दे वघर में हुए हादसे ने फिर से कुछ सवाल जिंदा कर दिया हैं। आखिर सरकारें हादसों से कब सीखेंगी? भीड़ का प्रबंधन करने में सरकारें क्यों असफल हो जाती हैं? झारखंड सरकार को पहले से पता था कि देवघर स्थित शिव मंदिर प्रसिद्ध है। यह बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक है। सावन के सोमवारों के अवसर पर यहां झारखंड ही नहीं वरन आसपास के राज्यों से भी श्रद्धालु आते हैं। वर्ष 2012 में भी मंदिर परिसर में भगदड़ मच गई थी, तब नौ लोगों की जान चली गई थी। इसी सावन में भी शुरुआती दिनों छोटा-सा हादसा यहां हुआ था। इसके बाद भी सरकार चेती नहीं। प्रशासन ने भीड़ से निपटने के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनाई। प्रसिद्ध मंदिरों या तीर्थस्थलों पर हादसे का कारण यह कतई नहीं होना चाहिए कि अचानक से भारी संख्या में श्रद्धालु आ गए। देवघर में भी भारी संख्या में श्रद्धालु जुटेंगे, इसका अनुमान तो सरकार को पहले से ही था और नहीं था तो होना चाहिए था। देवघर में हुए हादसे का सबसे बड़ा कारण है कि हमने और हमारी सरकारों ने पूर्व में हुए हादसों से अभी तक कुछ नहीं सीखा है। जनसैलाब के प्रबंधन के उपाय नहीं सीखे।
आखिर क्यों? क्यों नहीं हम हादसों से सीखकर श्रद्धालुओं की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करते। मंदिर आने वाले सभी श्रद्धालु आराम से दर्शन करेंगे और सुरक्षित अपने घर पहुंचेंगे। श्रद्धालुओं को यह गांरटी कब तक सुनिश्चित होगी। देवघर में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा बल की भी कमी थी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए अपर्याप्त जवानों ने भी श्रद्धालुओं पर लाठी चलाकर भगदड़ को और भड़का दिया। अन्य हादसों के पीछे भी सुरक्षा बल की कमी महत्वपूर्ण कारण रही है। आखिर क्यों हम श्रद्धालुओं की अनुमानित संख्या के अनुपात में सुरक्षा बल की व्यवस्था करते? विशेष अवसर, जब मंदिर परिसर/शहर में अधिक श्रद्धालुओं के आने का क्रम रहता है, तब आवागमन के साधन और मार्ग व्यवस्थित क्यों नहीं होते? ऐसे अवसरों पर मंदिर परिसर तक आवाजाही की सहूलियत पर ध्यान देने की जरूरत होती है। भीड़ को नियंतित्र आने-जाने वाले मार्ग पर पल-पल चौकसी की जरूरत होती है। अफवाह फैलने से भी भगदड़ मचती है। अफवाहों को फैलने से रोकने के भी प्रयास किए जाने चाहिए। इसके लिए श्रद्धालुओं को सचेत करने की भी जरूरत है कि वे अफवाहों ध्यान न दें। मंदिर परिसर और मार्ग में जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे और लाउड स्पीकर की व्यवस्था होने से भीड़ प्रबंधन में सहूलियत होती है।
बहरहाल, देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित तीर्थस्थलों से अमूमन इस तरह के हादसों के दु:खद समाचार प्राप्त होते रहते हैं। सरकारें हादसे की जांच के लिए उच्चस्तरीय जांच समिति का गठन करती हैं। मृतकों और घायलों के परिवारों को मुआवजा देने की घोषणा कर दी जाती है। देवघर में भी यही हो रहा है। लेकिन, उच्चस्तरीय जांच समिति की रिपोर्ट से सीखने का उपक्रम कोई सरकार नहीं करती है। जबकि होना ये चाहिए कि हादसों के कारणों को रेखांकित करती रिपोर्ट उन सभी राज्यों के साथ साझा की जानी चाहिए, जहां प्रसिद्ध मंदिर/तीर्थस्थल हैं। ताकि वहां सुरक्षा के इंतजाम किए जा सकें। जिन कारणों से एक बार हादसा हुआ है, उन्हीं कारणों से दूसरा हादसा नहीं होना चाहिए। किन्तु हकीकत इससे अलग है। हमारी सरकारें हादसों से सीखने की जगह हादसों को भुलाने की कोशिश करती हैं। ठोस कार्रवाई की जगह लीपा-पोती का काम किया जाता है। यह लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। देवघर के हादसे से अगर झारखंड सहित केन्द्रीय और अन्य राज्यों की सरकारें वास्तव में चिंतित हुई हों तो उन्हें हादसों के कारणों को खत्म करने की दिशा में साझा प्रयास करने चाहिए। ठोस उपाय ही ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति को रोक सकते हैं।
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