मंगलवार, 27 अगस्त 2019

सेवा है यज्ञ कुंड, समिधा सम हम जलें

बैतूल में आरएसएस के समविचार संगठन 'विद्या भारती' द्वारा संचालित हॉस्पिटल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने लोकप्रिय रेडियो संवाद मन की बातमें भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा गांधी के जीवन का उल्लेख करते हुए सेवा को अपने जीवन में उतारने का आह्वान किया। भारतीय परंपरा-संस्कृति में सेवा का अत्यधिक महत्व है। हम भारतीयों का यह एक ऐसा गुण है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ता है। हमारे देश में सेवा को उपकार की तरह नहीं, बल्कि कर्तव्य की तरह देखा जाता है। कर्तव्य भी साधारण नहीं, अपितु विशेष। भारतीय परंपरा में सेवाअर्थात् करना ही चाहिएऐसा कार्य। सेवा हमारे यहां बदले में कुछ पाने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह करणीय कार्य है। जबकि पश्चिम से जो ईसाई मिशनरीज आए उन्होंने सेवा को कन्वर्जन (धर्मान्तरण) का माध्यम बनाया है। अर्थात् वह सेवा जैसे पवित्र कार्य का भी दुरुपयोग करते हैं। जबकि हमारे लिए सेवा समाज ऋण से उऋण होने का माध्यम है।
          प्राचीन भारत के इतिहास में झांक कर देखें तो पाएंगे कि समाज के प्रतिष्ठित और साधन-सम्पन्न लोग ही नहीं, अपितु सामान्य जनमानस में भी सेवा की प्रवृत्ति थी। आधुनिकत जीवन पद्धति में कहीं न कहीं हम सेवा भावसे दूर हुए हैं। स्व-केंद्रित जीवन होने के कारण हम अपने आस-पास जरूरतमंद लोगों को देख नहीं पाते हैं। जबकि हम सहजता से उनकी विभिन्न प्रकार से मदद कर सकते हैं। यही बात देशवासियों के ध्यान में लाने का प्रयास प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा गांधी के माध्यम से किया है। उन्होंने एक बार फिर महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को सार्थक ढंग से मनाने का आह्वान देश से किया है।
          हम जानते हैं कि अंहिसा के बाद महात्मा गांधी का सबसे बड़ा साधन एवं मंत्र सेवाही है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी ने उचित ही कहा कि महात्मा गांधी के जीवन से एक बात हमेशा जुड़ी रही वह है, सेवा और सेवा भाव। उनका पूरा जीवन देखने पर यह सेवा भावसदैव उनके साथ दिखाई देता है। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में उन लोगों की सेवा की, जो नस्लीय हिंसा का शिकार थे। उस समय यह छोटी बात नहीं थी। उन्होंने उन किसानों की सेवा की, जिनके साथ चंपारण में भेदभाव किया जा रहा था। उन्होंने उन मिल मजदूरों की सेवा की, जिन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जा रही थी। उन्होंने गरीब, बेसहारा, कमजोर और भूखे लोगों की सेवा को अपने जीवन का परम कर्तव्य माना। अहिंसा और सत्य के साथ गांधी का जितना अटूट नाता रहा है, सेवा के साथ भी उनका उतना ही अनन्य, अटूट नाता रहा। जिस किसी को जब भी जहां जरूरत पड़ी, महात्मा गांधी सेवा के लिए मौजूद रहे। उन्होंने न केवल सेवा पर बल दिया, बल्कि उसके साथ जुड़े आत्मसुख पर भी जोर दिया। सेवा शब्द की सार्थकता इसी अर्थ में है कि उसे आनंद के साथ किया जाए।
          इस महत्वपूर्ण वर्ष में जब हम महात्मा गांधी को याद कर रहे हैं, उनकी सार्धशती को उत्साहित होकर मना रहे हैं, तब सेवा को अपने आचरण में उतारना ही गांधीजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। सेवा कोई कठिन कार्य नहीं है, बल्कि बहुत सहज है। अपने सामथ्र्य के अनुसार हम छोटे-छोटे उपक्रम करके सेवा कर सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अनेक उपक्रम बताए ही हैं। अपने स्तर पर बहुत से लोग सेवा कार्य कर भी रहे हैं। देश में जब भी निस्वार्थ सेवा कार्यों की चर्चा चलती है तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उल्लेख अवश्य होता है/ होना भी चाहिए। संघ की प्रेरणा से देशभर में अनेक समविचारी संगठन और स्वयंसेवक डेढ़ लाख से अधिक सेवा प्रकल्प संचालित कर रहे हैं। सेवा कार्यों से समाज में क्या बदलाव आए हैं, उनकी प्रेरक कहानियां सेवागाथा डॉट ओआरजी पर पढ़ी जा सकती हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने सेवा को अपने जीवन में उतार लिया है, सेवा कार्य करते हुए वह एक गीत भी गाते हैं- सेवा है यज्ञ कुंड, समिधा सम हम जलें। हमारे जीवन में सेवाकिस भावसे आनी चाहिए, उसको यह गीत स्पष्ट रूप में बताता है।

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

आरक्षण और संघ के विरुद्ध दुष्प्रचार


किसी भी अच्छे विचार पर अनावश्यक राजनीतिक विवाद कैसे खड़ा किया जाता है, इसका सटीक उदाहरण है- सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी विचार पर खड़ा किया गया नकारात्मक विमर्श। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति दुराग्रह रखने वाला वर्ग संघ के विचार को गंभीरता से सुने बिना ही कौव्वा कान ले गयाकी तर्ज पर हो-हल्ला करने लगता है। इससे यही सिद्ध होता है कि यह वर्ग आरएसएस को ऐन-केन-प्रकारेण विवाद में घसीटने की ताक में बैठा रहता है। भारत में राजनीतिक स्वार्थ ने आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न को विवादास्पद बना दिया है। यह एक संवेदनशील विषय है। हमने देखा है कि पूर्व में कैसे टुकड़े-टुकड़े गैंगने आरक्षण पर अफवाह और भ्रम फैलाकर हिंदू समाज को तोडऩे के प्रयास किए हैं। विभाजनकारी सोच ने सामाजिक मुद्दे का इस तरह से राजनीतिकरण किया है कि अच्छी बात कहना भी कठिन हो गया है। परंतु, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने किसी प्रकार का राजनीतिक जोखिम नहीं है, क्योंकि राजनीति न तो उसके काम का आधार है और न ही लक्ष्य, इसलिए वह बार-बार आरक्षण पर सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करने को तैयार रहता है। दिल्ली में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास द्वारा आयोजित ज्ञानोत्सव-2076’ के समापन सत्र में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा भी कि आरक्षण पर पहले भी उनके कथन को गलत ढंग से प्रस्तुत कर राजनीतिक विवाद खड़ा किया गया, लेकिन संघ इस प्रकार के विवाद से डरता नहीं है। आरक्षण पर पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते समय सरसंघचालक को यह कल्पना थी कि उनके वक्तव्य को तोड़-मरोड़ कर एक बार फिर से विवाद खड़ा किया जाएगा, किंतु उन्होंने विवाद की चिंता न करते हुए महत्वपूर्ण विषय पर समाज का मार्गदर्शन किया।
            किंतु, तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी-पत्रकार, कम्युनिस्ट सहित अन्य राजनीतिक दल तो तैयार बैठे रहते हैं, संघ को दलित विरोधी, आरक्षण विरोधी सिद्ध करने के लिए। इस बार भी उन्होंने यही प्रयास किया, लेकिन वह भूल जाते हैं कि समय बदल गया है। अब झूठ चलता नहीं। पारदर्शी जमाना है। डिजिटल युग में सच तक आम आदमी की पहुँच हो गई है। इसलिए उसके दिमाग में पहले की तरह झूठ नहीं बैठाया जा सकता। इस वर्ग के द्वारा बार-बार यह राग आलापना मूर्खता ही कहा जाएगा कि संघ आरक्षण का विरोधी है और वह आरक्षण खत्म करना चाहता है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बार-बार पूर्ण स्पष्टता के साथ कह चुका है कि वह अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का पूर्ण समर्थन करता है। एक बार फिर से संघ ने इस विषय पर अपना विचार स्पष्ट किया है कि वह कमजोर वर्ग को दिए जा रहे आरक्षण का पूर्ण समर्थन करता है।


            अब यहाँ यह जानना आवश्यक है कि सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा क्या था कि उसे आरक्षण समाप्त करने का संघ का मंतव्य बताया जा रहा है। अपने संबोधन में सरसंघचालक ने कहा-आरक्षण के प्रश्न का हल सद्भावना में ही है। आरक्षण के पक्ष के लोग, आरक्षण के विपक्ष के लोगों का विचार करके जब कुछ बोलेंगे-करेंगे और आरक्षण के विपक्ष में जो लोग हैं, वो आरक्षण के पक्ष के लोगों का विचार करके कुछ करेंगे-बोलेंगे, तब इसका हल एक मिनट में निकल आएगा। बिना कानून के, बिना नियम के। इस प्रकार की सद्भावना जब तक संपूर्ण समाज में खड़ी नहीं होती, इस प्रश्न का हल कोई नहीं दे सकता। यह सद्भावना खड़ा करने का प्रयास करना पड़ेगा, जो कि संघ कर रहा है।




            आरोप लगाने वालों से पूछना चाहिए कि इस वक्तव्य में सरसंघचालक या आरएसएस ने आरक्षण खत्म करने की बात कहाँ कही है? लेकिन अपनी आदत से मजबूर सेक्युलर, लिबरल, वामपंथी और कांग्रेस नेताओं, पत्रकारों ने संघ के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू कर दिया। पूर्व की घटनाओं की भांति मोहन भागवत जी के कथन को अपनी सुविधा अनुसार तोडऩा शुरू कर दिया। सरसंघचालक के भाषण के एक हिस्से पर जो अनावश्यक विवाद खड़ा किया जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। याद करना होगा कि लगभग एक साल पहले ही नयी दिल्ली के विज्ञान भवन में आरएसएस की ओर से एक व्याख्यान माला का आयोजन किया गया था। इस तीन दिवसीय आयोजन में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने स्वयं पूरे समय उपलब्ध रह कर संघ के बारे में फैलाये जाने वाले भ्रमों को दूर किया। उस समय भी आरक्षण के प्रश्न पर सरसंघचालक ने कहा था कि संघ का मानना है कि सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था हमारे संविधान में की गयी है, वह जारी रहनी चाहिए।

विज्ञान भवन में आयोजित व्याख्यान माला 'भविष्य काभारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' में सरसंघचालक ने क्या कहा था, सुनिए (1:27:23 मिनट पर) –


            राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सर्वोच्च समिति अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’, जो संघकार्य-विचार की दिशा-नीति तय करती है, उसने भी आरक्षण पर बाकायदा प्रस्ताव पारित किया है। संघ में सर्वसम्मति से पारित यह प्रस्ताव भी आरक्षण पर प्रोपोगंडा करने वालों को पढऩा चाहिए। 1981 में जब गुजरात और अन्य प्रदेशों में आरक्षण की मांग के कारण तनावपूर्ण स्थितियां निर्मित हुईं थी, तब संघ ने आरक्षण पर चिंता व्यक्त की थी। उससे पहले भी आरक्षण संघ के विमर्श का हिस्सा रहा है। 1981 में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में आरक्षण पर एक प्रस्ताव पारित हुआ था। उस प्रस्ताव में कहा गया था- ‘संघ यह मानता है कि शताब्दियों से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए बंधुओं को शेष समाज के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण व्यवस्था को अभी बनाये रखना आवश्यक है।

            आरएसएस के विरुद्ध व्यापक स्तर पर दुष्प्रचार होने के बाद भी संघ के विचार की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है, उसका कारण है कि समाज 94 वर्षों से संघ को नजदीक से देख-समझ रहा है, इसलिए उसे संघ को लेकर कोई भ्रम नहीं है। संघ के प्रति समाज का जो भरोसा बना है, उसके ही कारण संघ को लेकर जो लोग/वर्ग दुष्प्रचार करते हैं, उनके सब प्रयत्न बेकार जाते हैं। संघ ने अपने आचार-व्यवहार से लंबे समय में समाज का विश्वास अर्जित किया है। उसको इस प्रकार क्षति नहीं पहुँचाई जा सकती है। विरोधियों की इस प्रकार की हरकतों से संघ के प्रति तो अविश्वास का वातावरण नहीं बनता, बल्कि यह वर्ग स्वयं ही झूठा और समाजद्रोही साबित हो जाता है।

रविवार, 4 अगस्त 2019

नैसर्गिक सौंदर्य के मध्य स्थित तप-स्थली ‘धूनी-पानी’




किसी भी स्थान के नामकरण के पीछे कोई न कोई कहानी होती है। धार्मिक पर्यटन स्थल पर यह नियम विशेष रूप से लागू होता है। अमरकंटक के धूनी-पानीकी कहानी भी बड़ी रोचक है। स्वाभाविक ही किसी स्थान के नाम में धूनीसे आभास होता है कि यह कोई ऐसा स्थल है जहाँ साधु-संन्यासी धूनी रमाते होंगे। पानीबताता है कि वहाँ जल का विशेष स्रोत होगा। धूनी और पानी दोनों से मिलकर ही धूनी-पानीनामकरण हुआ होगा। श्री नर्मदा मंदिर से श्री नर्मदा मंदिर से दक्षिण दिशा की ओर लगभग 5 किमी की दूरी तय करने पर हम इस स्थान पर पहुँच चुके हैं। यह स्थान चारों ओर से ऊंचे सरई, आम, जामुन और कटहल के पेड़ों से घिरा हुआ है। यहाँ नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य पूर्णता के साथ उपस्थित है। शांत-सुरम्य वन के बीच में हमें एक छोटा-सा दोमंजिला मंदिरनुमा भवन दिखाई दिया। आज इसी भवन में धूनीरमा कर साधु बैठते हैं। पूर्व में कभी आसमान के नीचे साधु खुले में धूनी रमाते रहे होंगे, बाद में बारिश से बचने के लिए भवन बना लिया। पास में ही यहाँ जलकुण्ड दिखाई देते हैं, जो यहाँ के साधुओं के लिए पानीके स्रोत हैं। नर्मदा परिक्रमावासियों के लिए भी यहाँ स्थान बना हुआ है। जहाँ वे ठहर सकते हैं और भोजन इत्यादि बना-खा सकते हैं। माँ नर्मदा की परिक्रमा के दौरान परिक्रमावासी यहाँ आते ही हैं। उन दिनों इस स्थान पर विशेष चहल-पहल रहती है। सामान्य दिनों में भी यहाँ बैठ कर प्रकृति के सान्निध्य और उसके ममत्व से उत्पन्न आनंद की सहज अनुभूति की जा सकती है।


          जून का एक दिन था, जब हम धूनी-पानीपहुँचे थे, तब एक संत यहाँ धूनी रमा कर बैठे थे। वैसे तो अमरकंटक वनप्रदेश होने के कारण अपेक्षाकृत ठंडा रहता है, फिर भी मई-जून की गर्मी के भी अपने तेवर हैं। धूनी के पास संत रामदासजी महाराज अन्य साधुओं से थोड़ा अलग ही दिखाई दे रहे थे। उनके समीप कुछ पुस्तकें रखी थीं। यहाँ बैठकर वह माँ नर्मदा की स्तुति में गीत और कविताएं रच रहे हैं। मंदिर के भीतर मन को प्रसन्न करने वाली माँ नर्मदा की मोहक प्रतिमा तो थी ही, पूजा के आले में युवा नायक स्वामी विवेकानंद का चित्र भी रखा था। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा का चित्र भी सुशोभित हो रहा था। स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी रहे, जिन्होंने सोये हुए राष्ट्र का गौरव जगाया, जिन्होंने भारतीय संस्कृति की ध्वजा विश्व पटल पर फहराई। निश्चित ही हमारे संन्यासियों को स्वामी विवेकानंद के संन्यास जीवन को अपना आदर्श बनाना चाहिए।


          अपन राम ने धूनी के पास बैठकर काफी देर तक उदासीन संत रामदासजी महाराज के साथ लंबा सत्संग किया। बहुत आनंद आया। उन्होंने यह भी बताया कि अपनी युवावस्था में वह घोर कम्युनिस्ट हुआ करते थे, एकदम नास्तिक, धर्म को अफीम मानने वाले, किंतु आज वह आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं।  उन्होंने ही बताया कि किसी समय में भृगु ऋषि ने यहाँ धूनी रमा कर तपस्या की थी। यहाँ पानी का स्रोत नहीं था। उन्हें पानी लेने के लिए थोड़ी ही दूर स्थित चिलम पानीजाना पड़ता था। पानी लेने जाने में संभवत: उन्हें कष्ट नहीं भी होता होगा किंतु जंगल के जीव-जन्तु जो भृगु ऋषि के साथी भी थे, उन्हें भी पानी के लिए भटकना पड़ता था। अपने साथियों की सुविधा के लिए उन्होंने जल स्रोत के लिए माँ नर्मदा से प्रार्थना की, तब धूनीके समीप ही पाँच जल स्रोत फूट पड़े। यह भारतीय संस्कृति का आधार है कि यहाँ सिर्फ अपने बारे में विचार नहीं किया जाता, बल्कि प्राणी मात्र की चिंता रहती है। आज भी यहाँ पानी के वे कुण्ड हैं। भवन के दाहिनी ओर अमृत कुण्ड और बांई ओर सरस्वती कुण्ड है। इन दोनों कुण्डों के अलावा तीन छोटे कुण्ड भी हैं- भृगु कुण्ड, नारद कुण्ड और मोहान कुण्ड। माँ नर्मदा की कृपा से धूनी के समीप पाँच जलस्रोत के प्रकट होने के कारण ही इस स्थान का नाम धूनी-पानी पड़ गया। यहाँ फलों-फूल के पेड़ों से समृद्ध बगीचा भी है। संत रामदासजी महाराज ने उस दिन हमें खूब सारे मीठे आम दिए, जो यहीं के पेड़ो से टपके थे। धूनी-पानी के संबंध में एक और महत्व की बात है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ अनेक ऋषि-मुनियों ने यज्ञ किये थे, इसलिए आज भी यहाँ जमीन की खुदाई करने पर राख जैसी मिट्टी निकलने लगती है।
          धूनी-पानी धार्मिक तपस्थली ही नहीं, अपितु प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थान भी है। निश्चित ही प्रकृति प्रेमियों को यहाँ आना सुख देगा। उनके लिए यह स्थान अत्यधिक आनंददायक है। शांत चित्त से यहाँ बैठकर अच्छा समय बिताया जा सकता है। मैं जब यहाँ से लौट रहा था, तो आँखों में माँ नर्मदा की मोहक छवि थी, ध्यान में स्वामी विवेकानंद का जीवन था और कुछ किस्से थे जो उदासीन संत रामदासजी महाराज ने सुनाए थे। थैले में मीठे आम भी थे। प्रकृति का स्नेह भी थोड़ा समेट लिया था। अंतर्मन की वह गूँज भी साफ सुनाई दे रही थी कि भविष्य में जब भी अमरकंटक प्रवास होगा, धूनी-पानी अवश्य आऊंगा।