गुरुवार, 29 नवंबर 2018

जातिभेद मिटाता रेल का सामान्य डिब्बा और संघ

- लोकेन्द्र सिंह -
'ट्रेन के सफर में एक बेहद खास बात है, जिसे हमें अपने असल जीवन में भी चरितार्थ करना चाहिए- ट्रेन में जाति का कोई भेद नहीं। सामान्य डिब्बे में तो धन का भी कोई भेद नहीं। सीट खाली है तो हम झट से उस पर बैठ जाते हैं, यह सोचे बिना कि जिससे सटकर बैठना है वह मेहतर भी हो सकता है और चमार भी। वह धोबी भी हो सकता है और कंजर भी। सामान्य डिब्बे में सीट पाने के लिए धन और उसके बल पर हासिल की जाने वाली जुगाड़ भी काम नहीं आती। जो पुरुषार्थ करेगा और जिसके भाग्य में होगी सीट उसी को मिलती है।'
            'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर और राष्ट्र के महान नायक मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने जीवन का काफी हिस्सा ट्रेनों में गुजारा। इनके लिए एक गीत भी रचा गया है जिसके बोल हैं- गाड़ी मेरा घर है कह कर जिसने की दिन-रात तपस्या... ' और वो गीत गुनगुनाने लगे। चॉकलेट रंग का कुर्ता-पाजामा और ऊपर से खादी की सदरी डाल रखी थी, उन बुजुर्ग ने। वे ही अपने सामने बैठे एक युवक से बातें कर रहे थे और फिर ये गीत गुनगुनाने लगे, मनमौजी की तरह। वो श्रीधाम एक्सप्रेस के सामान्य डिब्बे में खिड़की के पास बैठे थे। मैं हबीबगंज रेलवे स्टेशन से गाड़ी में चढ़ा था। भीड़ बहुत ज्यादा तो नहीं थी। मैं सीट तलाश रहा था। उन्होंने यह देखकर इशारे से मुझे अपने पास बैठा लिया। सुकून मिला कि चलो अब ग्वालियर तक करीब साढ़े पांच घण्टे का सफर अखरेगा नहीं। आराम से बैठने लायक जगह मिल गई है।

सोमवार, 26 नवंबर 2018

उजाले से भरा स्वदेश का दीपावली विशेषांक

- लोकेन्द्र सिंह -
स्वदेश ग्वालियर समूह की ओर से प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाले दीपावली विशेषांक की प्रतीक्षा स्वदेश के पाठकों के साथ ही साहित्य जगत को भी रहती है। समृद्ध विशेषांकों की परंपरा में इस वर्ष का विशेषांक शुभ उजाले से भरा हुआ है। प्रेरणा देने वाली कहानियां, संवेदनाएं जगाने वाली कविताएं और ज्ञानवर्धन करने वाले आलेख सहित अन्य पठनीय सामग्री लेकर यह विशेषांक पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। प्रख्यात ज्योतिर्विद ब्रजेन्द्र श्रीवास्तव की वार्षिक ज्योतिष पत्रिका स्वदेश के दीपावली विशेषांक को और अधिक रुचिकर बनाती है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

बेटी के लिए कविता-6



हो गई चार साल की छोकरी 
बाँधकर चलती है बातों की पोटली। 


पोटली में बातें, रंग-बिरंगी सतरंगी
बातें खट्टी-मीठी, अदा नखराली। 



समय की जैसी मांग, हाजिर वैसी बात
मीठी बातों में लेकर तुम पोटने वाली।



पोटली में बातें, दुनिया जहान की
मैं सुनने वाला और तुम सुनाने वाली। 



छकपक-छकपक चलती बातों की रेल
सुबह से शाम तक, बेरोकटोक चलने वाली। 



पोटली में बातें, मतलब-बेमतलब
सुननी होंगी सब, लड़की ज़िद वाली। 



खजाने से भी कीमती ये पोटली 
मन बहलाये, बोली उसकी तोतली। 



मैं सुनता रहूं और तुम सुनाती रहो 
कभी न हो खाली, तुम्हारी ये पोटली। 
- लोकेन्द्र सिंह -

सोमवार, 19 नवंबर 2018

नाग को दूध पिलाते- "हम असहिष्णु लोग"


डॉ. विकास दवे
युवा कलमकार लोकेंद्र सिंह की सद्य प्रकाशित कृति 'हम असहिष्णु लोग' हाथों में है। एक-एक पृष्ठ पलटते हुए भूतकाल की कुछ रेतीली किरचें आंखों में चुभने लगी हैं। संपूर्ण विश्व जब घोषित कर रहा था कि - 'मनुष्य जाति ही नहीं अपितु प्राणी जगत और प्रकृति के प्रति मानवीय व्यवहार की शिक्षा विश्व का कोई देश यदि हमें दे सकता है,तो वह केवल और केवल भारत है।' ऐसे समय में इसी भारत के कुछ कपूत अपनी ही जांघ उघाड़कर बेशर्म होने का कुत्सित प्रयास कर रहे थे। आश्चर्य है कि जन-जन की आवाज होने का दंभ पालने वाले इन वाममार्गी बधिरों को भारत के राष्ट्रीय स्वर सुनाई ही नहीं दे रहे थे। 'अवार्ड वापसी गैंग' की भारत के गांव-गांव, गली-गली में हुई थू-थू को गरिमामयी शब्दों में प्रस्तुत करने का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।