रा जनीतिक दलों के बीच नए तरह की होड़ शुरू हो गईं हैं। एक, संसद नहीं चलने देना। कैसे भी करके संसद का कामकाज ठप कर देना। दूसरी, प्रत्येक मामले में मंत्री-मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे की मांग करना। संसद के मानसून सत्र का पहला दिन भी इसी होड़ से उपजे हंगामे की भेंट चढ़ गया। मनी लॉन्ड्रिग के आरोप का सामना कर रहे आईपीएल के पूर्व अध्यक्ष ललित मोदी की मदद के मामले में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर विपक्ष ने सियासी संग्राम छेड़ दिया। मध्यप्रदेश के व्यापमं मामले में भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का इस्तीफा मांगते हुए विपक्ष ने हंगामा खड़ा कर दिया। विपक्षी पार्टियों के रवैये के कारण पहले तो सदन की कार्यवाही को चार बार स्थगित किया गया। बाद में, कार्यवाही को पूरे दिन के लिए स्थगित करना पड़ा। आसार हैं कि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस आगे भी सदन की कार्यवाही नहीं चलने देगी। सरकार को घेरना और सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करना, लोकतंत्र में विपक्ष की जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी। लेकिन, बीते कुछ समय से देखने में आ रहा है कि सदन को ठप कर देना और प्रत्येक मामले में इस्तीफे की मांग करना विपक्ष की आदत बनता जा रहा है। सभी राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना चाहिए, क्या यह रवैया सही है। जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए बेवजह हंगामा खड़ा करना हमारा मकसद नहीं होना चाहिए। अब जनता को गुमराह करने की जरूरत नहीं है, ये 'जनता' है, सब जानती है। मुद्दों पर असहमति है, आपत्ति है तो पहले सदन में उन पर खुलकर चर्चा तो हो। सरकार को बहस में, तर्कों के आधार पर मजबूर किया जाए, अपने फैसले लेने और सुधारने के लिए। विमर्श के बाद मुद्दा सुलझे नहीं तब तो दूसरे तरीके अपनाने का तुक बनता है। वरना, तो यही समझा जाएगा कि सदन को नहीं चलने देने की एक नई परिपाटी ने जन्म ले लिया है।
सदन नहीं चलने से जनता के धन की कितनी बर्बादी होती है, यह राजपुरुषों को बताने की आवश्यकता नहीं है। केन्द्र सरकार की तरफ से बार-बार यह कहा गया कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से जुड़े मामले में वह किसी भी रूप में और किसी भी समय चर्चा के लिए तैयार है। लेकिन, विपक्ष इस्तीफे की जिद पर अड़ा रहा। कांग्रेस का साथ दे रही कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सीताराम येचुरी ने कहा कि चर्चा किसी जांच का विकल्प नहीं हो सकती, हम जांच चाहते हैं। उन्होंने आरोपों की उच्च स्तरीय जांच कराए जाने की मांग करते हुए कहा कि जांच पूरी होने तक विदेश मंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। बहरहाल, सीताराम येचुरी को कौन बताए कि अब राजनीति का वह दौर नहीं रहा कि आरोप लगने मात्र पर ही मंत्री इस्तीफा दे दिया करते थे। वैसे, भाजपा के ही शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने शुचिता को जो पैमाना तय किया है, उस तक तो किसी भी दल का कोई भी नेता नहीं पहुंच सका है। राजनीति में फिर से वह दौर आ भी सकता है जब एक आरोप पर नेता इस्तीफा दे दिया करते थे, लेकिन उसके लिए विपक्ष को ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार बनना होगा। सोते-उठते इस्तीफा मांगने की आदत से बाज आना होगा। सदन में विमर्श से सिद्ध करना होगा कि मंत्रीजी को इस्तीफा देना क्यों जरूरी है? राज्यों के मसले को संसद में लाना भी अब तक की परम्परा नहीं रही है। संसद में राजस्थान और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग करके कांग्रेस क्या साबित करना चाह रही है? क्या राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी मजबूत और संगठित नहीं है? क्या वहां की विधानसभा में राज्य सरकार को घेरने की ताकत कांग्रेस में नहीं है? और फिर मध्यप्रदेश के व्यापमं की जांच तो अब सीबीआई ने शुरू कर दी है। जांच के नतीजों का इंतजार तो करना ही चाहिए। क्योंकि, कांग्रेस ने ही जोर-शोर से सीबीआई जांच की मांग उठाई थी। सोमवार को मध्यप्रदेश विधानसभा में श्रद्धांजलि देने के लिए अचानक व्यापमं से जुड़े मृतकों के नाम के कारण कांग्रेस की नीयत पर भी सवाल उठ रहे हैं।
बहरहाल, दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि अगर राज्य के विषयों पर संसद में चर्चा की अनुमति दी गई तो राबर्ट वाड्रा के भूमि सौदों और सीबीआई जांच का सामना कर रहे हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के मामलों की भी चर्चा हो सकती है। राबर्ट वाड्रा पर चर्चा के लिए क्या कांग्रेस तैयार है? संसद में सुषमा स्वराज का जवाब भी कांग्रेस शायद इसलिए नहीं सुनना चाह रही क्योंकि ललित मोदी से राबर्ट और प्रियंका वाड्रा के संबंध का भी जिक्र हो सकता है। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। कमजोर और बिखरे विपक्ष ने भाजपानीत केन्द्र सरकार के खिलाफ जिस तरह से खुद को एकजुट और ताकत के साथ खड़ा किया है, वह काबिले तारीफ है। लेकिन, उसे इस ताकत और एकजुटता का सद्पयोग करना चाहिए।
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