भा रत सरकार ने जनगणना-2011 के धर्म आधारित आंकड़ों का लेखा-जोखा जारी कर दिया है। आंकड़ों के मुताबिक देश की आबादी में भारत के मूल धर्मावलम्बी हिंदुओं की जनसंख्या लगभग 96.63 करोड़ है यानी कुल आबादी का 79.8 प्रतिशत। ऐसा पहली बार हुआ है कि देश की जनसंख्या में हिंदुओं की भागीदारी 80 प्रतिशत से नीचे पहुंची हो। जबकि मुस्लिम आबादी 24.6 प्रतिशत की वृद्धि दर से बढ़ रही है। मुसलमानों की जनसंख्या 14.2 प्रतिशत हो गई है। यानी देश में करीब 17.22 करोड़ मुसलमान रह रहे हैं। जनगणना-2001 के आंकड़ों में मुसलमानों की आबादी 13.4 प्रतिशत थी, जिसमें 0.8 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। मुस्लिम जनसंख्या का वास्तविक आंकड़ा इससे अधिक हो सकता है। क्योंकि, बांग्लादेश से घुसपैठ करके भारत में आकर बस गए मुस्लिम आमतौर पर वापस बांग्लादेश भेजे जाने के डर से अपनी धार्मिक पहचान छिपाकर खुद को हिन्दू बिहारी या हिन्दू बंगाली बताते हैं। धर्म की जानकारी नहीं देने वालों की भी संख्या करीब 29 लाख है। यह आंकड़ा भी इस ओर संकेत देता है कि वास्तविक मुस्लिम जनसंख्या सरकारी रिकॉर्ड में दिखाए गए आंकड़ों से अधिक हो सकती है। तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी जनसंख्या के आंकड़ों पर शुतुरमुर्ग की तरह व्यवहार कर सकते हैं। तेजी से हो रहा जनसंख्या असंतुलन उन्हें दिखाई न दे या हिन्दुओं की घटती और मुसलमानों की बढ़ती आबादी से उन्हें किसी प्रकार की समस्या न हो। लेकिन, भारत का बहुसंख्यक समाज इन आंकड़ों से जरूर चिंतित है।
मुस्लिम जनसंख्या में बढ़ोतरी के पीछे धार्मिक नियम, मान्यता, कट्टरता और मतान्तरण प्रमुख कारण हैं ही। एक बहुत बड़ा कारण है समान नागरिक संहिता का न होना। भारत में रहने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के लिए अलग नियम और मुसलमानों के लिए अलग नियम। इस कारण भी जनसंख्या असंतुलन बढ़ रहा है। हिन्दू समाज सरकार के निर्देश को मानकर एक-दो बच्चे पैदा कर रहा है जबकि मुसलमान परिवार नियोजन अपनाने के लिए तैयार नहीं है। यही कारण है कि एक तरफ सभी धर्मों के अनुयायियों की जनसंख्या में गिरावट आ रही है, वहीं मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है। ऐसे में स्पष्ट है कि जनसांख्यिकी असंतुलन को दूर करने के सिर्फ दो तरीके हैं या तो हिंदू अपनी जनसंख्या बढ़ाएं या फिर समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। सबके भले के नजरिये से देखें तो समान नागरिक संहिता अधिक उपयोगी है। क्योंकि, जनसंख्या का सीधा संबंध गरीबी और बेरोजगारी से भी है। पालन-पोषण करने की स्थिति में न होने पर भी बच्चे पैदा करना कतई उचित नहीं। असल में देंखे तो धर्म भी इसकी इजाजत नहीं देता होगा। हम भारत की अच्छी तस्वीर चाहते हैं तो समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए। हिन्दू संगठन जनसंख्या असंतुलन को सोची-समझी साजिश बताते हैं। उनका आरोप निराधार भी नहीं है क्योंकि खुद को इस्लामिक मुल्क कहने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर भारत से कम है। पाकिस्तान में जनसंख्या की वृद्धि दर 20 प्रतिशत और बांग्लादेश में केवल 14 प्रतिशत है जबकि भारत में 24.6 प्रतिशत।
दुनिया के विद्वान मानते हैं कि जनसंख्या असंतुलन प्रत्येक देश के लिए खतरनाक है। भारत का तो इतिहास रहा है। भारत के जिन-जिन हिस्सों में हिन्दू धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यक हुए हैं, वहां-वहां दिक्कतें खड़ी हुई हैं। फ्रांस, हालैण्ड, डेनमार्क, बेल्जियम, स्पेन, पुर्तगाल और ऑस्ट्रेलिया सहित कई देश जनसंख्या असंतुलन के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। तेजी से बढ़ती मुस्लिम आबादी और इस्लाम को मानने वालों की हिंसक गतिविधियों से पूरी दुनिया चिंतित है। सर्वेक्षण करने वाली प्रसिद्ध अमेरिकी संस्था 'पीयू' की रिपोर्ट ने भी कई देशों की नींद उड़ा दी है। हाल ही में प्रकाशित उसकी रिपोर्ट में दुनिया के प्रमुख धर्मों की आबादी के ट्रैंडस के बारे में अध्ययन और विश्लेषण किया गया है। यदि यह ट्रैंडस सही साबित हुए तो दुनिया के कई देशों का भूगोल बदल जाएगा। विश्व के कई देश चिंतित हैं। उनकी चिंता स्वाभाविक भी है। रिपोर्ट के मुताबिक 2050 में विश्व में आबादी के लिहाज से मुसलमान पहले, ईसाई दूसरे और हिन्दू तीसरे स्थान पर होंगे। भारत सरकार को भी चिंतित होना चाहिए। धार्मिक आधार पर प्राप्त आंकड़ों का अध्ययन कर सरकार को जनसंख्यात्मक असंतुलन के कारण भारत के समक्ष भविष्य में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के कारगर प्रबंध करने की दिशा में बढऩा चाहिए। समान नागरिक संहिता को जल्द लागू कराने का प्रयास वर्तमान सरकार को करना चाहिए, यह उसके राजनीतिक एजेंडे में भी शामिल है। दरअसल, जनसंख्या असंतुलन से निपटने का यह प्रभावी तरीका है।
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