सं सद के मानसून सत्र का लगभग आधा समय हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। गतिरोध बरकरार है। लोकसभा अध्यक्ष ने सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष की संयुक्त बैठक से भी संसद के संचालन की राह निकालने का प्रयास किया। लेकिन, बात नहीं बनी। प्रतिपक्ष हंगामा खड़ा करने की जिद लेकर अड़ा हुआ है। इस बीच केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा ने 'संसद में काम नहीं तो वेतन नहीं' का मुद्दा उठा दिया है। सभी पार्टियों के नेताओं की राय इसके पक्ष में भी है और विपक्ष में भी। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि वेतन महत्वपूर्ण है या काम? वैसे भी बहुत से नेता यह तय ही नहीं करते हैं कि उन्हें संसद में काम नहीं करना है, बस हंगामा करना है, संसद को ठप कर देना है। यह तो पार्टी तय करती है। नेताओं को तो बस पार्टी लाइन पर चलना होता है। ऐसे में नेताओं का वेतन काटने से क्या लाभ होगा? तब क्या संसद चल पाएगी? संभवत: नहीं? इसलिए सांसदों के वेतन से अधिक महत्वपूर्ण है संसद की कार्यवाही। जनकल्याण के लिए संसद का चलना जरूरी है।
संसद के ठप रहने से कई महत्वपूर्ण विधेयक अटके हुए हैं। जैसे भूमि अधिग्रहण विधेयक और वस्तु एवं सेवा कर। कई विधेयक बिना बहस के पारित हो रहे हैं। जबकि जनता के हित में सत्तापक्ष-प्रतिपक्ष को संसद में अतिमहत्वपूर्ण विधेयकों पर जमकर बहस करनी चाहिए। तर्कों के आधार पर बहस। देश और जनता का हित देखते हुए विधेयक के गुण-दोष की विवेचना करनी चाहिए। प्रतिपक्ष को विधेयक में दोष निकालने चाहिए और सत्तापक्ष या तो अपने तर्कों-प्रमाणों से सिद्ध करे कि प्रतिपक्ष के सवाल निराधार हैं या फिर उसकी बताई कमियों को दूर करे। संसद में काम कैसे हो? इसका विचार किये जाने की आवश्यकता है। संसद चलेगी तभी सबका भला है। हंगामे से न तो प्रतिपक्ष को लाभ होगा और न देश की आवाम को, जिसने संसद चलाने के लिए नेताओं को चुनकर भेजा था। जनता ने सोचा था कि ये संसद में पहुंचकर कुछ काम करेंगे। लेकिन, अभी जनता देख रही है कि काम-धाम कुछ नहीं सब हंगामा कर रहे हैं। संसद को ठप करने की अनुचित होड़ लगी है। कांग्रेस अपने हंगामापूर्ण कृत्य को यह कहकर जायज ठहराने की कोशिश कर रहा है कि जब भाजपा विपक्ष में भी तब उसने भी तो यही किया था। असल में, तब की और अब की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर है। मुद्दों में भी गहरा फर्क है। फिर भी मान लिया कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने संसदीय व्यवहार नहीं किया तो कांग्रेस क्यों भाजपा के असंसदीय व्यवहार का अनुकरण कर रही है। कांग्रेस क्यों नहीं रचनात्मक विपक्ष की परंपरा को खड़ा करने का प्रयास करती? कांग्रेस सुषमा स्वराज के इस्तीफे की मांग कर रही है। जबकि सुषमा स्वराज स्वयं कह चुकी हैं कि वे संसद में अपने मसले पर जवाब देने को तैयार हैं। कांग्रेस विदेश मंत्री को सुन क्यों नहीं लेती? राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस्तीफा भी कांग्रेस संसद में मांग रही है, जबकि राज्य के मामलों को संसद में उठाने की परंपरा नहीं रही है। बहरहाल, 'संसद में काम नहीं तो वेतन नहीं' के नियम से अधिक 'संसद में अधिक से अधिक काम' की योजना पर विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए ही ज्यादा से ज्यादा उपाय किए जाने चाहिए। सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को मिलकर संसद चलाने के लिए विमर्श करना होगा। संसद ठप करना किसी समस्या का समाधान नहीं है। समाधान तो संसद की कार्यवाही से ही निकलेगा। इसलिए प्रत्येक परिस्थिति में संसद में काम हो, इस दिशा में चिंतन किया जाए।
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