटके में बदल दिया। इसकी पुष्टि एक मार्केट रिसर्च कंपनी की रिपोर्ट भी करती है। ‘ग्लोबल वेब इंडेक्स’ की रिपोर्ट कहती है कि दुनियाभर में ऑनलाइन न्यूज की खपत में तेजी से वृद्धि हुई है। लोग ताजा जानकारियाँ जुटाने के लिए डिजिटल माध्यमों का सबसे अधिक उपयोग कर रहे हैं। कई भारतीय मीडिया संस्थानों ने भी मार्च के तीसरे सप्ताह से ऑनलाइन ट्रैफिक (उपभोक्ताओं) में उछाल दर्ज किया था।
भारत में मार्च-2020 के पाँच-छह माह बाद यह स्थिति बनी है कि पाठकों के हाथों में अब समाचारपत्र की हार्डकॉपी की जगह ई-पेपर आ गया। पाठक समाचारपत्र पढ़ने की अपनी आदत की संतुष्टि के लिए अब ई-पेपर पर चले गए। तकनीक में दक्ष लोग समाचारपत्र को डाउनलोड कर उसकी पीडीएफ फाइल व्हाट्सएप समूहों पर प्रसारित करने लगे। यानी पहले हॉकर आपके यहाँ समाचारपत्र की प्रति दरवाजे पर छोड़ कर जाता था, तब उसकी डिजिटल कॉपी आपको व्हाट्सएप पर मिलने लगी। मीडिया संस्थानों ने समाचारपत्रों की पीडीएफ फाइल के प्रसार को गंभीरता से लिया और यह तय हुआ कि किसी भी समाचारपत्र की पीडीएफ फाइल प्रसारित करने पर दण्डात्मक कार्यवाही हो सकती है। वेब मीडिया पर बढ़ते ट्रैफिक और ई-पेपर पर क्लिक की बढ़ती संख्या ने मीडिया संस्थानों के कान खड़े कर दिए। उन्हें यह लगने लगा कि यदि पाठकों में ई-पेपर पढ़ने की आदत विकसित हो गई तब भविष्य में स्थितियां सामान्य होने के बाद भी उनकी प्रसार संख्या पूर्व स्थिति में नहीं आ पाएगी। समाचारपत्र की हार्डकॉपी ही लोग पढ़ें इसके लिए ज्यादातर मीडिया संस्थानों ने अपने समाचारपत्रों के ई-वर्जन पढ़ने के लिए सदस्यता शुल्क लेना शुरू कर दिया। जबकि कोरोना काल से पूर्व गिनती के ही समाचारपत्र थे, जो ई-पेपर पढ़ने के लिए पाठकों से शुल्क लेते थे। इसके साथ ही सुबह थोड़ी देर से ई-पेपर अपडेट/उपलब्ध कराए जाने लगे। ई-पेपर का स्क्रीनशॉट या क्लिप लेना प्रतिबंधित कर दिया गया। कुल मिलाकर यह प्रयास किए गए कि पाठक समाचारपत्र की हार्डकॉपी पर ही वापस लौटे। हालाँकि, उनके प्रयास बहुत सफल नहीं हुए। पाठक अब भी समाचारपत्रों की हार्डकॉपी लेने/छूने से बच रहा है और धीरे-धीरे ई-पेपर या वेबसाइट पर ही समाचार पढ़ने की उसकी आदत बन रही है। व्यक्तिगत बातचीत में कई लोगों ने यह स्वीकार किया है कि ई-पेपर एवं वेब पोर्टल्स पर ताजा खबरें मिलने से अब उन्हें अपनी दिनचर्या में समाचारपत्र की अनुपस्थिति खलती नहीं है। ज्यादातर लोगों ने यह भी कहा कि संभव है कि अब वे भविष्य में समाचारपत्र की हार्डकॉपी न मंगाएं। इसलिए यह माना जाने लगा है कि आगे चलकर प्रिंट संकुचित होगा जबकि इंटरनेट आधारित मीडिया का विस्तार होगा और उसके पास अधिक पाठक होंगे।
भारत की सामाजिक परिस्थिति को देखते हुए इस बात से सहमत होना कठिन है कि प्रिंट मीडिया के विस्तार पर वर्तमान नकारात्मक प्रभाव भविष्य में भी बना रहेगा। हमें याद रखना चाहिए कि भारत में जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगमन हुआ, तब भी यही कहा जा रहा था कि समाचारपत्र-पत्रिकाओं के दिन अब लदने को हैं। लेकिन, हमने देखा कि प्रिंट मीडिया के कदम ठहरे नहीं, उसका विस्तार ही हुआ। उसके बाद जब इंटरनेट आधारित मीडिया ने जोर पकड़ना शुरू किया तब फिर से उक्त प्रश्र को उठाया जाने लगा। परंतु, ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन (एबीसी) और इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़े बताते हैं कि प्रिंट मीडिया के प्रसार और पठनीयता, दोनों में तेजी से वृद्धि हो रही है। भारत में प्रिंट मीडिया की यह स्थिति तब है, जब दुनिया के अनेक देशों में प्रतिष्ठित समाचारपत्रों का प्रकाशन बंद हो रहा है। कोरोना से पहले भारत में प्रिंट मीडिया का न केवल विस्तार हो रहा था, बल्कि उसकी विश्वसनीयता भी बाकी मीडिया के अपेक्षा अधिक मजबूत हो रही थी। पूर्ण विश्वास के साथ तो नहीं, लेकिन पूर्व स्थितियों के आकलन और भारत की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर यह उम्मीद अवश्य है कि समाचारपत्र पुन: अपनी स्थिति को प्राप्त होंगे और उनका प्रसार भी तेजी से बढ़ेगा। क्योंकि वेब मीडिया अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय समाचारों की भूख को तो शांत कर देते हैं लेकिन अपने आस-पास (स्थानीय) के समाचारों से पाठक अछूता रह जाता है। पाठकों को उस मात्रा में उनके शहर, गाँव, बस्ती, मोहल्ले के समाचार वेब मीडिया पर नहीं मिल रहे, जो उन्हें स्थानीय समाचारपत्र उपलब्ध कराते हैं।
वर्तमान परिस्थिति में प्रिंट मीडिया को सहायता करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। प्रत्येक परिस्थिति में समाज को जागरूक करने में समाचारपत्र-पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण एवं प्रभावी भूमिका रहती है। हमने कोरोना काल में भी यह अनुभव किया है कि पत्रकारों ने अपना जीवन दांव पर लगाकर सही सूचनाएं नागरिकों तक पहुँचाने में सराहनीय भूमिका का निर्वाह किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से प्रिंट मीडिया के प्रमुखों से बात कर समाचारपत्रों की इस भूमिका की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि “प्रिंट मीडिया का नेटवर्क पूरे भारत में है। यह शहरों एवं गांवों में फैला हुआ है। यह मीडिया को इस चुनौती (कोरोना संक्रमण) से लडऩे और सूक्ष्म स्तर पर इसके बारे में सही जानकारी फैलाने के लिए अधिक महत्वपूर्ण बनाता है”। प्रधानमंत्री मोदी ने जब प्रिंट मीडिया के प्रमुखों से बात की, तब निश्चित ही उन्होंने उनकी समस्याएं भी जानी होंगी। उन्हें सहायता का आश्वास भी दिया होगा। सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भी मीडिया की वर्तमान स्थिति का अध्ययन कर रहा होगा। बहरहाल, प्रिंट मीडिया को सहयोग करने के संबंध में विचार करते समय सरकार को यह बात आवश्यक रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि उसकी प्राथमिकता में छोटे और मझले, भारतीय भाषाई, क्षेत्रीय समाचारपत्र-पत्रिकाएं भी शामिल हों। बड़े मीडिया संस्थान फिर भी अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वयं लड़ लेंगे, लेकिन मझले संस्थानों के सामने अस्तित्व का बड़ा प्रश्न खड़ा है। प्रिंट मीडिया को बचाने के लिए मझले संस्थानों की चिंता सर्वोपरि होनी चाहिए।
(यह आलेख अभिधा बुक्स, दिल्ली से वर्ष 2021 में प्रकाशित डॉ. शैलेन्द्र राकेश की पुस्तक 'कोरोना वाली दुनिया' में शामिल है।)
प्रखर संपादक माणिकचंद्र वाजपेयी उपाख्य ‘मामाजी’ की 101वीं जयंती पर विशेष
‘मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ’। कवि रामावतार त्यागी की यह पंक्तियां यशस्वी संपादक माणिकचंद्र वाजपेयी उपाख्य ‘मामाजी’ के जीवन/व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं। मामाजी ने अपने ध्येय की साधना में सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। उनका जीवन आज की पीढ़ी के लिए संदेश बन गया है। सादगी, सरलता और निश्छलता के पर्याय मामाजी ने अपने मौलिक चिंतन और धारदार लेखनी से पत्रकारिता में भारतीय मूल्यों एवं राष्ट्रीय विचार को प्रतिष्ठित किया। मामाजी उन विरले पत्रकारों में शामिल हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के मिशनरी स्वरूप को जीवित रखा। उन्होंने कभी भी पत्रकारिता को एक प्रोफेशन के तौर पर नहीं लिया, बल्कि उन्होंने पत्रकारिता को देश, समाज और राष्ट्रीय विचार की सेवा का माध्यम बनाया। सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर उन्होंने सदैव समाज को जागरूक किया। आपातकाल, हिन्दुत्व, जम्मू-कश्मीर, स्वदेशी, श्रीराम जन्मभूमि, जातिवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, कन्वर्जन, शिक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और देश के स्वाभिमान से जुड़े विषयों पर लेखन कर उन्होंने समाज को मतिभ्रम की स्थिति से बाहर निकाला। सामाजिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर उन्होंने विपुल लेखन किया है, जो आज भी प्रासंगिक है। स्वदेश में प्रकाशित उनकी लेखमालाएं ‘केरल में मार्क्स नहीं महेश’, ‘आरएसएस अपने संविधान के आईने में’, ‘समय की शिला पर’ इत्यादि बहुत चर्चित हुईं। ये लेखमालाएं आज भी पठनीय हैं।
मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी का पत्रकारीय जीवन लगभग 40 वर्ष का रहा। वैसे तो पत्रकारिता में उनका प्रवेश भिंड में ही हो चुका था, जहाँ वे ‘देश-मित्र’ समाचारपत्र का संचालन कर रहे थे। लेकिन, एक सजग एवं प्रखर पत्रकार के रूप में उनकी पहचान स्वदेश से जुडऩे के बाद ही बनी। 1966 में विजयदशमी के शुभ अवसर पर इंदौर में दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुदर्शनजी की प्रेरणा से प्रारंभ हुए इस महत्वपूर्ण समाचारपत्र के संपादक की जब खोज प्रारंभ हुई तो वह मामाजी के नाम पर जाकर पूरी हुई। स्थापना वर्ष से ही मामाजी ‘स्वदेश’ से जुड़ गए लेकिन संपादक का दायित्व उन्होंने 1968 से संभाला। 17 वर्ष तक वे स्वदेश, इंदौर के संपादक रहे। अपने संपादकीय कौशल से उन्होंने मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में भारतीयता की एक सशक्त धारा प्रवाहित कर दी। मामाजी की लेखनी का ही प्रताप था कि स्वदेश शीघ्र ही मध्यप्रदेश का प्रमुख समाचारपत्र बन गया। प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी स्वदेश की माँग होने लगी। ग्वालियर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया की प्रेरणा से दैनिक समाचारपत्र ‘हमारी आवाज’ प्रकाशित हो रहा था। 1970 में राजमाता ने इंदौर प्रवास के दौरान स्वदेश का प्रभाव देखा, तब उन्होंने सुदर्शनजी के सामने प्रस्ताव रखा कि ग्वालियर से भी स्वदेश का प्रकाशन होना चाहिए और राजमाता का समाचारपत्र ‘हमारी आवाज’ अब ‘स्वदेश’ के रूप में प्रकाशित होने लगा। मामाजी से प्रेरित प्रखर संपादक राजेन्द्र शर्मा के नेतृत्व में स्वदेश (ग्वालियर) ने लोकप्रियता के कीर्तिमान रच दिए। बाद में, राजेन्द्र जी ने भोपाल से स्वदेश की शुरुआत की। इंदौर से सेवानिवृत्त होने के बाद मामाजी स्वदेश (ग्वालियर) के संपादक एवं प्रधान संपादक रहे और स्वदेश (भोपाल) के साथ भी सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े। मामाजी अपने जीवन के अंतिम समय तक स्वदेश से जुड़े रहे। पत्रकारिता जगत में मामाजी और स्वदेश, एक-दूसरे के पर्याय हो गए थे।
मामाजी माणिकचंद्र वाजपेयी ने ध्येय के प्रति अपना जीवन समर्पित करके न केवल स्वदेश की स्थापना की बल्कि इस समाचारपत्र के माध्यम से उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता का वातावरण ही बदल दिया। मामाजी ने किस तरह के वातावरण में राष्ट्रीय विचार को केंद्र में रखते हुए स्वदेश को प्रतिष्ठा दिलाई और उनके लिए पत्रकारिता का क्या अर्थ था, यह समझने के लिए हमें उनके ही विचार प्रवाह से होकर गुजरना चाहिए। स्वदेश (ग्वालियर) के 25 वर्ष पूर्ण होने पर प्रकाशित स्मारिका में अपने आलेख में मामाजी लिखते हैं- “आजादी के बाद भी ‘स्व’ उपेक्षित और प्रताडि़त था। तुष्टीकरण की जिस आत्मघाती नीति के कारण देश का विभाजन हुआ, उसे ही कल्याणकारी साबित करने की होड़ लगी थी। छद्म धर्मनिरपेक्षिता का सर्वत्र बोलबाला था। राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया था। प्रगतिशीलता के नाम पर हिन्दुत्व यानी भारतीयत्व की खिल्ली उड़ाई जा रही थी। समाज को तोडऩे वाली नीतियों एवं कार्यक्रमों को संरक्षण मिल रहा था। पत्रकारिता भी इन्हीं तुष्टीकरण तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता वादियों की चेरी बनी हुई थी। वह गांधी, तिलक, अरविंद, दीनदयाल उपाध्याय और दादा माखनलाल चतुर्वेदी के मार्ग से हट गई थी, भटक गई थी। भारतीय राष्ट्रीयता के पर्यायवाची हिन्दुत्व के विचार से वह ऐसे बिचकती थी, जैसे लाल कपड़े को देखकर साड़। सड़ी लाश मानकर वह उससे घृणा करती थी। जनता भ्रमित थी तथा सत्ता निरंकुश। ऐसी विषम स्थिति में स्वदेश ने अपने जन्मकाल से ही राष्ट्रवाद के पक्ष में खड़े होने का संकल्प लिया। उसी कण्टकाकीर्ण मार्ग को उसने अपने लिए चुना। उसके जन्म का उद्देश्य ही वही था”।
मामाजी ने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। प्रत्येक परिस्थिति में सच के साथ खड़े रहे। जब समूची पत्रकारिता भ्रमित होकर भारतीय मूल्यों के विरुद्ध ही प्रचार करने लगती, तब भी मामाजी की लेखनी भटकती नहीं। वे धारा के साथ बहने वाले लोगों में नहीं थे। जब गो-हत्या बंद करने की माँग को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हजारों साधु-संतों पर गोलियां चलाई गईं, तब पत्रकारिता में एक बड़ा वर्ग गो-भक्तों के विरोध में खड़ा था। जब पत्रकारिता के माध्यम से इन साधु-संन्यासियों एवं गो-भक्तों को सांप्रदायिक और दंगाई सिद्ध करने के प्रयत्न हो रहे थे, तब मामाजी ने मध्यप्रदेश में गो-भक्तों के पक्ष में स्वदेश के माध्यम से आवाज उठाई। परिणाम यह हुआ कि मध्यप्रदेश में गोवंश हत्या को रोकने के लिए प्रभावी कानून बन गया। इसी तरह इंदौर में हिन्द केसरी मास्टर चंदगीराम के सम्मान में निकाली गई शोभायात्रा पर जब लीगी गुण्डों ने हमला किया, तब केवल मामाजी का स्वदेश ही था जिसने लीगी मानसिकता का पर्दाफाश किया। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन और तथाकथित बाबरी ढंाचा गिरने पर भी मामाजी की लेखनी ने हिन्दू समाज को जागरूक किया तथा उन्हें कम्युनिस्टों के प्रोपोगंडा से भ्रमित होने से बचाया। हिन्दुत्व को बदनाम करने के प्रयत्न जिसने भी किए, मामाजी की लेखनी ने उसकी जमकर खबर ली। उनकी लेखनी ने भारतीय मूल्यों एवं हिन्दुत्व के विरोध में चलने वाले सभी अपप्रचारों का तथ्यों एवं तर्कों के आधार पर भंडाफोड़ किया।
वर्ष 1975 में मौलिक अधिकारों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या कर देश पर थोपे गए आपातकाल के दौरान सरकार के भय से प्रतिष्ठित समाचारपत्रों और संपादकों की कलम झुक गई थी लेकिन प्रखर राष्ट्रभक्त मामाजी भूमिगत रहकर भी लेखन कार्य करते रहे। इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरोध में स्वदेश मुखर ही रहा। परिणाम यह हुआ कि स्वदेश के कार्यालय पर ताला लगा दिया गया और संपादक यानी मामाजी के नाम मीसा का वारंट जारी हो गया था। पुलिस ने मामाजी को पकड़ कर जेल में डाल दिया। परंतु, धुन के पक्के मामाजी कहाँ मानते, उन्होंने जेल में बंदियों को पढ़ाना शुरू कर दिया। मामाजी ने जेल में रहकर हस्तलिखित ‘मीसा समाचार पत्र’ निकालना प्रारंभ कर दिया। बाद में जब उच्च न्यायालय के आदेश पर स्वदेश के ताले खुल गए तो मामाजी ने जेल के भीतर से ही किसी प्रकार संपादकीय भिजवाने की व्यवस्था जमा ली। उनकी बेबाक संपादकीयों के कारण स्वदेश की खूब प्रतिष्ठा बढ़ी। इमरजेंसी के दौरान लोकतंत्र के सिपाहियों को स्वतंत्र भारत की सरकार ने किस प्रकार की नारकीय यातनाएं दी, इस पर तो उन्होंने एक अमर कृति ही तैयार कर दी। उनकी पुस्तक ‘आपातकाल की संघर्षगाथा’ लोकतंत्र की बहाली के लिए किए गए आंदोलन का प्रमाणित दस्तावेज है।
बौद्धिकता का आडम्बर रचने के लिए उन्होंने कभी नहीं लिखा। उनका समूचा लेखन समाज को जागरूक करने के लिए था। उस समय में उन्होंने अपनी सीधी, सहज, सरल लेकिन धारधार भाषा-शैली से पाठकों का दिल जीत लिया था। वे अपने लेखन में आम बोलचाल की भाषा का उपयोग करते थे। वे ऐसी भाषा लिखते थे, जिसे सामान्य व्यक्ति भी समझ सके। गंभीर विषयों को सरलता से समझाने के लिए मामाजी अपने संपादकीय एवं अग्रलेखों में मुहावरों, कहानियों, प्रसंगों का बखूबी उपयोग करते थे। अनेक लेखों में तो उन्होंने लघु कथाएं स्वयं ही रच दी हैं, ताकि पाठक के मन-मस्तिष्क में विषय को सरलता से उतारा जा सके। यह उनके लेखन की विशेषता है। संपादकीय एवं अग्रलेखों में इस तरह के प्रयोग उन्हें बाकी संपादकों, लेखकों एवं पत्रकारों से अलग पहचान भी देते हैं। उनके आलेख बोझिल नहीं होते थे। पाठकों को बाँधे रखने की कला उनके अच्छे से आती थी।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : माणिकचंद्र वाजयेयी’ में लेखक कैलाश गौड़ लिखते हैं कि मामाजी की दृष्टि में कार्य की गुणवत्ता ही अधिक महत्वपूर्ण थी न कि समाचारपत्र की साज-सज्जा और कलेवर। समाचारपत्र के संबंध में वे प्राय: कहा करते थे कि उसका रंग-रोगन या कागज का चिकनापन महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण है उसमें छपे समाचारों का सही सटीक होना और उनका एकदम ताजा होना। मामाजी संपादकीय, अग्रलेखों और संपादक के नाम आए पत्रों को अत्यधिक महत्व देते थे। उनका कहना होता था कि “संपादकीय तो समाचारपत्र की जान है, वह जितना पढ़ा जाएगा और चर्चित होगा, समझ लो अखबार उतना ही सफल होगा। इसलिए संपादकीय सामयिक और धारदार होना चाहिए”। पाठकों के पत्रों को वे समाचारपत्र की लोकप्रियता का पैमाना मानते थे। जितने अधिक पाठकों के पत्र, समझ लो उतना ही लोकप्रिय। संपादक के नाम आए पत्रों को जनता का संपादकीय कहते थे और उन्हें प्राथमिकता प्रदान करने का निर्देश दिया करते थे।
मामाजी 1978 से 80 तक इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष भी रहे। उनके कार्यकाल में इंदौर प्रेस क्लब अपनी गतिविधियों के लिए काफी चर्चित हुआ। उन्होंने पुराने हो चुके बेकार कानूनों को खत्म करने की माँग इसी प्रेस क्लब के माध्यम से उठाई। पत्रकारों के प्रशिक्षण की भी चिंता उन्हें रहती थी। वे पत्रकारों को प्रशिक्षण देने के लिए प्रतिवर्ष कोई न कोई आयोजन कराते थे। इसके साथ ही पत्रकारिता को अपना करियर बनाने वाले युवकों को वे बहुत प्रोत्साहित करते थे। वे पत्रकारिता की चलती-फिरती पाठशाला थे। उनके संपर्क में आए अनेक युवकों ने पत्रकारिता में नाम कमाया। उनका एक स्वभाव था कि वे अपनी संपादकीय पढऩे और प्रूफ सुधारने के लिए युवा पत्रकारों को दे दिया करते थे। उन्हें इतनी छूट देते थे कि जो भी त्रुटि नजर आए बेहिचक उसे ठीक करके छपने के लिए भेज दें। मामाजी संपादक के लिए तय कुर्सी पर कभी-कभार ही बैठा करते थे। वे तो नवागत पत्रकारों के प्रशिक्षण की दृष्टि से उनके बीच में ही अधिक समय बिताया करते थे। मामाजी नये पत्रकारों के बीच अकसर कोई विषय चर्चा के लिए छेड़ देते थे और देखते थे कि वे क्या सोचते हैं? सब प्रकार के विचार सुनने के बाद अंत में उस घटना या मुद्दे पर सबका प्रबोधन भी करते थे। वे सबके विचारों का सम्मान करते थे। मामाजी के संपर्क में रहकर अनेक युवाओं ने पत्रकारिता का ककहरा सीखा लेकिन उन्होंने कभी किसी पर अपनी विचारधारा नहीं थोपी। सबका सहयोग ही किया।
मामाजी का जन्म 7 अक्टूबर, 1919 को आगरा जिले के बटेश्वर गाँव में हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इसी गाँव से थे। बटेश्वर में मामाजी और अटलजी का घर आमने-सामने है। दोनों ही महापुरुषों का बचपन यमुना की गोद में अटखेलियां करते बीता है। 2002 में जब अटलजी प्रधानमंत्री थे, तब स्वदेश (इंदौर) की योजना से दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर मामाजी का अभिनंदन समारोह ‘अमृत महोत्सव’ का आयोजन किया गया। उस दिन भार-विभोर होकर छल-छलाती आँखों से भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भरी सभा में मामाजी के चरणस्पर्श करने की अनुमति माँगी, तब वहाँ स्पंदित कर देने वाला वातावरण बन गया। भारत की राजसत्ता त्याग, समर्पण और निष्ठा के पर्याय साधु स्वभाव के मामाजी के सामने नतमस्तक थी। यह मामाजी संबोधन से प्रसिद्ध व्यक्ति का नहीं वरन उस लेखनी का सम्मान था, जिसने हिन्दी पत्रकारिता में भारतीय मूल्यों को स्वीकार्यता दिलाई। वर्ष 2005 में पत्रकारिता एवं लेखकीय सेवाओं के लिए उन्हें कोलकाता में डॉक्टर हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। हालाँकि, यह सब सम्मान/पुरस्कार, उनके लिए कोई मोल नहीं रखते थे। उनका व्यक्तित्व इन सबसे कहीं ऊपर और विराट था। मामाजी ने कभी अपने लिए सम्मान और पुरस्कार की आकांक्षा नहीं की। वे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस मंत्र को जीते थे, जिसमें कहा गया है कि कार्यकर्ता को ‘प्रसिद्धि परांगमुख’ होना चाहिए।
पत्रकारिता में नैतिकता और शुचिता के आग्रही दीनदयालजी
पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीतिज्ञ, चिंतक और विचारक के साथ ही कुशल संचारक और पत्रकार भी थे। उनके पत्रकार-व्यक्तित्व पर उतना प्रकाश नहीं डाला गया है, जितना कि आदर्श पत्रकारिता में उनका योगदान है। उनको सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है। उन्होंने देश में उस समय राष्ट्रीय पत्रकारिता की पौध रोपी थी, जब पत्रकारिता पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था। कम्युनिस्टों के प्रभाव के कारण भारतीय विचारधारा को संचार माध्यमों में उचित स्थान नहीं मिल पा रहा था, बल्कि राष्ट्रीय विचार के प्रति नकारात्मकता वातावरण बनाने के प्रयत्न किये जा रहे थे। देश को उस समय संचार माध्यमों में ऐसे सशक्त विकल्प की आवश्यकता थी, जो कांग्रेस और कम्युनिस्टों से इतर दूसरा पक्ष भी जनता को बता सके। पत्रकारिता की ऐसी धारा, जो पाश्चात्य नहीं अपितु भारतीयता पर आधारित हो। दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी दूरदर्शी सोच से पत्रकारिता में ऐसी ही भारतीय धारा का प्रवाह किया। उन्होंने राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’, साप्ताहिक समाचारपत्र ‘पाञ्चजन्य’ (हिंदी), ‘ऑर्गेनाइजर’ (अंग्रेजी) और दैनिक समाचारपत्र ‘स्वदेश’ प्रारंभ कराए। उन्होंने जब विधिवत पत्रकारिता (1947 में राष्ट्रधर्म के प्रकाशन से) प्रारंभ की, तब तक पत्रकारिता मिशन मानी जाती थी। पत्रकारिता राष्ट्रीय जागरण का माध्यम थी। स्वतंत्रता संग्राम में अनेक राजनेताओं की भूमिका पत्रकार के नाते भी रहती थी। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, डॉ. भीमराव आंबेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक नाम हैं, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे और पत्रकार भी। ये महानुभाव समूचे देश में राष्ट्रबोध का जागरण करने के लिए पत्रकारिता का उपयोग करते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पत्रकारिता कुछ समय तक मिशन बनी रही, उसके पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व थे। जिनके लिए पत्रकारिता अर्थोपार्जन का जरिया नहीं, अपितु राष्ट्र जागरण का माध्यम थी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता का अध्ययन करने से पहले हमें एक तथ्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के रूप में उनका नाम प्रकाशित नहीं हुआ। वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को 'प्रसिद्धि परांगमुख' होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है। अपने संगठन के इस मंत्र को दीनदयालजी ने आजन्म गाँठ बांध लिया था। इसलिए उन्होंने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित तो करायीं, लेकिन उनके 'प्रधान संपादक' कभी नहीं बने। जबकि वास्तविक संचालक, संपादक और आवश्यकता होने पर उनके कम्पोजिटर, मशीनमैन और सबकुछ दीनदयाल उपाध्याय ही थे। उन्होंने जुलाई-1947 में लखनऊ से 'राष्ट्रधर्म' मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर वैचारिक पत्रकारिता की नींव रखी और संपादक बनाया अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव लोचन अग्निहोत्री को। राष्ट्रधर्म को सशक्त करने और लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने प्राय: उसके हर अंक में विचारोत्तेजक लेख लिखे। इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन भी दीनदयालजी स्वयं ही करते थे।
इसी प्रकार मकर संक्राति के पावन अवसर पर 14 जनवरी, 1948 को उन्होंने 'पाञ्चजन्य' प्रारंभ कराया। राष्ट्रीय विचारों के प्रहरी पाञ्चजन्य में भी उन्होंने संपादक का दायित्व नहीं संभाला। यह दायित्व उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा। पाञ्चजन्य में भी दीनदयालजी 'विचारवीथी' स्तम्भ लिखते थे। जबकि अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ऑर्गेनाइजर में वह 'पॉलिटिकल डायरी' के नाम से स्तम्भ लिखते थे। इन स्तंभों में प्रकाशित सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दीनदयालजी की तत्कालीन घटनाओं एवं परिस्थितियों पर कितनी गहरी पकड़ थी। उनके लेखन में तत्कालीन परिस्थितियों पर बेबाक टिप्पणी के अलावा राष्ट्रजीवन की दिशा दिखाने वाला विचार भी समाविष्ट होता था। दीनदयालजी ने समाचार पत्र-पत्रिकाएं ही प्रकाशित नहीं करायीं, बल्कि उनकी प्रेरणा से कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और आगे चलकर इस क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर बने। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, देवेंद्र स्वरूप, महेशचंद्र शर्मा, यादवराव देशमुख, राजीव लोचन अग्निहोत्री, वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चंद्र मिश्र आदि प्रमुख हैं। ये सब पत्रकारिता की उसी पगडंडी पर आगे बढ़े, जिसका निर्माण दीनदयाल उपाध्याय ने किया।
दीनदयालजी पत्रकारिता में आदर्शवाद के आग्रही थे। वे मानते थे कि एक संवाददाता या संपादक को अपने लेखन में शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। शब्दों का चयन करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। किसी मुद्दे पर विरोध होने पर लिखते समय पत्रकार को अनावश्यक उत्तेजना से बचना चाहिए। क्योंकि, अनावश्यक उत्तेजना हमारे लेखन को कमजोर और अप्रभावी बनाती है। पत्रकारिता के धर्म का निर्वहन करने के लिए अपनी भावनाओं पर काबू रखना अनिवार्य है। लेखक और पत्रकार को हमेशा याद रखना चाहिए कि अंगुली सिर्फ चाकू से ही नहीं कटती, कभी-कभी कागज की कोर से भी कट जाती है। कागज और कलम के क्षेत्र काम करने वाले विद्वानों को चाकू की भाषा के बजाय तर्कों में धार देने पर ध्यान देना चाहिए। दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में अहंकार और कटुता का समावेश अंश मात्र भी नहीं था। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकार ने दीनदयालजी को याद करते हुए लिखा था- 'उनके हृदय के अंदर कोई कटुता नहीं थी। शब्दों में भी कटुता नहीं थी। बड़े प्रेम से बोला करते थे। कभी किसी पर जरा भी नाराज नहीं हुए। बहुत खराबी होने पर भी खराबी करने वाले के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया।'
पत्रकारिता में नैतिकता, शुचिता और उच्च आदर्शों के वे कितने बड़े हिमायती थे, इसका जिक्र करते हुए दीनदयालजी की पत्रकारिता पर आधारित पुस्तक के संपादक डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने लिखा है- संत फतेहसिंह के आमरण अनशन को लेकर पाञ्चजन्य में एक शीर्षक लगाया गया 'अकालतख्त के काल'। दीनदयालजी ने यह शीर्षक हटवा दिया और समझाया कि सार्वजनिक जीवन में इस प्रकार की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए, जिससे परस्पर कटुता बढ़े तथा आपसी सहयोग और साथ काम करने की संभावना ही समाप्त हो जाए। अपनी बात को दृढ़ता से कहने का अर्थ कटुतापूर्वक कहना नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार का एक और उदाहरण है। जुलाई, 1953 के पाञ्चजन्य के अर्थ विशेषांक की संपादकीय में संपादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने अशोक मेहता की शासन के साथ सहयोग नीति की आलोचना करते हुए 'मूर्खतापूर्ण' शब्द का उपयोग किया था। दीनदयालजी ने इस शब्द के उपयोग पर संपादक को समझाइश दी। उन्होंने लिखा- 'मूर्खतापूर्ण शब्द के स्थान पर यदि किसी सौम्य शब्द का प्रयोग होता तो पाञ्चजन्य की प्रतिष्ठा के अनुकूल होता।' इसी प्रकार चित्रों और व्यंग्य चित्रों के उपयोग में भी शालीनता का ध्यान रखने के वह आग्रही थे।
एक और प्रसंग उल्लेखनीय है। पाञ्चजन्य के संपादक यादवराव देशमुख ने तिब्बत और चीन के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की नीतियों से क्षुब्ध होकर पहला संपादकीय लिखा था। उन्होंने शीर्षक दिया था- 'गजस्तत्र न हन्यते'। इस संपादकीय को पढऩे के बाद दीनदयालजी ने यादवराव देशमुख को कहा था- 'भाई आपका अग्रलेख बहुत अच्छा रहा, लेकिन उसका शीर्षक तुमने शायद बहुत सोचकर नहीं लिखा है। पंडित नेहरू से हमारा वैचारिक मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि वे हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। उनकी आलोचना करते समय हल्के शब्दों का प्रयोग करना तो उचित नहीं होगा।' कितनी महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही थी। संपादक या पत्रकार होने का यह मतलब कतई नहीं होता कि हमारे मन में जो आक्रोश है, उसे अपनी लेखनी के जरिए प्रकट किया जाए। देश के प्रधानमंत्री पद की गरिमा का ध्यान रखना ही चाहिए। आज की परिस्थितियों में हम देखें, तब क्या इस प्रकार की पत्रकारिता दिखाई देती है? हमारे समय के अनेक मूर्धन्य लेखक और पत्रकार वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जिस प्रकार के शब्द और वाक्य उपयोग करते हैं, उनसे तो यही प्रतीत होता है कि उनका अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं है। दीनदयालजी की पत्रकारिता में जिस प्रकार की सौम्यता थी, वह अब दिखाई नहीं देती है। 1968 में तीन दिन से भी कम अवधि में हरियाणा, पश्चिम बंगाल और पंजाब की गैर-कांग्रेसी सरकारें गिरा दी गईं, तब ऑर्गेनाइजर में एक व्यंग्य चित्र प्रकाशित हुआ। इस कार्टून में तत्कालीन गृहमंत्री चव्हाण लोकतंत्र के बैल को काटते हुए दर्शाये गए थे। उस समय केआर मलकानी ऑर्गेनाइजर के संपादक थे। दीनदयालजी ने इस व्यंग्य चित्र के लिए उनको समझाया था कि चाहे व्यंग्य चित्र ही क्यों न हो, गो-हत्या का यह दृश्य मन को धक्का पहुंचाने वाला है। इस प्रकार के व्यंग्य चित्रों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। उनकी पत्रकारिता की शुचिता और नैतिकता का स्तर इतना ऊंचा था कि अपने विरोधी के प्रति भी असंसदीय और अमर्यादित शब्दों, फोटो या फिर व्यंग्य चित्रों के उपयोग को उपाध्यायजी सर्वथा अनुचित मानते थे।
यह माना जा सकता है कि यदि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राजनीति में नहीं भेजा जाता तो निश्चय ही उनका योगदान पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में और अधिक होता। पत्रकारिता के संबंध में उनके विचार अनुकरणीय है, यह स्पष्ट ही है। यदि उन्होंने पत्रकारिता को थोड़ा और अधिक समय दिया होता, तब वर्तमान पत्रकारिता का स्वरूप संभवत: कुछ और होता। पत्रकारिता में उन्होंने जो दिशा दिखाई है, उसका पालन किया जाना चाहिए।
“सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।” आपको किसी प्रकार का भ्रम न हो इसलिए बता देते हैं कि स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश सावरकर के लिए ये विचार किसी हिंदू महासभा के नेता के नहीं हैं, बल्कि उनके लिए यह सब अपने समाचार-पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने 18 मई, 1921 को लिखा था। महात्मा गांधीजी ने यह सब उस समय लिखा था, जब स्वातंत्र्यवीर सावरकर अपने बड़े भाई गणेश सावरकर के साथ अंडमान में कालापानी की कठोरतम सजा काट रहे थे। (हार्निमैन और सावरकर बंधु, पृष्ठ-102, सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय)
#SwatantryaveerSavarkar पहले भारतीय थे, जिन्होंने सन् 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा दिया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई। तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी। https://t.co/98qCGbsHAC
भारत माता के वीर सपूत सावरकर के बारे में आज अनाप-शनाप बोलने वाले कम्युनिस्टों और महात्मा गांधी के ‘नकली उत्तराधिकारियों’ को शायद यह पता ही नहीं होगा कि सावरकर बंधुओं के प्रति महात्मा कितना पवित्र और सम्मान का भाव रखते थे। गांधीजी की उपरोक्त टिप्पणी में इस बात पर गौर कीजिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि- “मौजूदा शासन प्रणाली (ब्रिटिश सरकार) की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने (वीर सावरकर) ने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले (गांधीजी से भी काफी पहले), देख लिया था।” इस पंक्ति में महात्मा वीर सावरकर की दृष्टि और उनकी निष्ठा को स्पष्ट रेखांकित कर रहे हैं। लेकिन, वीर सावरकर के विरुद्ध विषवमन करने वालों ने न तो महात्मा गांधी को ही पढ़ा है और न ही उन्हें सावरकर परिवार के बलिदान का सामान्य ज्ञान है। नकली लोग बात तो गांधीजी की करते हैं, उनकी विचारधारा के अनुयायी होने का दावा करते हैं, लेकिन उनके विचार का पालन नहीं करते हैं। जुबान पर गांधीजी का नाम है, लेकिन मन में घृणा-नफरत और हिंसा भरी हुई है। इसी घृणा और हिंसा के प्रभाव में ये लोग उस युगद्रष्ट महापुरुष की छवि को बिगाडऩे के लिए षड्यंत्र रचते हैं, जिसकी प्रशंसा स्वयं महात्मा गांधी ने की है।
महात्मा गांधी और विनायक दामोदर सावरकर की मुलाकात लंदन में 1909 में विजयदशमी के एक आयोजन में हुई थी। लगभग 12 वर्ष बाद भी महात्मा गांधी की स्मृति में यह मुलाकात रहती है और जब वे अपने समाचार-पत्र यंग इंडिया में सावरकर के कारावास और उनकी रिहाई के संबंध में लिखते हैं, तो पहली मुलाकात का उल्लेख करना नहीं भूलते। इसका एक ही अर्थ है कि क्रांतिवीर सावरकर और भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके प्रयासों ने महात्मा गांधी के मन पर गहरी छाप छोड़ी थी।
इससे पूर्व भी महात्मा गांधी ने 26 मई, 1920 को यंग इंडिया में ‘सावरकर बंधु’ शीर्षक से एक विस्तृत टिप्पणी लिखी है। यह टिप्पणी उन सब लोगों को पढऩी चाहिए, जो क्रांतिवीर सावरकर पर तथाकथित ‘क्षमादान याचना’ का आरोप लगाते हैं। इस टिप्पणी में हम तथाकथित ‘माफीनामे’ प्रसंग को विस्तार से समझ पाएंगे और यह भी जान पाएंगे कि स्वयं महात्मा गांधीजी सावरकर बंधुओं की मुक्ति के लिए कितने आग्रही थे? सावरकर बंधुओं के साथ हो रहे अन्याय पर भी महात्माजी ने प्रश्न उठाया है। इस टिप्पणी में महात्मा गांधी ने उस ‘शाही घोषणा’ को भी उद्धृत किया है, जिसके अंतर्गत उस समय अनेक राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जा रहा था। वे लिखते हैं कि – “भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने इस संबंध में जो कार्रवाई की उसके परिणामस्वरूप उस समय कारावास भोग रहे बहुत लोगों को राजानुकम्पा का लाभ प्राप्त हुआ है। लेकिन कुछ प्रमुख ‘राजनीतिक अपराधी’ अब भी नहीं छोड़े गए हैं। इन्हीं लोगों में मैं सावरकर बंधुओं की गणना करता हूँ। वे उसी माने में राजनीतिक अपराधी हैं, जिस माने में वे लोग हैं, जिन्हें पंजाब सरकार ने मुक्त कर दिया है। किंतु इस घोषणा (शाही घोषणा) के प्रकाशन के आज पाँच महीने बाद भी इन दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं गया है।”
इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि अंग्रेज सरकार जल्द से जल्द सावरकर बंधुओं को स्वतंत्र करे। सावरकर बंधुओं के प्रकरण में अपनायी जा रही दोहरी नीति को उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से जनता के बीच उजागर कर दिया। महात्मा गांधी अपने इस आलेख में अनेक तर्कों से यह इस सिद्ध कर रहे थे कि ब्रिटिश सरकार के पास ऐसा कोई कारण नहीं कि वह अब सावरकर बंधुओं को कैद में रखे, उन्हें तुरंत मुक्त करना चाहिए। हम जानते हैं कि महात्मा गांधी अधिवक्ता (बैरिस्टर) थे। सावरकर बंधुओं पर लगाई गईं सभी कानूनी धाराओं का उल्लेख और अन्य मामलों के साथ तुलना करते हुए गांधीजी ने इस लेख में स्वातंत्र्यवीर सावरकर बंधुओं का पक्ष मजबूती के साथ रखा है।
उस समय वाइसराय की काउंसिल में भी सावरकर बंधुओं की मुक्ति का प्रश्न उठाया गया था, जिसका जिक्र भी गांधीजी ने किया है। काउंसिल में जवाब में कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार के विचार से दोनों भाइयों को छोड़ा नहीं जा सकता। इसका उल्लेख करते हुए गांधीजी ने अपने इसी आलेख के आखिर में लिखा है- “इस मामले को इतनी आसानी से ताक पर नहीं रख दिया जा सकता। जनता को यह जानने का अधिकार है कि ठीक-ठीक वे कौन-से कारण हैं जिनके आधार पर राज-घोषणा के बावजूद इन दोनों भाइयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा रही है, क्योंकि यह घोषणा तो जनता के लिए राजा की ओर से दिए गए ऐसे अधिकार पत्र के समान है जो कानून का जोर रखता है।”
आज जो दुष्ट बुद्धि के लोग वीर सावरकर की अप्रतिम छवि को मलिन करने का दुष्प्रयास करते हैं, उन्हें महात्मा गांधी की यह टिप्पणी इसलिए भी पढऩी चाहिए क्योंकि इसमें गांधीजी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए दोनों भाइयों के योगदान को भी रेखांकित किया है। यह पढऩे के बाद शायद उन्हें लज्जा आ जाए और वे हुतात्मा का अपमान करने से बाज आएं। हालाँकि, संकीर्ण मानसिकता के इन लोगों की बुद्धि न भी सुधरे तो भी कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि जो भी सूरज की ओर गंदगी उछालता है, उससे उनका ही मुंह मैला होता है। क्रांतिवीर सावरकर तो भारतीय इतिहास के चमकते सूरज हैं, उनका व्यक्तित्व मलिन करना किसी के बस की बात नहीं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर तो लोगों के दिलों में बसते हैं। युगद्रष्टा सावरकर भारत के ऐसे नायकों में शामिल हैं, जो यशस्वी क्रांतिकारी हैं, समाज उद्धारक हैं, उच्च कोटि के साहित्यकार हैं, राजनीतिक विचारक एवं प्रख्यात चिंतक भी हैं। भारत के निर्माण में उनका योगदान कृतज्ञता का भाव पैदा करता है। उनका नाम कानों में पड़ते ही मन में एक रोमांच जाग जाता है। गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है। श्रद्धा से शीश झुक जाता है।
सूचनाओं का आदान-प्रदान करना हम सबका मानव स्वभाव है। इस प्रवृत्ति का एक ही अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर किसी न किसी रूप में ‘एक पत्रकार’ बैठा है। किसी मीडिया संस्थान के प्रशिक्षित पत्रकार की भाँति वह भी समाज को सूचनाएं/समाचार देना अपना दायित्व समझता है या सूचनाएं देने की इच्छा रखता है। इंटरनेट और स्मार्टफोन की सहज उपलब्धता के कारण अब तो उसके पास जनसंचार माध्यम भी हैं। इंटरनेट पर ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर और यूट्यूब इत्यादि के माध्यम से सामान्य व्यक्ति व्यापक पहुँच रखता है। कई बार उसके पास ऐसे समाचार, चित्र और वीडियो होते हैं, जो किसी भी बड़े से बड़े मीडिया संस्थान के पास नहीं होते। इस कारण बड़े मीडिया संस्थानों ने भी विशाल नागरिक संसाधन का उपयोग प्रारंभ किया है। उन्होंने भी अपने माध्यम से पत्रकारिता के लिए नागरिकों को स्थान देना आरंभ किया है। नागरिक पत्रकारिता का इतना अधिक महत्व और प्रयोग बढऩे से इस विषय पर व्यापक प्रबोधन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इस दृष्टि से जनसंचार एवं मीडिया के शिक्षण-प्रशिक्षण से जुड़े डॉ. पवन सिंह मलिक की पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ महत्वपूर्ण है। डॉ. मलिक एक दशक से भी अधिक समय से मीडिया शिक्षा एवं मीडिया के क्षेत्र से जुड़े हैं। वर्तमान में वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ में इस विधा के लगभग उन सब आयोगों को शामिल किया गया है, जिनकी जानकारी एक नागरिक को बतौर पत्रकार होनी चाहिए। पुस्तक का पहला अध्याय ही इस प्रश्न के साथ प्रारंभ होता है कि ‘हम नागरिक पत्रकार क्यों बनें?’ संयोग से यह अध्याय मुझे (लोकेन्द्र सिंह) ही लिखने का अवसर प्राप्त हुआ है। इस अध्याय में मैंने उन सब कारणों का उल्लेख किया है, जिनके कारण से आज समाज में नागरिक पत्रकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। नागरिक पत्रकारिता को अपनाने का मन बनाने वाले साथियों के सामने इस दायित्व की जवाबदेही, गंभीरता एवं उद्देश्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नागरिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कितनी संभावनाएं हैं, किन माध्यमों का उपयोग हम समाचार/विचार सामग्री के प्रसारण हेतु कर सकते हैं और मुख्यधारा के मीडिया में बतौर नागरिक पत्रकार हम कैसे अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं, इन बिन्दुओं को छूने का भी प्रयास किया है।
नागरिक पत्रकारिता का बखूबी उपयोग करने वाले प्रशांत बाजपेई ने अपने अध्याय में नागरिक पत्रकारिता की आधुनिक समाज में भूमिका को विस्तार से बताया है। उन्होंने नागरिक पत्रकारिता के भविष्य को उज्ज्वल बताया है। मीडिया के शिक्षक अनिल कुमार पाण्डेय ने अपने आलेख में न केवल नागरिक पत्रकारिता के प्रकारों का उल्लेख किया है बल्कि विस्तार के उसके लिए उपयुक्त माध्यम का जिक्र किया है और उनके अभ्यास पर प्रकार डाला है। उन्होंने अपने अध्याय में नागरिक पत्रकारिता के विभिन्न माध्यमों की विशेषताओं का उदाहरण सहित वर्णन किया है। इससे नागरिक पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोगों को अपनी रुचि का माध्यम चुनने में सहायता मिलेगी।
लेखक दिनेश कुमार ने अपने आलेख में बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है। उन्होंने उन बातों की ओर संकेत किया है, जिनकी कमी नागरिक पत्रकारिता में दिखाई देती है। यदि उनके सुझावों पर अमल किया जाए तो बहुत हद तक नागरिक पत्रकार किसी विशेषज्ञ पत्रकार की तरह काम करने लगेंगे और उनके द्वारा प्रसारित सामग्री भी अधिक विश्वसनीय एवं संतुलित होगी। मीडिया शोधार्थी अमरेन्द्र कुमार आर्य ने अपने आलेख में बताया है कि नागरिक पत्रकारिता लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का मंच बन गया है। नि:संदेह नागरिक पत्रकारिता ने मुख्यधारा के मीडिया को न केवल अधिक लोकतांत्रिक बनाया है अपितु समाचारों के चयन एवं प्रसारण के उसके एकाधिकार को चुनौती भी दी है। आज किसी भी समाचार चैनल या समाचार-पत्र पर सोशल मीडिया (नागरिक पत्रकारिता) द्वारा उठाये गए मुद्दों का दबाव रहता है। समाचारों के प्रसारण में यह स्पष्टतौर पर दिखाई देता है। मीडिया न तो किसी मुद्दे को अब अनदेखा कर सकता है और न ही किसी मुद्दे दबा सकता है। हमारे सामने अनेक उदाहरण हैं जब नागरिक पत्रकारों द्वारा सामने लाई सूचनाओं पर व्यावसायिक मीडिया ने ध्यान दिया।
वरिष्ठ फोटो पत्रकार डॉ. प्रदीप तिवारी का आलेख नागरिक पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले लोगों का हौसला बढ़ाता है। इस लेख में उन्होंने अनेक सुविख्यात पत्रकारों का उदाहरण देकर बताया है कि कैसे उन्होंने अपनी शुरुआत बतौर नागरिक पत्रकार की थी और बाद में वे बड़े संस्थानों तक पहुँचे। हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय की सहायक प्राध्यापक डॉ. भारती बत्तरा ने नागरिक पत्रकारिता में सूचना का अधिकार कानून के महत्व को रेखांकित किया है। अर्थात् नागरिक पत्रकार आरटीआई की मदद से महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त कर भंडाफोड़ कर सकते हैं। उन्होंने इसके चर्चित उदाहरण भी दिए हैं। पुस्तक के आखिरी अध्याय में मीडिया शिक्षक डॉ. अमित भारद्वाज ने नागरिक पत्रकारिता प्रशिक्षण के महत्व को रेखांकित किया है।
मीडिया शिक्षक डॉ. पवन सिंह मलिक की पुस्तक ‘नागरिक पत्रकारिता’ में कुल 15 अध्याय/आलेख शामिल हैं। पुस्तक की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने लिखी है। उनकी यह प्रस्तावना ही नागरिक पत्रकारिता की उपयोगिता, आवश्यकता एवं उसके महत्व को भली प्रकार सिद्ध कर देती है। वह लिखते हैं कि नागरिक पत्रकारिता ने पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं, जैसे- सूचना एकत्रीकरण के नए जरिए पैदा किए, सूचनाओं पर एकाधिकार समाप्त किया, सूचनाओं के संप्रेषण के लिए नए रास्ते और तकनीक अपनाई एवं नए तरह के मीडियाकर्मी पैदा किए। यह पुस्तक न केवल उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो नागरिक पत्रकारिता के प्रति उत्साही हैं, बल्कि यह उनको भी एक दृष्टि देती है जो पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थी भी इस पुस्तक के अध्ययन से नागरिक पत्रकारिता में अपनी संभावनाएं तलाश सकते हैं। यश पब्लिकेशंस, दिल्ली ने पुस्तक का प्रकाशन किया है।
भारतीय परंपरा में प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक अधिष्ठात्रा देवता/देवी का होना हमारे पूर्वजों ने सुनिश्चित किया है। इसका उद्देश्य प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए कुछ सनातन मूल्यों की स्थापना करना ही रहा होगा। सनातन मूल्य अर्थात् वे मूल्य जो प्रत्येक समय और परिस्थिति में कार्य की पवित्रता एवं उसके लोकहितकारी स्वरूप को बचाए रखने में सहायक होते हैं। यह स्वाभाविक ही है कि समय के साथ कार्य की पद्धति एवं स्वरूप बदलता है। इस क्रम में मूल्यों से भटकाव की स्थिति भी आती है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हम मूल्यों की पुनर्स्थापना पर विमर्श करते हैं, तब अधिष्ठात्रा देवता/देवी हमें सनातन मूल्यों का स्मरण कराते हैं। ये आदर्श हमें भटकाव और फिसलन से बचाते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शित करते हैं। उनसे प्राप्त ज्ञान-प्रकाश के आलोक में हम फिर से उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं, जिसमें लोकहित है। इसलिए भारत में जब आधुनिक पत्रकारिता प्रारंभ हुई, तब हमारे पूर्वजों ने इसके लिए दैवीय अधिष्ठान की खोज प्रारंभ कर दी। उनकी वह तलाश तीनों लोक में भ्रमण करने वाले और कल्याणकारी समाचारों का संचार करने वाले देवर्षि नारद पर जाकर पूरी हुई। भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती (23 मई, 1826 दिन- मंगलवार / वैशाख कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चयन किया। किंतु किसी तकनीकी कारण से उदन्त मार्तण्ड का पहला अंक 23 को प्रकाशित नहीं हो सका, हालाँकि अंक प्रकाशन हेतु तैयार था। इसलिए जब 30 मई को उदन्त मार्तण्ड का पहला अंक प्रकाशित होकर आया तो उसमें नारद जयंती का हर्ष के साथ उल्लेख था। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है।
ऐसा नहीं है कि पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा देवता के रूप में देवर्षि नारद को मान्यता दी, अपितु अन्य प्रारम्भिक व्यक्तियों/संस्थाओं ने भी उनको ही संचार का प्रेरणास्रोत माना। जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने अपने एक आलेख ‘ब्रह्माण्ड के प्रथम पत्रकार’ में लिखा है- “हमारे यहाँ सन् 1940 के आस-पास पत्रकारिता की शिक्षा बाकायदा शुरू हुई। लेकिन पत्रकारिता का जो दूसरा या तीसरा इंस्टीट्यूट खुला था, नागपुर में, वह एक क्रिश्चिन कॉलेज था। उसका नाम है इस्लाब कॉलेज। जब मैं नागपुर में रह रहा था तब पता चला था कि उस कॉलेज के बाहर नारद जी की एक मूर्ति लगाई गई थी।” इसी तरह 1948 में जब दादा साहब आप्टे ने भारतीय भाषाओं की प्रथम संवाद समिति (न्यूज एजेंसी) ‘हिंदुस्थान समाचार’ शुरू की थी, तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने हिंदुस्थान समाचार को जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि देवर्षि नारद पत्रकारिता के पितामह हैं। पत्रकारिता उन्हीं से शुरू होती है।
यह दो-तीन उदाहरण इसलिए दिए हैं, क्योंकि भारत में एक वर्ग ऐसा है, जो सदैव भारतीय परंपरा का विरोध करता है। देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श मानने पर वह विरोध ही नहीं करता, अपितु देवर्षि नारद का उपहास भी उड़ाता है। इसके लिए वह जुमला उछालता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पत्रकारिता का ‘भगवाकरण’ करने का प्रयास कर रहा है। इस वर्ग ने त्याग और समर्पण के प्रतीक ‘भगवा’ को गाली की तरह उपयोग करना प्रारंभ किया है। इससे ही इनकी मानसिक और वैचारिक क्षुद्रता का परिचय मिल जाता है। बहरहाल, उपरोक्त उदाहरणों से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि आरएसएस ने देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श या आद्य पत्रकार घोषित नहीं किया है, बल्कि भारत में प्रारंभ से ही पत्रकारिता विद्या से जुड़े महानुभावों ने देवर्षि नारद को स्वाभाविक ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया था। क्योंकि यह भारतीय परंपरा है कि हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक दैवीय अधिष्ठान है और जब हम वह कार्य शुरू करते हैं तो उस अधिष्ठात्रा देवता/देवी का स्मरण करते हैं। पत्रकारिता क्षेत्र के भारतीय मानस ने तो देवर्षि नारद को सहज स्वीकार कर ही लिया है। जिन्हें देवर्षि नारद के नाम से चिढ़ होती है, उनकी मानसिक अवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है। उनका आचरण देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में उनकी आस्था नहीं है। अब तो प्रत्येक वर्ष देवर्षि नारद जयंती के अवसर पर देशभर में अनेक जगह महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। नारदीय पत्रकारिता का स्मरण किया जाता है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के 'नारद भक्ति सूत्रों' में पत्रकारिता के सिद्धांत
पिछले कुछ वर्षों में आई जागरूकता का प्रभाव दिखना प्रारंभ हो गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली नयी पीढ़ी भी अब देवर्षि नारद को संचार के आदर्श के रूप में अपना रही है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (डीएविवि) के पत्रकारिता विभाग के बाहर दीवार पर युवा कार्टूनिस्टों ने देवर्षि नारद का चित्र बनाया है, जिसमें उन्हें पत्रकार के रूप में प्रदर्शित किया है। संभवत: वे युवा पत्रकारिता के विद्यार्थी ही रहे होंगे। डीएविवि जाना हुआ, तब वह चित्र देखा, बहुत आकर्षक और प्रभावी था। इसी तरह एशिया के प्रथम पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर देवर्षि नारद का चित्र एवं उनके भक्ति सूत्र उकेरे गए हैं। विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रदर्शित नारद भक्ति सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल, उन सूत्रों में पत्रकारिता के आधारभूत सिद्धांत शामिल हैं। ये सूत्र पत्रकारिता के विद्यार्थियों को दिशा देने वाले हैं। पहला सूत्र लिखा है- ‘तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात।’ अर्थात् मतों में विभिन्नता एवं अनेकता है। ‘विचारों में विभिन्नता और उनका सम्मान’ यह पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी तरह दूसरा है- ‘तद्विहीनं जाराणामिव।’ अर्थात् वास्तविकता (पूर्ण सत्य) की अनुपस्थिति घातक है। अकसर हम देखते हैं कि पत्रकार जल्दबाजी में आधी-अधूरी जानकारी पर समाचार बना देते हैं। उसके कितने घातक परिणाम आते हैं, सबको कल्पना है। इसलिए यह सूत्र सिखाता है कि समाचार में सत्य की अनुपस्थिति नहीं होनी चाहिए। पूर्ण जानकारी प्राप्त करके ही समाचार प्रकाशन करना चाहिए। एक और सूत्र को देखें- ‘दु:संग: सर्वथैव त्याज्य:।’ अर्थात् हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए। देवर्षि नारद के संपूर्ण संचार का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह लोककल्याण के लिए संवाद का सृजन करते थे। देवर्षि नारद सही अर्थों में पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा हैं।
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के पत्रकारिता विभाग के बाहर देवर्षि नारद के पत्रकारीय पक्ष को कार्टून विधा के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास