राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्ष 2025 में शतायु हो जाएगा। अपनी सुदीर्घ यात्रा में संघ ने आदर्श, अनुशासन, सामाजिक एवं व्यक्ति निर्माण के कार्य में नित नये प्रतिमान स्थापित किए हैं। अपनी इस यात्रा में संघ कहीं ठहरा नहीं। निरंतर गतिमान रहा। समय के साथ कदमताल करता रहा। दशों दिशाओं में फैलकर संघ ने समाज जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। जबकि उसके आगे-पीछे प्रारंभ हुए अनेक अच्छे संगठन काल-कवलित हो गए। उनके उद्देश्य भी श्रेष्ठ थे। संघ अपने कर्मपथ पर अडिग़ रहा, उसका प्रमुख कारण है- सरसंघचालक की अनूठी व्यवस्था।
संघ में सरसंघचालक नेतृत्वकारी पद नहीं है, बल्कि मार्गदर्शक और प्रेरणा का केंद्र है। संस्थापक सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के समय से स्थापित मानदंड अब तक स्थायी हैं। सिंहासन बत्तीसी की कहानी हम सबको भली प्रकार ज्ञात है। विक्रमादित्य के प्रताप से सिंहासन ही सिद्ध हो गया था। बाद में, जो भी उस पर बैठा, उसने विक्रमादित्य के सुशासन को ही आगे बढ़ाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सरसंघचालक का दायित्व भी श्रेष्ठ संगठन शिल्पी और भारत माँ के सच्चे सपूत डॉ. हेडगेवार के प्रताप से सिद्ध हो गया है। इसलिए संघ की यह परंपरा निर्विवाद और अक्षुण्य चली आ रही है।
संघ के स्थापना वर्ष 1925 से 1940 तक डॉ. हेडगेवार का जीवन विश्व के सबसे बड़े संगठन का आधार बनाने में अनवरत लगा रहा। यशस्वी संगठन का उपयोग डॉ. हेडगेवार ने कभी भी अपने प्रभाव के लिए नहीं किया। उन्होंने संघ को सदैव राष्ट्रहित के लिए तैयार किया। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार एक दूरदृष्टा थे। उन्हें क्रांतिकारी, राजनीतिक और सामाजिक संगठनों में कार्य का अनुभव था। अपने उन सब अनुभवों और भविष्य को ध्यान में रखकर ही डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को व्यक्ति केंद्रित संगठन बल्कि विचार केंद्रित संगठन का स्वरूप दिया। संघ आत्मनिर्भर बने, इसके संबंध में भी उन्होंने पर्याप्त प्रयास किए। आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए गुरु पूजन की परंपरा प्रारंभ की। हम जानते हैं कि गुरु पूजन के अवसर पर गुरु दक्षिणा में स्वयंसेवकों से आई राशि से ही संघ का संचालन होता है। 1928 में गुरु पूर्णिमा के दिन से गुरु पूजन की परंपरा शुरू हुई। जब सब स्वयंसेवक गुरु पूजन के लिए एकत्र हुए तब सभी स्वयंसेवकों को यही अनुमान था कि डॉक्टर साहब की गुरु के रूप में पूजा की जाएगी। उनका अनुमान स्वाभाविक ही था, क्योंकि किसी भी सांस्कृतिक, सामाजिक या धार्मिक संगठन के संस्थापक ही उसके सर्वेसर्वा बन जाते हैं। व्यक्ति केंद्रित ऐसे संगठन संस्थापक के साथ ही समाप्त हो जाते हैं या फिर अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं।
बहरहाल, डॉ. हेडगेवार ने संघ में व्यक्ति पूजा को निषेध करते हुए प्रथम गुरु पूजन कार्यक्रम के अवसर पर जो कहा, वह अत्यंत महत्व का है। उन्होंने कहा- ''संघ ने अपने गुरु की जगह पर किसी व्यक्ति विशेष को मान न देते हुए परम पवित्र भगवा ध्वज को ही सम्मानित किया है। इसका कारण है कि व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, फिर भी वह कभी भी स्थिर या पूर्ण नहीं रह सकता। अतएव व्यक्ति विशेष को गुरु के स्थान पर रखकर अपनी स्थिति हास्यास्पद बनाने की अपेक्षा इतिहास, परंपरा एवं राष्ट्रीयता का समन्वित प्रतिबिंब भगवा ध्वज हमारे गुरु के रूप में सम्मानित है। इससे मिलने वाली स्फूर्ति किसी भी मनुष्य से मिलने वाली स्फूर्ति की अपेक्षा श्रेष्ठ है।''
जिन डॉक्टर साहब ने स्वयं को संगठन के 'गुरु' के स्थान पर नहीं रखा, फिर भला वह अपने लिए सरसंघचालक का पद क्यों तय करते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सरसंघचालक के पद का निर्माण की घटना अनोखी है, जो श्रद्धा भाव को प्रकट करती है। संघ के अनुशासन को दिखाती है। उस विराट व्यक्तित्व का दर्शन कराती है, जो भव्य महल की बालकनी में बैठना पसंद नहीं करते, बल्कि स्वयं को नींव में खपाने के लिए आतुर दिखते हैं। अमूमन किसी भी संगठन के प्रारंभ होने से पहले ही उसका नाम, कार्यपद्धति एवं पदनाम तय हो जाते हैं। किंतु, संघ के संबंध में यह सब महत्वपूर्ण बातें बाद में तय हुईं। संघ का नाम पहली शाखा लगने के छह माह बाद तय हुआ- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। सरसंघचालक, सरकार्यवाह और प्रचारक जैसे पदों का निर्माण चार वर्ष बाद हुआ।
संघ के प्रमुख स्वयंसेवकों की दो दिन की एक बैठक 9 और 10 नवंबर 1929 को नागपुर में हुई। इस बैठक में ही विश्वनाथराव केलकर, तात्याजी कालीकर, आप्पाजी जोशी, बापूराव मुठाल, बाबासाहब कोलते, बालाजी हुद्दार, कृष्णराव मोहरीर, मार्तंडराव जोग एवं देवईकर ने अन्य स्वयंसेवकों से विचार-विमर्श करके सरसंघचालक के पद का निर्माण किया। रोचक बात यह है कि इस पूरे विचार-विमर्श से डॉक्टर साहब को दूर रखा गया। बैठक के दूसरे दिन जब डॉ. हेडगेवार स्वयंसेवकों के मार्गदर्शन के लिए आए तो आप्पाजी जोशी ने आदेश दिया- ''सरसंघचालक प्रणाम एक, दो, तीन।'' स्वयंसेवकों ने डॉ. हेडगेवार को सरसंघचालक के रूप में प्रणाम किया। यह सब होता देख डॉ. हेडगेवार एकदम सकते में आ गए। कार्यक्रम के बाद उन्होंने आप्पाजी जोशी से कहा- ''यह मुझे पसंद नहीं है कि अपने से बड़े आदरणीय त्यागी पुरुषों का प्रणाम ग्रहण करूं।'' उन्होंने सरसंघचालक के पद के प्रति भी अस्वीकृति का भाव प्रकट किया। किंतु, आप्पाजी जोशी ने स्पष्ट कहा कि यह संघ का सामूहिक निर्णय है। संगठन के हित में आपको अप्रसन्न करने वाली यह बात तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी। एक आदर्श स्वयंसेवक की भाँति डॉक्टर साहब ने संघ के सामूहिक निर्णय को स्वीकार कर लिया।
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वर्ष 1933 में डॉक्टर साहब ने जो घोषणाएं कीं, उनसे ही एक स्वयंसेवक से लेकर सरसंघचालक तक के आचार-व्यवहार को दिशा मिलती है। वह कहते हैं- ''इस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्मदाता अथवा संस्थापक मैं न होकर आप सब हैं। यह मैं भली भाँति जानता हूँ।'' अद्वितीय संगठन की स्थापना का श्रेय न लेकर डाक्टर साहब ने स्वयंसेवकों को संदेश दिया है कि व्यक्तिगत कुछ नहीं, सब सामूहिक है। संगठन में श्रेय लेने की होड़ नहीं होनी चाहिए। यदि किसी ने कुछ श्रेष्ठ कार्य प्रारंभ किया है, या फिर दिए गए कार्य का सम्पादन सफलतापूर्वक किया है, तो उसका श्रेय लेने से बचना चाहिए। वह कहते हैं- ''आपकी इच्छा एवं आज्ञा से जितनी सहर्षता के साथ मैंने इस पद (सरसंघचालक) पर कार्य किया है, इतने ही आनंद से आपके द्वारा चुने हुए नये सरसंघचालक के हाथ सभी अधिकार सूत्र समर्पित करके उसी क्षण से उसके विश्वस्त स्वयंसेवक के रूप में कार्य करता रहूंगा। संघचालक की आज्ञा का पालन स्वयंसेवकों द्वारा बिना किसी अगर-मगर के होना अनुशासन एवं कार्य प्रगति के लिए आवश्यक है। नाक से भारी नथ- इस स्थिति को संघ कभी उत्पन्न नहीं होने देगा। यह संघ कार्य का रहस्य है।'' हम देखते हैं कि आद्य सरसंघचालक के इस विचार का संघ में सबने अक्षरश: पालन किया है। बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शनजी ने सरसंघचालक के अधिकार सौंपने के बाद जैसा डॉक्टर साहब ने कहा, वैसा ही स्वयंसेवक जीवन जिया।
डाक्टर साहब आगे और अधिक कठोरता बरतते हुए घोषणा करते हैं- ''आपको जब भी प्रतीत हो कि मेरी अयोग्यता के कारण संघ की क्षति हो रही है तो आप मेरे स्थान पर दूसरे योग्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वतंत्र हैं। मेरे लिए अपने व्यक्तित्व के मायने नहीं, संघ कार्य का ही वास्तविक अर्थ में महत्व है। अत: संघ के हित में कोई भी कार्य करने में मैं पीछे नहीं हटूँगा। संघ कार्य के समय किसी भी प्रकार के संकट अथवा मान-अपमान की मैं कतई चिंता नहीं करूँगा।'' सोचिए, संगठन के हित में स्वयं के लिए भी संस्थापक एवं प्रथम सरसंघचालक क्या विचार रखते हैं? वह किसी भी प्रकार संगठन के कार्य को प्रभावित नहीं होने देना चाहते। संघ कार्य बढ़े इसके लिए वह स्वयं भी पीछे रहने को भी तैयार हैं। इससे अधिक लोकतांत्रिक विचार क्या हो सकता है जब संगठन का मुखिया कह रहा है कि मेरी अयोग्यता से संघ को क्षति हो रही हो तो मेरे स्थान पर योग्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वयंसेवक स्वतंत्र हैं।
डॉक्टर साहब ने एक आदर्श मुखिया की भूमिका को स्थापित किया। उन्होंने अपने आदर्श चरित्र से सरसंघचालक परंपरा को स्थापित किया। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन संगठन और राष्ट्र के लिए स्वाह कर दिया। शरीर में जब तक रक्त की एक भी बूंद रही, वह राष्ट्रसेवा में समर्पित रहे। वह जो कहते थे, उसे जीवन में अक्षरश: जीते भी थे। आद्य सरसंघचालक के रूप में वह सदैव स्वयंसेवकों के लिए प्रकाशपुंज और प्रेरणा के स्रोत बने रहे। आज भी उनका जीवन-दर्शन संघ के स्वयंसेवकों को संघ-जीवन की दिशा देता है। एक व्यक्तित्व कैसे तत्व में परिवर्तित होता है, उसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं- डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार।
(लेखक लोकेन्द्र सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)