शनिवार, 13 अप्रैल 2019

क्षमा माँगने का साहस दिखाए ब्रिटेन

अमृतसर के जालियांवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 को सैकड़ों निहत्थे लोगों की हत्या ब्रिटिश उपनिवेशवाद के क्रूरतम अपराधों में से एक है। उस दिन बैसाखी थी। स्वर्ण मंदिर के पास ही स्थित जलियांवाला बाग में करीब 20 हजार लोग जमा थे। यहाँ अपने नेताओं की गिरफ्तारी और रोलेट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण सभा का आयोजन कर रहे थे। कई लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन को देखने भी चले आए थे। दोपहर करीब 12 बजे जनरल डायर को इस सभा की जानकारी मिली। सत्ता के नशे में चूर जनरल डायर ने करीब 4 बजे 150 सैनिकों के साथ आकर बाग को चारों तरफ से घेर लिया। बिना किसी चेतावनी के लगातार 10 मिनट तक गोलियां चलाई गयीं। इस जघन्य हमले में करीब 1000 लोग मौत की नींद सो गए। 1500 से ज्यादा लोग घायल हुए। इस नरसंहार ने भारत के लोगों में गुस्सा भर दिया। कई नेताओं और क्रांतिकारियों ने अपने तरीके से इसका विरोध किया। इस नरसंहार को ब्रिटेन की अदालत ने भी गलत पाया और कार्यवाही करते हुए जनरल डायर को सेवानिवृत्त कर दिया। मातृभूमि की सेवा में सहस्त्र हुतात्माओं के बलिदान के प्रति 100 वर्ष बाद हम भारतीयों के मन में अखंड श्रद्धा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ग्वालियर में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में वक्तव्य जारी कर संपूर्ण समाज से आग्रह किया है- 'इस ऐतिहासिक अवसर पर अधिकाधिक कार्यक्रमों का आयोजन करें ताकि बलिदान की अमरगाथा देश के हर कोने तक पहुँचे।' सरकार्यवाह सुरेश भैय्याजी जोशी ने वक्तव्य जारी करते समय कहा कि जलियाँवाला बाग हत्याकांड क्रूर, वीभत्स तथा उत्तेजनापूर्ण घटना थी, जिसने न केवल भारत के जनमानस को उद्वेलित तथा आंदोलित किया, बल्कि ब्रिटिश शासन की नींव भी हिला दी।
          ब्रिटेन भी अकसर अपनी शासन व्यवस्था की क्रूरता के लिए खेद प्रकट करता है। किंतु, आश्चर्य और दु:ख की बात है कि ब्रिटेन इस संबंध में खेद तो प्रकट करता है लेकिन क्षमा माँगने को तैयार दिखाई नहीं देता। यदि जलियांवाला बाग नरसंहार को ब्रिटिश संसद कलंक मानती है, तब उसे अपने पाप के लिए क्षमा माँगने में किस बात का संकोच है। जलियांवाला बाग जनसंहार के 100वें पुण्य स्मरण से पूर्व ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री थेरेसा ने जलियांवाला बाग जनसंहार को लेकर खेद प्रकट किया। ब्रिटेन की संसद में उन्होंने कहा- 'उस दौरान जो कुछ भी हुआ और उसकी वजह से लोगों को जो पीड़ा पहुंची, उसका हमें बेहद अफसोस है।' थेरेसा ने उस नरसंहार को भारत-ब्रिटेन के इतिहास में शर्मनाक दाग भी बताया। किंतु, उन्होंने उस घटना को लेकर माफी नहीं माँगी। प्रधानमंत्री थेरेसा के इस रवैये से वहाँ का विपक्षी दल भी निराश हुआ है। 13 अप्रैल, 2019 को जलियांवाला नरसंहार के 100 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इस महत्वपूर्ण अवसर पर ब्रिटेन अपने पाप से मुक्त हो सके, इस आशय से वहाँ का विपक्ष ही जलियांवाला बाग हत्याकांड पर माफी का प्रस्ताव संसद में लेकर आया था। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री थेरेसा के चलताऊ रवैये से विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ और विपक्षी नेता जर्मी कोर्बिन ने थेरसा मसे स्पष्ट और विस्तृत माफी माँगने के लिए कहा। 
          हालाँकि हम भारतीयों ने ब्रिटेन पर कभी भी जलियांवाला के लिए माफी माँगने का दबाव नहीं बनाया है। हमारे मन में बदले की भी भावना नहीं है। ब्रिटेन को नीचा दिखाने की मंशा भी हमारी नहीं है। किंतु, आज जब हम जलियांवाला बाग जनसंहार के शताब्दी वर्ष पर बलिदानियों को स्मरण कर रहे हैं, तो ब्रिटेन ईमानदारी से माफी माँग कर एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर सकता था। क्षमा माँग कर ब्रिटेन मानवीय मूल्यों को बढ़ाने का काम भी करता। भारतीयों को अच्छा लगता। यूँ तो दोनों देश अतीत की घटनाएं और व्यवहार भूल कर परस्पर सहयोग की भावना से आगे बढ़ रहे हैं। फिर भी ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा ने बड़ा दिल दिखाया होता, तो भारत-ब्रिटेन के आपसी संबंधों में और विश्वास बढ़ता। क्षमा माँगना मूल रूप से एक संवेदनात्मक व्यवहार है। क्षमा माँगने से ब्रिटेन छोटा नहीं होगा, बल्कि इसमें उसका उदार चेहरा दिखाई देगा। 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

आतंक के निशाने पर राष्ट्रवादी

देश के दो अलग-अलग हिस्सों में मंगलवार को दो हमले हुए। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में भारतीय जनता पार्टी के विधायक भीमा मंडावी पर नक्सल आतंकी हमला और जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता चंद्रकांत शर्मा पर इस्लामिक आतंकी हमला। इन हमलों में भाजपा विधायक भीमा मंडावी और संघ के जम्मू-कश्मीर प्रांत के सह सेवा प्रमुख चंद्रकांत शर्मा का बलिदान हो गया। प्रश्न यह है कि देश के प्रत्येक हिस्से में नक्सली, माओवादी, कम्युनिज्म और इस्लामिक आतंकवाद के निशाने पर राष्ट्रवादी विचारधारा के कार्यकर्ता क्यों हैं? 
          संभव है कि बहुत लोगों को यह प्रश्न बेमानी और अतार्किक प्रतीत हो। किंतु, इस प्रश्न की गंभीरता को समझने के लिए हमें कर्नाटक, केरल, पंजाब, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश सहित दूसरे अन्य राज्यों की घटनाओं का अध्ययन कर लेना चाहिए। जहाँ भी भारत विरोधी ताकतों को अवसर मिला है, उन्होंने राष्ट्रीय विचार से जुड़े लोगों को समाप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लिया है। दरअसल, उधार के विचार से भारतीय विचार पर विजय प्राप्त करना उनके लिए मुश्किल होता है। भारत विरोधी ताकतों की राह में 'राष्ट्रत्व' अकाट्य चट्टान बन कर खड़ा है। राष्ट्रत्व से ओतप्रोत साधारण कार्यकर्ता भी 'भारत को हजार घाव देने की बुरी नीयत वाली ताकतों' के विरुद्ध दम-खम से खड़ा है। 'भारत के टुकड़े-टुकड़े' करने के उनके मंसूबों को पूरा होने में राष्ट्रत्व का मंत्र लेकर जीने वाले लोग बड़ी बाधा बन गए हैं। राष्ट्रत्व का भाव एवं विचार दिनों-दिन मजबूत हो रहा है। अपने मंसूबे पूरे नहीं होने से हताश कट्टर विचारधाराओं ने अब भारतीय विचार के कार्यकर्ताओं को भयभीत करने के लिए उनकी हत्याएं करने का षड्यंत्र रचा है। भारत से पहले अब वह भारत के विचार को परास्त करना चाहते हैं। किंतु, यह संभव नहीं है। 
चंद्रकांत शर्मा अपने परिवार के साथ
          राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो या उसके समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता, मृत्यु से भयभीत होकर कभी अपने कर्मपथ से डिगे नहीं हैं। 'भारत में एक विधान, एक प्रधान और एक निशान' की माँग के साथ भारतीय संविधान एवं राष्ट्रध्वज तिरंगे के सम्मान में इन्हीं भारतीय विचार के कार्यकर्ताओं ने जम्मू-कश्मीर में अपना बलिदान दिया है। केरल में एक के बाद एक कार्यकर्ता भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे रहे हैं। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट और तृणमूल कांग्रेस की हिंसा का सामना भी यही लोग डटकर कर रहे हैं। भारत की रक्षा के लिए जिन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण करने का प्रण लिया हो, उन्हें हिंसा से डराना संभव नहीं। इन कार्यकर्ताओं का बलिदान देश को जगाने का काम करता है। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। भारत को हराने के लिए एकजुट ताकतें, निश्चित तौर पर राष्ट्रत्व से हारेंगी। 
          राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से जारी शोक संदेश में कहा गया है- 'दंतेवाड़ा में बलिदान हुए भाजपा विधायक भीमा मंडावी जनजातीय समाज के सुख-दु:ख में समरस, सादगी और सरलतापूर्ण जीवन एवं आचरण के कारण संपूर्ण समाज में अत्यंत लोकप्रिय थे। वे अपने साहसी स्वभाव और देशभक्ति पूर्ण विचारों के कारण माओवादियों की निगाह में सदैव खटकते थे। वहीं, किश्तवाड़ में बलिदान हुए चन्द्रकांत शर्मा बाल्यकाल से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। उनका परिवार प्रारंभ से ही समाजसेवा के कार्यों में सक्रिय था। वह लोगों में देशभक्ति की भावना को जगा रहे थे। इस कारण वे लंबे समय से अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों के निशाने पर थे।' दोनों महानुभावों के बलिदान से एक विचार कुल के साथ-साथ देश को बड़ी क्षति हुई है। यह लोग समाज को बेहतर बनाने की दिशा में अग्रसर थे। इस क्षति को पूरा तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके छूटे कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए शेष समाज को आगे आना चाहिए। 
नक्सली हमले में शहीद हुए भाजपा नेता भीमा मंडावी

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

नववर्ष, नयी आकांक्षाएं


आज (चैत्र, शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा) से भारतीय नववर्ष (विक्रम संवत-2076) प्रारंभ हो रहा है। देशभर में उत्साह का वातावरण है। उल्लास के साथ हम सब अपने नववर्ष का स्वागत कर रहे हैं। 'विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो' का संकल्प प्रतिदिन करने वाले हम भारत के लोग सज्ज हैं, नये शुभ संकल्पों के लिए, नये सशक्त भारत के लिए, सुंदर विश्व के लिए। पिछला वर्ष भारत के लिए उपलब्धियों भरा रहा है। विश्व की शीर्ष पाँच अर्थव्यवस्थाओं में हमने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। अगले पड़ाव की ओर तेजी से अग्रसर हैं। 'मिशन शक्ति' से अंतरिक्ष में अपनी शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज कराने वाले हम चौथे देश बन गए हैं। वायुसेना ने पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों को मार कर शौर्य का नया अध्याय लिखा है। आतंकवाद के विरुद्ध हम अकेले अपनी लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर अब फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और अमेरिका भी मुखर हैं।
          पिछले पाँच वर्षों में एक आकांक्षावान भारत ने लंबे अरसे बाद फिर से दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। विश्व पटल पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी। हम सबके साझा प्रयासों से यह सब संभव हो सका है। आज भारत एक ऐसे स्थान पर खड़ा है, जहाँ से वह आगे भी जा सकता है और पीछे भी लौट सकता है। भारत ने पिछले पाँच वर्ष में जो गति और राह पकड़ी है, वह बरकरार रही तो आगे जाना और विजय लगभग सुनिश्चित है। किंतु, यदि छोटी-सी भूल हो गई तो सब मेहनत बेकार जाएगी और हमें फिर पीछे लौटना पड़ेगा। इसलिए यह समय हम सबके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। 
          दर्शन के विद्वान इसे संक्रमण काल कह रहे हैं। सकारात्मकता एवं नकारात्मकता में संघर्ष है। भारतीयता और अभारतीयता आमने-सामने है। आज वह अवसर है जब भारतीयता का पलड़ा भारी हो गया तो आगे सब शुभ है। अन्यथा यह देश आजादी के बाद से संघर्षरत है, वही संघर्ष आगे भी जारी रहेगा। देश की जनता के सामने अवसर आया है कि वह भारत का भविष्य चुने। स्वार्थ, लोभ, जाति से ऊपर उठकर देशहित में निर्णय ले। हमारा चयन ही भविष्य के भारत की तस्वीर तय करेगा। 
           देश में कुछ नकारात्मक शक्तियां अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अत्यधिक सक्रिय हैं। यह ताकतें देश के सामान्य जन को भ्रमित करने की यथासंभव प्रयास कर रही हैं। लेकिन, देश के नागरिकों को अपने विवेक को जाग्रत रखना है। जिस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने एकाग्र होकर अपने राज कवि चंद्रवरदाई के संकेत को पकड़ कर अपना लक्ष्य भेदा था, उसी तरह देश के नागरिकों को अपने अंतर्मन की आवाज सुनना चाहिए। 'चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।' 
          आने वाले समय में ठीक निर्णय हुआ तो यहाँ से भारत तेज गति से आगे बढ़ सकता है। इस नववर्ष चुनौती बड़ी है। हमें नये संकल्प के साथ इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। हमारा एक निर्णय संपूर्ण भारत का नूतन वर्ष मंगलमय कर सकता है।
---
पढ़ें : 
हैप्पी न्यू ईयर या नववर्ष, तय कीजिए
भारत को जानो, भारत को मानो
अपनी जड़ों में लौटना होगा
दिख रहा है बदलाव

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

गोहत्या के विरुद्ध पत्रकारिता के माध्यम से खड़ा किया देशव्यापी आंदोलन

रतौना आंदोलन : ब्रिटिश सरकार को देखना पड़ा हार का मुंह


आज की पत्रकारिता के समक्ष जैसे ही गोकशी का प्रश्न आता है, वह हिंदुत्व और सेकुलरिज्म की बहस में उलझ जाता है। इस बहस में मीडिया का बड़ा हिस्सा गाय के विरुद्ध ही खड़ा दिखाई देता है। सेकुलरिज्म की आधी-अधूरी परिभाषाओं ने उसे इतना भ्रमित कर दिया है कि वह गो-संरक्षण को सांप्रदायिक मुद्दा मान बैठा है। हद तो तब हो जाती है जब मीडिया गो-संरक्षण या गो-हत्या को हिंदू-मुस्लिम रंग देने लगता है। गो-संरक्षण शुद्धतौर पर भारतीयता का मूल है। इसलिए ही 'एक भारतीय आत्मा' के नाम से विख्यात महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी गोकशी के विरोध में अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। गोकशी का प्रकरण जब उनके सामने आया, तब उनके मन में द्वंद्व कतई नहीं था। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी- भारत के लिए गो-संरक्षण आवश्यक है। कर्मवीर के माध्यम से उन्होंने खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध गो-संरक्षण की लड़ाई लड़ी और अंत में विजय सुनिश्चित की। आज की पत्रकारिता इतिहास के पन्ने पलट कर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता से सबक ले सकती है। 

          वर्ष 1920 में मध्यप्रदेश के शहर सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गोवंश काटा जाना था। प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश का कत्ल करने की योजना थी। अंग्रेजों की इस बड़ी परियोजना का संपूर्ण विवरण देता हुआ चार पृष्ठ का विज्ञापन अंग्रेजी समाचार-पत्र हितवाद में प्रकाशित हुआ। परियोजना का आकार कितना बड़ा था, इसको समझने के लिए इतना ही पर्याप्त होगा कि लगभग 100 वर्ष पूर्व कसाईखाने की लागत लगभग 40 लाख रुपये थी। कसाईखाने तक रेल लाइन डाली गई थी। तालाब खुदवाये गए थे। कत्लखाने का प्रबंधन सेंट्रल प्रोविंसेज टेनिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी ने अमेरिकी कंपनी सेंट डेविन पोर्ट को सौंप दिया था, जो डिब्बाबंद बीफ को निर्यात करने के लिए ब्रिटिश सरकार की अनुमति भी ले चुकी थी। गोवंश की हत्या के लिए यह कसाईखाना प्रारंभ हो पाता उससे पहले ही दैवीय योग से महान कवि, स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने यात्रा के दौरान यह विज्ञापन पढ़ लिया। वह तत्काल अपनी यात्रा खत्म करके वापस जबलपुर लौटे। वहाँ उन्होंने अपने समाचार पत्र कर्मवीर में रतौना कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखा और गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। सुखद तथ्य यह है कि इस कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के एक और पत्रकार उर्दृ दैनिक समाचार पत्र 'ताज' के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। उधर, सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी पत्रकारिता एवं सामाजिक आंदोलन के माध्यम से गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध प्रारंभ कर दिया। मिस्टर ताजुद्दीन और अब्दुल गनी की पत्रकारिता में भी गोहत्या पर वह द्वंद्व नहीं था, जो आज की मीडिया में है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिष्ठा संपूर्ण देश में थी। इसलिए कसाईखाने के विरुद्ध माखनलाल चतुर्वेदी की कलम से निकले आंदोलन ने जल्द ही राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया। देशभर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में रतौना कसाईखाने के विरोध में लिखा जाने लगा। लाहौर से प्रकाशित लाला लाजपत राय के समाचार पत्र वंदेमातरम् ने तो एक के बाद एक अनेक आलेख कसाईखाने के विरोध में प्रकाशित किए। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा। 

          
          आज उस स्थान पर पशु प्रजनन का कार्य संचालित है। जहाँ कभी गो-रक्त बहना था, आज वहाँ बड़े पैमाने पर दुग्ध उत्पादन हो रहा है। कर्मवीर के माध्यम से गो-संरक्षण के प्रति ऐसी जाग्रती आई कि पहले से संचालित कसाईखाने भी स्वत: बंद हो गए। हिंदू-मुस्लिम सौहार्द का वातावरण बना सो अलग। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का यह प्रसंग किसी भव्य मंदिर के शिखर कलश के दर्शन के समान है। यह प्रसंग पत्रकारिता के मूल्यों, सिद्धांतों और प्राथमिकता को रेखांकित करता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने एक शोधपूर्ण पुस्तक 'रतौना आंदोलन : हिंदू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध' का प्रकाशन किया है, जिसमें विस्तार से इस ऐतिहासिक आंदोलन और पत्रकारिता की भूमिका की विवेचना है। 

आलेख प्रतियोगिता से पड़ी पत्रकारिता की नींव : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में हथियार बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। 
          अपनी बात सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए समाचार-पत्र को प्रभावी माध्यम के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी ने देखा। किंतु, उस समय उनके लिए समाचार-पत्र प्रकाशित करना कठिन काम था। इसलिए उन्होंने अपने शब्दों को लिखने और रचने की प्रेरणा देने के लिए एक वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका 'भारतीय-विद्यार्थी' निकालना शुरू की। इस पत्रिका लिखने के लिए वह विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। पत्रकारिता के माध्यम से युवाओं में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए यह उनका पहला प्रयास था।  
          इसके बाद खण्डवा से प्रकाशित पत्रिका 'प्रभा' में वह सह-संपादक की भूमिका में आ गए। एक नई पत्रिका को पाठकों के बीच स्थापित करना आसान कार्य नहीं होता। चूँकि माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अद्वितीय प्रतिभा प्रभा के संपादन में शामिल थी, इसलिए पत्रिका ने दो-तीन अंक के बाद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। उस समय की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' के प्रभाव की छाया में 'प्रभा' ने अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। प्रभा के संपादन में दादा माखनलाल का मन इतना अधिक रमने लगा कि उन्होंने शासकीय सेवा (अध्यापन) से त्याग-पत्र दे दिया और पत्रकारिता को पूर्णकालिक दायित्व के तौर पर स्वीकार कर लिया। उस समय वे खण्डवा की बंबई बाजार पाठशाला में 13 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक थे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लगातार लिखने और स्वतंत्रता की चेतना जगाने के प्रयासों के कारण अंग्रेज शासकों ने प्रभा का प्रकाशन बंद करा दिया। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी भी एक ओजस्वी समाचार-पत्र 'प्रताप' का संपादन-प्रकाशन करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेश शंकर विद्यार्थी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़ कर 'प्रताप' के संपादन की जिम्मेदारी संभाली।


कर्मवीर का यशस्वी संपादन : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का शीर्ष 'कर्मवीर' के संपादन में प्रकट होता है। कर्मवीर और माखनलाल एकाकार हो गए। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। स्वतंत्रता के प्रति एक वातावरण बनाने के लिए पंडित विष्णुदत्त शुक्ल और पंडित माधवराव सप्रे की प्रेरणा से जबलपुर से 17 जनवरी, 1920 को साप्ताहिक समाचार-पत्र 'कर्मवीर' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन का दायित्व सौंपने का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का नाम सामने आया। 'प्रभा' के सफलतम संपादन से माखनलाल जी ने सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच लिया था। परिणामस्वरूप सर्वसम्मति से माखनलाल जी को कर्मवीर के संपादन की महती जिम्मेदारी सौंप दी गई। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण माखनलाल जी को जेल जाना पड़ा और 1922 में कर्मवीर का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में, माखनलाल जी ने 4 अप्रैल, 1925 से कर्मवीर का पुन: प्रकाशन खण्डवा से प्रारंभ किया। 11 जुलाई, 1959 का कर्मवीर का अंक दादा द्वारा संपादित अंतिम अंक था। 
          कर्मवीर के संपादन को लेकर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्पष्टता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग है।  भारतीय भाषाई पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन भयंकर डरा हुआ था। भाषाई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए तमाम प्रयास प्रशासन ने कर रखे थे। यदि किसी को भारतीय भाषा में समाचार पत्र प्रकाशित करना है तो उसका अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करनी होती थी। अनुमति प्राप्त करने से पहले समाचार-पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था। इसी संदर्भ में जब माखनलाल जी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गये, तब वहाँ सप्रेजी, रायबहादुर जी, पं. विष्णुदत्त शुक्ल सहित अन्य लोग उपस्थित थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आईसीएस के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र माखनलाल जी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने के उद्देश्य से कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूँ। रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएंगे तो यह आवेदन देकर अनुमति पत्र प्राप्त कर लेंगे। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी साहस और सत्य के हामी थे, उन्होंने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं किया। जब मिस्टर मिथाइस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं? तब दादा माखनलाल ने बड़ी स्पष्टता से कहा- 'आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूँगा कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए।' मिस्टर मिथाइस माखनलाल जी के साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिना जमानत राशि लिए ही कर्मवीर निकालने की अनुमति दे दी। यह घटना ही माखनलाल जी की पत्रकारिता के तेवर का प्रतिनिधित्व करती है। यह साहस और बेबाकी कर्मवीर की पहचान बनी। 
जीवन : 
पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई गांव में हुआ। पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था, जो गाँव की प्राथमिल पाठशाला में अध्यापक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। 30 जनवरी, 1968 को 80 वर्ष की आयु में माखनलाल चतुर्वेदी का निधन खण्डवा में हुआ। 
प्रमुख प्रकाशन : 
कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे : गरीब इरादे, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, माता, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, वेणु लो गूंजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही।
रतौना आन्दोलन पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक