बुधवार, 29 अप्रैल 2020

ग्रीन बुक के खुलासे और बुद्धिजीवियों की भूमिका



पाकिस्तानी सेना के रणनीतिक एवं गोपनीय प्रकाशन ‘ग्रीन बुक-2020’ के सामने आने से भारत के विरुद्ध चलने वाले प्रोपोगंडा का खुलासा हो गया है। जो तथ्य सामने आए हैं, वे सब चौकाने वाले हैं। अकसर यह प्रश्न उठते हैं कि भारत के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी/लेखक अनावश्यक रूप से भारत सरकार की आलोचना क्यों करते हैं? जब भारत के पक्ष में लिखा जाना चाहिए, तब वे भारत को परेशानी में डालने वाला लेखन अंतरराष्ट्रीय मीडिया में क्यों करते हैं? हमारे देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पाकिस्तान के प्रति अतिरिक्त प्रेम क्यों प्रकट करते हैं? इस तरह के प्रश्नों के उत्तर हमें पाकिस्तानी सेना के गोपनीय प्रकाशन ‘ग्रीन बुक-2020’ में मिल जाएंगे। यह दस्तावेज बताता है कि भारत के बुद्धिजीवी पाकिस्तान के इशारे पर भारत की छवि खराब करने का प्रयत्न करते हैं। यह बहुत गंभीर मामला है। केंद्र सरकार को इसकी गहराई से पड़ताल करानी चाहिए और पर्याप्त सबूत जुटा कर ऐसे लेखकों/बुद्धिजीवियों को द्रेशद्रोह के मामले में जेल भेजना चाहिए। ये लोग दीमक की तरह हैं। इन्हें यह अवसर कतई नहीं देना चाहिए कि ये धीमे-धीमे देश को खोखला कर दें। 


          यह कितनी शर्मनाक बात है कि भारत के ही बुद्धिजीवी चंद रुपयों के लालच में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को नुकसान पहुँचाने के पाकिस्तानी षड्यंत्र में शामिल हैं। कोरोना महामारी के इस कठिन समय में जब भारत अंतरराष्ट्रीय पटल पर प्रशंसा प्राप्त कर रहा है, तब भी कुछ लोगों ने अचानक से वैश्विक मीडिया में भारत की नकारात्मक छवि बनाने वाला लेखन प्रारंभ किया है। उनका लेखन पहले भी संदेह के घेरे में था, अब तो यह संदेह और गहरा गया है। ‘ग्रीन बुक’ में ऐसे अनेक हथकंडों का जिक्र है, जिनका उपयोग भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार करने के लिए किया जाने वाला है। जम्मू-कश्मीर पर भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान इंटरनेट पर (फर्जी) वीडियो अपलोड करने जैसी रणनीति भी अपना सकता है, जिनके माध्यम से यह स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा कि भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर अत्याचार करती है। इसके पीछे जम्मू-कश्मीर में नये सिरे से विद्रोह पैदा करने की साजिश है। हमें जरा पीछे झांकना चाहिए और देखना चाहिए कि भारत में वे कौन-से बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने सदैव ही जम्मू-कश्मीर के मामले में ऐसे बयान/लेखन जारी किए हैं, जो पाकिस्तान की इसी रणनीति के दायरे में आता है। कश्मीर के आम लोगों को भड़काने और अलगाववादियों के समर्थन में भारत के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग क्यों खड़ा रहा, अब यह स्पष्ट है।
          लगभग 200 पृष्ठ के इस दस्तावेज में झूठ प्रचार करने की रणनीति पर काम करने का सुझाव दिया गया है। जैसे- भारत की सेना और परमाणु हथियारों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पकड़ है। अमेरिका से न्यूक्लियर डील होने के बाद भारत के पास सामूहिक विनाश के हथियार आ गए हैं और भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने सीपेक (चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर) को नुकसान पहुंचाने के लिए 50 करोड़ डॉलर से एक स्पेशल सेल बनाई है। यह भी सोचने वाली बात है कि पाकिस्तान हो या फिर भारत के संदिग्ध बुद्धिजीवी गिरोह, दोनों के निशाने पर अनिवार्य रूप से आरएसएस रहता है। दरअसल, आरएसएस उन सब ताकतों के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है, जो भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का स्वप्न देखती हैं। यह वर्ग चीन के समर्थन में भी रहता है। कोरोना वायरस के विश्व में प्रसारण के लिए जब चीन की भूमिका को संदेह से देखा जा रहा था, तब यही वर्ग चीन के बचाव में भी उतरा आया है। अंदेशा है कि इनका चीन से भी ऐसा ही षड्यंत्रकारी संबंध है। पुन: भारत सरकार से आग्रह है कि उसे ऐसे सभी लेखकों/बुद्धिजीवियों, सिनेमा कलाकारों एवं अन्य की जाँच करनी चाहिए, जिन पर भारत विरोधी षड्यंत्र में शामिल होने का संदेह है।

संघ की बात : सेवा उपकार नहीं, करणीय कार्य


देश के किसी भी हिस्से में, जब भी आपदा की स्थितियां बनती हैं, तब राहत/सेवा कार्यों में राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के कार्यकर्ता बंधु अग्रिम पंक्ति में दिखाई देते हैं। चरखी दादरी विमान दुर्घटना, गुजरात भूकंप, ओडिसा चक्रवात, केदारनाथ चक्रवात, केरल बाढ़ या अन्य आपात स्थितियों में संघ के स्वयंसेवकों ने पूर्ण समर्पण से राहत कार्यों में अग्रणी रहकर महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। अब जबकि समूचा देश ही कोरोना जैसे महामारी से जूझ रहा है, तब भी संघ के स्वयंसेवक आगे आकर सेवाकार्यों में जुटे हुए हैं। आश्चर्य की बात है कि स्वयंसेवकों का आपदा के समय में राहत कार्य करने का कोई विशेष प्रशिक्षण भी नहीं होता, इसके बाद भी वे अपना जीवन दांव पर लगा कर समाज हित में आगे आते हैं। इसके पीछे का भाव क्या है? रहस्य क्या है? स्वयंसेवकों के इस समर्पण भाव को समझने के लिए 26 अप्रैल, 2020 को सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के ऑनलाइन दिए गए उद्बोधन को सुनना और समझना चाहिए। सेवाकार्यों के संबंध में उन्होंने जो बातें कहीं, उसका सार यही है कि स्वयंसेवक के लिए सेवा उपकार नहीं है, उसके लिए यह ‘करणीय कार्य है’। इसलिए संघ का स्वयंसेवक अपना दायित्व मान कर सेवाकार्य करता है। 
          हम (संघ के स्वयंसेवक) सेवा कार्य क्यों करते हैं? इस प्रश्न की उन्होंने सुंदर व्याख्या की। सरसंघचालक जी ने कहा- “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।” उनके इस वक्तव्य से उन लोगों को सीख लेनी चाहिए जो सिर्फ अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए सेवा कार्य करते हैं। इस क्रम में उन्होंने आगे जो कहा, वह और भी अधिक महत्व का है। वैसा कहने के लिए सामथ्र्य चाहिए। क्योंकि वर्तमान समय में तो अपने समाज और व्यक्ति का मानस ऐसा बन गया है कि जो किया है उसका श्रेय तो लेना ही है, जो नहीं किया उसका भी श्रेय लूटने का प्रयत्न करना चाहिए। चारों और श्रेय लेने की होड़ लगी है। ऐसी स्थिति में वह स्वयंसेवकों को मार्गदर्शित करते हुए कहते हैं- “हमें निरहंकार वृत्ति से सेवा कार्य में जुटना चाहिए। हम जो कर रहे हैं, उसमें समाज की सहभागिता है, इसलिए उसका श्रेय स्वयं न लेकर दूसरों को देना चाहिए।” जब हम कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो बहुत उत्साह रहता है। लेकिन जब वह लंबा खिंचने लगता है तो कार्य के प्रति ऊब पैदा होने लगती है। कोरोना संकट में सेवा कार्य अभी तो जोर-शोर से चल रहे हैं, लेकिन यह संकट लंबा भी चल सकता है इसलिए कार्य की गुणवत्ता और मात्रा में गिरावट न आए, इसके लिए भी सरसंघचालक जी स्वयंसेवकों को मार्गदर्शन देते हैं। हालाँकि, संघ के स्वयंसेवक जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उसे पूर्ण करके ही छोड़ते हैं। तब भी उन्होंने कहा कि अपने प्रयासों में सातत्य रहना चाहिए। हमें न तो ऊबना है और न ही थकना है। निरंतर कार्य करते रहता है। बल्कि उन्होंने कहा कि कोरोना के समाप्त होने के बाद भी संपूर्ण व्यवस्था को पुन: चलायमान बनाने के लिए भी अतिरिक्त कार्य की आवश्कता होगी, उसकी भी तैयारी रहनी चाहिए। यह संघ की दूरदृष्टि है कि वह न केवल वर्तमान संकट से निपटने के लिए प्रयत्नशील है, बल्कि भविष्य में होने वाली कठिनाईयों की ओर भी देख रहा है। 
          अकसर राष्ट्रीय विचार के विरोधी लोग संघ के संदर्भ में दुष्प्रचार करते हैं कि आरएसएस मुसलमानों-ईसाईयों से भेद करता है। किंतु, यह वास्तविकता नहीं। यह एक झूठ है, जिसे वर्षों से बोला जा रहा है। वैसे तो संघ किसी का विरोध नहीं करता है, लेकिन उन लोगों के आचरण पर आपत्ति अवश्य करता है जिनकी गतिविधियां देश-समाज के हित में नहीं होती हैं, फिर वे चाहें किसी भी संप्रदाय से संबंध रखने वाले लोग हों। आपदा की स्थिति में तो संघ के लोग किसी के साथ भी भेद नहीं रखते। सरसंघचालक जी ने कहा भी- “हमें सबके लिए काम करना है। कोई भेद नहीं करना है। जो-जो पीडि़त हैं, वे सब हमारे अपने हैं। भारत ने जिन दवाईयों के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाया हुआ था, दुनिया के हित के लिए उस प्रतिबंध को हटाकर और स्वयं थोडा नुकसान सह कर भी हमने दूसरे देशों को दवाइयाँ भेजी हैं। जो माँगेंगे, उनको देंगें, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। हम मनुष्यों में भेद नहीं करते और ऐसे प्रसंगों (संकट काल) में तो बिल्कुल नहीं करते। सब अपने हैं। जो-जो पीडि़त हैं और जिस-जिस को आवश्यकता है, उन सबकी सेवा हम करेंगे। जितनी अपनी शक्ति है उतनी सेवा करेंगे। अपने कार्य का आधार है - अपनत्व की भावना। स्नेह और प्रेम अपने व्यवहार में दिखना चाहिये।” देशभर से सेवाकार्यों की जो तस्वीरें और वीडियो आ रहे हैं, वे इस बात की पुष्टी करते हैं कि संघ के स्वयंसेवक पीडि़त के प्रति अपनत्व का भाव रखकर उनकी सहायता कर रहे हैं। संघ के स्वयंसेवक एवं राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता प्रचंड रूप से सेवाकार्य चला रहे हैं। देश के प्रत्येक राज्य-जिले में संघ की प्रेरणा से भोजन पैकेट, राशन सामग्री, दवाएं, फल, सब्जियां, मास्क और अन्य आवश्यक सामग्री का वितरण किया जा रहा है। समाज के जिस वर्ग को सहायता की आवश्यकता है, वहाँ तक यह सहायता पहुँच रही है। 
कोरोना से बचने के लिए गरीबों के लिए मास्क सिलती राष्ट्र सेविका समिति की कार्यकर्ता
          संघ अपने प्रारंभ से ही ‘प्रसिद्धिपंरागमुखता’ के सिद्धांत का पालन करता रहा है। इसलिए इसमें किसी को संदेह नहीं कि संघ अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवाकार्य करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने स्पष्ट भी किया- “जो लोग सहयोगी बनना चाहते हैं, उनको समुचित जानकारी हो इसलिये कुछ प्रसिद्धि भी करनी पड़ती है। अपने कार्य की रचना में हम सबको सविस्तार वृत्त ठीक-ठीक पता चले, इसलिये उसको प्रकाशित करना पड़ता है। लोगों को प्रेरणा मिले, इसलिये भी ऐसे कार्य में आने वाले अनुभवों का लेखन-प्रकाशन करना पड़ता है। परन्तु अपना डंका बजाने के लिये हम ये काम नहीं कर रहे हैं।” यानी संघ के सेवाकार्यों की जो जानकारी हमारे सामने मीडिया या सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही है, उसका उद्देश्य की संघ की शक्ति का ढंका बजाना नहीं है, बल्कि अन्य लोगों को प्रेरणा देना है।   
          राष्ट्रीय विचार के प्रति निरंतर दुष्प्रचार के कार्य में संलग्न व्यक्तियों/संस्थाओं को सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के उद्बोधन के उस हिस्से पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि कुछ लोगों की भयवश, क्रोधवश या जानबूझकर की गई गलती के कारण उससे संबंध रखने वाले पूरे वर्ग से दूरी नहीं बनानी चाहिए। कुछ लोगों की गलती के लिए सारे समूह को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने स्पष्ट किया कि सब जगह दोष रखने वाले लोग होते हैं। उन्होंने उचित ही कहा कि ऐसे समय में सभी लोगों को यह सावधानी रखनी होगी कि यह अपने देशहित का विषय है और इसमें हमारी भूमिका सहयोग की ही होगी, कभी भी विरोध की नहीं होगी। भारत का 130 करोड़ का समाज भारत माता का पुत्र है, अपना बंधु है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिये। भय और क्रोध दोनों तरफ से नहीं करना चाहिये। जो-जो अपने समूह के समझदार लोग हैं, उन्हें अपने-अपने समूह के लोगों को इससे बचाना चाहिये और भय या क्रोधवश होने वाले ऐसे कृत्यों  में  हम लोगों को शामिल नहीं रहना चाहिए। संभवत: उनका संकेत जमात से जुड़े लोगों की अभद्रता और उपद्रव के कारण समाज में मुस्लिम संप्रदाय के प्रति बन रहे हेय के वातावरण के प्रति था। नि:संदेह जमात से जुड़े और अन्य कुछ लोगों की हरकतों के कारण सामान्य लोगों के मन में मुस्लिम संप्रदाय से दूर रहने का विचार घर करने लगा है। इस संबंध में समाज का प्रबोधन आवश्यक है। किंतु, भारत विरोधी ताकतों ने इसे एक अवसर की तरह लिया और उन्होंने इसे ‘इस्लामोफोबिया’ का विशेषण देकर वैश्विक मीडिया और सोशल मीडिया में भारत के प्रति नकारात्मक वातावरण बनाने का प्रयास किया। सरसंघचालक जी ने ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का कुविचार रखने वालों की धूर्तता से सावधान रहने की बात भी कही। उन्होंने कहा कि हमें उनके प्रोपोगंडा से बचना है। ये लोग हमारा कुछ बिगाड़ न सकें इतनी सावधानी और इतना बल सजग जागृत रखना। लेकिन हमारे मन में इसके कारण प्रतिक्रियावश कोई खुन्नस या कोई दुश्मनी नहीं होनी चाहिए।


          ‘वर्तमान परिदृश्य और हमारी भूमिका’ विषय पर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का यह ऑनलाइन प्रबोधन केवल स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह शासन-प्रशासन, समाज की सज्जनशक्ति के लिए भी पाथेय था। कोरोना संकट के बीत जाने के बाद फिर से नये और आकांक्षावान भारत के निर्माण के लिए सबको मिलकर सामूहिक प्रयास करने का आह्वान उन्होंने किया है। इस उद्बोधन में उन्होंने स्वदेशी अर्थव्यवस्था, समाज के स्वावलंबन एवं पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों पर भी दिशा-सूत्र दिए। उनका यह उद्बोधन ‘संघ की बात’ एवं ‘संघ के विचार’ को समाज के सामने प्रस्तुत करता है, साथ ही संघ की वास्तविक छवि को भी प्रकट करता है। संभव है कि इस उद्बोधन से अनेक लोगों के मन से संघ के प्रति बने/बनाए गए भ्रम दूर हुए होंगे। संघकार्य की स्पष्टता भी बनी होगी। संघ के संबंध में यह बात गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि यह विशाल संगठन समय के साथ कदमताल करता है, यह सिर्फ लकीर नहीं पीटता। समय की आवश्कता के अनुरूप अपना स्वरूप तय करता है और प्रत्येक परिस्थिति में समाज-देश की सेवा में जुट जाता है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

हिन्दुओं की मॉब लिंचिंग पर प्रश्न पूछो तो छद्म सेकुलरों को मिर्ची क्यों लगती है?



साधुओं की पीट-पीट कर हत्या को आप मॉब लिंचिंग मानते हैं या नहीं? अवार्ड वापसी गैंग का कोई आदमी दिखे तो उससे पूछिएगा कि उसने साधुओं की मॉब लिंचिंग पर कुछ लिखा क्या? बॉलीवुड के कलाकारों ने प्ले कार्ड दिखाए क्या? तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चिट्ठियां लिखीं क्या? साधुओं की हत्या के विरोध में किसी ने कोई ट्वीट किया क्या? सदी के रहनुमा पत्रकार ने अपनी टेलीविजन स्क्रीन काली की है क्या?
          मुंबई से सटे पालघर में दो साधुओं की मॉब लिंचिंग पर छद्म सेकुलरों और कम्युनिस्टों से इस तरह के कुछ सवाल क्या पूछ लिए, उन्हें बहुत बुरा लग गया है। लगेगा क्यों नहीं बुरा, सवाल पूछने पर तो सिर्फ उनका ही अधिकार है, और किसी का थोड़े है। 
           हमें मालूम है कि आपने कुछ भी नहीं लिखा होगा। हमें आपकी नेक नीयत पर पूरा भरोसा है। लिखोगे तो उसमें भी दाएं-बाएं कुछ करोगे। क्योंकि आप तो अपनी ही अवधारणा को स्थापित करने निकले हैं कि मॉब लिंचिंग तो सिर्फ मुस्लिमों के साथ होती है, हिंदुओं की मॉब लिंचिंग थोड़े होती है? 
          वे तुनक कर कह रहे हैं कि आप थोड़े हमें बताओं की हमें किस घटना पर लिखना है और किस पर नहीं? हमें किस घटना का विरोध करना है और किसका नहीं? 
           नि:संदेह हम आपको बता नहीं रहे, बल्कि आपको आईना दिखा रहे हैं ताकि आप हमारे सवालों के आईने में अपना चेहरा देख लें। 
          हिंदुओं की मॉब लिंचिंग पहली बार थोड़े हुई है। पहले भी कई बार हो चुकी है। लेकिन, आपने तब भी चुप्पी साधे रखी और आज भी। इसलिए हम भरोसे के साथ कह रहे हैं कि आप खुलकर भीड़ द्वारा हिंदुओं की हत्या को मॉब लिंचिंग कह ही नहीं सकते। आप तो बंटवारे के समय लाशों से भर कर आई ट्रेनों को आज तक जस्टीफाई कर रहे हो। कश्मीर से निकाले गए हिंदुओं और उनके साथ हुई मॉब लिंचिंग को आप आज भी छिपाने के यथासंभव प्रयास करते हो। ‘कश्मीर में हिंदुओं के साथ कुछ हुआ ही नहीं’, इस झूठ को सही ठहराने के लिए मोटी-मोटी किताबें लिख दीं हैं आपने। आपको पता ही नहीं कि आपकी इन किताबों के बोझ से कश्मीरी हिंदू कराह रहे हैं। 1984 में सिख बंधुओं के साथ जो हुआ, उसको भी जस्टीफाई करने के बहाने आपने ढूंढ ही लिए। देवतुल्य महात्मा गांधी की हत्या के बाद महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मणों की जो मॉब लिंचिंग हुई, उसकी तो आपने चर्चा ही नहीं होने दी। यह अध्याय तो जैसे इतिहास की पुस्तक से फाड़ कर फेंक दिया गया है। 
          ज्यादा पीछे क्यों जाना, इसी दौर की हत्याओं पर भी आपने कब मुंह खोला? स्वामी लक्ष्मणानंद की नृशंस हत्या हुई, आपने चुप्पी साधे रखी। पश्चिम बंगाल के वर्धमान में हिंदू महिला को बच्चा चोर होने के आरोप में पीट-पीट कर मार दिया गया, लेकिन आपने उसकी मॉब लिंचिंग पर भी कुछ नहीं बोला। वर्धमान जिले के ही इंद्रजीत दत्ता को भीड़ ने इसलिए पीट-पीट कर मार दिया, क्योंकि उसने धर्म विशेष के आयोजन के लिए चंदा देने से मना कर दिया। पश्चिम बंगाल के ही 24 परगना जिले में आईआईटी के छात्र कौशिक पुरोहित को भैंस चोर बता कर मार डारा गया। महाराष्ट्र के पंढरपुर में युवक सावन राठौड़ को सरेआम जला दिया गया, लेकिन उस आग की लपटों से आप जरा भी नहीं झुलसे। दिल्ली में डॉ. पंकज नारंग की हत्या उसके बच्चे और पत्नी के सामने कर दी जाती है, लेकिन दादरी से हैदराबाद तक चक्कर लगा आने वाले लोग नारंग के घर नहीं जाते हैं। केरल के कन्नूर में आरएसएस कार्यकर्ता पीवी सुजीत की कम्युनिस्टों ने घर में घुस कर हत्या कर दी। भला अपने ही लोगों के विरुद्ध कैसे मुंह खोलते, सो सब चुप ही रहे। उत्तरप्रदेश के आगरा में हिंदू दलित नेता अरुण कुमार की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। आप क्यों बोलते भला, जो आरएसएस या संघ से जुड़ जाता है, आप तो उसको दलित मानते ही नहीं हो। कर्नाटक के प्रशांत पुजारी, उत्तरप्रदेश के कपूरचंद ठाकरे, तमिलनाडु के वी. रमेश, बाड़मेर के 22 साल के खेतराम भील, उत्तरप्रदेश के नवयुवक चंदन, इन सबकी हत्या पर भी तो आपके मुंह में दही जमा रहा। और जब बोले भी तो मुंह से हत्याओं को जस्टीफाई करने वाले कुतर्क निकले। दिल्ली के ध्रुव त्यागी के मामले में तो आपको बेटियों की सुरक्षा का मुद्दा भी नजर नहीं आया। उस अभागे बाप ने अपनी बेटी को छेडऩे का ही तो विरोध किया था, जिसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। 
          जम्मू-कश्मीर में जिस पुलिस अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित की मॉब लिंचिंग हुई थी, उसे भी कहाँ आपने माना। देश के किस कोने में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं, उन्हें बताने के लिए आपने एक नक्शा बनाया था, जिसे ‘नॉट इन माय नेम’ से आयोजित प्रदर्शनों में दिखाया गया। उस नक्शे पर अयूब पंडित का नामो-निशान नहीं था। उसकी हत्या को, आपने मॉब लिंचिंग क्यों नहीं माना, वह तो हिंदू न था...???  
          महाराष्ट्र के पालघर में जूना अखाड़े के दो साधुओं संत कल्पवृक्ष गिरी, सुशील गिरी और उनके वाहन चालक निलेश तेलगड़े की पीट-पीट कर हत्या कर देना, हिंदुओं की मॉब लिंचिंग का पहला मामला नहीं है। ऐसी और भी अनेक घटनाएं हैं। परंतु, छद्म सेकुलरों और अवार्ड वापसी गैंग से जुड़े लोगों को वे सब ध्यान में नहीं होंगी। हो सकता है कि उनके आकाओं ने उन्हें वे सब घटनाएं बताई न हों। आखिर उन्हें तो उन्हीं घटनाओं की जानकारी दी जाती है, जिन पर उन्हें हिंदू समुदाय को निशाने पर लेना है। इसलिए हिंदुओं की मॉब लिंचिंग से आक्रोशित लोग आपको पूछ रहे हैं कि आपने कुछ लिखा क्या, बॉलीवुड के पेड हीरोज ने कार्ड दिखाए क्या, खान मार्केट के पत्रकारों ने प्राइम टाइम किया क्या, तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ज्ञापन दिए क्या, चिट्ठियां लिखीं क्या, विमर्श आयोजित किए क्या? इसमें आपको बुरा लगता है तो क्या किया जाए? खैर, आपसे क्या तर्क करना...

इस दुःखद घटना को मध्यप्रदेश बैतूल जिले के युवा कार्टूनिस्ट राहुल साहू ने इस तरह अभिव्यक्त किया है

साधुओं की निर्मम हत्या, आक्रोश में हिंदू समाज

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से सटे पालघर में बीते गुरुवार को ऐसी घटना घटी, जिसने सभी को अंदर तक झकझोर कर रख दिया। भीड़ द्वारा दो साधुओं सहित तीन लोगों की पीट-पीट कर हत्या करने की घटना से हिंदू समाज आक्रोश में है। उसका आक्रोश महाराष्ट्र सरकार की लचर कानून व्यवस्था के साथ ही उन तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रति है, जिन्होंने साधुओं की हत्या पर चुप्पी साध रखी है। देश के किसी भी कौने में मुस्लिम समुदाय के किसी व्यक्ति के साथ यदि इस तरह की घटना हो जाती, तो देश में अब तक हंगामा मच गया होगा। अवार्ड वापसी गैंग और उनके सहयोगी आसमान सिर पर उठा लेते। सिनेमा जगत के कुछ चिह्नित कलाकारों को भारत में भय लगने लगता। लेकिन हैरत की बात है कि महाराष्ट्र के सबसे प्रमुख शहर मुंबई से सटे पालघर में दो साधुओं की हत्या हो जाती है और तीन दिन तक देश को इस घटना के विषय में पता ही नहीं चलता है। यह भी विचार करने की बात है कि एक और देशभर में कोरोना लॉकडाउन है तब पालघर में यह भीड़ एकत्र कैसे हो गई? 
          लगभग 200 लोगों की भीड़ ने निर्दोष और असहाय साधुओं सहित उनके वाहन चालक की हत्या की है। वीडियो देखने से साफ समझ आ रहा है कि भीड़ साधुओं की एक बात भी सुनने को तैयार नहीं थी। वीडियो में बर्बरता स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। नि:संदेह उस भीड़ में कोई भी मनुष्य नहीं था, सब पर हैवानियत हावी थी। सबसे अधिक शर्मनाक बात यह है कि महाराष्ट्र पुलिस की भी परवाह भीड़ को नहीं थी। पुलिस के सामने उस भीड़ ने हिंदू साधुओं और वाहन चालक की निर्ममता से हत्या की। पुलिसकर्मियों ने अपने कर्तव्य पालन के लिए जरा भी साहस नहीं दिखाया है। यह स्थिति बताती है कि महाराष्ट्र सरकार में अराजक तत्व बेलगाम हैं। पुलिस तंत्र पूरी तरह फेल है। 
          साधु ने रक्षक समझकर बड़ी आशा के साथ पुलिसवाले का हाथ थामा था, लेकिन दुर्भाग्य है कि महाराष्ट्र की कायर पुलिस ने साधु को उन नरपिशाचों के बीच छोड़ दिया। इस पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध है। अपराधियों के साथ ही मौके पर उपस्थित पुलिसवालों के विरुद्ध भी कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। जब वे किसी नागरिक की सुरक्षा ही नहीं कर सकते तब उन्हें पुलिस में रहने का कोई अधिकार नहीं है। 
          बताया जा रहा है कि उस क्षेत्र में बच्चा चोर की अफवाह फैली हुई थी। पुलिस ने कुछ दिन पूर्व ही दो चिकित्सकों को भी हिंसक भीड़ के चंगुल से बचाया था। प्रश्न है कि जब वह क्षेत्र इतना संवेदनशील था, तब पुलिस ने अतिरिक्त सतर्कता क्यों नहीं बरती? पुलिस ने पहले ही क्यों नहीं हिंसक भीड़ के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की। यदि पुलिस ने पहले ही वहाँ के लोगों को कानून का पाठ पढ़ा दिया होता तो आज निर्दोष हिंदू साधु जीवित होते। 
           दरअसल, पालघर के उस क्षेत्र में हिंदू विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। इसलिए भी यह घटना हुई। वरना गेरूए वस्त्रधारी बुजुर्ग को देखकर भीड़ इस तरह अमानुष न होती। कम्युनिस्ट और ईसाई मिशनरियों ने वहाँ हिंदू विरोध को हवा दी है। विश्व हिंदू कोंकण प्रांत के सहमंत्री और प्रवक्ता श्रीराज नायर ने इस संबंध में बताया है कि यह क्षेत्र जनजाति बाहुत्य है। कुछ वर्ष पहले तक पालघर ठाणे जिले का हिस्सा हुआ करता था, अब पालघर जिला बन चुका है। यहाँ ईसाई मिशनरियां और वामपंथी ब्रिगेड हिंदुत्व के विरोध में वातावरण बनाने के लिए सक्रिय हैं। इसलिए किसी षड्यंत्र की बात से इनकार नहीं किया जा सकता। हिंदू साधुओं और उनके वाहन चालक के नृशंस हत्याकांड की गंभीरता से जाँच होनी चाहिए, जो भी इस षड्यंत्र/हत्याकांड में शामिल हैं, उन्हें फांसी मिलनी चाहिए। बाला साहेब ठाकरे की विरासत पर रत्तीभर गौरव हो तो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को हत्याकांड की जाँच में तीव्रता से करा कर हिंदू समाज को न्याय देना चाहिए। 

रविवार, 19 अप्रैल 2020

‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ पर स्पष्ट दृष्टिकोण पैदा करती पुस्तक

- सुरेश हिंदुस्थानी 
राष्ट्रवाद सदैव से चर्चा एवं आकर्षण का विषय रहा है। आज के परिदृश्य में तो यह और अधिक चर्चित है। सब जानना चाहते हैं कि आखिर राष्ट्रवाद क्या है? राष्ट्रवाद पर इतनी बहस क्यों होती है? क्यों कुछ लोग राष्ट्रवाद का विरोध करते हैं? राष्ट्रवाद और मीडिया के बीच क्या संबंध है? राष्ट्रवाद के अध्येयता डॉ. सौरभ मालवीय एवं लोकेंद्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ ने इन सब प्रश्नों के उत्तर देने का यथासंभव प्रयास किया है। यह पुस्तक सर्वथा उचित समय पर प्रकाशित हुई है। विशेषकर इस पुस्तक के माध्यम से ‘राष्ट्रवादी पत्रकारिता’ को भली प्रकार समझा जा सकता है। ज्यादातर पाठ ‘पत्रकारिता’ के स्वरूप पर ही केंद्रित हैं। इसलिए यह पुस्तक राष्ट्रवाद का अध्ययन करने वालों के साथ ही पत्रकारिता में रुचि रखने वाले लोगों के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। वर्तमान समय में विशेष प्रकार के लोगों ने कुछ टेलीविजन न्यूज चैनल्स, समाचारपत्र-पत्रिकाओं एवं वेबसाइट्स पर ‘राष्ट्रवादी’ होने का ठप्पा लगाना शुरू कर दिया है। ये लोग स्वयं तो कहते हैं कि उन्हें किसी से देशभक्ति, सेक्युलर या फिर अन्य किसी प्रकार का प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए, किंतु विडम्बना देखिए कि ये स्वयं ही दूसरों के माथे पर ठप्पा लगाने का धंधा करते हैं। इन लोगों के कारण भी ‘राष्ट्रवादी मीडिया’ या ‘राष्ट्रवादी पत्रकारिता’ को लेकर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हुए हैं। राष्ट्रवादी मीडिया/पत्रकारिता के संबंध में फैली अनेक प्रकार की भ्रांतियों को दूर करने का का यह पुस्तक बखूबी करती है। 
          पुस्तक में कुछ 32 पाठ/आलेख हैं, जिन्हें वरिष्ठ पत्रकारों, लेखकों एवं स्तम्भकारों ने लिखा है। प्रस्तावना में लोकसभा टीवी के सीईओ एवं वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार डॉ. आशीष जोशी और पुस्तक के पहले आलेख ‘हम और हमारा राष्ट्रवाद’ में मीडिया आचार्य एवं राजनीतिक विश्लेषक प्रो. संजय द्विवेदी ने यह एकदम स्पष्ट कर दिया है कि असल में भारत का राष्ट्रवाद क्या है? भारत के राष्ट्रवाद की तुलना पश्चिम के राष्ट्रवाद से नहीं की जा सकती। यकीनन, जहाँ पश्चिम का राष्ट्रवाद राजनीति के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, वहीं भारत का राष्ट्रवाद अपनी अनूठी एवं सर्वसमावेशक संस्कृति की कोख से जन्मा है। इसलिए दोनों राष्ट्रवाद में जमीन-आसमान का अंतर है। इसलिए दोनों को एक नहीं माना जा सकता। इसलिए पश्चिम की परिभाषाओं की कसौटी पर भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को नहीं कसा जा सकता। प्रो. द्विवेदी ने उचित ही लिखा है कि भारत का राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदन देने वाला ओर समाज को सुख देने वाला है। 
          राष्ट्रवादी विचारधारा के पत्रकार और पत्रकारिता को लेकर जो गलत धारणा समाज में स्थापित करने की साजिश हुई है, उस पर वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी ने गहराई से कलम चलाई है। श्री चतुर्वेदी ने उचित ही कहा है कि पत्रकारिता की दुनिया में आने के बाद राष्ट्रवादी सोच वाले लोगों ने कहीं अधिक लचीला और जनपेक्षी रुख अख्तियार किया है। वैचारिकता की छौंक उनकी रिपोर्टिंग में उस हद तक नहीं दिखती, जिस हद तक एक खास विचारधारा (वामपंथी) के प्रति समर्पित शख्सियतों की पत्रकारिता में दिखती है। यकीनन यह सत्य है। उसका एक कारण यह भी है, जो इस आलेख में बताया भी गया है कि वामपंथी पत्रकार राष्ट्रवादी पत्रकारों को अपने संस्थान में टिकने ही नहीं देते थे। वरिष्ठ स्तंभकार हरिहर शर्मा ने अनेक प्रसंग, तथ्य एवं प्रमाण देकर कहा है कि “प्रजातंत्र के चतुर्थ स्तम्भ में लगी दीमक को समाप्त करना ही होगा”। उन्होंने स्पष्ट किया है कि विदेशों में भारत को लेकर अनेक किस्म के मनगढ़ंत किस्से प्रचलित हैं, उसके लिए भारत का मीडिया दोषी है। शक्तिशाली एवं प्रगत देशों का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया है कि उनकी प्रगति एवं शक्ति बढ़ाने में वहाँ की राष्ट्रवादी मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके लिए अमेरिका एवं ब्रिटेन और उनकी मीडिया के उदाहरण ही पर्याप्त हैं। श्री शर्मा यह सब बताते हुए आग्रह करना चाहते हैं कि निजी स्वार्थ और वैचारिक दुराग्रह छोड़कर भारत के राष्ट्रीय मीडिया को भी राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। पत्रकार एवं मीडिया शिक्षक अमरेन्द्र कुमार आर्य ने ‘पत्रकारिता का राष्ट्रवादी प्रवाह और भारतवर्ष’ पर अपने विचार रखे हैं। जबकि डॉ. शशि प्रकाश राय, उमापति मिश्र, डॉ. मंजरी शुक्ला, शिवेन्दु राय, अजीत पंवार, अखिलेश द्विवेदी, डॉ. सीमा वर्मा, डॉ. मयंक चतुर्वेदी एवं अन्य ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवादी पत्रकारिता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके आलेख मीडिया और राष्ट्रवाद पर सोच को व्यापक संदर्भ में समझने में सहायता करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार संतोष कुमार पाठक ने भी अपने आलेख ‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवादी मीडिया के उभार और उसके सामने खड़ी चुनौतियों को लेकर तार्किक एवं तथ्यात्मक बातें कही हैं। उन्होंने उन ताकतों की ओर भी संकेत किया है, जो ऐन-केन-प्रकारेण भारतीय राष्ट्रवाद को सरकारवाद साबित करना चाहती हैं। यह ताकतें राष्ट्रवादी मीडिया के विरुद्ध लगातार अभियान चलाकर उसे कमजोर और अविश्वसनीय साबित करना चाहती हैं। उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है- “राष्ट्र हमेशा सर्वोपरि होता है, सर्वोच्च होता है। राष्ट्र है तो मीडिया है, जनता है, सरकार है। राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो फिर क्या बचेगा।” आज आवश्यकता है कि भारत की जनता, सरकारें एवं मीडिया इस विचार को ध्यान में रखकर अपना व्यवहार एवं भूमिका तय करें। 
          डॉ. सौरभ मालवीय एवं लोकेंद्र सिंह की इस पुस्तक ने देश की राजधानी दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला-2020 में ही सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया था। पुस्तक के संपादक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येता डॉ. सौरभ मालवीय एवं सह-संपादक लोकेंद्र सिंह को साधुवाद। उनके प्रयत्नों से एक सामयिक और ज्वलंत विषय पर पठनीय, संग्रहणीय, उल्लेखनीय सामग्री ‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ पुस्तक के रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत है। यह भी स्तुत्य है कि पुस्तक के संपादकों ने प्रतिविचार को भी स्थान दिया है, ताकि राष्ट्रवाद की बहस को और अधिक तार्किक ढंग से समझा जा सके। पुस्तक में कुल जमा 32 आलेख शामिल हैं। पृष्ठ संख्या 152 है। पुस्तक को प्रकाशित किया है यश पब्लिकेशंस, दिल्ली ने। साजिल्द पुस्तक का मूल्य 399 रुपये है।
(समीक्षक, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)
पुस्तक : राष्ट्रवाद और मीडिया 
संपादक : डॉ. सौरभ मालवीय एवं लोकेन्द्र सिंह 
मूल्य : 399 रुपये (साजिल्द)
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 
1/10753, गली न. 3, सुभाष पार्क, 
नवीन शाहदरा, दिल्ली-32
संपर्क : 9599483885, 86, 87, 88
ईमेल : yashpublicationdelhi@gmail.com 

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

कोरोना संक्रमण से बचाने वनवासी कल्याण परिषद की कार्यकर्ताओं ने सिलाई केंद्र पर मास्क बनाकर गाँव में बांटे

यह है संघ का विचार... साधारण कार्यकर्ता भी लोगों की सेवा-सुरक्षा में जुटे हैं


वनवासी कल्याण परिषद की ओर से महिलाओं/युवतियों को स्वावलंबी बनाने के लिए सिलाई सेंटर चलाये जाते हैं। अब ये सिलाई केंद्र और यहां प्रशिक्षण लेने वाली महिलाएं/युवतियां सब कोरोना महामारी से लड़ने वाली योद्धा के रूप में काम कर रहे हैं। प्रशिक्षु एवं प्रशिक्षक युवतियां यहां गांववासियों और गरीब लोगों के लिए निःशुल्क मास्क सिल रहीं हैं।

यह चित्र मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के गांव ठीकरी में संचालित सिलाई केंद्र का है। इसकी संचालिका कुमारी वर्षा धनवा रे है। उन्होंने सिलाई केंद्र पर प्राप्त कौशल का उपयोग कोरोना महामारी के इस विकट संकट में समाज के लिए करने का निर्णय लिया। दरअसल, वनवासी कल्याण परिषद की ओर से चलाए जाने वाले इस सिलाई केंद्र पर सिलाई सीखने के साथ-साथ समाजसेवा और देशसेवा का संस्कार भी सिखाया जाता है।

इसी शिक्षा का परिणाम है कि एक गांव की साधारण लड़की ने अपने कौशल और सिलाई केंद्र को लोगों की सेवा-सुरक्षा में समर्पित कर दिया। अभी तक कुमारी वर्षा ने 100 मास्क बना कर गांव में निशुल्क वितरित किये हैं। गांव वाले अपनी इस बेटी के सेवाभाव/सेवाकार्य को देखकर न केवल प्रसन्न हैं, बल्कि आश्वस्त भी हैं कि हम कोरोना को हरा देंगे और अपने लोगों को बचा लेंगे।

उल्लेखनीय है कि वनवासी कल्याण परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की प्रेरणा से काम करने वाला संगठन है, जो वनवासी क्षेत्रों में विशेष रूप से सक्रिय है।



मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

बाबासाहब की पत्रकारिता : ‘मूक’ समाज को आवाज देकर बने ‘नायक’


- लोकेन्द्र सिंह 
भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने समाज में व्याप्त जातिभेद, ऊंच-नीच और छुआछूत को समाप्त कर समता और बंधुत्व का भाव लाने के लिए अपना जीवन लगा दिया। वंचितों, शोषितों एवं महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए बाबासाहब अलग-अलग स्तर पर जागरूकता आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने अनुभव किया कि उस समय प्रकाशित समाचार-पत्र दलितों की आवाज को स्थान नहीं दे रहे थे। उनके दु:ख, पीड़ा और उन पर होने वाले अन्याय को उचित एवं प्रभावी ढंग से उस वर्ग द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्रों में भी जगह नहीं मिल रही थी। यह बात बाबासाहब भली प्रकार समझ चुके थे कि दीर्घकाल तक चलने वाली सामाजिक क्रांति की सफलता के लिए एक प्रभावी समाचार-पत्र का होना आवश्यक है। पत्रकारिता की आवश्यकता और प्रभाव को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा भी था- “जैसे पंख के बिना पक्षी होता है, वैसे ही समाचार-पत्र के बिना आंदोलन होते हैं।” मानवतावादी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने पत्रकारिता को अपना साधन बनाने का निश्चय किया और 1920 में ‘मूकनायक’ के प्रकाशन के साथ बाबासाहब ने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। उनकी पत्रकारिता का दायरा दलितों तक सीमित नहीं था। बल्कि वे समाचार-पत्र के माध्यम से हिंदू समाज के सभी वर्गों का प्रबोधन करना चाहते थे। समतापूर्ण समाज का निर्माण करने के लिए दलित वर्ग में आत्मविश्वास जगाना आवश्यक था और सवर्ण समाज को आईना दिखाकर उनको यह समझाना कि मनुष्य के साथ भेद करने का कोई तर्क नहीं। सब बराबर हैं। यह कार्य करने के लिए उस समय पत्रकारिता ही एकमात्र माध्यम थी। बाबासाहब ने चार समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया- मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता और प्रबुद्ध भारत। बाबासाहब की पत्रकारिता को हम संक्षेप में मूकनायक से प्रारंभ कर प्रबुद्ध भारत तक जाकर समझने की कोशिश करेंगे। 

          समाज को विषमता से समता की ओर ले जाने के इस महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए समाचार-पत्र प्रकाशन के कार्य में राजर्षि शाहूजी महाराज ने उनका सहयोग किया। शाहूजी महाराज स्वयं भी समाज से भेद-भाव को समाप्त करने और दलितों एवं महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के प्रयत्न में लगे हुए थे। सन् 1919 में बाबासाहब और शाहूजी महाराज की प्रयत्क्ष भेंट हुई। महाराज ने ही उन्हें समाचार-पत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उन्होंने बाबासाहब को 2500 रुपये की आर्थिक सहायता भी दी। आखिरकार 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ का पहला अंक प्रकाशित होकर आया। सूर्यनारायण रणसुभे अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव अंबेडकर’ में लिखते हैं- “जाने-अनजाने डॉ. बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया।” मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबासाहब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह कुलीनों के मध्य प्रसिद्ध पा सकते थे और अंग्रेज सरकार के सामने दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते समय हमें ध्यान आता है कि दरअसल उन्होंने ‘मूकनायक’ का प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखा हुआ भी पढऩा कठिन था, भला ‘अंग्रेजी मूकनायक’ उनके मध्य जाकर क्या जाग्रति लाता? 


          मूकनायक के प्रकाशन एवं संपादन की संपूर्ण जिम्मेदारी बाबासाहब के कंधों पर थी, किंतु वे इसके घोषित संपादक नहीं थे। उन दिनों बाबासाहब सिडनेहॅम कॉलेज, मुंबई में प्राध्यापक थे। शासकीय सेवा में होने के कारण वे मूकनायक के संपादक नहीं हो सकते थे। इसलिए उन्होंने दलित समाज के ही पढ़े-लिखे युवक पांडुरंग नंदराम भटकर को घोषित संपादक बनाया। प्रिंटलाइन में संपादक के तौर पर भटकर का नाम प्रकाशित होता था। परंतु, समाचार-पत्र में प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन एवं संपादन बाबासाहब स्वयं करते थे। वे स्वयं भी मूकनायक के लिए खूब लिखते थे। मूकनायक में बाबासाहब ने 14 आलेख लिखे। पहले ही अंक में वे लिखते हैं- ‘हमारे इन बहिष्कृत लोगों पर हो रहे तथा भविष्य में होने वाले अन्याय पर उपाय सुझाने हेतु तथा भविष्य में इनकी होने वाली उन्नति के लिए जरूरी मार्गों पर चर्चा हो इसके लिए पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है।’ इसी तरह पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ. अंबेडकर ने लिखा है- ‘सारी जातियों का कल्याण हो सके, ऐसी सर्वसमावेशक भूमिका समाचार-पत्रों को लेनी चाहिए। यदि वे यह भूमिका नहीं लेते हैं, तो सबका अहित होगा।’ समाचार-पत्र स्वतंत्र भारत में समय के साथ अपनी इस भूमिका से दूर होते गए हैं। आज पत्रकारिता के ज्यादातर संस्थानों पर वंचितों की आवाज होने का गौरव-तिलक नहीं लगा है, बल्कि कॉरपोरेट हितैषी होने का ठप्पा लगा है। वर्तमान समाज में कहीं अवनति दिखाई देती है, तो उसके लिए आज की पत्रकारिता भी कहीं न कहीं दोषी है। पत्रकारिता का दायित्व है समाज के प्रबोधन का, उसके शिक्षण का। बाबासाहब ने तो स्पष्ट तौर पर कहा कि भावी उन्नति एवं उसके मार्गों के वास्तविक स्वरूपों की चर्चा होने के लिए समाचार-पत्र जितना महत्व अन्य किसी का नहीं है। यानी समाचार-पत्र समाज की उन्नति के मूल में हैं। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व समाचार-पत्रों की भूमिका इस बात को सिद्ध भी करती है कि कैसे पत्रकारिता सोते हुए समाज को जगाने का सामर्थ्य रखती है। मूकनायक के प्रकाशन की घटना का यह शताब्दी वर्ष है। इसलिए यह प्रासंगिक होगा कि हम मूकनायक में पत्रकारिता के उन मूल्यों एवं उत्तरदायित्व को टटोलें, जो बाबासाहब ने बताए थे।   


          आज संविधान से हमें जो नागरिक अधिकार प्राप्त हैं, उसकी एक भूमिका 1920 में ही मूकनायक के तीसरे अंक में बाबासाहब ने रख दी थी। ‘यह स्वराज्य नहीं, हम पर राज्य है’ शीर्षक से लंबे आलेख में उन्होंने लिखा- किसी भी व्यक्ति को हम तभी नागरिक कह सकते हैं, जब उसे न्यूनतम अधिकार प्राप्त हों। ये अधिकार (1) व्यक्तिगत स्वातंत्र्य, (2) व्यक्तिगत सुरक्षितता, (3) व्यक्तिगत संपत्ति रखने का अधिकार, (4) कानून की दृष्टि में समानता, (5) सद् बुद्धि के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता, (6) भाषण स्वातंत्र्य, मत स्वातंत्र्य, (7) सभा लेने का अधिकार, (8) देश के राज कारोबार हेतु प्रतिनिधि भिजवा देने का अधिकार एवं (9) सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार। स्पष्ट है कि बाबासाहब प्रत्येक नागरिक के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। मूकनायक में सामाजिक-राजनैतिक विमर्श को दिशा देने वाली सामग्री के साथ ही ऐसे समाचार भी प्रकाशित होते थे, जिनका संबंध बहुजन समाज के हित से होता था। समसामयिक घटनाओं को लेकर प्रतिक्रियाएं भी प्रकाशित की जाती थीं।


          मूकनायक ने न केवल दलित वर्ग में स्वतंत्र चेतना का संचार किया, बल्कि अमानवीय व्यवहार के प्रति सवर्ण समाज का ध्यान भी आकर्षित किया। किंतु, यह ऊर्जावान समाचार-पत्र अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। इसके बंद होने के पीछे आर्थिक कारण तो थे ही, किंतु समाचार-पत्र के प्रकाशन के लिए जो लगन चाहिए थी, डॉ. अंबेडकर के इंग्लैंड जाने से उसका भी अभाव हो गया था। बाबासाहब उच्च शिक्षा के लिए 5 जुलाई, 1920 को इंग्लैड चले गए थे। 31 जुलाई, 1920 को मूकनायक का घोषित संपादक ज्ञानदेव ध्रुवनाथ घोपल को बना दिया गया था। घोपल ने बहुत प्रयास किए, लेकिन वे मूकनायक के तेज को संभाल नहीं सके। अंतत: सन् 1923 में मूकनायक का प्रकाशन बंद हो गया। मूकनायक के अंत को देखकर बाबासाहब बहुत व्यथित हुए थे।  


          बाबासाहब अंबेडकर इंग्लैंड से लौटने के बाद फिर से सामाजिक क्रांति में जुट गए। 1924 में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की और अछूतों के आंदोलन को आगे बढ़ाने के अपने संकल्प की सिद्धि में लग गए। बाबासाहब ने 20 मार्च, 1927 को महाड़ के चवदार तालाब का प्रसिद्ध सत्याग्रह किया। तत्कालीन समाचार-पत्रों में इस सत्याग्रह के समर्थन और विरोध में समाचार प्रकाशित होने लगे। विरोध में प्रकाशित समाचार अतार्किक थे। बाबासाहब उनका उत्तर देना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक स्वतंत्र समाचार-पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। 3 अप्रैल, 1927 को बाबा साहब ने अपने दूसरे साप्ताहिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचार-पत्र में चवदार तालाब सत्याग्रह के संबंध में भरपूर लेखन किया गया। ‘बहिष्कृत भारत’ को बाबासाहब के आंदोलन का मुखपत्र होने का गौरव प्राप्त हुआ। ‘बहिष्कृत भारत’ को प्रकाशित करने का जब निर्णय हुआ, तब डॉ. अंबेडकर ने सब प्रकार से परिश्रम किया। समाचार-पत्र के दीर्घकाल तक संचालन के लिए आर्थिक पक्ष की चिंता भी की और पाठकों के बौद्धिक हेतु श्रेष्ठ सामग्री की योजना भी बनाई। बहिष्कृत भारत को शुरू करने से पूर्व उन्होंने आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए ‘बहिष्कृत फंड’ में दान देने हेतु लोगों से आह्वान किया। किंतु, इसमें उन्हें वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई। एक वर्ष में ही इस समाचार-पत्र पर 500 रुपये का कर्ज हो गया। बाबासाहब के लिए अर्थाभाव में बहिष्कृत भारत का प्रकाशन कठिन होने लगा था। समाचार-पत्र समय पर प्रकाशित नहीं हो पाता था, जिसके कारण पाठकों की शिकायतें प्राप्त होतीं। कई बार संयुक्तांक भी प्रकाशित करने पड़े। अंतत: 15 नवंबर, 1929 को बहिष्कृत भारत का अंतिम अंक पाठकों के हाथ में पहुँचा। इस समाचार पत्र के बंद होने पर भी बाबासाहब ने दु:ख व्यक्त किया और अंतिम अंक में ‘बहिष्कृत भारताचे ऋण हे लौकिक ऋण नव्हे काय?’ अर्थात ‘बहिष्कृत भारत का ऋण लौकिक ऋण नहीं है क्या?’ शीर्षक से लंबा लेख लिखा। यह समाचार-पत्र भी मराठी भाषा में प्रकाशित होता था। अपने इस पत्र के माध्यम से बाबासाहब ने दलित वर्ग के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के विचार प्रस्तुत किए। यह पत्र अपनी स्पष्टवादिता और तेजतर्रार लेखन के लिए प्रसिद्ध रहा। बाबा साहब जाति-भेद समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह के पक्षधर थे। वे अंतरजातीय विवाह करने वाले दंपतियों की सूचना बहिष्कृत भारत में न केवल प्रकाशित करते, बल्कि उनका अभिनंदन भी करते थे।

          मूकनायक और बहिष्कृत भारत के अल्पायु में ही बंद होने के बाद बाबासाहब ने अपना तीसरा पत्र 24 नवंबर, 1930 को ‘जनता’ के नाम से प्रकाशित किया। यह पत्र लंबे समय तक प्रकाशित होता रहा। बाद में इसी समाचार-पत्र का नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ रख दिया गया। जनता के संपादक बाबा साहब नहीं थे। हालाँकि, समाचार-पत्र के मत्थे पर यह प्रकाशित किया जाता था कि डॉ. भीमराव अंबेडकर एमए, पीएचडी, डीएससी, बार एट लॉ के नेतृत्व में निकलने वाला जनहित प्रवर्तक पाक्षिक पत्र ‘जनता’ है। ‘जनता’ शीर्षक के नीचे अंग्रेजी में ‘द पीपुल’ लिखा जाता था। कुछ अंकों के बाद मुखपृष्ठ पर शीर्षक के नीचे यह घोष वाक्य लिखा जाने लगा कि- ‘गुलामों को उसकी गुलामी का अहसास करा दो तो वह विद्रोह करेगा।’ बहरहाल, जनता के संपादक के रूप में जन्म से ब्राह्मण देवराव विष्णु नाईक की नियुक्ति की गई। नाईक भी समाज से भेद-भाव और छुआछूत को समाप्त करने के लिए आंदोलन में सक्रिय थे। पाठकों की माँग रहती थी कि डॉ. अंबेडकर ‘जनता’ के लिए नियमित लिखें। लेकिन, बाबा साहब की व्यस्तता बढऩे के कारण यह संभव नहीं हो पाता। हालाँकि, जनता में नियमित नहीं लिख पाने की छटपटाहट उनमें भी रहती थी। इस बीच बाबा साहब को एक बार फिर अध्ययन हेतु इंग्लैंड जाना पड़ गया। लेकिन, इस बार समाचार-पत्र पर कोई संकट नहीं आया। यह प्रकाशित होता रहा। समाज के प्रबोधन के लिए समाचार-पत्र का क्या महत्व है, इसको समझाने के लिए बाबा साहब ने लंदन से ही ‘जनता’ के पाठकों के लिए पत्र लिखा – “अपने स्वावलंबन तथा भविष्य के राजनीतिक अधिकारों के लिए इस पत्रिका को बनाए रखना, इसे समृद्ध और संपन्न बनाना हमारी जिम्मेदारी है। आज भले ही ‘जनता’ पत्र का महत्व आप समझ नहीं पा रहे हो, तो भी उसका सही अहसास निकट भविष्य में होगा।” 
          अपवाद छोड़ दें तो ‘जनता’ साप्ताहित निरंतर एवं अखंड रूप से 25 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा। जनता में बाबा साहब ने विविधतापूर्ण लेखन किया है। लंदन से लिखे गए पाठकों के नाम पत्र तो महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं ही, अन्य लेख एवं प्रकाशित भाषण भी महत्वपूर्ण हैं। बाबा साहब के जो सात महत्वपूर्ण भाषण हैं, उन्हें भी जनता में प्रकाशित किया गया था। दलितों के प्रति सवर्णों के अमानवीय व्यवहार को लेकर डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही कठोर भाषा में लिखा है। लेकिन, उनके तर्कों को काटने में सक्षम तर्क किसी और के पास नहीं थे। बाबा साहब ने अपने इन सभी लेखों में भाषा की मर्यादा पर पूर्ण ध्यान दिया है। उनके लेखन की भाषा असंतुलित कभी नहीं हुई। दरअसल, वे किसी के विरोध में अपनी लेखनी नहीं चला रहे थे, बल्कि विशुद्ध रूप से मानवता के हित में अपने पत्रकारीय और लेखकीय कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या या वैर नहीं था। अपने विरोधी विचार के प्रति भी बाबा साहब का हृदय कितना विशाल है, उसे एक घटना के माध्यम से भली प्रकार समझा जा सकता है। हैदराबाद रियासत के एक दलित युवक ने बाबा साहब का विरोध करते हुए आरोप लगाया कि वे सिर्फ एक जाति (महार) के नेता हैं और उस जाति के लोग अन्य दलित जातियों के प्रति शत्रुवत व्यवहार करते हैं। वह चाहते तो इस पत्र का व्यक्तिगत उत्तर दे सकते थे या फिर नजरअंदाज कर सकते थे। किंतु, बाबा साहब ने उस युवक के पत्र को ‘जनता’ में 14 जून, 1941 में प्रकाशित किया। इस पत्र का विस्तृत उत्तर भी उन्होंने इसी अंक में लिखा। अपने विरोधी के पत्रों को, जिसमें उन पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं, उन्हें अपने पाठकों तक सार्वजनिक रूप से पहुँचाने का साहस कोई विरला एवं विशाल हृदय का व्यक्ति ही कर सकता है। 
          ‘जनता’ पत्र का नाम 4 फरवरी, 1956 को बदल दिया गया। अब यह ‘प्रबुद्ध भारत’ नाम से निकलने लगा। इसे अखिल भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का मुखपत्र घोषित कर दिया गया। अपने देहावसान तक, अर्थात 6 दिसंबर, 1956 तक ‘प्रबुद्ध भारत’ को नियमित प्रकाशित होते हुए बाबा साहब ने देखा। इसके कुछ अंकों में उन्होंने लेखन भी किया। सन् 1961 में यह समाचार पत्र बंद हो गया। ‘मूकनायक’ से लेकर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक बाबा साहब की पत्रकारिता की यात्रा एक संकल्प को सिद्ध करने का वैचारिक आग्रह है। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने दलितों एवं सवर्णों के मध्य बनी भेद-भाव, ऊंच-नीच और सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का काम किया। उनकी पत्रकारिता में संपूर्ण समाज के लिए प्रबोधन है, उसे केवल दलित पत्रकारिता का सीमित कर देना अन्यायपूर्ण होगा। उनकी इस पत्रकारीय यात्रा में अनेक सवर्ण साथी उनके सहयात्री बने। उन्होंने समाचार-पत्रों का बाबा साहब की भावना के अनुरूप संपादन किया। 

          आज की पत्रकारिता को भी बाबा साहब जैसे संकल्पित पत्रकार-संपादक चाहिए, जो पत्रकारिता के सामाजिक महत्व को जानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और आजन्म समाजोत्थान के लिए ही पत्रकारिता का उपयोग करते हैं। भारत की यशस्वी पत्रकारिता के लिए यह दु:ख की बात है कि आज उसके पास डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर जैसा कृत-संकल्पित पत्रकार नहीं है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा’ में लिखा है – ‘भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करनेवाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को माननेवाला, लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में समाचार-पत्र का उपयोग करनेवाला डॉ. अम्बेडकर जैसा पत्रकार दुर्लभ हो रहा है।’ उक्त विचार ही बाबा साहब की पत्रकारिता का संदेश और सार है।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

लोकनायक श्रीराम


मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम भारत की आत्मा हैं। राम भारतीय संस्कृति के भव्य-दिव्य मंदिर के न केवल चमकते शिखर हैं, अपितु वे वास्तव में उसके आधार भी हैं। इसलिए राम का जीवन उनके समय से लेकर आज तक प्रासंगिक है। उनका जीवन प्रकाश स्तम्भ की तरह है, जो अंधेरे में हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। संसार का ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका व्यवहारिक आदर्श उत्तर राम ने अपने आचरण से नहीं दिया हो। उनके जीवन में सारा जग समाया हुआ है। बाबा तुलसीदास लिखते हैं- ‘सिय राम मय सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी।’ राष्ट्र एवं समाज जीवन की दिशा क्या होनी चाहिए, यह रामकथा में राम के जीवन से अनुभूत की जा सकती है। वह ऐसे नरश्रेष्ठ या अवतार हैं, जिन्होंने वाणी से नहीं अपितु आचरण से जीवनदर्शन को प्रस्तुत किया। इसलिए वह सीधे लोक से जुड़ते हैं। असाधारण होकर भी अपने साधारण जीवन से समूचे लोक का नेतृत्व करते हैं। राम भारतीय संस्कृति के ऐसे नायक हैं, जिन्होंने समाज के सुख-दु:ख और उसकी रचना को नजदीक से देखा-समझा। अयोध्या के राजकुमार-राजा से कहीं अधिक बड़ी भूमिका में राम हमें एक ऐसे जननायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने उत्तर से दक्षिण तक दुष्ट राजाओं के आतंक से भयाक्रांत भारतीय समाज के साहस को जगाया और उन्हें एकजुट किया। अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार और पराक्रम का बल दिया। राष्ट्र के सोये हुए भाग्य को जगाने का काम लोकनायक करते हैं, वहीं प्रभु राम ने किया। 
          शक्तिशाली राज्य अयोध्या के महाराज दशरथ के वीर पुत्र और भावी सम्राट होने मात्र से राम जनता के नायक नहीं हो जाते। वह अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार गढ़ते हैं कि जनता उन्हें स्वाभाविक तौर पर अपना नायक मानती है। जनमानस में राम के प्रति कितना समर्पण था, उनके प्रति कितनी आस्था-भक्ति थी, व्यापक स्तर पर उसका पहला प्रकटीकरण तब होता है, जब राम अयोध्या का भव्य महल छोड़कर वन की ओर निकलते हैं। अयोध्या के समस्त मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं। राम को रोकने के लिए जनसैलाब उमड़ आया है। रथ के आगे लोग लेट गए हैं। राम उनसे दूर जाएं, अयोध्या का कोई भी जन यह स्वीकार करने को तैयार नहीं। अयोध्या में आर्तनाद छा गया। यह अगाध श्रद्धा, अपनत्व, ममत्व, स्नेह और भक्ति राम ने अपने आचरण से कमाई थी। अयोध्या का हाल देखकर भरत अपने भाई को वापस लाने के लिए चित्रकूट में पहुँचते हैं। राम से लौटकर चलने के लिए मनुहार करते हैं। करबद्ध प्रार्थना करते हैं। किंतु, राम को मर्यादा की स्थापना करनी है। वह भरत को मना कर देते हैं। परंतु, अयोध्या का क्या, जो दशरथ के बाद राम की है। राम ही अयोध्या को नेतृत्व दे सकते हैं। क्योंकि, अयोध्या की जनता सिर्फ ‘रामराज्य’ चाहती है। राम के विरह की अग्नि अभी ठण्डी भी कहाँ हुई थी? ऐसे में भरत स्वप्न में भी अयोध्या के सिंहासन पर बैठने की सोच नहीं सकते। भाई राम के प्रति भी भरत के मन में जो श्रद्धा है, वह भी इसकी अनुमति नहीं देती। भले ही माता कैकयी भरत को राजा के रूप में सिंहासन पर बैठे देखना चाहती थीं। यदि किसी दबाव में भरत यह करते तो जनमानस उनके विरुद्ध हो सकता था। अयोध्या को सिर्फ राम संभाल सकते थे। इसलिए भरत ने राम की चरणपादुकाएं लीं और अयोध्या लौट गए।  
          महल छोड़कर राम जब वन पहुँचते हैं, तब उन्हें ज्ञात होता है कि समाज किन कठिनाइयों से गुजर रहा है। हालाँकि, गुरु वशिष्ठ उन्हें पहले भी समाज की समस्याओं से साक्षात्कार करा चुके थे। समाज को अत्यंत समीप से देखने के बाद राम उसे संगठित और जागृत करना चाहते थे। इसलिए भी संभव है कि राम अयोध्यावासियों और अपने प्रिय भाई भरत की प्रार्थनाओं को अस्वीकार कर देते हैं। वह साधारण जीवन जी कर समाज के सामने अनेक प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते हैं। वह चाहते तो वन में किसी एक जगह सुंदर और साधन-सम्पन्न कुटिया बना कर रह सकते थे। लेकिन, उन्होंने वनगमन को राष्ट्र निर्माण के एक अवसर में बदल दिया। अपना हित छोड़ा, कष्ट सहन किए। सरलता को छोड़ा, कठिनता को चुना। आराम का त्याग किया, परिश्रम को चुना। वनवास के दौरान राम ने व्यापक जनसंपर्क किया। वनवासियों को अपने साथ जोड़ा। उन्हें अपना बनाया। सामान्य व्यक्ति जिस संघर्ष भरे जीवन को जी रहा था, उसी को राम ने भी अपनाया। इसलिए वन-ग्राम में रहने वाले सब लोगों के साथ उनका आत्मीय और विश्वास का संबंध जुड़ता। 
          वनवास खत्म होने में केवल छह-सात माह ही बचते हैं, तब माता जानकी का अपहरण रावण ने कर लिया। राम ने ऐसे कठिन समय में भी अयोध्या, मिथिला या फिर अन्य किसी मित्र राज्य से सहायता नहीं ली। वह समाज को संदेश देना चाहते थे कि समाज की एकजुटता से बिना साधन के भी रावण जैसे अत्यधिक शक्तिशाली आताताई को भी परास्त किया जा सकता है। संगठन में ही वास्तविक शक्ति है। अत्याचारी और अन्यायी ताकतों का सामना करने के लिए राज्य की सशस्त्र सेना ही आवश्यक नहीं है। हम अपनी शक्ति को एकत्र कर भी दुष्टों को धूल चटा सकते हैं। चूँकि वह मानते थे- ‘यथा हि कुरुते राजा प्रजा तमनुवर्तते’ (उत्तरकाण्ड, सर्ग ४३, श्लोक १९)। अर्थात् प्रजा अपने राजा का अनुसरण करती है। यदि राम ने सेना बुला कर रावण का अंत किया होता, तब जनमानस में ‘संगठन में शक्ति है’ का भाव कभी नहीं आ पाता, तब शायद समाज में पराक्रम का भाव नहीं जाग पाता, तब शायद सामान्य समाज अपने साहस और कौशल को हथियार नहीं बना पाता, अन्याय के सामने सिर उठाने का साहस नहीं कर पाता। वह बाहुबलियों द्वारा पददलित होना, अपना भाग्य समझ लेता। राम ने लोगों का संगठन कर उसे शक्तिशाली सेना का स्वरूप देकर समाज का भाग्य बदल दिया। उन्होंने समाज में संघर्ष और आत्मविश्वास का बीज बो दिया। राम ने आने वाले भविष्य के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर दिया कि कितना भी बलशाली दुष्ट शासन हो, संगठित समाजशक्ति द्वारा उसका प्रतिकार किया जा सकता है। अन्यायपूर्ण शासन को जनशक्ति उखाड़ कर फेंक देती है। संगठित जनसमूह के सामने साधन-सम्पन्न दुष्ट ताकत कमजोर पड़ जाती है। अंत में विजय समाज के हिस्से आती है। 
          प्रभु राम की ईश्वरीय अवधारणा से इतर, रामकथा ऐसे जननायक की कहानी है, जिसने संपूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरोया, समाज के विभेद को समाप्त किया, समाज में मूल्य एवं आदर्श स्थापित किए। आज भी भारत राम के नाम पर एक है। राम ऐसे लोकनायक हैं, जो सिर्फ भक्त शिरोमणि वीर हनुमान के सीने में ही नहीं बसते, वरन भारत के बच्चे-बच्चे में राम की छवि दिखती है। राम ऐसे जननायक हैं, जो आज भी प्रत्येक संकट में हमें सहारा देते हैं। उनका जीवन हमें कठिन से कठिन संकटों का सामना करने की प्रेरणा देता है। लोकनायक होने के लिए किस तरह का संकल्प चाहिए, यह राम के संपूर्ण जीवन से स्पष्ट हो जाना चाहिए। यद्धपि महाकवि भवभूति ने अपने नाटक ‘उत्तररामचरित’ में स्वयं प्रभु राम से वक्तव्य दिलाया है- “स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि, आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्ति मे व्यथा।” अर्थात् राम कहते हैं कि लोक की आराधना के लिए मुझे अपने स्नेह, दया, सौख्य और यहाँ तक कि जानकी का भी परित्याग करने में भी कोई व्यथा नहीं होगी। हमको ज्ञात है कि राम ने लोक की सेवा के लिए फूलों की सेज छोड़ कर कंटकाकीर्ण मार्ग चुना। अपना सर्वस्व त्यागा। राम सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते थे लेकिन उन्होंने कठिन और कष्टप्रद जीवन को चुना।
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मेरा भारत साक्षात् राजा राम स्वरुप है