शनिवार, 19 अगस्त 2017

नाम बदलने से दिक्कत कब होती है और कब नहीं

 उत्तरप्रदेश  के प्रमुख रेलवे स्टेशन 'मुगलसराय' का नाम भारतीय विचारक 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय' के नाम पर क्या रखा गया, प्रदेश के गैर-भाजपा दलों को ही नहीं, अपितु देशभर में तथाकथित सेकुलर बुद्धिवादियों को भी विरोध करने का दौरा पड़ गया है। मौजूदा समय में केंद्र सरकार के प्रत्येक निर्णय का विरोध करना ही अपना धर्म समझने वाले गैर-भाजपा दल और कथित बुद्धिवादी अपने थके हुए तर्कों के सहारे भाजपा की नीयत को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को भी लपेटने का प्रयास कर रहे हैं। 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन' के विरोध में दिए जा रहे तर्क विरोधियों की मानसिकता और उनके वैचारिक अंधत्व को प्रदर्शित करते हैं। उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को थोप रही है और इसके लिए वह मुगल संस्कृति को मिटाने का काम कर रही है। मुस्लिम समाज में भाजपा के लिए नफरत और अपने लिए प्रेम उत्पन्न करने के लिए विरोधी यह भी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि भाजपा की विचारधारा मुस्लिम विरोधी है, इसलिए चिह्नित करके मुस्लिम नामों को मिटाया जा रहा है। बड़े उत्साहित होकर वह यह भी पूछ रहे हैं कि भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का योगदान क्या है? मजेदार बात यह है कि कांग्रेस, कम्युनिस्ट या दूसरे दलों की सरकारें जब नाम बदलती हैं, तब इस तरह के प्रश्न नहीं उठते। सबको पीड़ा उसी समय होती है, जब भाजपा सरकार नाम बदलती है। भारतीय राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने पर लगाए जा रहे आरोप और पूछे जा रहे प्रश्न, बचकाने और अपरिपक्व हैं।

सोमवार, 14 अगस्त 2017

दु:खद है बच्चों की मौत

 गोरखपुर  के बाबा राघव दास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में छह दिनों के भीतर 60 से ज्यादा बच्चों की मौत हमारी अव्यवस्थाओं की सच्चाई है। एक ओर हम आजादी की 71वीं वर्षगाँठ मनाने की तैयारियां कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे बच्चे मर रहे हैं। बच्चों की जिंदगी इस तरह जाया होना, हमारे लिए कलंक है। देश में बीमारी या अभावों के कारण एक भी बच्चे की मृत्यु '70 साल के आजाद भारत' के लिए चिंता की बात है। किसी भी प्रकार का तर्क हमें बच्चों की मौत की जिम्मेदारी से नहीं बचा सकता। अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से या फिर किसी बीमारी से ही क्यों न हो, इस तरह बच्चों या किसी भी उम्र के व्यक्ति की मौत हो जाना, बहुत दु:खद और दर्दनाक है। गोरखपुर की इस घटना ने देश को हिला कर रख दिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चाहिए कि बच्चों की मौत के मामले पर मन में पूरी संवेदनशीलता रखें और व्यवहार में कठोरता। संवेदनशीलता, बच्चों और उनके परिवार के प्रति। कठोरता, लापरवाह और भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति। दोषियों को दण्डित करना जरूरी है। वरना कभी न कभी फिर से हम पर दु:खों का पहाड़ टूटेगा।

रविवार, 13 अगस्त 2017

वैचारिक संघर्ष नहीं, केरल में है लाल आतंक

राजेश के शरीर पर 83 घाव बताते हैं कि केरल में किस तरह लाल आतंक हावी है, केरल में दिखाई नहीं देता क़ानून का राज

 केरल  पूरी तरह से कम्युनिस्ट विचारधारा के 'प्रैक्टिकल' की प्रयोगशाला बन गया है। केरल में जिस तरह से वैचारिक असहमतियों को खत्म किया जा रहा है, वह एक तरह से कम्युनिस्ट विचार के असल व्यवहार का प्रदर्शन है। केरल में जब से कम्युनिस्ट सत्ता में आए हैं, तब से कानून का राज अनुपस्थिति दिखाई दे रहा है। जिस तरह चिह्नित करके राष्ट्रीय विचार के साथ जुड़े लोगों की हत्याएं की जा रही हैं, उसे देख कर यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि केरल में जंगलराज आ गया है। लाल आतंक अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। 'ईश्वर का घर' किसी बूचडख़ाने में तब्दील होता जा रहा है। 29 जुलाई को एक बार फिर गुण्डों की भीड़ ने घेरकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता राजेश की हत्या कर दी। हिंसक भीड़ ने पहले 34 वर्षीय राजेश की हॉकी स्टिक से क्रूरता पिटाई की और फिर उनका हाथ काट दिया। राजेश तकरीबन 20 मिनट तक सड़क पर तड़पते रहे। उन्हें अस्पताल ले जाया गया, किंतु उनका जीवन नहीं बचाया जा सका। राजेश के शरीर पर 83 घाव बताते हैं कि कितनी नृशंता से उनकी हत्या की गई।

शनिवार, 12 अगस्त 2017

अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए हामिद साहब

दैनिक समाचार पत्र राजएक्सप्रेस में प्रकाशित
 निवर्तमान  उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जाते-जाते ऐसी बातें कह गए, जो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को नहीं कहनी चाहिए थी और यदि कहना जरूरी ही था तो कम से कम उस ढंग से नहीं कहना था, जिस अंदाज में उन्होंने कहा। असहिष्णुता के मुद्दे पर किस प्रकार 'बड़ी और गंभीर' बात कहना, इसके लिए उन्हें पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के भाषणों को सुनना/पढऩा चाहिए था। असहिष्णुता के मुद्दे पर पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी ने भी अनेक अवसर पर अपनी बात रखी, लेकिन उनकी बात में अलगाव का भाव कभी नहीं दिखा। जबकि हामिद साहब के अतार्किक बयान के बाद उपजा विवाद बता रहा है कि उनके कथन से देश को बुरा लगा है। यकीनन जब कोई झूठा आरोप लगाता है तब बुरा तो लगता ही है, गुस्सा भी आता है। राज्यसभा टीवी को दिए साक्षात्कार को देख-सुन कर सामान्य व्यक्ति को भी यह समझने में मुश्किल हो रही है कि आखिर किस दृष्टिकोण से भारत में मुस्लिम असुरक्षित हैं। जब भी किसी ने मुस्लिमों के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की है, तब उसके विरोध में सबसे अधिक आवाज देश के बहुसंख्यक समाज की ओर से उठी हैं। मुसलमान भी किसी इस्लामिक देश की अपेक्षा भारत में अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं। वे पाकिस्तान जाने की अपेक्षा भारत में ही रहना पसंद करते हैं। भारत में जितनी आजादी मुसलमानों को है, क्या उतनी कहीं और है? मान सकते हैं कि लोकतंत्र की सफलता इस बात से तय होती होगी कि वहाँ अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित हैं? हामिद साहब भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित ही नहीं है, बल्कि सफलताएं भी अर्जित कर रहे हैं। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में मुस्लिम शीर्ष तक पहुँचे हैं। लोकप्रियता अर्जित की है। राजनीति के क्षेत्र में भी अपना नेतृत्व दिया है। हामिद अंसारी साहब का परिवार और वे स्वयं भी भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं। दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय भी पूरे आनंद के साथ भारत-भूमि पर जीवन जी रहे हैं। उपराष्ट्रपति जैसे पद को सुशोभित करने वाले और उच्च शिक्षित व्यक्ति को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए, जिससे देश के विभिन्न समुदायों में नकारात्मक भाव उत्पन्न हों। उन्हें मुस्लिम समाज को प्रेरित और सकारात्मकता की ओर अग्रेषित करने का प्रयास करना चाहिए था। जाते-जाते बड़प्पन दिखाना चाहिए था। बतौर उपराष्ट्रपति अपने अंतिम वक्तव्य में सकारात्मक बात कहनी चाहिए थी।

शनिवार, 5 अगस्त 2017

पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' जरूरी

इस विषय पर वीडियो देखें 


 मौजूदा  दौर में समाचार माध्यमों की वैचारिक धाराएं स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है, जब आम समाज यह बात कर रहा है कि फलां चैनल/अखबार कांग्रेस का है, वामपंथियों का है और फलां चैनल/अखबार भाजपा-आरएसएस की विचारधारा का है। समाचार माध्यमों को लेकर आम समाज का इस प्रकार चर्चा करना पत्रकारिता की विश्वसनीयता के लिए ठीक नहीं है। कोई समाचार माध्यम जब किसी विचारधारा के साथ नत्थी कर दिया जाता है, जब उसकी खबरों के प्रति दर्शकों/पाठकों में एक पूर्वाग्रह रहता है। वह समाचार माध्यम कितनी ही सत्य खबर प्रकाशित/प्रसारित करे, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखेगा। समाचार माध्यमों को न तो किसी विचारधारा के प्रति अंधभक्त होना चाहिए और न ही अंध विरोधी। हालांकि यह भी सर्वमान्य तर्क है कि तटस्थता सिर्फ सिद्धांत ही है। निष्पक्ष रहना संभव नहीं है। हालांकि भारत में पत्रकारिता का एक सुदीर्घ सुनहरा इतिहास रहा है, जिसके अनेक पन्नों पर दर्ज है कि पत्रकारिता पक्षधरिता नहीं है। निष्पक्ष पत्रकारिता संभव है। कलम का जनता के पक्ष में चलना ही उसकी सार्थकता है। बहरहाल, यदि किसी के लिए निष्पक्षता संभव नहीं भी हो तो न सही। भारत में पत्रकारिता का एक इतिहास पक्षधरता का भी है। इसलिए भारतीय समाज को यह पक्षधरता भी स्वीकार्य है लेकिन, उसमें राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती नहीं होनी चाहिए। किसी का पक्ष लेते समय और विपरीत विचार पर कलम तानते समय इतना जरूर ध्यान रखें कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का ध्येय वाक्य था- 'हिंदुस्थानियों के हित के हेत'। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। वास्तव में यही पत्रकारिता का राष्ट्रीय स्वरूप है। राष्ट्रवादी पत्रकारिता कुछ और नहीं, यही ध्येय है। राष्ट्र सबसे पहले का असल अर्थ भी यही है कि देशवासियों के हित का ध्यान रखा जाए।

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

'जय श्री राम' पर फतवा

 भारत  में 'जय श्री राम' कहने पर फतवे जारी होने लगें, तब यह विचार जरूर करना चाहिए कि क्या देश में सब कुछ ठीक चल रहा है? सभी मत-पंथ के प्रवर्तक यह दावा करते हैं कि उनका पंथ सर्व-धर्म सद्भाव की सीख देता है। प्रत्येक संप्रदाय के रहनुमा कहते हैं कि उनके पंथ की प्राथमिक शिक्षाओं में शामिल है कि औरों के धर्म का सम्मान करना चाहिए। अगर इस्लाम के संबंध में भी यह सच है, तब प्रश्न उठता है कि 'जय श्री राम' बोलने वाले बिहार सरकार के मंत्री खुर्शीद आलम के खिलाफ फतवा जारी होना चाहिए था या फिर खुर्शीद आलम के खिलाफ फतवा जारी करने वाले मुफ्ती सोहेल कासमी का बहिष्कार होना चाहिए था? मुफ्ती फतवा जारी करने तक ही नहीं रुका है, बल्कि उसने कहा है कि राम और रहीम एक साथ नहीं रह सकते। यह कैसी अलगाववादी सोच को प्रस्तुत कर रहे हैं? क्या कुरान में यह लिखा है कि दो विभिन्न विचार एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे का सम्मान करते हुए नहीं रह सकते?

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

मॉब लिंचिंग और उसका सच

 मौजूदा  समय में विपक्ष मुद्दा विहीन और भ्रमित दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि बीते सोमवार को संसद में 'मॉब लिंचिंग' जैसे बनावटी मुद्दे पर सरकार को घेरने का असफल प्रयास कांग्रेस ने किया। निश्चित ही भीड द्वारा की जा रही घटनाएं सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं हैं। इनकी निंदा की जानी चाहिए और इस प्रवृत्ति पर कठोरता से कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन, यह जिम्मेदारी किसकी है? क्या केंद्र सरकार 'मॉब लिंचिंग' की घटनाओं के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है? क्या यह राज्यों की कानून व्यवस्था से जुड़ा मसला नहीं है? राज्यों के मामले में केंद्र सरकार का दखल देना क्या उचित होगा? यह भी देखना होगा कि 'मॉब लिंचिंग' की घटनाएं अभी अचानक होने लगी हैं या फिर इस प्रकार की घटनाओं का अपना इतिहास है? जब कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने मॉब लिंचिंग के मुद्दे को संसद में उठाया, तब उनसे सत्ता पक्ष ने इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर चाहे। स्वाभाविक ही कांग्रेस के पास उक्त प्रश्नों के उत्तर नहीं थे।